भारत के वंचितों की सेवा में अपनी जिंदगी के दशकों खर्च कर देने वाले 84 साल के जेसुइट पादरी फादर स्टैन स्वामी को कष्टदायक हिरासत में रखकर लोकतंत्र के इस सब्जबाग में आहिस्ता-आहिस्ता कत्ल कर दिया गया. इसके लिए हमारी न्यायपालिका, पुलिस, खुफिया सेवाएं और जेल प्रणाली जिम्मेदार है. और मुख्यधारा का मीडिया भी. वे सभी इस केस के बारे में और उनकी गिरती सेहत के बारे में जानते थे. इसके बावजूद उन्हें धीरे-धीरे मरने दिया गया.
यह विनम्र, दुर्बल लेकिन अद्भुत शख्स जिस केस में सह-अभियुक्त (16 में एक) रहते हुए मरा, सरकार उसे भीमा कोरेगांव षडयंत्र कहती है. वॉशिंटन पोस्ट में प्रकाशित हार्ड डिस्कों की फोरेंसिक विश्लेषण रिपोर्ट में उजागर हुआ था कि जिस नायाब सबूत के आधार पर एजेंसियों ने षडयंत्र की कथा बुनी थी वह एक और सह-अभियुक्त रोना विल्सन के कंप्यूटर में मालवेयर के माध्यम से डाला गया था. उस रिपोर्ट को मुख्यधारा के भारतीय मीडिया के साथ-साथ अदालतों में भी दबा दिया गया.
फादर स्टेन के निधन के एक दिन बाद वाशिंगटन पोस्ट ने रिपोर्ट की है कि दूसरे सह- अभियुक्त सुरेन्द्र गाडलिंग के कंप्यूटर में भी सबूत धोखे से डाले गये थे, लेकिन उससे क्या. हमारे यहां तो गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम नाम का एक ऐसा कानून है जो आरोपितों को भारत के सबसे अच्छे वकीलों, बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्टों को कैद करने की छूट लगभग अनिश्चितकाल के लिए देता है. जब तक कि वे बीमार होकर मर न जाएं या बरसों की कैद उनकी जिंदगी तबाह न कर डाले.
यूएपीए का बेजा इस्तेमाल नहीं हो रहा, उसे दरअसल इसीलिए बनाया ही गया था.
जिन तमाम चीजों के भरोसे हम खुद को एक लोकतंत्र कहते हैं, वह सब कुछ खत्म किया जा रहा है. बेशक उतना धीरे-धीरे नहीं, जैसे फादर स्टैन स्वामी मारे गये. उनकी हत्या इस लोकतंत्र की हत्या का एक महीन रूपक है. हम पर नरपिशाचों का राज है. इस धरती पर उनका अभिशाप फल रहा है.
अनुवाद: जितेंद्र कुमार