जेरूसलम पर इज़रायल के कब्जे को ट्रंप की मान्यता महज़ एक ख़बर है या फिर से इतिहास की प्रमुख घटनाओं को निकाल कर टेलीविज़न-अखबारी बहस का विषय.
जूडिया की पहाड़ियों में बसा जेरूसलम जितना असली एक कस्बाई शहर है, उससे कहीं अधिक एक मिथकीय मौजूदगी है. इसके बारे में कहा जाता है कि यह न सिर्फ दुनिया का केंद्र है, बल्कि यह एक ही साथ धरती पर भी है और स्वर्ग में भी. अब्राहमिक धर्मों- यहूदी, ईसाइयत और इस्लाम के लिए यह पवित्रतम स्थल मध्ययुगीन धर्मयुद्धों का अखाड़ा रहा और बीते एक सौ साल से इज़रायल और फिलीस्तीनी आकांक्षाओं की भिड़ंत का केंद्र बना हुआ है.
बुधवार को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप द्वारा इसे इज़रायल की राजधानी घोषित करने और दूतावास को वहां ले जाने की घोषणा के बाद यह शहर एक बार फिर से दुनिया के केंद्र में आ गया है. भाग्य की बिसात पर प्राचीन आस्थाएं और मान्यताएं तथा आधुनिक राजनीति और रणनीति साथ-साथ गलबहियां करते हुए पासे फेंक रहे हैं और गोटियां चल रहे हैं.
ट्रंप के फैसले को लेकर यूरोप से लेकर अरब तक शासनाध्यक्षों, संगठनों और समूहों की प्रतिक्रिया काफी तीखी रही है. इज़रायल को छोड़ कर अमेरिका के किसी भी अन्य सहयोगी ने इसे सही नहीं ठहराया है. सबका यही मानना है कि इजरायल और फिलीस्तीन के बीच शांति-प्रक्रिया को इससे करारा झटका लगा है और अब शायद सुलह की हर उम्मीद इस फैसले के साथ ही खत्म हो गयी है.
इन बयानों की चिंताएं सही हैं और ट्रंप ने निश्चित ही एक खतरनाक पहल की है, लेकिन यह भी सोचा जाना चाहिए कि क्या इन बयानों से ऐसी उम्मीद भी बंधती है कि तुर्की समेत यूरोप, सऊदी अरब, ईरान और मिस्र समेत मध्य एशिया तथा संयुक्त राष्ट्र और पोप इज़रायल और फिलीस्तीन के मसले को सुलझाने के लिए कोई नई और ठोस पहल करेंगे या करना चाहते हैं. मौजूदा प्रकरण को इस सवाल की रोशनी में ही देखा जाना चाहिए. ऐसा करने से वैश्विक राजनीति, कूटनीति और आर्थिकी का वह त्रासद अध्याय भी हमारे सामने खुलता है जिसे फिलीस्तीनी रोज़ाना भुगतते हैं.
अरबी और इजरायली मीडिया में फिलीस्तीनियों की प्रतिक्रिया से हम भविष्य का कुछ अनुमान लगा सकते हैं. एक आम प्रतिक्रिया यह है कि ट्रंप की घोषणा से जेरूसलम के हालात में कोई खास बदलाव नहीं आयेगा. साल 1967 के युद्ध के बाद से ही पूरे शहर पर इज़रायल का कब्जा है. बस इतना ही होगा कि इजरायली सुरक्षाबलों और आबादी की हेकड़ी कुछ और बढ़ जायेगी. वेस्ट बैंक में प्रशासन चला रहे फिलीस्तीनी अथॉरिटी और गाजा में वर्चस्व रखनेवाले हमास में अब उतना दम नहीं बचा है कि किसी तीसरे इंतेफादा की उम्मीद की जाये.
अमेरिका के राष्ट्रपति अपनी पहली विदेश यात्रा पर सऊदी अरब गये थे जहां अभी एक शहजादा पूरी शिद्दत और ताकत के साथ अपनी बादशाहत की तैयारी में जुटा है. अरब के सबसे बड़े देश मिस्र से अमेरिका की गाढ़ी दोस्ती है. ऐसे में यह मानने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता है कि बिना इन दो देशों की सहमति के ट्रंप ने ऐसी घोषणा कर दी हो. यमन, सीरिया और ईरान को लेकर भी सऊदी अरब, इजरायल और अमेरिका के बीच में बीते समय में एक साझेदारी पैदा हुई है.
जॉर्डन के भी अमेरिका से बेहद करीबी रिश्ते हैं. उसकी चिंता का बड़ा कारण यह है कि वहां बड़ी संख्या में फिलीस्तीनी रहते हैं और अगर उस इलाके में बड़ी अस्थिरता का आलम पैदा होगा, तो इसकी आंच से जॉर्डन नहीं बच सकेगा. तुर्की और ईरान उस क्षेत्र में अपने दबदबे को बढ़ाने के लिए इस मौके का लाभ उठाना चाहते हैं. अन्य खाड़ी देश उस इलाके और अंतरराष्ट्रीय हलचलों के मुताबिक ही चलते रहते हैं और आगे भी चलेंगे. मध्य एशिया में कोई भी ऐसा देश नहीं है जो अपने आंतरिक और क्षेत्रीय उथल-पुथल की जद में न हो. ऐसी स्थिति में किसी के भी सीधे फिलीस्तीनी अधिकारों के खड़ा हो पाना मुमकिन नहीं है.
शरणार्थी समस्या और आर्थिक उतार-चढ़ाव से जूझ रहे यूरोप- खासकर ब्रिटेन, जर्मनी और फ्रांस- से भी कोई उम्मीद रखना बेमानी है. किसी जमाने में गुटनिरपेक्ष आंदोलन, सोशलिस्ट ब्लॉक, अफ्रीका के आंदोलन थे जो संतुलन बनाने या दबाव डालने में कामयाब हो जाते थे.
इस साल फरवरी में इजरायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू के अमेरिका दौरे के समय ही ट्रंप ने साफ इशारा कर दिया था कि उन्हें अलग फिलिस्तीनी राज्य से परहेज है, उन्हें वेस्ट बैंक में जबरन बनायी जा रही कॉलोनियों से कोई परेशानी नहीं है तथा वे अमेरिकी दूतावास को तेल अबीव से जेरूसलम ले जाने की कोशिश में हैं. उस वक्त नेतन्याहू ने कहा था कि अगर दो अलग राज्य बनते हैं, तो पूरे इलाके की सुरक्षा का जिम्मा इजरायल का होगा.
ओबामा प्रशासन के विरोधी तेवर के बावजूद इजरायल ने फिलीस्तीनी इलाकों में बस्तियां बसाने का काम बदस्तूर जारी रखा था, जबकि उस समय कई दशक बाद इस रवैये के खिलाफ सुरक्षा परिषद में निंदा प्रस्ताव भी पारित हुआ था. एक आकलन के मुताबिक, कब्जे वाले वेस्ट बैंक और पूर्वी जेरुसलम में करीब 5.70 लाख इजरायली रहते हैं. दूसरी तरफ अकेले जेरूसलम में ही इजरायली रहमो-करम पर तीन लाख से ज्यादा तादाद में ऐसे फिलीस्तीनी हैं, जिन्हें शहर की सामान्य नागरिकता भी हासिल नहीं है.
ओबामा के कार्यकाल के दौरान इजरायली बाशिंदों की संख्या 25 फीसदी से अधिक बढ़ी थी. पिछले साल राष्ट्रपति चुनाव के दौरान हिलेरी क्लिंटन और डोनाल्ड ट्रंप इजरायली लॉबी को खुश करने की पूरी कोशिश कर रहे थे.
सौ साल पहले दो नवंबर, 1917 को ब्रिटिश विदेश सचिव आर्थर बेलफोर ने फिलीस्तीन में यहूदियों के लिए ‘नेशनल होम’ बनाने की बात को स्वीकारा था. इस फैसले में फिलीस्तीनियों की कोई भूमिका नहीं थी. सत्तर साल पहले 29 नवंबर, 1947 को संयुक्त राष्ट्र ने फिलीस्तीन को दो भागों में बांट दिया. इसमें भी फिलीस्तीनियों या अरबों की कोई सहमति नहीं थी तथा एक छोटी आबादी को ज्यादा जमीन आवंटित कर दी गयी.
अगले साल 14 मई को डेविड बेन-गुरिओं ने इज़रायल की स्थापना की एकतरफा घोषणा कर दी. इसके बाद हुए अरब इज़रायल युद्ध में जेरूसलम का पश्चिमी हिस्सा इज़रायल ने कब्जा कर लिया और 1967 के युद्ध में पूर्वी जेरूसलम को भी दखल कर लिया गया.
इजरायल ने अंतरराष्ट्रीय कानूनों और दबावों की कभी परवाह नहीं की है तथा उसे पश्चिमी यूरोप और अमेरिका का भरपूर साथ मिलता रहा है. दूसरी तरफ अरब के तानाशाह, सुल्तान और भ्रष्ट नेता भी आपसी झगड़ों और अपने स्वार्थों के चलते पश्चिमी देशों के साथ होते गये.
धीरे-धीरे फिलीस्तीन का पूरा मुद्दा हाशिये पर चला गया. आज जब ट्रंप ने जेरूसलम पर इज़रायल के कब्जे को मान्यता दे दी है, तो यह अरब से लेकर अमेरिका तक महज़ एक खबर है या फिर से इतिहास की प्रमुख घटनाओं को निकाल कर टेलीविज़न-अखबारी बहस का विषय.
जहां तक किसी समाधान की बात है या फिलीस्तीनियों को न्याय दिलाने की बात है, तो यह तब तक संभव नहीं हो सकता है, जब तक कि अरब के देश एक होकर फिलीस्तीन के पक्ष में नहीं खड़े होते. और, फिलहाल ऐसा होना असंभव है. अब तो कोई महमूद दरवेश भी नहीं दिखायी देता है जो आततायियों से सीधे कह सके-
‘सावधान
सावधान
मेरी भूख से
और मेरे गुस्से से!’