क्या हरियाणा-पंजाब के किसान आंदोलन से अलग हैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान?

हरियाणा और पंजाब के किसान इन कानूनों के खिलाफ अगर दिल्ली मार्च नहीं करते तो शायद भारतीय किसान यूनियन भी विरोध में नहीं उतरती.

WrittenBy:अवधेश कुमार
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नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का जमावड़ा अब दिल्ली की सीमाओं पर हो चुका है. आंदोलन स्थल पर किसानों, प्रदर्शनकारियों की संख्या बढ़ती जा रही है. जहां पहले इस आंदोलन को सिर्फ हरियाणा और पंजाब के किसानों का आंदोलन बता कर खारिज करने की कोशिशें की जा रही थीं वहीं अब कृषि कानूनों के खिलाफ देश भर के किसान एकजुट दिख रहे हैं.

इस आंदोलन के समर्थन में अब उत्तर प्रदेश सहित राजस्थान और मध्यप्रदेश के किसान भी सड़कों पर उतर आए हैं. इस रिपोर्ट में हम आपको किसान आंदोलनों का गढ़ रहे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक तस्वीर दिखाएंगे. यहां के किसानों ने अतीत में भले ही ऐतिहासिक आंदोलन किए हों, लेकिन हरियाणा-पंजाब के किसानों द्वारा पिछले करीब तीन महीनों से चल रहे आंदोलन का, ये कुछ दिन पहले तक हिस्सा भी नहीं थे. हालांकि अब भारतीय किसान यूनियन के नेता पूरी तरह पक चुके इस आंदोलन में दिखने लगे हैं. बता दें कि अपनी एक आवाज पर लाखों किसानों को इकट्ठा कर देने वाले पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह और किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत सरीखे नेता इसी क्षेत्र से आते थे.

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भले ही अब आंदोलन की जड़ों को मजबूत करने के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान नेता और संगठन हरियाणा-पंजाब के किसानों के समर्थन में उतर आए हों लेकिन कुछ दिन पहले तक हकीकत कुछ और थी. इस क्षेत्र के नेताओं से बात करने के बाद तो यही पता चलता है कि अगर हरियाणा और पंजाब के किसान इन कानूनों के खिलाफ दिल्ली मार्च नहीं करते तो शायद पश्चिमी उत्तर प्रदेश की किसान यूनियन भी जमीन पर नहीं उतरती.

किसान यूनियन के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष चौधरी दिवाकर सिंह ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, "पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस समय सबसे ज्यादा खेती का काम चल रहा है. वहां पर गन्ना कटाई और गेहूं बुवाई का काम जोरों पर है. यह दोनों ही काम 15 दिसंबर तक होने हैं. यह काम निपटने के बाद किसान फ्री हो जाएंगे. ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि किसान बंट रहा है. इस समय प्रत्येक अन्नदाता एक प्लेटफॉर्म पर आ चुका है."

किसान आंदोलन पिछले करीब तीन महीनों से चल रहा है लेकिन किसान यूनियन के नेता इसमें क्यों शामिल नहीं थे? इस सवाल के जवाब में सिंह कहते हैं, "280 संगठनों की एक समिति है जिसका नाम है 'अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति'. इसमें पहले सभी लोग एक साथ संघर्ष कर रहे थे. लेकिन इसके लोगों ने यह सोच लिया कि इनता बड़ा संगठन है तो कोई न कोई आंदोलन में चला ही जाएगा. नेता इसी गफलत में रहे कि फलां चला जाएगा, या फलां चला गया होगा. लेकिन जमीन पर लोग नहीं जुटे. इसलिए कुछ अन्य मतभेदों के चलते भी इस समिति के मात्र 100 या 200 ही लोग बुराड़ी में बैठे हैं. यह समिति अब एक मजाक बनकर रह गई है."

वह सरकार पर आरोप लगाते हुए कहते हैं, "सरकार किसान संगठनों के नेताओं को एक-एक करके मैनेज करने की कोशिश कर रही है. एक दिसंबर वाली मीटिंग में सरकार ने किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत को नहीं बुलाया था बल्कि उन्हें बाद में मैनेज करने की कोशिश की गई. सरकार ऐसा करके किसान नेताओं को अलग-थलग करके अपने साथ मिलाना चाहती है. ताकि वह आंदोलन को फ्लॉप कर सके. सरकार चाहती है कि ऐसा करके वह घोषणा कर दे कि देखिए किसान नेता मान गए हैं और आंदोलन खत्म हो जाए. लेकिन इस बार किसान इनके बहकावे में नहीं आएगा और हम अपना हक लेकर रहेंगे. उन्होंने कहा कि कोरोना काल में जब देश बर्बाद हो रहा था. ऐसे समय में सरकार कृषि कानूनों का अध्यादेश लेकर आई है. हम इसके सख्त खिलाफ हैं."

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किसान दिल्ली में चल रहे आंदोलन से अंजान

जानकर हैरानी होगी कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ज्यादातर किसानों को यह भी नहीं पता है कि दिल्ली में किसानों का कोई आंदोलन चल रहा है. इसी बारे में जब हमने किसान नेता दिवाकर से सवाल किया तो उन्होंने कहा, "हां यह सच्चाई है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों को पता ही नहीं है कि कोई इतना बड़ा आंदोलन चल रहा है, इसकी वजह यह है कि किसान असंगठित है. अगर किसान संगठित होता तो सरकार अपनी मनमानी नहीं करती.”

वहीं किसान यूनियन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष इस मुद्दे पर कहते हैं, "यह आंदोलन की घोषणा ही हरियाणा और पंजाब के किसानों की है. हमने तो उन्हें सिर्फ बैक सपोर्ट दिया है. जब किसानों के साथ दिल्ली में बर्बरता की गई तब हमें लगा कि अरे यह तो किसानों के साथ अत्याचार हो रहा है तब हम भी उनके समर्थन में आ गए."

तो क्या नए कृषि कानून का मुद्दा सिर्फ हरियाणा पंजाब के किसानों के लिए हैं आपके लिए यह कोई मुद्दा नहीं है? इस पर वह कहते हैं, "ऐसा नहीं है हम सिर्फ कोरोना के खत्म होने का इंतजार कर रहे थे. लेकिन उससे पहले ही हरियाणा पंजाब के किसानों के साथ बर्बरता की गई जो हमसे नहीं देखा गया इसलिए हम भी उनके साथ खड़े हो गए. कोरोना काल में सरकार ने चालाकी से कृषि कानून पास कर दिए और किसानों से कोई चर्चा तक नहीं की. फसल हम लगा रहे है, बीज हम खरीद रहे हैं, मेहनत हम कर रहे हैं लेकिन वह किस भाव बिकेगी यह कोई और तय करेगा, यह हमारा दुर्भाग्य ही है."

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वह कहते हैं, "1965 में गेहूं का भाव 76 रुपए कुंतल था, आज 1835 रुपये हैं. तो यह कोई बढ़ना हुआ? जबकि प्राइमरी के मास्टर की सैलरी 320 रुपए बढ़ गई. अगर ऐसे ही यह बढ़े हुए पैसे हमें मिलने लगें तो फिर किसानों को लोन लेने की जरूरत नहीं होगी."

वह तीनों कृषि कानूनों पर कहते हैं, "इन कानूनों में बहुत ज्यादा खामियां हैं. अगर सरकार नहीं मानी तो जिस बटन से सरकार बनी है उसी बटन से सरकार गिर भी जाएगी. हमारी मांगें जायज हैं तो सरकार को मानना चाहिए, लेकिन भाजपा तानाशाही कर रही है. इसकी वजह यह भी है कि हमारा विपक्ष मजबूत नहीं है. जबकि भाजपा जब सत्ता में नहीं होती है तो वह विपक्ष की भूमिका अच्छे से निभा लेती है. यह सरकार तानाशाही के चलते हमें पीछे हटाने की कोशिश कर रही है लेकिन इस बार किसान पीछे हटने को तैयार नहीं है. यह हमारी जायज मांगें हैं और हम इन्हें लेकर रहेंगे."

इस बारे में न्यूज़लॉन्ड्री ने कुछ अन्य किसानों से भी बात की. अमरोहा जिले के मुसल्लेपुर गांव निवासी 40 वर्षीय चरण सिंह बताते हैं, "हमें नहीं पता है कि दिल्ली में कोई आंदोलन चल रहा है. पता करके होगा भी क्या किसानों की कहीं कोई सुनवाई नहीं है. आंदोलन में जाकर करेंगे भी क्या जब हमे वहां कोई पहचानेगा ही नहीं. चरण सिंह अपनी जमीन के साथ साथ कई अन्य किसानों की जमीनों को ठेके पर लेकर खेती करते हैं. वह कहते हैं लेकिन यहां किसी को कोई मतलब नहीं है. ना ही हमारा कोई किसान नेता है जिसके कहने पर हम आंदोलन में शामिल हों."

पख्खरपुर निवाली 65 वर्षीय प्रसादी कहते हैं, "हमें इस आंदोलन की कोई जानकरी नहीं है. मैं अंगूठा छाप हूं इसलिए भी मुझे कुछ पता नहीं चलता है." यानी वह इन कृषि कानूनों से बिल्कुल अंजान नजर आते हैं.

किसान यूनियन (भानू) के अमरोहा जिला अध्यक्ष चौधरी सतपाल सिंह कहते हैं, "जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों के तीन ग्रुप हैं ऐसे ही पंजाब और हरियाणा में भी किसानों के तीन ग्रुप हैं. यह सभी आपस में बंटे हुए हैं. यह सब एक साथ न होकर अलग-अलग तरीके से किसानों की लड़ाई लड़ रहे हैं.” हालांकि वह यह भी कहते हैं कि किसानों में किसी भी तरह का कोई मतभेद नहीं है. वह कहते हैं हरियाणा पंजाब में लोग ज्यादा जिम्मेदारी से भाग ले रहे हैं जबिक इधर के लोग उतने सक्रिय नहीं है. लेकिन अब धीरे-धीरे यहां के किसान भी आंदोलन में पहुंच रहे हैं.

मेरठ निवासी पत्रकार हरेंद्र मोरल कहते हैं, "पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ज्यादातर किसान गन्ने की खेती पर निर्भर हैं. साथ ही यहां किसानों के पास कम खेती है जबकि हरियाणा और पंजाब के किसान बड़े जमीदार हैं. वहां के किसान गेहूं और चावल की खेती ज्यादा करते हैं और इन तीनों बिलों का इन फसलों पर ज्यादा फर्क पड़ेगा. अगर यह बिल गन्ने से संबंधित होता तो पश्चिमी उत्तर प्रेदश के किसान और किसान संगठन सरकार के खिलाफ आंदोलन में पूरी ताकत लगा देते."

वह आगे कहते हैं, "किसान अब किसान नहीं रह गए हैं बल्कि वह राजनीतिक पार्टियों में बंट गए हैं. ज्यादातर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान किसी न किसी पार्टी से जुड़े हुए हैं. इनमें भी ज्यादातर किसानों का समर्थन भाजपा की तरफ है. इसलिए भी वह आंदोलन में शामिल नहीं हो रहे हैं."

वह भारतीय किसान यूनियन के बारे में कहते हैं, "जो संगठन पहले किसान यूनियन में थे और बाद में अलग हो गए. जब वह हरियाणा पंजाब के किसानों के समर्थन में सड़कों पर आ गए तब किसान यूनियन की नींद खुली कि हमसे अलग होने वाले संगठन भी हरियाणा पंजाब के साथ खड़े हैं फिर इन्हें भी मजबूरी में किसानों का समर्थन करना पड़ा."

वह कहते हैं कि, "मेरठ क्षेत्र के किसान भी समर्थन में नहीं पहुंच रहे हैं. उनको मतलब ही नहीं है क्योंकि वह इस मुद्दे को अपने से जुड़ा हुआ नहीं समझ रहे हैं."

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किसान मसीहा महेंद्र सिंह टिकैत और चौधरी चरण सिंह

जब भी देश में कोई किसान आंदोलन होता है तो महेंद्र सिंह टिकैत का जिक्र जरूर होता है. उन्हें लोग असली किसान नेता और मसीहा मानते थे. बता दें कि आज से 32 साल पहले सन 1988 में महेंद्र सिंह टिकैत ने दिल्ली के बोट क्लब पर किसानों का एक बड़ा आंदोलन किया था. तब दिल्ली में उनके समर्थन में करीब पांच लाख किसान इकट्ठा हुए थे. तब किसानों की इस भीड़ ने सरकार को हिला कर रख दिया था. इस आंदोलन में उनकी बिजली की दर कम करने सहित 35 मांगे थीं. इस आंदोलन ने इतना बड़ा रूप ले लिया था कि सरकार को झुकना पड़ा और किसानों की मांगों को मानना पड़ा था. इसके बाद कहीं आंदोलन की समाप्ति की घोषणा की गई.

उससे पहले उत्तर प्रदेश के किसान चौधरी चरण सिंह को अपना मसीहा मानते थे. उन्होंने किसानों के कल्याण के लिए काफी कार्य किए. चरण सिंह ने उत्तर प्रदेश का दौरा कर किसानों की समस्याओं को जानकर उनका समाधान करने का प्रयास किया था. बता दें कि उन्होंने किसानों के हित में 1954 में उत्तर प्रदेश भूमि संरक्षण कानून को पारित कराया था.

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इस आंदोलन के समर्थन में अब उत्तर प्रदेश सहित राजस्थान और मध्यप्रदेश के किसान भी सड़कों पर उतर आए हैं. इस रिपोर्ट में हम आपको किसान आंदोलनों का गढ़ रहे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक तस्वीर दिखाएंगे. यहां के किसानों ने अतीत में भले ही ऐतिहासिक आंदोलन किए हों, लेकिन हरियाणा-पंजाब के किसानों द्वारा पिछले करीब तीन महीनों से चल रहे आंदोलन का, ये कुछ दिन पहले तक हिस्सा भी नहीं थे. हालांकि अब भारतीय किसान यूनियन के नेता पूरी तरह पक चुके इस आंदोलन में दिखने लगे हैं. बता दें कि अपनी एक आवाज पर लाखों किसानों को इकट्ठा कर देने वाले पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह और किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत सरीखे नेता इसी क्षेत्र से आते थे.

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भले ही अब आंदोलन की जड़ों को मजबूत करने के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान नेता और संगठन हरियाणा-पंजाब के किसानों के समर्थन में उतर आए हों लेकिन कुछ दिन पहले तक हकीकत कुछ और थी. इस क्षेत्र के नेताओं से बात करने के बाद तो यही पता चलता है कि अगर हरियाणा और पंजाब के किसान इन कानूनों के खिलाफ दिल्ली मार्च नहीं करते तो शायद पश्चिमी उत्तर प्रदेश की किसान यूनियन भी जमीन पर नहीं उतरती.

किसान यूनियन के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष चौधरी दिवाकर सिंह ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, "पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस समय सबसे ज्यादा खेती का काम चल रहा है. वहां पर गन्ना कटाई और गेहूं बुवाई का काम जोरों पर है. यह दोनों ही काम 15 दिसंबर तक होने हैं. यह काम निपटने के बाद किसान फ्री हो जाएंगे. ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि किसान बंट रहा है. इस समय प्रत्येक अन्नदाता एक प्लेटफॉर्म पर आ चुका है."

किसान आंदोलन पिछले करीब तीन महीनों से चल रहा है लेकिन किसान यूनियन के नेता इसमें क्यों शामिल नहीं थे? इस सवाल के जवाब में सिंह कहते हैं, "280 संगठनों की एक समिति है जिसका नाम है 'अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति'. इसमें पहले सभी लोग एक साथ संघर्ष कर रहे थे. लेकिन इसके लोगों ने यह सोच लिया कि इनता बड़ा संगठन है तो कोई न कोई आंदोलन में चला ही जाएगा. नेता इसी गफलत में रहे कि फलां चला जाएगा, या फलां चला गया होगा. लेकिन जमीन पर लोग नहीं जुटे. इसलिए कुछ अन्य मतभेदों के चलते भी इस समिति के मात्र 100 या 200 ही लोग बुराड़ी में बैठे हैं. यह समिति अब एक मजाक बनकर रह गई है."

वह सरकार पर आरोप लगाते हुए कहते हैं, "सरकार किसान संगठनों के नेताओं को एक-एक करके मैनेज करने की कोशिश कर रही है. एक दिसंबर वाली मीटिंग में सरकार ने किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत को नहीं बुलाया था बल्कि उन्हें बाद में मैनेज करने की कोशिश की गई. सरकार ऐसा करके किसान नेताओं को अलग-थलग करके अपने साथ मिलाना चाहती है. ताकि वह आंदोलन को फ्लॉप कर सके. सरकार चाहती है कि ऐसा करके वह घोषणा कर दे कि देखिए किसान नेता मान गए हैं और आंदोलन खत्म हो जाए. लेकिन इस बार किसान इनके बहकावे में नहीं आएगा और हम अपना हक लेकर रहेंगे. उन्होंने कहा कि कोरोना काल में जब देश बर्बाद हो रहा था. ऐसे समय में सरकार कृषि कानूनों का अध्यादेश लेकर आई है. हम इसके सख्त खिलाफ हैं."

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वहीं किसान यूनियन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष इस मुद्दे पर कहते हैं, "यह आंदोलन की घोषणा ही हरियाणा और पंजाब के किसानों की है. हमने तो उन्हें सिर्फ बैक सपोर्ट दिया है. जब किसानों के साथ दिल्ली में बर्बरता की गई तब हमें लगा कि अरे यह तो किसानों के साथ अत्याचार हो रहा है तब हम भी उनके समर्थन में आ गए."

तो क्या नए कृषि कानून का मुद्दा सिर्फ हरियाणा पंजाब के किसानों के लिए हैं आपके लिए यह कोई मुद्दा नहीं है? इस पर वह कहते हैं, "ऐसा नहीं है हम सिर्फ कोरोना के खत्म होने का इंतजार कर रहे थे. लेकिन उससे पहले ही हरियाणा पंजाब के किसानों के साथ बर्बरता की गई जो हमसे नहीं देखा गया इसलिए हम भी उनके साथ खड़े हो गए. कोरोना काल में सरकार ने चालाकी से कृषि कानून पास कर दिए और किसानों से कोई चर्चा तक नहीं की. फसल हम लगा रहे है, बीज हम खरीद रहे हैं, मेहनत हम कर रहे हैं लेकिन वह किस भाव बिकेगी यह कोई और तय करेगा, यह हमारा दुर्भाग्य ही है."

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वह कहते हैं, "1965 में गेहूं का भाव 76 रुपए कुंतल था, आज 1835 रुपये हैं. तो यह कोई बढ़ना हुआ? जबकि प्राइमरी के मास्टर की सैलरी 320 रुपए बढ़ गई. अगर ऐसे ही यह बढ़े हुए पैसे हमें मिलने लगें तो फिर किसानों को लोन लेने की जरूरत नहीं होगी."

वह तीनों कृषि कानूनों पर कहते हैं, "इन कानूनों में बहुत ज्यादा खामियां हैं. अगर सरकार नहीं मानी तो जिस बटन से सरकार बनी है उसी बटन से सरकार गिर भी जाएगी. हमारी मांगें जायज हैं तो सरकार को मानना चाहिए, लेकिन भाजपा तानाशाही कर रही है. इसकी वजह यह भी है कि हमारा विपक्ष मजबूत नहीं है. जबकि भाजपा जब सत्ता में नहीं होती है तो वह विपक्ष की भूमिका अच्छे से निभा लेती है. यह सरकार तानाशाही के चलते हमें पीछे हटाने की कोशिश कर रही है लेकिन इस बार किसान पीछे हटने को तैयार नहीं है. यह हमारी जायज मांगें हैं और हम इन्हें लेकर रहेंगे."

इस बारे में न्यूज़लॉन्ड्री ने कुछ अन्य किसानों से भी बात की. अमरोहा जिले के मुसल्लेपुर गांव निवासी 40 वर्षीय चरण सिंह बताते हैं, "हमें नहीं पता है कि दिल्ली में कोई आंदोलन चल रहा है. पता करके होगा भी क्या किसानों की कहीं कोई सुनवाई नहीं है. आंदोलन में जाकर करेंगे भी क्या जब हमे वहां कोई पहचानेगा ही नहीं. चरण सिंह अपनी जमीन के साथ साथ कई अन्य किसानों की जमीनों को ठेके पर लेकर खेती करते हैं. वह कहते हैं लेकिन यहां किसी को कोई मतलब नहीं है. ना ही हमारा कोई किसान नेता है जिसके कहने पर हम आंदोलन में शामिल हों."

पख्खरपुर निवाली 65 वर्षीय प्रसादी कहते हैं, "हमें इस आंदोलन की कोई जानकरी नहीं है. मैं अंगूठा छाप हूं इसलिए भी मुझे कुछ पता नहीं चलता है." यानी वह इन कृषि कानूनों से बिल्कुल अंजान नजर आते हैं.

किसान यूनियन (भानू) के अमरोहा जिला अध्यक्ष चौधरी सतपाल सिंह कहते हैं, "जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों के तीन ग्रुप हैं ऐसे ही पंजाब और हरियाणा में भी किसानों के तीन ग्रुप हैं. यह सभी आपस में बंटे हुए हैं. यह सब एक साथ न होकर अलग-अलग तरीके से किसानों की लड़ाई लड़ रहे हैं.” हालांकि वह यह भी कहते हैं कि किसानों में किसी भी तरह का कोई मतभेद नहीं है. वह कहते हैं हरियाणा पंजाब में लोग ज्यादा जिम्मेदारी से भाग ले रहे हैं जबिक इधर के लोग उतने सक्रिय नहीं है. लेकिन अब धीरे-धीरे यहां के किसान भी आंदोलन में पहुंच रहे हैं.

मेरठ निवासी पत्रकार हरेंद्र मोरल कहते हैं, "पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ज्यादातर किसान गन्ने की खेती पर निर्भर हैं. साथ ही यहां किसानों के पास कम खेती है जबकि हरियाणा और पंजाब के किसान बड़े जमीदार हैं. वहां के किसान गेहूं और चावल की खेती ज्यादा करते हैं और इन तीनों बिलों का इन फसलों पर ज्यादा फर्क पड़ेगा. अगर यह बिल गन्ने से संबंधित होता तो पश्चिमी उत्तर प्रेदश के किसान और किसान संगठन सरकार के खिलाफ आंदोलन में पूरी ताकत लगा देते."

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वह भारतीय किसान यूनियन के बारे में कहते हैं, "जो संगठन पहले किसान यूनियन में थे और बाद में अलग हो गए. जब वह हरियाणा पंजाब के किसानों के समर्थन में सड़कों पर आ गए तब किसान यूनियन की नींद खुली कि हमसे अलग होने वाले संगठन भी हरियाणा पंजाब के साथ खड़े हैं फिर इन्हें भी मजबूरी में किसानों का समर्थन करना पड़ा."

वह कहते हैं कि, "मेरठ क्षेत्र के किसान भी समर्थन में नहीं पहुंच रहे हैं. उनको मतलब ही नहीं है क्योंकि वह इस मुद्दे को अपने से जुड़ा हुआ नहीं समझ रहे हैं."

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किसान मसीहा महेंद्र सिंह टिकैत और चौधरी चरण सिंह

जब भी देश में कोई किसान आंदोलन होता है तो महेंद्र सिंह टिकैत का जिक्र जरूर होता है. उन्हें लोग असली किसान नेता और मसीहा मानते थे. बता दें कि आज से 32 साल पहले सन 1988 में महेंद्र सिंह टिकैत ने दिल्ली के बोट क्लब पर किसानों का एक बड़ा आंदोलन किया था. तब दिल्ली में उनके समर्थन में करीब पांच लाख किसान इकट्ठा हुए थे. तब किसानों की इस भीड़ ने सरकार को हिला कर रख दिया था. इस आंदोलन में उनकी बिजली की दर कम करने सहित 35 मांगे थीं. इस आंदोलन ने इतना बड़ा रूप ले लिया था कि सरकार को झुकना पड़ा और किसानों की मांगों को मानना पड़ा था. इसके बाद कहीं आंदोलन की समाप्ति की घोषणा की गई.

उससे पहले उत्तर प्रदेश के किसान चौधरी चरण सिंह को अपना मसीहा मानते थे. उन्होंने किसानों के कल्याण के लिए काफी कार्य किए. चरण सिंह ने उत्तर प्रदेश का दौरा कर किसानों की समस्याओं को जानकर उनका समाधान करने का प्रयास किया था. बता दें कि उन्होंने किसानों के हित में 1954 में उत्तर प्रदेश भूमि संरक्षण कानून को पारित कराया था.

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