लाख दावों के बावजूद 45 डिग्री की झुलसाती गर्मी में रह रहे प्रवासी मजदूर

दिल्ली के जामिया मिल्लिया इलाके में 100 से ज्यादा प्रवासियों की दुर्दशा का आकलन.

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17 मई, 2020 को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के एक ट्वीट पर रिप्लाई करते हुए लिखा, “दिल्ली में रह रहे प्रवासी मजदूरों की जिम्मेदारी हमारी है. अगर वो दिल्ली में रहना चाहते हैं तो उनका पूरा ख़्याल रखेंगे और अगर वो अपने गांव लौटना चाहते हैं तो उनके लिए ट्रेन का इंतजाम कर रहे हैं. किसी भी हालत में उन्हें बेसहारा नहीं छोड़ेंगे.”

क्या दिल्ली सरकार अपने इन वादों पर पूरी तरह खरा उतर पा रही है? ये सवाल हम इसलिए पूछ रहे हैं क्योंकि राजधानी के कई इलाकों में आज भी सैंकडों लोग जिनमें अधिकतर प्रवासी मजदूर हैं बेहद मुश्किल परिस्थितियों में, चिलचिलाती गर्मी के बीच खुले में जिन्दगी गुजारने को मजबूर हैं. वहां उनके लिए न तो सही से खाने-पीने की व्यवस्था है, न ही साफ-सफाई की. इसके अलावा कोरोना जैसी महामारी से बचाव संबंधी दिशा-निर्देश जैसे, सोशल डिस्टेंस, स्वच्छता जैसी बुनियादी बातों का भी वहां कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है.

ऐसे ही करीब 100 मजदूर जामिया मिल्लिया इस्लामिया मेट्रो स्टेशन के पास रह रहे हैं. इनमें से अधिकतर मजदूर मूल रूप से उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले से ताल्लुक रखते हैं, जबकि कुछ बिहार और अन्य जगहों से हैं. ये मजदूर यहां सिंचाई विभाग, उत्तर प्रदेश की ओखला में खाली पड़ी जमीन जिसमें घना जंगल है, उसी में झुग्गियां डालकर रहते हैं. इसके ठीक सामने जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी है और उससे लगा हुआ जामिया मेट्रो स्टेशन है. ये बाशिंदे मुख्यत: शादियों में वेटर, जूतों पर पालिश, कान साफ करने के अलावा, इनकी महिलाएं भीख मांग कर अपनी आजीविका चलाते हैं. लॉकडाउन के कारण इनका काम भी बंद हो गया है. और ये अपने घर भी वापस नहीं जा पाए हैं.

जामिया मेट्रो स्टेशन के सामने रोड पर सोते लोग

दिल्ली में एक हफ़्ते से भयंकर गर्मी पड़ रही है. पारा 45 डिग्री को पार कर गया है, लू का जबरदस्त प्रकोप है, जिस कारण दिल्ली में “रेड अलर्ट” है. इसके बावजूद सरकार ने इनके रहने या घर भेजने का कोई इंतजाम नहीं किया है. मजबूरन ये लोग खुले में ही रहने को मजबूर हैं. इसी जंगल से लकड़ियां तोड़कर ये चूल्हे पर खाना बनाते हैं, और गुजारा करते हैं. कभी-कभार कोई सामाजिक संस्था वाले खाना वगैरह भी दे जाते हैं.

इनकी झुग्गियां भी तिरपाल के रूप में अस्थाई तौर पर बनाई गई हैं. जो लू भरी हवाओं और तेज धूप से बचाने को नाकाफी हैं. इस कारण रात में कुछ लोग मेट्रो के नीचे, तो कुछ पैदल पथ पर आकर सोते हैं. इस दौरान ज्यादा गर्मी की वजह से झुग्गियों में आग लगने का खतरा भी बढ़ जाता है. 2-3 दिन पहले दिल्ली के ही तुगलकाबाद में झुग्गियों में भयंकर आग लगने की घटना सामने आ चुकी है.

हमने इन लोगों की जिन्दगी को करीब से समझने और वर्तमान में चल रहे लॉकडाउन में आ रही परेशानियों को जानने की कोशिश की और इस झुग्गी का दौरा किया.

झुग्गियों में रहते लोग

सुबह लगभग 6 बजे जब हम जामिया मेट्रो स्टेशन के पास पहुंचे तो ये लोग जहां-तहां मेट्रो पिलर और पैदल पथ पर बेसुध सोते नजर आए. एक अधेड़ उम्र के पुरुष जो कुछ देर पहले सोकर उठे थे, उनसे हमने बातचीत की. उन्होंने बताया, “हम मूलरूप से यूपी के फ़ैजाबाद से हैं और लगभग 10 साल से यहीं झुग्गियां बनाकर रहते हैं. जूतों पर पॉलिश करने का काम करते हैं. अभी लॉकडाउन के कारण यहीं हैं वरना अब तक घर चले गए होते.”

आपको अभी तक कोई सरकारी मदद मिली है? इस पर वे बताते हैं, “कुछ नहीं मिला, कभी कभार कोई खाना दे जाता है. बाकि कोई मदद नहीं मिली है.” गर्मी में मेट्रो के नीचे सोने पर वे सवालिया अंदाज में कहते हैं, “और क्या करें? जब कोई और जगह नहीं है तो.”

इनसे बात करने के बाद हम सिंचाई विभाग की उस जगह पहुंचे जहां इनकी झुग्गियां बनी हुई हैं. लेकिन हमने पाया कि इसके चारों ओर ऊंची बाऊंड्री वॉल है और उसके मुख्य द्वार पर ताला लगा हुआ है. थोड़ी देर इधर-उधर देखने के बाद पता चला कि साइड से एक दीवार को तोड़कर अंदर जाने का रास्ता बनाया गया है. जैसे-तैसे दीवार फांदकर हम अंदर पहुंचे. चारों तरफ गंदगी का ढेर लगा था, मक्खियां भिनभिना रही थीं, साफ सफाई की कोई व्यवस्था नहीं थी. बच्चे इधर-उधर भाग रहे थे, कुछ युवक आपस में झुण्ड बनाकर गप्प में लगे थे, तो कुछ अपनी झुग्गियों में थे.

रोड पर सोते मजदूर

काफी देर देखने के बाद हमारी मुलाकात झुण्ड में बैठे कुछ युवकों से हुई. फ़ैजाबाद निवासी संदीप ने हमें बताया, “यहां 25-30 परिवार रहते हैं, जिनमें ज्यादातर तो फ़ैजाबाद से हैं और एक दो बिहार से भी हैं. हम शादियों में वेटर, जूता पॉलिस या जो भी काम मिले कर लेते हैं. लेकिन लॉकडाउन के कारण ये भी बंद है. तो अब भीख मांगकर गुजारा करना पड़ रहा है. गर्मी की वजह से पूरी रात परेशान रहते हैं, नींद नहीं आ पाती. न ही सरकार की तरफ से कोई मदद मिली है. और लॉकडाउन के कारण घर भी नहीं जा सकते हैं, पैसा भी नहीं है पास में, बहुत परेशानी है. ऊपर से चारो तरफ जंगल है तो कीड़े-मकोड़ों का डर रहता है. अब गर्मी की वजह से आज या कल यहां से गाजियाबाद जा रहे हैं, वहीं रहेंगे.”

हालांकि कुलदीप की राशन व खाना न मिलने की बात में हमें विरोधाभास नजर आया जब 20-25 साल से वहीं रहने वाले एक बुजुर्ग ने हमसे कहा, “झूठ नहीं बोलेंगे, खाने पीने की कोई कमी नहीं है, लोग आकर खाने के लिए देते रहते हैं.” इस बाबत कुलदीप से पूछने पर उन्होंने कहा, “हो सकता है उन्हें मिल गया हो, आप देख लो हमें तो नहीं मिला.”

अंत में झुग्गियों से निकलते वक्त हमारी मुलाकात अनवर से हुई. फ़ैजाबाद निवासी 4 बच्चों के पिता अनवर अपने 3 साल के बच्चे को किडनी से सम्बन्धित इलाज के सिलसिले में कलावती हॉस्पिटल में दिखाने लाते रहते हैं. इस बार लॉकडाउन होने के कारण यहीं फंस गए. तो झुग्गी बनाकर रहने लगे.

अनवर ने हमें बताया, “हम फ़ैजाबाद में गारा-मिटटी का काम करते हैं. हमारे लड़के को किडनी की बीमारी है, इसे ही दिखाने के सिलसिले में आए थे, अब लॉकडाउन के कारण वापस नहीं जा पा रहे हैं.” आप सरकारी बसों, या ट्रेनों में जो प्रवासी मजदूरों के लिए चलाई जा हैं क्यों नहीं गए. इस पर अनवर कहते हैं, “उनमे भी पैसा लगता है, हमारे पास पैसा नहीं है.” इसी बीच में अनवर की पत्नी बीच में टोकते हुए बोली, “कलावती अस्पताल में डॉक्टर भी इलाज के लिए पैसे मांग रहा था, अब पैसा तो है नहीं, तो इलाज भी नहीं हो पाया है. भीख मांगकर काम चला रहे हैं.”

तिरपाल लगाकर बनाई अस्थाई झुग्गियां

हमने सत्ताधारी आम आदमी पार्टी के स्थानीय विधायक अमानतुल्लाह खान से फोन कर इन लोगों के बारे में प्रतिक्रिया लेनी चाही. तो उनका फोन किसी और ने उठाया. हमने कहा कि मेट्रो के पास प्रवासी मजदूरों की समस्याओं से सम्बन्धित बात करनी है तो उन्होंने कहा, “अभी वो व्यस्त हैं, आप कुछ देर बाद बात करें.” इसके बाद जब हमने उनको फोन किया तो उन्होंने हमारे फोन का जवाब नहीं दिया.

केंद्र और राज्य सरकारें प्रवासी मजदूरों को लेकर अपनी कितनी भी पीठ थपथपा रहीं हों लेकिन सच्चाई यही है कि लॉकडाउन के 2 महीने बाद भी मजदूरों की स्थिति बदतर बनी हुई है. सरकारों से कहीं ज्यादा सामाजिक संगठनों ने इन मजदूरों की मदद की है. इसकी पुष्टि सुप्रीम कोर्ट के उस कड़े रुख से भी हो जाती है जिसमें न्यायालय ने महानगरों से पैदल, साइकिल और रिक्शा से अपने घर जा रहे श्रमिकों की दयनीय स्थिति को स्वत:संज्ञान लेते हुए दो दिन पहले केंद्र, राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को नोटिस जारी कर प्रवासी मजदूरों को परेशानियों से मुक्ति दिलाने के लिए उठाये गये कदमों पर जवाब मांगा था. साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा था कि अभी तक जो भी सरकारों के प्रयास हैं वो नाकाफी हैं और यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. सरकारों को और प्रभावी कदम उठाने की जरूरत है. देखा जाए तो सरकारों को इससे सबक लेकर अपनी पीठ थपथपाने की बजाए मजदूरों के हित में ज्यादा प्रभावी कदम उठाने चाहिए.

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