तीन तलाक के बाद समान नागरिक संहिता के खिलाफ मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड

लॉ कमीशन के सामने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के तर्क कितने तर्कसंगत हैं?

Article image
  • Share this article on whatsapp

भाजपा सरकार के कार्यकाल का आखिरी वर्ष चल रहा है. भाजपा के चुनावी घोषणापत्र में एक वादा देश में समान नागरिक सहिंता लागू करने का भी था. लेकिन सरकार के आखिरी साल में पहुंच जाने के बाद भी इस दिशा में कुछ खास पेशोरफ्त नहीं हो पाया है. ये वादा भी चुनावी जुमला साबित हो रहा है.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

सरकार की तरफ से सिर्फ बयानबाज़ी हो रही है. लेकिन इस मसले पर लॉ कमीशन ने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के लोगों के साथ बैठक की है. मंगलवार को कमीशन के साथ बोर्ड की दूसरी बैठक थी. इसमें बोर्ड ने कॉमन सिविल कोड का विरोध किया है. बोर्ड का तर्क है कि हिंदुस्तान में धार्मिक आजादी है. ये संभव नहीं है कि किसी के ऊपर ये थोप दिया जाए. हर धर्म के लोग अपने हिसाब से पर्सनल लॉ को फॉलो करते हैं.

बोर्ड ने ये दलील लॉ कमीशन के सामने रखी कि हिंदू व्यक्ति अपनी पूरी जायदाद किसी को वसीयत कर सकता है लेकिन मुस्लिम व्यक्ति सिर्फ एक तिहाई ही कर सकता है. हालांकि बोर्ड के दावे के मुताबिक लॉ कमीशन के चेयरमैन इस बात पर सहमत हैं कि अगले दस साल तक यूनीफार्म सिविल कोड लागू करना मुमकिन नहीं है. बोर्ड के सदस्यों ने कहा कि पांच करोड़ लोगों के हस्ताक्षर जुटाए जा चुके है. मुस्लिम समाज पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप नहीं चाहता है.

क्या बताया बोर्ड ने लॉ कमीशन को?

लॉ कमीशन से मिलने गए बोर्ड के डेलीगेशन के मुखिया थे जलालुद्दीन उमरी. उमरी जमात-ए-इस्लामी के सदर भी है. डेलीगेशन की तरफ से कहा गया है कि जो भी धार्मिक लोग भारत में रह रहे हैं, वो तरह-तरह के रस्म और रिवाज को मानते हैं. लेकिन मुसलमानों का पर्सनल लॉ कुरान और हदीस के मुताबिक चल रहा है. जो 1400 बरस से जारी है. मुसलमानों का मानना है कि इस्लामिक कानून के हिसाब से घरेलू मामले हल किए जा रहे हैं. इसलिए सरकार अपनी तरफ से ऐसी कोई सिफारिश ना दे जो घरेलू और धार्मिक मामले में दखल माना जाए.

बोर्ड की लॉ कमीशन के साथ ये दूसरी बैठक थी. इससे पहले मई 2018 में मुलाकात हो चुकी है. जिसमें बोर्ड ने कुछ सवाल पूछे थे. जिसका जवाब बोर्ड ने दिया है.

निकाह हालाला का विरोध- बहुविवाह की वकालत

बोर्ड के मेंबर कमाल फारूकी ने कहा कि निकाह हलाला इस्लाम के हिसाब से नहीं है. इसलिए इसकी वकालत कोई नहीं कर रहा है. अगर कोई इस तरह का काम कर रहा है तो कानून के हिसाब से सज़ा देनी चाहिए. क्योंकि कुरान में कहीं भी निकाह हलाला का जिक्र नहीं है. हालांकि बहुविवाह का समर्थन किया गया है. बहुविवाह को लेकर सुप्रीम कोर्ट मे याचिका दाखिल है. जिसको लेकर सुनवाई चल रही है. लॉ कमीशन का प्रस्ताव था कि बहुविवाह की प्रथा समाप्त की जाए लेकिन पर्सनल लॉ बोर्ड ने इसमें किसी तरह की तब्दीली से इनकार किया है. बोर्ड ने इसके पक्ष में कई दलीलें दी हैं. बोर्ड का कहना है कि चार शादियों की इज़ाजत इस्लाम में दी गयी है. इसमें कोई फेरबदल नहीं हो सकता है. हालांकि इसके लिए कुछ शर्ते हैं. इन शर्तों के मुताबिक अगर कोई व्यक्ति सभी पत्नियों को समान अधिकार दे सकता है, तभी उसे चार शादियों की इजाज़त है.

लेकिन बोर्ड का दावा है कि मुस्लिमों के खिलाफ ये साजिश के तहत फैलाया जा रहा है. जबकि इस तरह की घटनाएं बहुत ज्यादा नहीं है. इस मसले को राजनीतिक मुद्दा बना दिया गया है. वहीं दूसरे धर्मों में जहां बहुविवाह की प्रथा नहीं है. वहां हालात बदतर है.

सिविल कानून में रिफॉर्म के लिए दी राय

बोर्ड ने लॉ कमीशन से कहा है कि सिविल लॉ में जो भी रिफार्म किया जाए, उसमें धार्मिक प्रावधानों को नज़रअंदाज़ ना किया जाए, ना ही सरकार से कोई ऐसी सिफारिश की जाए जिससे उसे निजी मसलों पर दखलअंदाज़ी का मौका मिले. कई मसलों पर बोर्ड ने अपनी सिफारिश कमीशन को दी है.

मां है बच्चों की गार्जियन

शरियत के हिसाब से मां ही बच्चों की कस्टोडियन है. जिसके लिए पंद्रह साल की उम्र निर्धारित की गयी है. इसके बाद बच्चों की मर्जी है. लड़की के मसले पर लड़की तब तक मां के साथ रह सकती है. जब तक वो बालिग ना हो जाए. लेकिन लड़के मां के साथ रह सकते है जब तक वो खुद अपनी देखभाल करने लायक न हो जायं. इन दोनों मसलों पर मां से और पिता से बच्चों का मिलना जुलना नहीं रोका जा सकता है. वहीं बच्चों का भरण पोषण पिता की ज़िम्मेदारी मानी गयी है.

इसी तरह गोद लेने की परंपरा को गैर इस्लामिक माना गया है. पति के देहांत हो जाने पर भरण पोषण की ज़िम्मेदारी को लेकर थोड़ा मामला पेचीदा है. इसमें अगर महिला के पास कोई आमदनी का ज़रिया है तो वो किसी भी सहायता के लिए बाध्य नहीं है. लेकिन अगर ऐसा नहीं है तो बालिग बच्चों पर इसकी ज़िम्मेदारी है. अगर बच्चे नाबालिंग है तो बच्चों के दादा को भरण पोषण देना होगा.

विरासत की हिस्सेदारी

विधवा बहू को ससुर की जायदाद में हिस्सा नहीं मिल सकता है. जबकि पति की जायदाद में हिस्सा मिल सकता है. इस तरह मां-बाप और दादा की जायदाद में हिस्सा मिलने की हकदार है. लेकिन महिला का ससुर उसको एक तिहाई जायदाद दे सकता है. जो ससुर के मरने के बाद मिलेगा. हालांकि लड़की के संबध में अलग से नियम बताया गया है. लड़की को पिता की जायदाद में लड़के का आधा हिस्सा बताया गया है. वहीं अगर बच्चे के पिता की मौत हो जाती है और उसके चाचा भी हैं तो जायदाद में कोई हिस्सा नहीं मिलेगा. वहीं आदमी के जिंदा रहने तक जायदाद उसकी मानी जाएगी.

हो सकता है विवाद

जाहिर है कि इन सब बातों पर विवाद भी है. क्योंकि बहुत सारे लोगों को इसमें परेशानी हो सकती है. पर्सनल लॉ बोर्ड को इसमें मानवीय पहलू भी देखना चाहिए, कि अगर किसी के पिता की मौत हो जाए तो उसका भरण पोषण कैसे होगा जब उसका जायदाद में हक नहीं हो. ऐसा लग रहा है कि ट्रिपल तलाक के मसले पर कोर्ड में हुई हार के बाद भी बोर्ड ने कोई सबक नहीं लिया है.

इसकी वजह से सुप्रीम कोर्ट में उसे हार का सामना करना पड़ा है. बहुविवाह की प्रथा का समर्थन करना शायद कोर्ट को रास ना आए, क्योंकि इसमें बिना कारण एक से अधिक विवाह को समाज में जायज़ ठहराना मुश्किल हो सकता है. बोर्ड को इसे स्पेशल केस में ही मंजूरी देने की बात कहना चाहिए. क्योंकि ये मामला ऊपरी तौर पर ही महिला विरोधी लगता है. कोई भी महिला पति को दूसरी शादी करने की इज़ाजत नहीं दे सकती है. फिर बहुविवाह का मामला कोर्ट में भी चल रहा है.

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like