क्या उत्तराखंड में आपदा प्रबंधन कानूनों का इस्तेमाल अनियंत्रित रेत खनन के लिए हो रहा है?

राज्य की रिवर ट्रेनिंग नीति को इस तरह ढाला गया लगता है, जिससे पर्यावरण संबंधी मंजूरी और वैज्ञानिक आंकलन को किनारे कर निजी ठेकेदार रेत और पत्थरों का खनन बेरोकटोक कर सकें.

WrittenBy:मुक्ता जोशी
Date:
Article image
  • Share this article on whatsapp

प्राकृतिक सुरक्षाओं की नजरअंदाज़गी

पर्यावरण सुरक्षा कानून 1986 के अंदर नदियों से रेत, चट्टानें, और मलबे को हटाने के लिए पर्यावरण से जुड़ी हुई मंजूरियां चाहिए. 2012 में उच्चतम न्यायालय ने नदियों के खनन के सभी ठेकों को पर्यावरण रूपी मंजूरी लेने का आदेश दिया था चाहे आप कहीं भी रहते हों. यह प्रक्रिया 2016 में एनवायरमेंट इंपैक्ट एसेसमेंट नोटिफिकेशन में एक संशोधन की तरह शामिल कर ली गई. अगर खनन किए जाने वाला नदी का हिस्सा जंगलों से होकर जाता है तो ठेकेदार को वन संरक्षण कानून 1980 या एफसीए के हिसाब से वन विभाग से अतिरिक्त मंजूरी लेनी पड़ेगी.

लेकिन दस्तावेज बताते हैं कि उत्तराखंड सरकार ने रेलवे ट्रेनिंग करारों के लिए, न पर्यावरण और न ही वन विभाग मंज़ूरियों की इच्छा की है.

जब उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का हिस्सा था तभी से बेनाप ज़मीनें, अर्थात अभी तक मनाती हुई ना चयनित की गई वह जमीन और उसके अलावा बाकी उजड़े हुए इलाके सभी भारतीय वन्य कानून 1927 के अंदर संरक्षित वनों में आते हैं. इन जमीनों का वर्गीकरण 1893 के नोटिफिकेशन के बाद हुआ जिसे 1997 के एक आदेश में भी दोहराया गया. 1997 का आदेश स्पष्ट करता है कि सभी वैध वनों के ऊपर एफसीए लागू होता है.

नदी के तट अक्सर बेनाप ज़मीनें होती हैं और इसीलिए उन्हें संरक्षित वनों की तरह गिना जाता है. एफसीए के अंतर्गत राज्य सरकारों के ऊपर ऐसे किसी भी आदेश को पारित करने की रोक लगी हुई है जो केंद्र सरकार की मंजूरी के बिना वन्य भूमि को गैर वन्य इस्तेमाल के लिए मंजूरी दे. कोई भी गतिविधि जैसे संरक्षित वन भूमि पर खनन को भी एफसीए के अंतर्गत वन्य क्षेत्र से जुड़ी मंजूरियां लेनी पड़ेंगी.

2019 में एमओईएफ स्पष्ट किया कि नदी तट से पत्थर और रेट का हटाया जाना गैर वन्य गतिविधि है और राज्य सरकार के द्वारा पारित किये गए खेतों को वन विभाग से मंजूरी लेनी होगी. लेकिन वनों से जुड़ी मंजूरी देने वाले विभाग के सार्वजनिक दस्तावेज दिखाते हैं कि उत्तराखंड ने नदियों के खनन की मंजूरी के लिए तभी आवेदन किया, जब नदी में खनन का कुछ इलाका "संरक्षित वन" की श्रेणी के इलाके से जाता था.

इतना ही नहीं उत्तराखंड के खनन करार, जनवरी 2020 में पर्यावरण मंत्रालय के द्वारा जारी किए गए एनफोर्समेंट एंड मॉनिटरिंग गाइडलाइंस फॉर सैंड माइनिंग में दिए गए मानकों को भी नजरअंदाज करते हैं और यह राज्य के द्वारा रिवर ट्रेनिंग नीति पर पुनर्विचार के चार दिन पहले था. दिशानिर्देश कहते हैं कि रेत खनन के लिए पर्यावरण मंजूरी उन्हें ही मिले जिन्हें राज्यों के द्वारा निर्धारित की गई उचित विशेषज्ञता वाले विभाग से खनन की योजना पर मंजूरी मिल गई हो, तथा काम चालू होने के बाद खनन योजना में कोई भी परिवर्तन को फिर से उचित विभाग से मंजूरी लेनी होगी. लेकिन क्योंकि रिवर ट्रेनिंग के कामों को खनन के करार की तरह नहीं देखा जा रहा, उन्हें इन मानकों पर खरा उतरने की आवश्यकता नहीं है.

रिवर ट्रेनिंग नीति के अंतर्गत हुए खनन को जनता का आक्रोश झेलना पड़ा है. लोग इस बेरोकटोक खनन को देखते हुए यह बात कहने के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं कि इसकी वजह से नदी किनारे उनकी जमीनें कटान के खतरे में आ गई हैं. पूरे राज्य से रिवर माइनिंग टेंडरों को लेकर भ्रष्टाचार की खबरें आती रही हैं. एक याचिका कमोबेश इन शब्दों में कहती है कि राज्य भारी मशीनों से अवैध खनन को इजाजत नदी तट को चैनेलाइज करने की आड़ में रिवर्ट ट्रेनिंग नीति के चारों कोनों के अंदर ही हो रहा है.

मार्च 2020 में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने सरयू नदी में मशीनी खनन पर रोक लगा दी जब एक याचिकाकर्ता ने यह तर्क पेश किया कि भारी मशीनों का इस्तेमाल पर्यावरण को नुकसान पहुंचाएगा.‌ इस प्रकार की चिंताओं की परवाह न करते हुए, राज्य सरकार ने रिवर ट्रेनिंग में खनन के करार को जारी करना चालू रखा है, जिसमें महामारी को रोकने के लिए लगाए गए राष्ट्रीय लॉकडाउन का समय शामिल है.

Also see
article imageकेदारनाथ आपदा के 8 साल: इसी तरह नज़रअंदाज़ किया गया तो नई आपदाओं का ही रास्ता खुलेगा
article imageअलीगढ़ शराब कांड: “मेरे लिए अब हमेशा रात है”
subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like