सूचना की महामारी, फैक्‍ट-चेक का हैंडवॉश और सत्‍य का लॉकडाउन

भारतीय मीडिया: 2020 के अनुभव, 2021 के लिए सबक.

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कुछ दिन पहले एक पत्रकार साथी का फोन आया था. वे दिल्‍ली के एक ऐसे शख्‍स की खोज खबर लेने को उत्‍सुक थे जिसे ज्‍यादातर अखबारों और टीवी चैनलों ने 9 अप्रैल, 2020 को मृत घोषित कर दिया था. मरे हुए आदमी को खोजना फिर भी आसान होता है, लेकिन ये काम थोड़ा टेढ़ा था. मित्र के मुताबिक व‍ह व्‍यक्ति जिंदा था. कुछ अखबारों और चैनलों के मुताबिक वह मर चुका था. कुछ और संस्‍थान अपनी खबरों में उसे कोरोनामुक्‍त व स्थिर हालत में बता चुके थे. ज़ाहिर है, यह खोज आसान नहीं थी. हुआ भी यही.

वायरल दिलशाद उर्फ महबूब उर्फ शमशाद

दिल्‍ली में बवाना के हरेवाली गांव का रहने वाला महबूब 6 अप्रैल, 2020 को एक वीडियो में वायरल हुआ था. कुछ लोग वीडियो में उसे मार-धमका रहे थे क्‍योंकि उन्‍हें शक था कि वो ‘थूक को इंजेक्‍शन से फलों में भरकर कोरोना फैलाने की तैयारी में था.’ तीन दिन बाद प्रेस ट्रस्‍ट ऑफ इंडिया (पीटीआई) से खबर जारी हुई कि महबूब की मौत हो गयी. खबर पीटीआई की होने के नाते तकरीबन हर जगह छपी. ज्‍यादातर जगहों पर उसका नाम महबूब उर्फ दिलशाद लिखा था, केवल दि हिंदू ने उसे शमशाद लिखा. सारे मीडिया में बवाना का दिलशाद उर्फ महबूब ‘कोरोना फैलाने की साजिश’ के चलते मारा गया, लेकिन दि हिंदू के मुताबिक बिलकुल इसी वजह से इसी जगह का शमशाद नामक आदमी मारा गया था.

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दिलशाद

दो दिन के भीतर ही खबर को फैक्‍ट चेक करने वालों ने नीर क्षीर कर दिया. जिन्‍होंने दिलशाद उर्फ महबूब को मृत बताया था वे तो गलत साबित हुए ही, दि हिंदू की तो पहचान ही गलत निकल गयी. शमशाद नाम का शख्‍स तो कहीं था ही नहीं. आल्‍ट न्‍यूज़ के मुताबिक बवाना के एसीपी का कहना था कि इंजेक्‍शन वाली बात गलत थी. दिल्‍ली पुलिस के एडिशनल पीआरओ अनिल मित्‍तल ने पूरी कहानी बतायी. पीटा गया शख्‍स 22 साल का महबूब उर्फ दिलशाद ही था, जिसे बाद में लोकनायक जयप्रकाश अस्‍पताल में भर्ती कराया गया था. उसके हमलावरों को पकड़ लिया गया.

अमर उजाला ने 10 अप्रैल को खबर छापी कि दिलशाद उर्फ महबूब की हालत स्थिर है. एनडीटीवी ने 6 अप्रैल को ही भर्ती दिलशाद की हालत स्थिर होने की खबर छाप दी थी. कुछ और जगहों पर 7 अप्रैल को सही ख़बर आयी, जैसे न्‍यूज़क्लिक, नवभारत टाइम्‍स. आठ महीने बीत जाने के बाद इस खबर को गलत रिपोर्ट करने वाले मीडिया संस्‍थानों के लिंक्‍स आज दोबारा देखने पर पता चलता है कि ज्‍यादातर ने उसे दुरुस्‍त करने की परवाह नहीं की. मसलन, इंडिया टीवी, बिजनेस स्‍टैंडर्ड, दि हिंदू पर दिलशाद अब भी मरा हुआ है. वाम छात्र संगठन की एक नेत्री की ट्विटर टाइमलाइन पर भी महबूब उर्फ दिलशाद मर चुका है. भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आज़ाद ने तो तभी उसे श्रद्धांजलि दे दी थी.

एक बार मरने की खबर फैल जाए तो मनुष्‍य का जीना थोड़ा आसान हो जाता है. हो सकता है दिलशाद के साथ भी यही हुआ हो, लेकिन सभी उसकी तरह किस्‍मत वाले नहीं होते कि बच जाएं. महामारी के बारे में गलत सूचनाओं ने दुनिया भर में लोगों की जान ली है. दि अमेरिकन जर्नल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन एंड हाईजिन के 7 अक्‍टूबर के अंक में एक अध्‍ययन छपा है. यह दुनिया भर के सोशल मीडिया से हुए दुष्‍प्रचार के कारण मरने और बीमार होने वालों की संख्‍या बताता है- 800 से ज्‍यादा लोग गलत सूचनाओं के चलते खेत रहे और 5800 लोग अस्‍पताल में भर्ती हुए.

सूचनाओं की ‘मियांमारी’

इस परिघटना के लिए जर्नल ने एक शब्‍द का प्रयोग किया है ‘’इन्‍फोडेमिक’’. इसका हिंदी में चलता अनुवाद हो सकता है ‘सूचनामारी’ यानी सूचना की महामारी. इस शब्‍द का पहला इस्‍तेमाल सार्स के दौरान 2003 में हुआ था. सूचनामारी मार्च 2020 में जब कोविड महामारी के दौरान भारत में पनपी, तो सबसे पहले इसने जो शक्‍ल अख्तियार की, उसके लिए पूर्वांचल के इलाके में बहुत पहले से चला आ रहा एक हल्का लेकिन प्रासंगिक शब्‍द उपयुक्‍त हो सकता है- मियांमारी. हमारे यहां महामारी ने सूचनामारी को जन्‍म दिया और सूचनामारी ने मियांमारी की सामाजिक परिघटना को हवा दे दी. जो समाज बहुत पहले से धार्मिक विभाजन की आग में जल रहा हो, जिस राष्‍ट्र की नींव ही धार्मिक विभाजन की मिट्टी से बनी हो, क्‍या वहां के सूचना प्रदाताओं को इस बात का इल्‍म नहीं था कि उनकी छोटी सी लापरवाही सामाजिक संतुलन को बिगाड़ देगी और लोगों की जान ले लेगी? धार्मिक समूहों द्वारा कोरोना के नाम पर फैलायी गयी झूठी सूचनाओं के प्रति उन्‍हें समाज को जहां सचेत करना था कि आग लगने वाली है, वहां उन्‍होंने खुद आग लगाने का काम क्‍यों किया?

ध्‍यान दें, कि तबलीगी जमात के नाम पर फैलाया गया झूठ तो लॉकडाउन के शुरुआती चरण का ही मामला है. अभी तो पूरा मैदान खुला पड़ा था और समय ही समय था सूचनामारी के फैलने के लिए. उसके बाद जो कुछ हुआ, उसे महज एक तस्‍वीर को देखकर समझा जा सकता है. ऐसा क्‍यों हुआ, कैसे हुआ, सचेतन हुआ या बेहोशी में हुआ, ये सब बाद की बातें हैं. फिलहाल, बीबीसी द्वारा पांच भारतीय वेबसाइटों पर किए गए 1,447 फैक्‍ट चेक के ये नतीजे देखें, जो बताते हैं कि फेक न्‍यूज़ की सूची में कोरोना अव्‍वल रहा है. उसके बाद सीएए, मुस्लिम-विरोधी सूचनाओं और दिल्‍ली दंगों से जुड़ी सूचनाओं की बारी आती है. चूंकि सीएए और दिल्‍ली दंगों का सीधा लेना-देना मुसलमानों से रहा है, लिहाजा हम आसान नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि 2020 में फेक न्‍यूज़ यानी फर्जी खबरों की जो सूचनामारी हमारे यहां हुई है, वास्‍तव में वह मियांमारी के अलावा और कुछ नहीं है.

पांच भारतीय वेबसाइटों पर किए गए 1,447 फैक्‍ट चेक के नतीजे

बीबीसी का यह अध्‍ययन चूंकि जून तक ही है, तो 2020 के उत्‍तरार्द्ध का क्‍या किया जाय? इसका जवाब भी बहुत मुश्किल नहीं है. जून में राष्‍ट्रपति द्वारा हस्‍ताक्षरित तीन कृषि अध्‍यादेशों से लेकर मौजूदा किसान आंदोलन के बीच यदि हम राष्‍ट्रीय स्‍तर पर सुर्खियों में रहे घटनाक्रम को देखें, तो मोटे तौर पर तीन-चार मुद्दे हाथ लगते हैं जहां गलत सूचनाएं उगलने वाली तोपों को संगठित रूप से मोड़ दिया गया. चीन के साथ रिश्‍ते, हाथरस गैंगरेप, महीने भर से चल रहा किसान आंदोलन, ‘लव जिहाद’ पर कानून, अर्णब गोस्‍वामी और कोविड-19 की वैक्‍सीन का वादा. अब इन मुद्दों में जून से पहले वाली ‘मियांमारी’ की अलग-अलग छवियां देखिए, तो सूचनाओं के लोकतंत्र को समझने में थोड़ा आसानी होगी.

चीन तो दूसरा देश है ही, उसके बारे में चाहे जितनी अफवाह फैलाओ किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा. उलटा राष्‍ट्रवाद ही मजबूत होगा. मीडिया ने यही किया. चीन पर वह साल भर सरकार का प्रवक्‍ता बना रहा. हाथरस गैंगरेप में मृत पीड़िता दलित थी और अपराधी उच्‍च जाति के थे. बाइनरी बनाने की जरूरत नहीं थी, पहले से मौजूद थी. केवल पाला चुनना था. मीडिया ने अपराधियों का पाला पकड़ा. लड़की के भाई को गुनाहगार बताया गया, भाभी को फर्जी, ऑनर किलिंग की थ्योरी गढ़ दी गयी. फिर लगे हाथ एक मुसलमान पत्रकार को पकड़ कर उसके हवाले से पॉपुलर फ्रंट को घसीटा गया, विदेशी फंडिंग की बात की गयी. सीबीआई ने कुछ दिन पहले ही चार्जशीट दाखिल की है और उच्‍च जाति के लड़कों को ही दोषी ठहराया है. पूरा मीडिया अपनी गढ़ी थ्योरी पर अब चुप है.

दैनिक जागरण में कठुआ और हाथरस केस की खबर

बिलकुल यही काम किसान आंदोलन में पहले दिन से किया गया. सड़क पर ठंड में रात काटते किसानों के लिए जिहादी, खालिस्‍तानी, आतंकवादी आदि तमगे गढ़े गये. उन्‍हें भी मुसलमानों और दलितों की तरह ‘अन्‍य’ स्‍थापित करने की कोशिश की गयी. अब भी यह कोशिश जारी है. इस बीच उत्‍तर प्रदेश सरकार ने विवाह के नाम पर धर्मांतरण को रोकने के लिए कानून ला दिया. पीछे-पीछे मध्‍य प्रदेश और हरियाणा भी हो लिए. इस कानून का निशाना कौन है? बताने की ज़रूरत नहीं. मीडिया की ओर से एक सवाल भी इस कानून पर नहीं उठा. उलटे मीडिया संस्‍थानों में सर्वश्रेष्‍ठ मुख्‍यमंत्री का सर्वे होता रहा.

मीडिया ने कभी नहीं पूछा कि 21 दिनों के महाभारत की तर्ज पर किया गया 21 दिनों का लॉकडाउन क्‍यों फेल हो गया. न ही किसी ने ये पूछा कि 15 अगस्‍त को वैक्‍सीन लाने और वायरस को भगाने के लिए दीया जलाने या थाली बजाने का वादा क्‍यों खोखला साबित हुआ. हां, कुछ जगहों से उन लोगों को मारने-पीटने की खबरें ज़रूर आयीं जिन्‍होंने न दीया जलाया था, न थाली बजायी थी. वे सभी सूचना की इस मियांमारी में ‘अन्‍य’ थे.

पूछा जा सकता है कि ऊपर गिनाया गया ये सिलसिला क्‍या तथ्‍यात्‍मक गलती यानी फैक्‍चुअल एरर की श्रेणी में आना चाहिए? क्‍या इस परिदृश्‍य का इलाज फैक्‍ट चेक है? अगर फैक्‍ट रख देने से झूठ दुरुस्‍त हो जाता, तो कम से कम इतना तो होता कि पुराने झूठ के इंटरनेट पर मौजूद लिंक ठीक हो ही जाने चाहिए थे? एक महामारी ने आखिर एक राष्‍ट्र-राज्‍य के अंगों के साथ ये कैसा रिश्‍ता कायम किया कि वह हर झूठ की अडिग आड़ बनती गयी? कहीं हम इस बीत रहे साल का निदान तो गलत नहीं कर रहे? ये महामारी किस चीज की थी आखिर? वायरस की? झूठी खबरों की? नफ़रतों की? बेइमानियों की? या फिर हमेशा के लिए राज्‍य के साथ उसके नागरिकों का रिश्‍ता बदलने वाली कोई अदृश्‍य बीमारी, जहां राज्‍य और नागरिकों के बीच में संवाद की जमीन ही नहीं बचती? (जैसा कि अपने-अपने पक्षों को लेकर अड़े हुए किसानों और केंद्र सरकार के बीच वार्ता के खोखलेपन में आजकल हम देख पा रहे हैं.)

अंधों के बीच एक हाथी?

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‘वर्ड ऑफ द ईयर’ के अपने इतिहास में पहली बार ऑक्सफोर्ड डिक्‍शनरी वर्ष 2020 के लिए एक शब्‍द नहीं खोज सका है और उसने हार मान ली है. ऑक्सफोर्ड डिक्‍शनरीज़ के प्रेसिडेंट कास्‍पर ग्राथवोह्ल का बयान देखिए, “भाषा के मामले में मैं पहले कभी ऐसे किसी वर्ष का गवाह नहीं रहा, जैसा कि ये साल रहा. यह अप्रत्‍याशित तो है ही, थोडी विडंबना भी है, कि इस साल ने हमें लाजवाब कर डाला है.”

कुछ और विद्वानों को देखिए. नसीम निकोलस तालिब इस बीतते साल को दि ब्‍लैक स्‍वान की संज्ञा देते हैं. इससे उनका आशय एक ऐसी चीज से है जो अनदेखी हो, स्‍वाभाविक अपेक्षाओं से इतर हो चूंकि निकट अतीत में ऐसा कुछ भी नहीं जो इसकी संभावना को प्रकट कर सके. इसके लिए वे एक शब्‍द का उपयोग करते हैं ‘’आउटलायर’’ यानी मनुष्‍य की नियमित अपेक्षाओं से जो बाहर की चीज़ हो. क्‍या ही संयोग है कि इस साल अपने यहां सबसे ज्‍यादा चर्चा में रहे मीडिया प्रतिष्‍ठान के नाम में भी यही शब्‍द जुड़ा हुआ है- रिपब्लिक टीवी के मालिक अर्णब गोस्‍वामी की मूल कंपनी एआरजी आउटलायर मीडिया प्राइवेट लिमिटेड. अब सोचिए कि ये साल ही ‘आउटलायर’ था या ‘आउटलायर’ का था!

बहरहाल, पॉलिसी विश्‍लेषक मिशेल वुकर 2020 के लिए ग्रे राइनो ईवेन्‍ट का प्रयोग करते हैं- एक ऐसी चीज़ जो आती दिख रही हो, बिलकुल सामने से, जिसका प्रभाव आपके ऊपर जबरदस्‍त हो और जिसके नतीजे बेहद संभावित.

कहने का आशय ये है कि कमरे में एक हाथी है और कई अंधे उसे घेरे बैठे हैं. सब अपने-अपने तरीके से अलग-अलग अंगों के आधार पर समूचे हाथी की व्‍याख्‍या कर रहे हैं लेकिन कोई भी उसे समग्रता में सही-सही पकड़ नहीं पा रहा है कि आखिर वह क्‍या बला है. 2020 का कुछ ऐसा ही हाल है. हाथी और अंधों की कहानी स्‍यादवाद (या अनेकान्‍तवाद) में अकसर क्‍लासिक उदाहरण के रूप में दी जाती है. यह स्थिति ऐसे ही नहीं आयी है कि हम प्रकट का अर्थ नहीं निकाल पा रहे. यह अपेक्षित था. 2016 के अंत में जब ऑक्‍सफर्ड ने ‘’पोस्‍ट-ट्रुथ’’ को वर्ड ऑफ दि ईयर घोषित किया था, हमें तभी संभल जाना चाहिए था. आज हम रोजमर्रा की घटनाओं में सच की तलाश करते फिर रहे हैं जबकि स्थिति यह है कि सामने जो घट रहा है उसे सही-सही दस शब्‍दों में अभिव्‍यक्‍त कर पाने में हमारी सदियों की अर्जित भाषा जवाब दे जा रही है. पोस्‍ट-ट्रुथ में आखिर यही तो होता है- सच का विलोपन और भ्रम की व्‍याप्ति.

ऐसी स्थिति में क्‍या आपको लगता है कि सत्‍य, सूचना, खबर आदि का संकट महज फैक्‍ट का मामला है? हम जानते हैं कि डोनाल्‍ड ट्रम्‍प चुनाव हार चुके हैं लेकिन वे नरेंद्र मोदी को बतौर राष्‍ट्रपति ‘लीजन ऑफ मेरिट’ की उपाधि दे रहे हैं. हम जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा था कि सेंट्रल विस्‍टा का निर्माण नहीं होगा लेकिन रोज लुटियन की दिल्‍ली को खोदे जाते नंगी आंखों से देख रहे हैं. हमें पता है कि कोरोना कोई वैम्‍पायर नहीं जो रात के अंधेरे में शिकार पर निकलता हो, लेकिन हम महीनों से रात नौ बजे के बाद का पुलिसिया पहरा बरदाश्‍त कर रहे हैं. कौन नहीं जानता कि कोरोना के कारण शादियों के लिए भी अनुमति लेनी पड़ रही है, लेकिन कोई नहीं पूछता कि चुनावी रैलियों की अनुमति कौन और क्‍यों दे रहा है. सबसे आसान सवाल तो यही हो सकता है कि आखिर करोड़ों लोग रोज स़ुबह अपने वॉट्सएप पर आने वाले संदेशों को सत्‍य मानकर आगे क्‍यों फैलाते हैं?

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ऐसे हजारों सवाल हैं जहां सत्‍य कुछ और दिखता है लेकिन घटता हुआ सत्‍य कुछ और होता है. दि एनिग्‍मा ऑफ रीज़न में डैन स्‍पर्बर और हुगो मर्सियर इसे बड़े अच्‍छे से समझाते हैं. वे कहते हैं कि तर्कशक्ति ही हमें मनुष्‍य बनाती है और हमारे तमाम ज्ञान का स्रोत है, लेकिन वह हमारे द्वारा ग्रहण किये जा रहे तथ्‍य को तय नहीं करती. वे सीधे पूछते हैं कि अगर तार्किक बुद्धि इतनी ही भरोसेमंद चीज है तो वह इतना सारा कचरा क्‍यों पैदा करती है? वे जवाब देते हैं कि तर्कशक्ति अलग से काम नहीं करती, वह अपनी पहले से कायम आस्‍थाओं और धारणाओं के दायरे में ही काम करती है और उन्‍हीं को दोबारा पुष्‍ट करने के काम आती है. अपने यहां बहुत पहले ‘ब्रह्म सत्‍यं जगत मिथ्‍या’ कहा जा चुका है. और ब्रह्म क्‍या है? अहम् ब्रह्मास्मि! मने जो मैं कहूं, वही सत्‍य है.

इसे सरल तरीके से ऐसे समझें कि हर मनुष्‍य विवेकवान और तार्किक होता है लेकिन वह अपने विवेक का इस्‍तेमाल अपने पूर्वाग्रहों, पूर्वनिर्मित धारणाओं और अपने किये को सही साबित करने में करता है. इस तरह से वह अपने सामाजिक वातावरण का दोहन करता है. यदि वाकई ऐसा है, तो सबसे बेहतर संवाद वो कर सकता है जो सामने वाले की धारणा या आग्रह को पहले से ही ताड़ ले. इसका मतलब यह हुआ कि कमरे में जो हाथी है, अगर उसके बारे में किसी अंधे व्‍यक्ति को हमें इस पर राज़ी करना हो कि वह रस्‍सी है, तो ऐसा करने के लिए बस यह सुनिश्चित करना होगा कि उसकी पहुंच में हाथी की पूंछ रहे. यानी हाथी के संबंध में उक्‍त व्‍यक्ति की अवस्थिति को हम तय कर दें, बाकी काम खुद हो जाएगा. अगर बाद में वह हाथी का कोई और अंग पकड़ता भी है, तो पहले बनी धारणा ही किसी न किसी तरीके से पुष्‍ट होगी, बदलेगी नहीं.

मीडिया में बिलकुल यही हो रहा है. अब सारा मीडिया बिहेवियरल एनालिसिस के आधार पर टारगेटेड संदेश दे रहा है. जो व्‍यक्ति सूचना को ग्रहण कर रहा है, उसके संदर्भ में सूचना और सूचना माध्‍यम को इस तरह से व्‍यवस्थित किया जा रहा है कि उसकी पहुंच यदि दूसरे वैकल्पिक माध्‍यम तक हो भी गयी तो वह उसे ‘अन्‍य’ मान बैठेगा. पाठक-दर्शक और माध्‍यम के बीच की यह ‘व्‍यवस्‍था’ कई तरीकों से की जाती है, मसलन अव्‍वल तो है माध्‍यमों पर एकाधिकार. जब सभी माध्‍यम किसी एक के पास होंगे, तो वैकल्पिक माध्‍यम की चिंता करने की ज़रूरत ही नहीं रह जाएगी.

भारत में यह काम मुकेश अम्‍बानी ने कर दिया है. देश के कुल 72 टीवी चैनल मुकेश अम्‍बानी के परोक्ष-अपरोक्ष नियंत्रण में हैं. इनकी कुल पहुंच 80 करोड़ लोगों तक है. यह देश के कुल दर्शकों का 95 प्रतिशत हिस्‍सा है. इसमें आप इन चैनलों और उनसे सम्‍बद्ध व स्‍वतंत्र वेबसाइटों को भी जोड़ लें. इसके बाद फेसबुक को जोड़ लें जिसने रिलायंस इंडस्‍ट्रीज़ के जियो प्‍लेटफॉर्म में करीब 10 प्रतिशत की हिस्‍सेदारी खरीद ली है. फेसबुक ही वॉट्सएप और इंस्‍टाग्राम का मालिक है. यानी मुकेश अम्‍बानी ने पहले भारतीय मीडिया परिदृश्‍य में क्षैतिज एकीकरण (हॉरिजॉन्‍टल इंटीग्रेशन) किया, फिर वे ऊर्ध्‍व यानी वर्टिकल इंटीग्रेशन भी कर रहे हैं. अम्‍बानी की जियो का सब्‍सक्राइबर बेस आज 40 करोड़ के ऊपर है. इसका मतलब ये हुआ कि जितने वोटों में इस देश की सरकार बनती है, उतने तो फोन के माध्‍यम से सीधे मुकेश अम्‍बानी के हाथ में हैं. बचे जितने वोट यानी 40 और करोड़, उन्‍हें हाथी को रस्‍सी मानने का काम वे टीवी से करवा लेते हैं.

क्‍या अब भी पूछने या समझाने की जरूरत है कि किसान आंदोलन सीधे अम्‍बानी और अडानी के उत्‍पादों का बहिष्‍कार क्‍यों कर रहा है?

संक्षेप में कहें, तो हाथी और अंधों की कहानी को दो तरह से समझना ज़रूरी है. पहला, यह देश, इसकी सरकार, इसके संस्‍थान, इसकी योजनाएं, घटनाएं और तमाम सामाजिक-आर्थिक परिघटनाएं एक विशाल हाथी हैं. दूसरी ओर जनता है जिनमें से अधिसंख्‍य हाथी को नहीं पहचानते हैं. इन अधिसंख्‍य को हाथी के बरक्‍स ‘सेट’ करने में मुकेश अम्‍बानी या उनके जैसे और लोगों का प्रत्‍यक्ष तंत्र काम आता है. जो लोग हाथी को जान-समझ रहे हैं, उन्‍हें रहस्‍यवाद की ओर खींचने में इनके माध्‍यम काम आते हैं. जो फिर भी नहीं समझते, उनके लिए पुलिस को तनख्‍वाह दी ही जाती है.

फैक्‍ट कैसे धुआं हो गया

हाथी और अंधों की कथा का दूसरा आयाम हमारे काम का है. इसे ऐसे समझें कि पहला पक्ष सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिघटनाओं व लोकतांत्रिक संस्‍थानों से मिलजुल कर बना ‘राज्‍य’ नाम का एक भीमकाय हाथी है. दूसरा पक्ष है नागरिक, जो हाथी को रोजमर्रा की अपनी गतिविधियों के माध्‍यम से काफी करीब से देखता-समझता और गुनता है. दोनों के बीच एक तीसरा पक्ष है जो दूसरे पक्ष यानी नागरिकों के इंद्रियबोध को पहले पक्ष यानी राज्‍य के हितों के अनुकूल नियंत्रित करता है क्‍योंकि राज्‍य के हित में तीसरे का हित निहित है. इस तरह इन तीनों को मिलाकर बना समूचा ढांचा एक ‘मंच’ है. नागरिकों के इंद्रियबोध को नियंत्रित करने के लिए जो कुछ भी उपकरण, माध्‍यम और अलगोरिद्म हैं, वे मिलकर एक महाआख्‍यान जैसा कुछ गढ़ते हैं (‘नैरेटिव’). नागरिक अपने पूर्वाग्रहों को इनके सहारे मनोनुकूल पुष्‍ट करता जाता है क्‍योंकि वैकल्पिक माध्‍यमों या उपकरणों तक उसकी पहुंच नहीं होती. वे इसी स्‍पेस में कहीं छिटके-बिखरे हुए हैं, जो गोचर नहीं हैं.

यह सेटअप इतना भी स्थिर और व्‍यवस्थित नहीं है. फ्लूइड है. गतिमान है. यह गति कभी-कभी केऑस यानी कोलाहल में बदल जाती है. कभी मंच सज्‍जा बनती-बिगड़ती है. कभी नागरिकों में अव्‍यवस्‍था फैलती है. कभी तीसरे पक्ष के संदेशों और उपकरणों में गड़बड़ी आ जाती है. इसके अक्सर अलग-अलग कारण हो सकते हैं. इस सेटअप को संतुलन में बनाये रखना राज्‍य और उसके हितधारकों व उपकरणों के लिए जरूरी होता है. कभी-कभार कोलाहल और अव्‍यवस्‍था ही राज्‍य को सूट करती है. यह बहुत कुछ इससे तय होता है कि राज्‍य को चलाने वालों के सोचने का ढंग क्‍या है. मसलन, 2014 से पहले भी सब कुछ वैसे ही था लेकिन कांग्रेस पार्टी राज्‍य को न्‍यूनतम सहमति के आधार पर चलाती थी ताकि ज्‍यादा कोलाहल न पैदा होने पाए और नैरेटिव निर्माण हौले- हौले हो. भारतीय जनता पार्टी थोड़ा आक्रामक ढंग से राज्‍य को चलाती है. जैसे कोई ऐसा चालक जो गाड़ी चलाते चक्‍त बार-बार ब्रेक मारे और तेजी से पिक अप ले. इसी का नतीजा होते हैं नोटबंदी, जीसटी, लॉकडाउन जैसे फैसले. यही सब कांग्रेस भी करती, लेकिन थोड़ा समय लेकर और बिना झटकों के.

नाओमी क्‍लीन भाजपा के गाड़ी चलाने के ढंग को शॉक डॉक्‍ट्रीन कहती हैं. जब राज्‍य अपने किये के चलते संकट में फंसता है तो झटके देना उसकी मजबूरी बन जाती है. फिर गाड़ी चलाने का सामान्‍य तरीका ही ब्रेक मारना और पिक अप लेना हो जाता है. पूरी दुनिया में पिछले कुछ वर्षों से राष्‍ट्र-राज्‍य ऐसे ही अपने देश-समाज को चला रहे हैं- झटका दे देकर. मार्च 2020 में लगाया गया लॉकडाउन पिछले 100 साल में संभवत: पहला ऐसा मौका रहा जब पूरी दुनिया के राष्‍ट्र-राज्‍यों को शॉक डॉक्‍ट्रीन की जरूरत पड़ी. राज्‍य खतरे में था. पूंजी खतरे में थी. उत्‍पादन खतरे में था. कोरोना वायरस बिल्‍ली के भाग्‍य से बस एक छींका साबित हुआ.

लॉकडाउन ने प्राचीन कथा वाले हाथी, अंधों और उनके बीच के एजेंटों से बने मंच को बुरी तरह से झकझोर दिया. यह झटका इतना तेज था कि पहले से चला आ रहा नैरेटिव निर्माण का काम और तीव्र हो गया. सारे परदे उघड़ गये. गोया किसी को बहुत जल्‍दी हो कहीं पहुंचने की, कुछ इस तरह से पूरी दुनिया में सरकारों ने हरकत की जबकि किसी को कहीं जाने या आने की छूट नहीं थी. घर के भीतर दुनिया चार दीवारों के बीच मर रही थी और घर के बाहर दुनिया उतनी ही तेजी से बदल रही थी. यह जो विपर्यय कायम हुआ गति और स्थिरता के बीच, इसने तमाम सुधारात्‍मक उपायों को एक झटके में छिन्‍न-भिन्‍न कर दिया. मीडिया के परिदृश्‍य में ऐसा ही एक उपाय था फैक्‍ट चेक का, जिसे पिछले चार साल के दौर में बड़ी मेहनत से कुछ संस्‍थानों ने खड़ा किया था. लॉकडाउन से लगे शॉक के असर से हिले मंच से जो महान कोलाहल पैदा हुई, उससे उठी आभासी धूल में सारे फैक्‍ट कैसे धुआं हो गये, किसी को हवा तक नहीं लगी.

प्रधानमंत्री टीवी पर पूछ कर निकल लिए कि केरल में एपीएमसी कानून नहीं है तो वहां के किसान विरोध क्‍यों नहीं करते? बादल सरोज की एक अदद चिट्ठी हवा में लहरा गयी. एक किताब छपकर आ गयी कि दिल्‍ली का दंगा हिंदू-विरोधी था और पुलिस ने दंगा कराने के आरोप में मुसलमानों को जेल में डाल दिया. एक 85 साल के बूढ़े स्‍टेन स्‍वामी को जेल में सिपर और स्‍ट्रॉ के लिए तरसना पड़ा लेकिन किसी के कंठ से कोई आवाज़ नहीं निकली. एक टीवी चैनल रिपब्लिक भारत ने जनता को अपना चैनल देखने के लिए पैसे खिलाये और बाकी जनता अपनी जेब से पैसे देकर वही चैनल इस इंतज़ार में देखती रही कि कभी तो सुशांत सिंह राजपूत को इंसाफ़ मिलेगा. फैक्‍ट चेक की तीव्र दुनिया में अगले पल ही सब कुछ सामने था, फिर भी लोगों ने वही देखा, सुना और समझा जो उनसे समझने की अपेक्षा राज्‍य को थी. हाथी को रस्‍सी समझा, पेड़ समझा, खंबा समझा. हाथी खेत को मदमस्‍त रौंदते कुचलते आगे बढ़ता रहा.

केवल एक फ्रेम और मुहावरे में अगर 2020 के मीडिया परिदृश्‍य को समझना हो तो ऑस्‍कर में नामांकित मलयाली फिल्‍म ‘जलीकट्टू’ का आखिरी दृश्‍य पर्याप्‍त हो सकता है. खेतों और बागानों को रौंदते हुए एक जंगली भैंसे को पकड़ने के लिए पूरा गांव एकजुट होकर उसके पीछे लगा. अंत में जब भैंसा काबू में आया तो उसका हिस्‍सा पाने के चक्‍कर में लोगों ने एक दूसरे को ही नोंच डाला. भैंसा यहां आभासी सत्‍य का प्रतीक है और उसका पीछा कर रहे लोग उसके उपभोक्‍ता हैं. अंत में किसी के हाथ कुछ नहीं आना है क्‍योंकि आभासी सत्‍य के ऊपर मिथ्‍याभास की इतनी परतें चढ़ चुकी हैं कि हर अगला शिकारी अपने से ठीक नीचे वाले को भैंसा मानकर नोंच रहा है. यहां कोई अपवाद नहीं हैं.

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सच कहने के तीन सबक

मीडिया के 2020 में विकसित हुए परिदृश्‍य को देखते हुए तीन बातें अनंतिम तौर पर कही जानी जरूरी लगती हैं. झूठ के मेले में सच का ठेला लगाने के ये तीन तरीके इतिहास की विरासत हैं और भविष्‍य की जिम्‍मेदारी. पहले दो सबक दो कहानियों के साथ, फिर आखिरी बात.

रणनीतिक चुप्‍पी

अमेरिकी नाज़ी पार्टी के एक मुखिया होते थे जार्ज लिंकन रॉकवेल. साठ के दशक में उनकी एक मीडिया रणनीति बहुत चर्चित थी. इसे उन्‍होंने अपनी आत्‍मकथा में भी लिखा था- “यहूदियों को उनके अपने साधनों से हमारे संदेश फैलाने को बाध्‍य कर के ही हम उनके वामपंथी, नस्‍लमिश्रण सम्‍बंधी दुष्‍प्रचार का जवाब देने में थोड़ा बहुत कामयाब होने की उम्‍मीद पाल सकते हैं.”

उन्‍होंने क्‍या किया? हार्वर्ड से लेकर कोलम्बिया युनिवर्सिटी तक कैंपस दर कैंपस अपने हिंसक विचारों और अपने अनुयायियों की भीड़ का बखूबी इस्‍तेमाल किया सुर्खियों में बने रहने के लिए, जिसमें वे सफल भी हुए. रॉकवेल को दो चीजें चाहिए थीं इसके लिए. पहला, एक नाटकीय और आक्रामक तरीका जिसकी उपेक्षा न की जा सके. दूसरे, जनता के सामने ऐसे नाटकीय प्रदर्शन करने के लिए बेशर्म और कड़े नौजवान. वे इस बात को समझते थे कि कोई भी आंदोलन तभी कामयाब होगा जब उसके संदेश को खुद मीडिया आगे बढ़ाएगा. अपने यहां अन्‍ना आंदोलन को याद कर लीजिए, जो काफी हद तक मीडिया का गढ़ा हुआ था.

अमेरिका में रॉकवेल की काट क्‍या थी, यह जानना ज़रूरी है. वहां के कुछ यहूदी समूहों ने पत्रकारों को चुनौती दी कि वे रॉकवेल के विचारों को कवर ही न करें. वे इस रणनीति को ‘क्‍वारंटीन’ कहते थे. इसके लिए सामुदायिक संगठनों के साथ मिलकर काम करना होता था ताकि सामाजिक टकराव को कम से कम किया जा सके और स्‍थानीय पत्रकारों को पर्याप्‍त परिप्रेक्ष्‍य मुहैया कराया जा सके यह समझने के लिए कि अमेरिकी नाज़ी पार्टी आखिर क्‍यों कवरेज के लिए उपयुक्‍त नहीं है. जिन इलाकों में क्‍वारंटीन कामयाब रहा, वहां हिंसा न्‍यूनतम हुई और रॉकवेल पार्टी के लिए नये सदस्‍यों की भर्ती नहीं कर पाये. उन इलाकों की प्रेस को इस बात का इल्‍म था कि उसकी आवाज़ को उठाने से नाज़ी पार्टी का हित होता है, इसलिए समझदार पत्रकारों ने ‘रणनीतिक चुप्‍पी’ ओढ़ना चुना ताकि जनता को न्‍यूनतम नुकसान हो.

पत्रकारिता में रणनीतिक चुप्‍पी कोई नया आइडिया नहीं है. 1920 के दशक में कू क्‍लक्‍स क्‍लान अपने काडरों की बहाली के लिए मीडिया कवरेज को सबसे प्रभावी तरीका मानता था और पत्रकारों से दोस्‍ती गांठने में लगा रहता था. 1921 में न्‍यूयॉर्क वर्ल्‍ड ने तीन हफ्ते तक इस समूह का पर्दाफाश करने की कहानी प्रकाशित की, जिसे पढ़कर हजारों पाठक कू क्‍लक्‍स क्‍लान में शामिल हो गये. क्‍लान को कवर करने के मामले में कैथेलिक, यहूदी और अश्‍वेत प्रेस का रवैया प्रोटेस्‍टेन्‍ट प्रेस से बिलकुल अलहदा था. वे इस समूह को अनावश्‍यक जगह नहीं देते थे. अश्‍वेत प्रेस अपनी इस रणनीतिक चुप्‍पी को ‘डिग्निफाइड साइलेंस’ कहता था.

ये कहानियां बताने का आशय यह है कि पत्रकारों और संस्‍थानों को यह समझना चाहिए कि अपनी सदिच्‍छा और बेहतरीन मंशाओं के बावजूद वे कट्टरपंथियों के हाथों इस्‍तेमाल हो सकते हैं. स्‍वतंत्रता, समानता और न्‍याय के हित में यही बेहतर है कि इन संवैधानिक मूल्‍यों के विरोधियों को अपने यहां जगह ही न दी जाय, फिर चाहे वह कैसी ही खबर क्‍यों न हो. सभी भारतीयों को अपनी बात अपने तरीके से कहने का अधिकार है, लेकिन ज़रूरी नहीं कि हर व्‍यक्ति के विचारों को प्रकाशित किया ही जाय, खासकर तब जब उनका लक्ष्‍य हिंसा, नफ़रत और अराजकता पैदा करना हो.

एक पत्रकार अपनी सीमित भूमिका में आज की तारीख में नफरत और झूठ को बढ़ावा देने से अपने स्‍तर पर रोक सकता है. हम नहीं मानते कि जिन अखबरों ने दिलशाद की मौत की खबर छापी, उनकी मंशा नफ़रत या सनसनी फैलाने की रही होगी लेकिन फिर भी उसका असर तो हुआ ही होगा. आखिर हम पत्रकारिता इसी बुनियादी आस्‍था के साथ करते हैं कि हमारे लिखे से फर्क पड़ता है. इसलिए लिखने से पहले यह सोच लेने में क्‍या बुराई है कि कहीं हम कवर करने की जल्‍दबाजी तो नहीं कर रहे? फिलहाल अगर चुप ही रह जाएं, तो क्‍या बुरा?

ज्‍यों कोयले की खान में कनारी

कनारी

2020 में मीडिया के मोर्चे पर जो कुछ भी घटा, वह न तो अनपेक्षित था और न ही अप्रत्‍याशित. 2016 के फरवरी में जेएनयू की नारेबाजी वाली घटना से अगर हम भारतीय मीडिया में फेक न्‍यूज़ के संगठित होने की शुरुआत मानें, तो 2020 में हम इस प्रक्रिया को और शिकंजा कसता देख पा रहे थे. इसलिए निकोलस तालिब का ब्‍लैक स्‍वान 2020 में मीडिया परिदृश्‍य के लिए तो फिट नहीं बैठता. वैकल्पिक मीडिया की एक सशक्‍त आवाज़ और दि सिविक बीट की सह-संस्‍थापक अन जि़याओ मीना एक बेहतर विकल्‍प सुझाती हैं- वे 2020 में मीडिया के व्‍यवहार को पीली कनारी चिड़िया का नाम देती हैं. इसका एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य है जिसे जानना ज़रूरी है.

इंग्‍लैंड में कोयले की खदानों में पीली कनारी चिड़िया को रखा जाता था. यह प्रथा 1911 से 1986 तक चली, जिसके बाद खतरे को भांपने वाली मशीनें आ गयीं. दरअसल, कनारी को जीने के लिए बहुत ऑक्‍सीजन की जरूरत होती है. खदानों के भीतर मीथेन गैस के रिसाव का खतरा रहता है. उसका संकेत कनारी के मरने से मिल जाता था. इससे सजग होकर किसी बड़े खतरे, विस्‍फोट या आग को टाला जा सकता था. मशीनें आयीं तो कनारी की ऐतिहासिक भूमिका समाप्‍त हो गयी. आज भले ही फैक्‍ट चेक करने के लिए तमाम ऑनलाइन उपकरण मौजूद हैं, लेकिन एक पत्रकार के बतौर हम उससे कहीं बेहतर पहले ही ज़हरीली होती सामाजिक हवा को महसूस कर सकते हैं. हम जिस तरह चुनावों को सूंघते हैं और उलटे सीधे फ़तवे देते हैं, उसी तरह सामाजिक संकटों को सूंघने और चेतावनी जारी करने के अभ्‍यास को अपने काम का नियमित हिस्‍सा बनाना होगा. चुनाव तो मैनिपुलेट किए जा सकते हैं, शायद इसीलिए पत्रकारों की भविष्‍यवाणियां गलत हो जाती हैं. सामाजिक परिवेश तो साफ़-साफ़ भाषा में हमसे बोलता है. एक पत्रकार अपने सहजबोध से हर घटना के सच झूठ को समझता है. ये वही कनारी का सहजबोध है, जो मीथेन गैस के रिसाव पर चहचहा उठती थी. इससे पहले कि कोई आग लगे, कनारी सबकी जान बचा लेती थी.

अन जि़याओ मीना द्वारा 2020 की पीली कनारी के साथ तुलना इस लिहाज से दिलचस्‍प है जब वे कहती हैं कि 2020 का वर्ष हमारे लिए एक चेतावनी बनकर आया है कि आगे क्‍या होने वाला है. 2021 और उससे आगे के लिए 2020 में कोई संदेश छुपा है, तो पत्रकारों के लिए व‍ह बिलकुल साफ़ है- तकनीकी निर्भरता को कम कर के सहजबोध को विकसित करें और बोलें. ट्विटर पर चहचहाने से कहीं ज्‍यादा ज़रूरी है अपने गली, समाज, मोहल्‍ले में गलत के खिलाफ आवाज उठाना.

मूल्‍यों की वापसी

अफ़वाहों और दुष्‍प्रचार में यकीन रखने वाले लोगों के सामने जब हम एक सही तथ्‍य उछालते हैं तो दो बातें मानकर चलते हैं. पहली यह, कि सामने वाला गलत सूचना का शिकार हुआ है, इसलिए यदि हम उसे सही तथ्‍य बता दें तो वह अपना दिमाग बदल लेगा. एक और धारणा यह होती है कि सामने वाला सोशल मीडिया के चक्‍कर में भटक गया है. इसे हम लोग आजकल वॉट्सएप युनिवर्सिटी से मिला ज्ञान कह कर मजाक बनाते हैं.

ये दोनों ही धारणाएं हमारे पत्रकारीय कर्म में दो समाधानों की तरह झलकती हैं- कि जनता को सबसे पहले सच बता दिया जाए और लगातार बताया जाए. दिक्‍कत यह होती है कि इससे भी कुछ फायदा नहीं होता क्‍योंकि गलत तथ्‍यों में आस्‍था रखने वाले एक वैचारिक खांचे में बंधे होते हैं. इसलिए 2021 में झूठ और मिथ्‍या प्रचार के सामने तथ्‍यों के सहारे अपने लड़ने की सीमा को भी हमें समझना होगा. जब झूठ से पाला पड़े, तो बेशक हमें सच बोलना चाहिए लेकिन यह सच थोड़ा व्‍यापक हो तो बात बने: मसलन, नेटवर्क और तंत्र को शामिल करते हुए ध्रुवीकरण और राजनीतिक पहचानों के बनने बिगड़ने की प्रक्रिया को समेटते हुए यह ऐसा सच हो जो स्‍वतंत्रता, समानता और न्‍याय के बुनियादी मूल्‍यों तक सुनने वाले को ले जा सके. कहने का मतलब कि थोड़ी सी मेहनत करें. समूचे परिप्रेक्ष्‍य में बात को समझाएं, तो बेहतर.

ऐसा अकसर होता है कि हम चाहे कितनी ही सावधानी से सच्‍ची स्‍टोरी लिखें, जिसको उसमें यकीन नहीं करना है वो नहीं ही करेगा. बाकी, फेसबुक के अलगोरिथम और झूठ फैलाने की तकनीकें अपना काम करती ही रहेंगी. यह समस्‍या और जटिल हो जाती है जब हम पाते हैं कि मीडिया संस्‍थानों में झूठ बोलने को पुरस्‍कार और प्रोत्‍साहन के मूल्‍यांकन में काम लाया जाता है. मसलन, किसान आंदोलन के बारे में सबसे सा़फ़ झूठ लिखने वाले पत्रकार को दैनिक जागरण सिल्‍वर मेडल देता है.

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इसके अलावा एक और बात ध्‍यान देने वाली है कि वैचारिकता के दो छोर पर खड़े लोग एक ही घटना के अलग-अलग तथ्‍यों में विश्‍वास करते हैं. इससे एक पत्रकार का काम और मुश्किल हो जाता है. ऐसे में जाहिर है कि समाधान भी केवल पत्रकारीय नहीं रह सकता, उससे कहीं ज्‍यादा व्‍यापक होगा. ऐसे समाधान के लिए पत्रकारों, शोधकर्ताओं, शिक्षाशास्त्रियों और सामाजिक लोगों को साथ आना होगा.

दुनिया भर में पिछले कुछ दिनों से पत्रकारिता में सच्‍ची सूचनाओं की बहाली को लेकर बहुत से शोध हुए हैं. इनमें मुख्‍य रूप से इसी समस्‍या पर विचार किया गया है कि आखिर सूचनामारी के दौर में सच को कैसे बोलें और लिखें. इस संदर्भ में मैं दो परचों का जिक्र करना उचित समझता हूं जिसे सुधी पाठक पढ़ सकते हैं. पहला परचा जर्नल ऑफ पब्लिक इकोनॉमिक्स में दिसंबर 2018 का है जिसका शीर्षक है: ‘’फैक्‍ट्स, आल्‍टरनेटिव फैक्‍ट्स एंड फैक्‍ट चेकिंग इन टाइम्‍स ऑफ पोस्‍ट- ट्रुथ पॉलिटिक्‍स’’. दूसरा परचा अमेरिकन जर्नल ऑफ कल्‍चरल सोशियोलॉजी में 28 सितंबर 2020 को प्रकाशित है जिसका शीर्षक है ‘’दि परफॉर्मेंस ऑफ ट्रुथ’’.

मोटे तौर पर कहें तो दुनिया भर में 2020 तक सामने आए पत्रकारिता के संकट के संदर्भ में जो वैकल्पिक काम हो रहे हैं, उनके मूल में एक ही बात है कि हमारे ज्ञानात्‍मक बोध में जो विभाजन है, उसे बढ़ाने के बजाय इस विभाजन को ही हमें विषय बनाना होगा और इस पर बात करनी होगी. सार्वजनिक विमर्श में बाइनरी यानी द्विभाजन की स्थिति के पार जाकर बुनियादी संवैधानिक मूल्‍यों पर एकजुटता और आस्‍था कायम करने के अलावा झूठ की कोई और काट नहीं है, चाहे उसमें कितना भी वक्‍त लग जाए.

और अंत में अर्णब

अर्णब गोस्‍वामी जब रिपब्लिक टीवी लेकर आ रहे थे तो एक साक्षात्‍कार के दौरान अपने बारे में पूछने पर उन्‍होंने कहा था, ‘जर्नलिस्‍ट्स आर नॉट स्‍टोरीज़’ (पत्रकार खबर नहीं होते). 2020 में अगर भारतीय मीडिया के सबसे ज्‍यादा खबरीले पत्रकार को चुना जाए, तो निस्‍संदेह वे अर्णब गोस्‍वामी ही होंगे. जितना दूसरों ने उनके बारे में नहीं बोला, उससे कहीं ज्‍यादा वे खुद के बारे में चीख-चीख कर बोल चुके हैं.

अर्णब गोस्‍वामी इस देश के मीडिया में सार्वजनिक नग्‍नता, आत्‍ममुग्‍धता, बेईमानी, अश्‍लीलता, झूठ और हिस्‍टीरिया की जीवित प्रतिमूर्ति बन चुके हैं. इससे ज्‍यादा उनके बारे में कुछ भी कहने का कोई अर्थ नहीं बनता.

उम्‍मीद की जानी चाहिए कि भारतीय मीडिया के इतिहास में यह पहला और आखिरी अर्णब हो.

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कुछ दिन पहले एक पत्रकार साथी का फोन आया था. वे दिल्‍ली के एक ऐसे शख्‍स की खोज खबर लेने को उत्‍सुक थे जिसे ज्‍यादातर अखबारों और टीवी चैनलों ने 9 अप्रैल, 2020 को मृत घोषित कर दिया था. मरे हुए आदमी को खोजना फिर भी आसान होता है, लेकिन ये काम थोड़ा टेढ़ा था. मित्र के मुताबिक व‍ह व्‍यक्ति जिंदा था. कुछ अखबारों और चैनलों के मुताबिक वह मर चुका था. कुछ और संस्‍थान अपनी खबरों में उसे कोरोनामुक्‍त व स्थिर हालत में बता चुके थे. ज़ाहिर है, यह खोज आसान नहीं थी. हुआ भी यही.

वायरल दिलशाद उर्फ महबूब उर्फ शमशाद

दिल्‍ली में बवाना के हरेवाली गांव का रहने वाला महबूब 6 अप्रैल, 2020 को एक वीडियो में वायरल हुआ था. कुछ लोग वीडियो में उसे मार-धमका रहे थे क्‍योंकि उन्‍हें शक था कि वो ‘थूक को इंजेक्‍शन से फलों में भरकर कोरोना फैलाने की तैयारी में था.’ तीन दिन बाद प्रेस ट्रस्‍ट ऑफ इंडिया (पीटीआई) से खबर जारी हुई कि महबूब की मौत हो गयी. खबर पीटीआई की होने के नाते तकरीबन हर जगह छपी. ज्‍यादातर जगहों पर उसका नाम महबूब उर्फ दिलशाद लिखा था, केवल दि हिंदू ने उसे शमशाद लिखा. सारे मीडिया में बवाना का दिलशाद उर्फ महबूब ‘कोरोना फैलाने की साजिश’ के चलते मारा गया, लेकिन दि हिंदू के मुताबिक बिलकुल इसी वजह से इसी जगह का शमशाद नामक आदमी मारा गया था.

दिलशाद

दो दिन के भीतर ही खबर को फैक्‍ट चेक करने वालों ने नीर क्षीर कर दिया. जिन्‍होंने दिलशाद उर्फ महबूब को मृत बताया था वे तो गलत साबित हुए ही, दि हिंदू की तो पहचान ही गलत निकल गयी. शमशाद नाम का शख्‍स तो कहीं था ही नहीं. आल्‍ट न्‍यूज़ के मुताबिक बवाना के एसीपी का कहना था कि इंजेक्‍शन वाली बात गलत थी. दिल्‍ली पुलिस के एडिशनल पीआरओ अनिल मित्‍तल ने पूरी कहानी बतायी. पीटा गया शख्‍स 22 साल का महबूब उर्फ दिलशाद ही था, जिसे बाद में लोकनायक जयप्रकाश अस्‍पताल में भर्ती कराया गया था. उसके हमलावरों को पकड़ लिया गया.

अमर उजाला ने 10 अप्रैल को खबर छापी कि दिलशाद उर्फ महबूब की हालत स्थिर है. एनडीटीवी ने 6 अप्रैल को ही भर्ती दिलशाद की हालत स्थिर होने की खबर छाप दी थी. कुछ और जगहों पर 7 अप्रैल को सही ख़बर आयी, जैसे न्‍यूज़क्लिक, नवभारत टाइम्‍स. आठ महीने बीत जाने के बाद इस खबर को गलत रिपोर्ट करने वाले मीडिया संस्‍थानों के लिंक्‍स आज दोबारा देखने पर पता चलता है कि ज्‍यादातर ने उसे दुरुस्‍त करने की परवाह नहीं की. मसलन, इंडिया टीवी, बिजनेस स्‍टैंडर्ड, दि हिंदू पर दिलशाद अब भी मरा हुआ है. वाम छात्र संगठन की एक नेत्री की ट्विटर टाइमलाइन पर भी महबूब उर्फ दिलशाद मर चुका है. भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आज़ाद ने तो तभी उसे श्रद्धांजलि दे दी थी.

एक बार मरने की खबर फैल जाए तो मनुष्‍य का जीना थोड़ा आसान हो जाता है. हो सकता है दिलशाद के साथ भी यही हुआ हो, लेकिन सभी उसकी तरह किस्‍मत वाले नहीं होते कि बच जाएं. महामारी के बारे में गलत सूचनाओं ने दुनिया भर में लोगों की जान ली है. दि अमेरिकन जर्नल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन एंड हाईजिन के 7 अक्‍टूबर के अंक में एक अध्‍ययन छपा है. यह दुनिया भर के सोशल मीडिया से हुए दुष्‍प्रचार के कारण मरने और बीमार होने वालों की संख्‍या बताता है- 800 से ज्‍यादा लोग गलत सूचनाओं के चलते खेत रहे और 5800 लोग अस्‍पताल में भर्ती हुए.

सूचनाओं की ‘मियांमारी’

इस परिघटना के लिए जर्नल ने एक शब्‍द का प्रयोग किया है ‘’इन्‍फोडेमिक’’. इसका हिंदी में चलता अनुवाद हो सकता है ‘सूचनामारी’ यानी सूचना की महामारी. इस शब्‍द का पहला इस्‍तेमाल सार्स के दौरान 2003 में हुआ था. सूचनामारी मार्च 2020 में जब कोविड महामारी के दौरान भारत में पनपी, तो सबसे पहले इसने जो शक्‍ल अख्तियार की, उसके लिए पूर्वांचल के इलाके में बहुत पहले से चला आ रहा एक हल्का लेकिन प्रासंगिक शब्‍द उपयुक्‍त हो सकता है- मियांमारी. हमारे यहां महामारी ने सूचनामारी को जन्‍म दिया और सूचनामारी ने मियांमारी की सामाजिक परिघटना को हवा दे दी. जो समाज बहुत पहले से धार्मिक विभाजन की आग में जल रहा हो, जिस राष्‍ट्र की नींव ही धार्मिक विभाजन की मिट्टी से बनी हो, क्‍या वहां के सूचना प्रदाताओं को इस बात का इल्‍म नहीं था कि उनकी छोटी सी लापरवाही सामाजिक संतुलन को बिगाड़ देगी और लोगों की जान ले लेगी? धार्मिक समूहों द्वारा कोरोना के नाम पर फैलायी गयी झूठी सूचनाओं के प्रति उन्‍हें समाज को जहां सचेत करना था कि आग लगने वाली है, वहां उन्‍होंने खुद आग लगाने का काम क्‍यों किया?

ध्‍यान दें, कि तबलीगी जमात के नाम पर फैलाया गया झूठ तो लॉकडाउन के शुरुआती चरण का ही मामला है. अभी तो पूरा मैदान खुला पड़ा था और समय ही समय था सूचनामारी के फैलने के लिए. उसके बाद जो कुछ हुआ, उसे महज एक तस्‍वीर को देखकर समझा जा सकता है. ऐसा क्‍यों हुआ, कैसे हुआ, सचेतन हुआ या बेहोशी में हुआ, ये सब बाद की बातें हैं. फिलहाल, बीबीसी द्वारा पांच भारतीय वेबसाइटों पर किए गए 1,447 फैक्‍ट चेक के ये नतीजे देखें, जो बताते हैं कि फेक न्‍यूज़ की सूची में कोरोना अव्‍वल रहा है. उसके बाद सीएए, मुस्लिम-विरोधी सूचनाओं और दिल्‍ली दंगों से जुड़ी सूचनाओं की बारी आती है. चूंकि सीएए और दिल्‍ली दंगों का सीधा लेना-देना मुसलमानों से रहा है, लिहाजा हम आसान नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि 2020 में फेक न्‍यूज़ यानी फर्जी खबरों की जो सूचनामारी हमारे यहां हुई है, वास्‍तव में वह मियांमारी के अलावा और कुछ नहीं है.

पांच भारतीय वेबसाइटों पर किए गए 1,447 फैक्‍ट चेक के नतीजे

बीबीसी का यह अध्‍ययन चूंकि जून तक ही है, तो 2020 के उत्‍तरार्द्ध का क्‍या किया जाय? इसका जवाब भी बहुत मुश्किल नहीं है. जून में राष्‍ट्रपति द्वारा हस्‍ताक्षरित तीन कृषि अध्‍यादेशों से लेकर मौजूदा किसान आंदोलन के बीच यदि हम राष्‍ट्रीय स्‍तर पर सुर्खियों में रहे घटनाक्रम को देखें, तो मोटे तौर पर तीन-चार मुद्दे हाथ लगते हैं जहां गलत सूचनाएं उगलने वाली तोपों को संगठित रूप से मोड़ दिया गया. चीन के साथ रिश्‍ते, हाथरस गैंगरेप, महीने भर से चल रहा किसान आंदोलन, ‘लव जिहाद’ पर कानून, अर्णब गोस्‍वामी और कोविड-19 की वैक्‍सीन का वादा. अब इन मुद्दों में जून से पहले वाली ‘मियांमारी’ की अलग-अलग छवियां देखिए, तो सूचनाओं के लोकतंत्र को समझने में थोड़ा आसानी होगी.

चीन तो दूसरा देश है ही, उसके बारे में चाहे जितनी अफवाह फैलाओ किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा. उलटा राष्‍ट्रवाद ही मजबूत होगा. मीडिया ने यही किया. चीन पर वह साल भर सरकार का प्रवक्‍ता बना रहा. हाथरस गैंगरेप में मृत पीड़िता दलित थी और अपराधी उच्‍च जाति के थे. बाइनरी बनाने की जरूरत नहीं थी, पहले से मौजूद थी. केवल पाला चुनना था. मीडिया ने अपराधियों का पाला पकड़ा. लड़की के भाई को गुनाहगार बताया गया, भाभी को फर्जी, ऑनर किलिंग की थ्योरी गढ़ दी गयी. फिर लगे हाथ एक मुसलमान पत्रकार को पकड़ कर उसके हवाले से पॉपुलर फ्रंट को घसीटा गया, विदेशी फंडिंग की बात की गयी. सीबीआई ने कुछ दिन पहले ही चार्जशीट दाखिल की है और उच्‍च जाति के लड़कों को ही दोषी ठहराया है. पूरा मीडिया अपनी गढ़ी थ्योरी पर अब चुप है.

दैनिक जागरण में कठुआ और हाथरस केस की खबर

बिलकुल यही काम किसान आंदोलन में पहले दिन से किया गया. सड़क पर ठंड में रात काटते किसानों के लिए जिहादी, खालिस्‍तानी, आतंकवादी आदि तमगे गढ़े गये. उन्‍हें भी मुसलमानों और दलितों की तरह ‘अन्‍य’ स्‍थापित करने की कोशिश की गयी. अब भी यह कोशिश जारी है. इस बीच उत्‍तर प्रदेश सरकार ने विवाह के नाम पर धर्मांतरण को रोकने के लिए कानून ला दिया. पीछे-पीछे मध्‍य प्रदेश और हरियाणा भी हो लिए. इस कानून का निशाना कौन है? बताने की ज़रूरत नहीं. मीडिया की ओर से एक सवाल भी इस कानून पर नहीं उठा. उलटे मीडिया संस्‍थानों में सर्वश्रेष्‍ठ मुख्‍यमंत्री का सर्वे होता रहा.

मीडिया ने कभी नहीं पूछा कि 21 दिनों के महाभारत की तर्ज पर किया गया 21 दिनों का लॉकडाउन क्‍यों फेल हो गया. न ही किसी ने ये पूछा कि 15 अगस्‍त को वैक्‍सीन लाने और वायरस को भगाने के लिए दीया जलाने या थाली बजाने का वादा क्‍यों खोखला साबित हुआ. हां, कुछ जगहों से उन लोगों को मारने-पीटने की खबरें ज़रूर आयीं जिन्‍होंने न दीया जलाया था, न थाली बजायी थी. वे सभी सूचना की इस मियांमारी में ‘अन्‍य’ थे.

पूछा जा सकता है कि ऊपर गिनाया गया ये सिलसिला क्‍या तथ्‍यात्‍मक गलती यानी फैक्‍चुअल एरर की श्रेणी में आना चाहिए? क्‍या इस परिदृश्‍य का इलाज फैक्‍ट चेक है? अगर फैक्‍ट रख देने से झूठ दुरुस्‍त हो जाता, तो कम से कम इतना तो होता कि पुराने झूठ के इंटरनेट पर मौजूद लिंक ठीक हो ही जाने चाहिए थे? एक महामारी ने आखिर एक राष्‍ट्र-राज्‍य के अंगों के साथ ये कैसा रिश्‍ता कायम किया कि वह हर झूठ की अडिग आड़ बनती गयी? कहीं हम इस बीत रहे साल का निदान तो गलत नहीं कर रहे? ये महामारी किस चीज की थी आखिर? वायरस की? झूठी खबरों की? नफ़रतों की? बेइमानियों की? या फिर हमेशा के लिए राज्‍य के साथ उसके नागरिकों का रिश्‍ता बदलने वाली कोई अदृश्‍य बीमारी, जहां राज्‍य और नागरिकों के बीच में संवाद की जमीन ही नहीं बचती? (जैसा कि अपने-अपने पक्षों को लेकर अड़े हुए किसानों और केंद्र सरकार के बीच वार्ता के खोखलेपन में आजकल हम देख पा रहे हैं.)

अंधों के बीच एक हाथी?

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‘वर्ड ऑफ द ईयर’ के अपने इतिहास में पहली बार ऑक्सफोर्ड डिक्‍शनरी वर्ष 2020 के लिए एक शब्‍द नहीं खोज सका है और उसने हार मान ली है. ऑक्सफोर्ड डिक्‍शनरीज़ के प्रेसिडेंट कास्‍पर ग्राथवोह्ल का बयान देखिए, “भाषा के मामले में मैं पहले कभी ऐसे किसी वर्ष का गवाह नहीं रहा, जैसा कि ये साल रहा. यह अप्रत्‍याशित तो है ही, थोडी विडंबना भी है, कि इस साल ने हमें लाजवाब कर डाला है.”

कुछ और विद्वानों को देखिए. नसीम निकोलस तालिब इस बीतते साल को दि ब्‍लैक स्‍वान की संज्ञा देते हैं. इससे उनका आशय एक ऐसी चीज से है जो अनदेखी हो, स्‍वाभाविक अपेक्षाओं से इतर हो चूंकि निकट अतीत में ऐसा कुछ भी नहीं जो इसकी संभावना को प्रकट कर सके. इसके लिए वे एक शब्‍द का उपयोग करते हैं ‘’आउटलायर’’ यानी मनुष्‍य की नियमित अपेक्षाओं से जो बाहर की चीज़ हो. क्‍या ही संयोग है कि इस साल अपने यहां सबसे ज्‍यादा चर्चा में रहे मीडिया प्रतिष्‍ठान के नाम में भी यही शब्‍द जुड़ा हुआ है- रिपब्लिक टीवी के मालिक अर्णब गोस्‍वामी की मूल कंपनी एआरजी आउटलायर मीडिया प्राइवेट लिमिटेड. अब सोचिए कि ये साल ही ‘आउटलायर’ था या ‘आउटलायर’ का था!

बहरहाल, पॉलिसी विश्‍लेषक मिशेल वुकर 2020 के लिए ग्रे राइनो ईवेन्‍ट का प्रयोग करते हैं- एक ऐसी चीज़ जो आती दिख रही हो, बिलकुल सामने से, जिसका प्रभाव आपके ऊपर जबरदस्‍त हो और जिसके नतीजे बेहद संभावित.

कहने का आशय ये है कि कमरे में एक हाथी है और कई अंधे उसे घेरे बैठे हैं. सब अपने-अपने तरीके से अलग-अलग अंगों के आधार पर समूचे हाथी की व्‍याख्‍या कर रहे हैं लेकिन कोई भी उसे समग्रता में सही-सही पकड़ नहीं पा रहा है कि आखिर वह क्‍या बला है. 2020 का कुछ ऐसा ही हाल है. हाथी और अंधों की कहानी स्‍यादवाद (या अनेकान्‍तवाद) में अकसर क्‍लासिक उदाहरण के रूप में दी जाती है. यह स्थिति ऐसे ही नहीं आयी है कि हम प्रकट का अर्थ नहीं निकाल पा रहे. यह अपेक्षित था. 2016 के अंत में जब ऑक्‍सफर्ड ने ‘’पोस्‍ट-ट्रुथ’’ को वर्ड ऑफ दि ईयर घोषित किया था, हमें तभी संभल जाना चाहिए था. आज हम रोजमर्रा की घटनाओं में सच की तलाश करते फिर रहे हैं जबकि स्थिति यह है कि सामने जो घट रहा है उसे सही-सही दस शब्‍दों में अभिव्‍यक्‍त कर पाने में हमारी सदियों की अर्जित भाषा जवाब दे जा रही है. पोस्‍ट-ट्रुथ में आखिर यही तो होता है- सच का विलोपन और भ्रम की व्‍याप्ति.

ऐसी स्थिति में क्‍या आपको लगता है कि सत्‍य, सूचना, खबर आदि का संकट महज फैक्‍ट का मामला है? हम जानते हैं कि डोनाल्‍ड ट्रम्‍प चुनाव हार चुके हैं लेकिन वे नरेंद्र मोदी को बतौर राष्‍ट्रपति ‘लीजन ऑफ मेरिट’ की उपाधि दे रहे हैं. हम जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा था कि सेंट्रल विस्‍टा का निर्माण नहीं होगा लेकिन रोज लुटियन की दिल्‍ली को खोदे जाते नंगी आंखों से देख रहे हैं. हमें पता है कि कोरोना कोई वैम्‍पायर नहीं जो रात के अंधेरे में शिकार पर निकलता हो, लेकिन हम महीनों से रात नौ बजे के बाद का पुलिसिया पहरा बरदाश्‍त कर रहे हैं. कौन नहीं जानता कि कोरोना के कारण शादियों के लिए भी अनुमति लेनी पड़ रही है, लेकिन कोई नहीं पूछता कि चुनावी रैलियों की अनुमति कौन और क्‍यों दे रहा है. सबसे आसान सवाल तो यही हो सकता है कि आखिर करोड़ों लोग रोज स़ुबह अपने वॉट्सएप पर आने वाले संदेशों को सत्‍य मानकर आगे क्‍यों फैलाते हैं?

किताब

ऐसे हजारों सवाल हैं जहां सत्‍य कुछ और दिखता है लेकिन घटता हुआ सत्‍य कुछ और होता है. दि एनिग्‍मा ऑफ रीज़न में डैन स्‍पर्बर और हुगो मर्सियर इसे बड़े अच्‍छे से समझाते हैं. वे कहते हैं कि तर्कशक्ति ही हमें मनुष्‍य बनाती है और हमारे तमाम ज्ञान का स्रोत है, लेकिन वह हमारे द्वारा ग्रहण किये जा रहे तथ्‍य को तय नहीं करती. वे सीधे पूछते हैं कि अगर तार्किक बुद्धि इतनी ही भरोसेमंद चीज है तो वह इतना सारा कचरा क्‍यों पैदा करती है? वे जवाब देते हैं कि तर्कशक्ति अलग से काम नहीं करती, वह अपनी पहले से कायम आस्‍थाओं और धारणाओं के दायरे में ही काम करती है और उन्‍हीं को दोबारा पुष्‍ट करने के काम आती है. अपने यहां बहुत पहले ‘ब्रह्म सत्‍यं जगत मिथ्‍या’ कहा जा चुका है. और ब्रह्म क्‍या है? अहम् ब्रह्मास्मि! मने जो मैं कहूं, वही सत्‍य है.

इसे सरल तरीके से ऐसे समझें कि हर मनुष्‍य विवेकवान और तार्किक होता है लेकिन वह अपने विवेक का इस्‍तेमाल अपने पूर्वाग्रहों, पूर्वनिर्मित धारणाओं और अपने किये को सही साबित करने में करता है. इस तरह से वह अपने सामाजिक वातावरण का दोहन करता है. यदि वाकई ऐसा है, तो सबसे बेहतर संवाद वो कर सकता है जो सामने वाले की धारणा या आग्रह को पहले से ही ताड़ ले. इसका मतलब यह हुआ कि कमरे में जो हाथी है, अगर उसके बारे में किसी अंधे व्‍यक्ति को हमें इस पर राज़ी करना हो कि वह रस्‍सी है, तो ऐसा करने के लिए बस यह सुनिश्चित करना होगा कि उसकी पहुंच में हाथी की पूंछ रहे. यानी हाथी के संबंध में उक्‍त व्‍यक्ति की अवस्थिति को हम तय कर दें, बाकी काम खुद हो जाएगा. अगर बाद में वह हाथी का कोई और अंग पकड़ता भी है, तो पहले बनी धारणा ही किसी न किसी तरीके से पुष्‍ट होगी, बदलेगी नहीं.

मीडिया में बिलकुल यही हो रहा है. अब सारा मीडिया बिहेवियरल एनालिसिस के आधार पर टारगेटेड संदेश दे रहा है. जो व्‍यक्ति सूचना को ग्रहण कर रहा है, उसके संदर्भ में सूचना और सूचना माध्‍यम को इस तरह से व्‍यवस्थित किया जा रहा है कि उसकी पहुंच यदि दूसरे वैकल्पिक माध्‍यम तक हो भी गयी तो वह उसे ‘अन्‍य’ मान बैठेगा. पाठक-दर्शक और माध्‍यम के बीच की यह ‘व्‍यवस्‍था’ कई तरीकों से की जाती है, मसलन अव्‍वल तो है माध्‍यमों पर एकाधिकार. जब सभी माध्‍यम किसी एक के पास होंगे, तो वैकल्पिक माध्‍यम की चिंता करने की ज़रूरत ही नहीं रह जाएगी.

भारत में यह काम मुकेश अम्‍बानी ने कर दिया है. देश के कुल 72 टीवी चैनल मुकेश अम्‍बानी के परोक्ष-अपरोक्ष नियंत्रण में हैं. इनकी कुल पहुंच 80 करोड़ लोगों तक है. यह देश के कुल दर्शकों का 95 प्रतिशत हिस्‍सा है. इसमें आप इन चैनलों और उनसे सम्‍बद्ध व स्‍वतंत्र वेबसाइटों को भी जोड़ लें. इसके बाद फेसबुक को जोड़ लें जिसने रिलायंस इंडस्‍ट्रीज़ के जियो प्‍लेटफॉर्म में करीब 10 प्रतिशत की हिस्‍सेदारी खरीद ली है. फेसबुक ही वॉट्सएप और इंस्‍टाग्राम का मालिक है. यानी मुकेश अम्‍बानी ने पहले भारतीय मीडिया परिदृश्‍य में क्षैतिज एकीकरण (हॉरिजॉन्‍टल इंटीग्रेशन) किया, फिर वे ऊर्ध्‍व यानी वर्टिकल इंटीग्रेशन भी कर रहे हैं. अम्‍बानी की जियो का सब्‍सक्राइबर बेस आज 40 करोड़ के ऊपर है. इसका मतलब ये हुआ कि जितने वोटों में इस देश की सरकार बनती है, उतने तो फोन के माध्‍यम से सीधे मुकेश अम्‍बानी के हाथ में हैं. बचे जितने वोट यानी 40 और करोड़, उन्‍हें हाथी को रस्‍सी मानने का काम वे टीवी से करवा लेते हैं.

क्‍या अब भी पूछने या समझाने की जरूरत है कि किसान आंदोलन सीधे अम्‍बानी और अडानी के उत्‍पादों का बहिष्‍कार क्‍यों कर रहा है?

संक्षेप में कहें, तो हाथी और अंधों की कहानी को दो तरह से समझना ज़रूरी है. पहला, यह देश, इसकी सरकार, इसके संस्‍थान, इसकी योजनाएं, घटनाएं और तमाम सामाजिक-आर्थिक परिघटनाएं एक विशाल हाथी हैं. दूसरी ओर जनता है जिनमें से अधिसंख्‍य हाथी को नहीं पहचानते हैं. इन अधिसंख्‍य को हाथी के बरक्‍स ‘सेट’ करने में मुकेश अम्‍बानी या उनके जैसे और लोगों का प्रत्‍यक्ष तंत्र काम आता है. जो लोग हाथी को जान-समझ रहे हैं, उन्‍हें रहस्‍यवाद की ओर खींचने में इनके माध्‍यम काम आते हैं. जो फिर भी नहीं समझते, उनके लिए पुलिस को तनख्‍वाह दी ही जाती है.

फैक्‍ट कैसे धुआं हो गया

हाथी और अंधों की कथा का दूसरा आयाम हमारे काम का है. इसे ऐसे समझें कि पहला पक्ष सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिघटनाओं व लोकतांत्रिक संस्‍थानों से मिलजुल कर बना ‘राज्‍य’ नाम का एक भीमकाय हाथी है. दूसरा पक्ष है नागरिक, जो हाथी को रोजमर्रा की अपनी गतिविधियों के माध्‍यम से काफी करीब से देखता-समझता और गुनता है. दोनों के बीच एक तीसरा पक्ष है जो दूसरे पक्ष यानी नागरिकों के इंद्रियबोध को पहले पक्ष यानी राज्‍य के हितों के अनुकूल नियंत्रित करता है क्‍योंकि राज्‍य के हित में तीसरे का हित निहित है. इस तरह इन तीनों को मिलाकर बना समूचा ढांचा एक ‘मंच’ है. नागरिकों के इंद्रियबोध को नियंत्रित करने के लिए जो कुछ भी उपकरण, माध्‍यम और अलगोरिद्म हैं, वे मिलकर एक महाआख्‍यान जैसा कुछ गढ़ते हैं (‘नैरेटिव’). नागरिक अपने पूर्वाग्रहों को इनके सहारे मनोनुकूल पुष्‍ट करता जाता है क्‍योंकि वैकल्पिक माध्‍यमों या उपकरणों तक उसकी पहुंच नहीं होती. वे इसी स्‍पेस में कहीं छिटके-बिखरे हुए हैं, जो गोचर नहीं हैं.

यह सेटअप इतना भी स्थिर और व्‍यवस्थित नहीं है. फ्लूइड है. गतिमान है. यह गति कभी-कभी केऑस यानी कोलाहल में बदल जाती है. कभी मंच सज्‍जा बनती-बिगड़ती है. कभी नागरिकों में अव्‍यवस्‍था फैलती है. कभी तीसरे पक्ष के संदेशों और उपकरणों में गड़बड़ी आ जाती है. इसके अक्सर अलग-अलग कारण हो सकते हैं. इस सेटअप को संतुलन में बनाये रखना राज्‍य और उसके हितधारकों व उपकरणों के लिए जरूरी होता है. कभी-कभार कोलाहल और अव्‍यवस्‍था ही राज्‍य को सूट करती है. यह बहुत कुछ इससे तय होता है कि राज्‍य को चलाने वालों के सोचने का ढंग क्‍या है. मसलन, 2014 से पहले भी सब कुछ वैसे ही था लेकिन कांग्रेस पार्टी राज्‍य को न्‍यूनतम सहमति के आधार पर चलाती थी ताकि ज्‍यादा कोलाहल न पैदा होने पाए और नैरेटिव निर्माण हौले- हौले हो. भारतीय जनता पार्टी थोड़ा आक्रामक ढंग से राज्‍य को चलाती है. जैसे कोई ऐसा चालक जो गाड़ी चलाते चक्‍त बार-बार ब्रेक मारे और तेजी से पिक अप ले. इसी का नतीजा होते हैं नोटबंदी, जीसटी, लॉकडाउन जैसे फैसले. यही सब कांग्रेस भी करती, लेकिन थोड़ा समय लेकर और बिना झटकों के.

नाओमी क्‍लीन भाजपा के गाड़ी चलाने के ढंग को शॉक डॉक्‍ट्रीन कहती हैं. जब राज्‍य अपने किये के चलते संकट में फंसता है तो झटके देना उसकी मजबूरी बन जाती है. फिर गाड़ी चलाने का सामान्‍य तरीका ही ब्रेक मारना और पिक अप लेना हो जाता है. पूरी दुनिया में पिछले कुछ वर्षों से राष्‍ट्र-राज्‍य ऐसे ही अपने देश-समाज को चला रहे हैं- झटका दे देकर. मार्च 2020 में लगाया गया लॉकडाउन पिछले 100 साल में संभवत: पहला ऐसा मौका रहा जब पूरी दुनिया के राष्‍ट्र-राज्‍यों को शॉक डॉक्‍ट्रीन की जरूरत पड़ी. राज्‍य खतरे में था. पूंजी खतरे में थी. उत्‍पादन खतरे में था. कोरोना वायरस बिल्‍ली के भाग्‍य से बस एक छींका साबित हुआ.

लॉकडाउन ने प्राचीन कथा वाले हाथी, अंधों और उनके बीच के एजेंटों से बने मंच को बुरी तरह से झकझोर दिया. यह झटका इतना तेज था कि पहले से चला आ रहा नैरेटिव निर्माण का काम और तीव्र हो गया. सारे परदे उघड़ गये. गोया किसी को बहुत जल्‍दी हो कहीं पहुंचने की, कुछ इस तरह से पूरी दुनिया में सरकारों ने हरकत की जबकि किसी को कहीं जाने या आने की छूट नहीं थी. घर के भीतर दुनिया चार दीवारों के बीच मर रही थी और घर के बाहर दुनिया उतनी ही तेजी से बदल रही थी. यह जो विपर्यय कायम हुआ गति और स्थिरता के बीच, इसने तमाम सुधारात्‍मक उपायों को एक झटके में छिन्‍न-भिन्‍न कर दिया. मीडिया के परिदृश्‍य में ऐसा ही एक उपाय था फैक्‍ट चेक का, जिसे पिछले चार साल के दौर में बड़ी मेहनत से कुछ संस्‍थानों ने खड़ा किया था. लॉकडाउन से लगे शॉक के असर से हिले मंच से जो महान कोलाहल पैदा हुई, उससे उठी आभासी धूल में सारे फैक्‍ट कैसे धुआं हो गये, किसी को हवा तक नहीं लगी.

प्रधानमंत्री टीवी पर पूछ कर निकल लिए कि केरल में एपीएमसी कानून नहीं है तो वहां के किसान विरोध क्‍यों नहीं करते? बादल सरोज की एक अदद चिट्ठी हवा में लहरा गयी. एक किताब छपकर आ गयी कि दिल्‍ली का दंगा हिंदू-विरोधी था और पुलिस ने दंगा कराने के आरोप में मुसलमानों को जेल में डाल दिया. एक 85 साल के बूढ़े स्‍टेन स्‍वामी को जेल में सिपर और स्‍ट्रॉ के लिए तरसना पड़ा लेकिन किसी के कंठ से कोई आवाज़ नहीं निकली. एक टीवी चैनल रिपब्लिक भारत ने जनता को अपना चैनल देखने के लिए पैसे खिलाये और बाकी जनता अपनी जेब से पैसे देकर वही चैनल इस इंतज़ार में देखती रही कि कभी तो सुशांत सिंह राजपूत को इंसाफ़ मिलेगा. फैक्‍ट चेक की तीव्र दुनिया में अगले पल ही सब कुछ सामने था, फिर भी लोगों ने वही देखा, सुना और समझा जो उनसे समझने की अपेक्षा राज्‍य को थी. हाथी को रस्‍सी समझा, पेड़ समझा, खंबा समझा. हाथी खेत को मदमस्‍त रौंदते कुचलते आगे बढ़ता रहा.

केवल एक फ्रेम और मुहावरे में अगर 2020 के मीडिया परिदृश्‍य को समझना हो तो ऑस्‍कर में नामांकित मलयाली फिल्‍म ‘जलीकट्टू’ का आखिरी दृश्‍य पर्याप्‍त हो सकता है. खेतों और बागानों को रौंदते हुए एक जंगली भैंसे को पकड़ने के लिए पूरा गांव एकजुट होकर उसके पीछे लगा. अंत में जब भैंसा काबू में आया तो उसका हिस्‍सा पाने के चक्‍कर में लोगों ने एक दूसरे को ही नोंच डाला. भैंसा यहां आभासी सत्‍य का प्रतीक है और उसका पीछा कर रहे लोग उसके उपभोक्‍ता हैं. अंत में किसी के हाथ कुछ नहीं आना है क्‍योंकि आभासी सत्‍य के ऊपर मिथ्‍याभास की इतनी परतें चढ़ चुकी हैं कि हर अगला शिकारी अपने से ठीक नीचे वाले को भैंसा मानकर नोंच रहा है. यहां कोई अपवाद नहीं हैं.

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सच कहने के तीन सबक

मीडिया के 2020 में विकसित हुए परिदृश्‍य को देखते हुए तीन बातें अनंतिम तौर पर कही जानी जरूरी लगती हैं. झूठ के मेले में सच का ठेला लगाने के ये तीन तरीके इतिहास की विरासत हैं और भविष्‍य की जिम्‍मेदारी. पहले दो सबक दो कहानियों के साथ, फिर आखिरी बात.

रणनीतिक चुप्‍पी

अमेरिकी नाज़ी पार्टी के एक मुखिया होते थे जार्ज लिंकन रॉकवेल. साठ के दशक में उनकी एक मीडिया रणनीति बहुत चर्चित थी. इसे उन्‍होंने अपनी आत्‍मकथा में भी लिखा था- “यहूदियों को उनके अपने साधनों से हमारे संदेश फैलाने को बाध्‍य कर के ही हम उनके वामपंथी, नस्‍लमिश्रण सम्‍बंधी दुष्‍प्रचार का जवाब देने में थोड़ा बहुत कामयाब होने की उम्‍मीद पाल सकते हैं.”

उन्‍होंने क्‍या किया? हार्वर्ड से लेकर कोलम्बिया युनिवर्सिटी तक कैंपस दर कैंपस अपने हिंसक विचारों और अपने अनुयायियों की भीड़ का बखूबी इस्‍तेमाल किया सुर्खियों में बने रहने के लिए, जिसमें वे सफल भी हुए. रॉकवेल को दो चीजें चाहिए थीं इसके लिए. पहला, एक नाटकीय और आक्रामक तरीका जिसकी उपेक्षा न की जा सके. दूसरे, जनता के सामने ऐसे नाटकीय प्रदर्शन करने के लिए बेशर्म और कड़े नौजवान. वे इस बात को समझते थे कि कोई भी आंदोलन तभी कामयाब होगा जब उसके संदेश को खुद मीडिया आगे बढ़ाएगा. अपने यहां अन्‍ना आंदोलन को याद कर लीजिए, जो काफी हद तक मीडिया का गढ़ा हुआ था.

अमेरिका में रॉकवेल की काट क्‍या थी, यह जानना ज़रूरी है. वहां के कुछ यहूदी समूहों ने पत्रकारों को चुनौती दी कि वे रॉकवेल के विचारों को कवर ही न करें. वे इस रणनीति को ‘क्‍वारंटीन’ कहते थे. इसके लिए सामुदायिक संगठनों के साथ मिलकर काम करना होता था ताकि सामाजिक टकराव को कम से कम किया जा सके और स्‍थानीय पत्रकारों को पर्याप्‍त परिप्रेक्ष्‍य मुहैया कराया जा सके यह समझने के लिए कि अमेरिकी नाज़ी पार्टी आखिर क्‍यों कवरेज के लिए उपयुक्‍त नहीं है. जिन इलाकों में क्‍वारंटीन कामयाब रहा, वहां हिंसा न्‍यूनतम हुई और रॉकवेल पार्टी के लिए नये सदस्‍यों की भर्ती नहीं कर पाये. उन इलाकों की प्रेस को इस बात का इल्‍म था कि उसकी आवाज़ को उठाने से नाज़ी पार्टी का हित होता है, इसलिए समझदार पत्रकारों ने ‘रणनीतिक चुप्‍पी’ ओढ़ना चुना ताकि जनता को न्‍यूनतम नुकसान हो.

पत्रकारिता में रणनीतिक चुप्‍पी कोई नया आइडिया नहीं है. 1920 के दशक में कू क्‍लक्‍स क्‍लान अपने काडरों की बहाली के लिए मीडिया कवरेज को सबसे प्रभावी तरीका मानता था और पत्रकारों से दोस्‍ती गांठने में लगा रहता था. 1921 में न्‍यूयॉर्क वर्ल्‍ड ने तीन हफ्ते तक इस समूह का पर्दाफाश करने की कहानी प्रकाशित की, जिसे पढ़कर हजारों पाठक कू क्‍लक्‍स क्‍लान में शामिल हो गये. क्‍लान को कवर करने के मामले में कैथेलिक, यहूदी और अश्‍वेत प्रेस का रवैया प्रोटेस्‍टेन्‍ट प्रेस से बिलकुल अलहदा था. वे इस समूह को अनावश्‍यक जगह नहीं देते थे. अश्‍वेत प्रेस अपनी इस रणनीतिक चुप्‍पी को ‘डिग्निफाइड साइलेंस’ कहता था.

ये कहानियां बताने का आशय यह है कि पत्रकारों और संस्‍थानों को यह समझना चाहिए कि अपनी सदिच्‍छा और बेहतरीन मंशाओं के बावजूद वे कट्टरपंथियों के हाथों इस्‍तेमाल हो सकते हैं. स्‍वतंत्रता, समानता और न्‍याय के हित में यही बेहतर है कि इन संवैधानिक मूल्‍यों के विरोधियों को अपने यहां जगह ही न दी जाय, फिर चाहे वह कैसी ही खबर क्‍यों न हो. सभी भारतीयों को अपनी बात अपने तरीके से कहने का अधिकार है, लेकिन ज़रूरी नहीं कि हर व्‍यक्ति के विचारों को प्रकाशित किया ही जाय, खासकर तब जब उनका लक्ष्‍य हिंसा, नफ़रत और अराजकता पैदा करना हो.

एक पत्रकार अपनी सीमित भूमिका में आज की तारीख में नफरत और झूठ को बढ़ावा देने से अपने स्‍तर पर रोक सकता है. हम नहीं मानते कि जिन अखबरों ने दिलशाद की मौत की खबर छापी, उनकी मंशा नफ़रत या सनसनी फैलाने की रही होगी लेकिन फिर भी उसका असर तो हुआ ही होगा. आखिर हम पत्रकारिता इसी बुनियादी आस्‍था के साथ करते हैं कि हमारे लिखे से फर्क पड़ता है. इसलिए लिखने से पहले यह सोच लेने में क्‍या बुराई है कि कहीं हम कवर करने की जल्‍दबाजी तो नहीं कर रहे? फिलहाल अगर चुप ही रह जाएं, तो क्‍या बुरा?

ज्‍यों कोयले की खान में कनारी

कनारी

2020 में मीडिया के मोर्चे पर जो कुछ भी घटा, वह न तो अनपेक्षित था और न ही अप्रत्‍याशित. 2016 के फरवरी में जेएनयू की नारेबाजी वाली घटना से अगर हम भारतीय मीडिया में फेक न्‍यूज़ के संगठित होने की शुरुआत मानें, तो 2020 में हम इस प्रक्रिया को और शिकंजा कसता देख पा रहे थे. इसलिए निकोलस तालिब का ब्‍लैक स्‍वान 2020 में मीडिया परिदृश्‍य के लिए तो फिट नहीं बैठता. वैकल्पिक मीडिया की एक सशक्‍त आवाज़ और दि सिविक बीट की सह-संस्‍थापक अन जि़याओ मीना एक बेहतर विकल्‍प सुझाती हैं- वे 2020 में मीडिया के व्‍यवहार को पीली कनारी चिड़िया का नाम देती हैं. इसका एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य है जिसे जानना ज़रूरी है.

इंग्‍लैंड में कोयले की खदानों में पीली कनारी चिड़िया को रखा जाता था. यह प्रथा 1911 से 1986 तक चली, जिसके बाद खतरे को भांपने वाली मशीनें आ गयीं. दरअसल, कनारी को जीने के लिए बहुत ऑक्‍सीजन की जरूरत होती है. खदानों के भीतर मीथेन गैस के रिसाव का खतरा रहता है. उसका संकेत कनारी के मरने से मिल जाता था. इससे सजग होकर किसी बड़े खतरे, विस्‍फोट या आग को टाला जा सकता था. मशीनें आयीं तो कनारी की ऐतिहासिक भूमिका समाप्‍त हो गयी. आज भले ही फैक्‍ट चेक करने के लिए तमाम ऑनलाइन उपकरण मौजूद हैं, लेकिन एक पत्रकार के बतौर हम उससे कहीं बेहतर पहले ही ज़हरीली होती सामाजिक हवा को महसूस कर सकते हैं. हम जिस तरह चुनावों को सूंघते हैं और उलटे सीधे फ़तवे देते हैं, उसी तरह सामाजिक संकटों को सूंघने और चेतावनी जारी करने के अभ्‍यास को अपने काम का नियमित हिस्‍सा बनाना होगा. चुनाव तो मैनिपुलेट किए जा सकते हैं, शायद इसीलिए पत्रकारों की भविष्‍यवाणियां गलत हो जाती हैं. सामाजिक परिवेश तो साफ़-साफ़ भाषा में हमसे बोलता है. एक पत्रकार अपने सहजबोध से हर घटना के सच झूठ को समझता है. ये वही कनारी का सहजबोध है, जो मीथेन गैस के रिसाव पर चहचहा उठती थी. इससे पहले कि कोई आग लगे, कनारी सबकी जान बचा लेती थी.

अन जि़याओ मीना द्वारा 2020 की पीली कनारी के साथ तुलना इस लिहाज से दिलचस्‍प है जब वे कहती हैं कि 2020 का वर्ष हमारे लिए एक चेतावनी बनकर आया है कि आगे क्‍या होने वाला है. 2021 और उससे आगे के लिए 2020 में कोई संदेश छुपा है, तो पत्रकारों के लिए व‍ह बिलकुल साफ़ है- तकनीकी निर्भरता को कम कर के सहजबोध को विकसित करें और बोलें. ट्विटर पर चहचहाने से कहीं ज्‍यादा ज़रूरी है अपने गली, समाज, मोहल्‍ले में गलत के खिलाफ आवाज उठाना.

मूल्‍यों की वापसी

अफ़वाहों और दुष्‍प्रचार में यकीन रखने वाले लोगों के सामने जब हम एक सही तथ्‍य उछालते हैं तो दो बातें मानकर चलते हैं. पहली यह, कि सामने वाला गलत सूचना का शिकार हुआ है, इसलिए यदि हम उसे सही तथ्‍य बता दें तो वह अपना दिमाग बदल लेगा. एक और धारणा यह होती है कि सामने वाला सोशल मीडिया के चक्‍कर में भटक गया है. इसे हम लोग आजकल वॉट्सएप युनिवर्सिटी से मिला ज्ञान कह कर मजाक बनाते हैं.

ये दोनों ही धारणाएं हमारे पत्रकारीय कर्म में दो समाधानों की तरह झलकती हैं- कि जनता को सबसे पहले सच बता दिया जाए और लगातार बताया जाए. दिक्‍कत यह होती है कि इससे भी कुछ फायदा नहीं होता क्‍योंकि गलत तथ्‍यों में आस्‍था रखने वाले एक वैचारिक खांचे में बंधे होते हैं. इसलिए 2021 में झूठ और मिथ्‍या प्रचार के सामने तथ्‍यों के सहारे अपने लड़ने की सीमा को भी हमें समझना होगा. जब झूठ से पाला पड़े, तो बेशक हमें सच बोलना चाहिए लेकिन यह सच थोड़ा व्‍यापक हो तो बात बने: मसलन, नेटवर्क और तंत्र को शामिल करते हुए ध्रुवीकरण और राजनीतिक पहचानों के बनने बिगड़ने की प्रक्रिया को समेटते हुए यह ऐसा सच हो जो स्‍वतंत्रता, समानता और न्‍याय के बुनियादी मूल्‍यों तक सुनने वाले को ले जा सके. कहने का मतलब कि थोड़ी सी मेहनत करें. समूचे परिप्रेक्ष्‍य में बात को समझाएं, तो बेहतर.

ऐसा अकसर होता है कि हम चाहे कितनी ही सावधानी से सच्‍ची स्‍टोरी लिखें, जिसको उसमें यकीन नहीं करना है वो नहीं ही करेगा. बाकी, फेसबुक के अलगोरिथम और झूठ फैलाने की तकनीकें अपना काम करती ही रहेंगी. यह समस्‍या और जटिल हो जाती है जब हम पाते हैं कि मीडिया संस्‍थानों में झूठ बोलने को पुरस्‍कार और प्रोत्‍साहन के मूल्‍यांकन में काम लाया जाता है. मसलन, किसान आंदोलन के बारे में सबसे सा़फ़ झूठ लिखने वाले पत्रकार को दैनिक जागरण सिल्‍वर मेडल देता है.

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इसके अलावा एक और बात ध्‍यान देने वाली है कि वैचारिकता के दो छोर पर खड़े लोग एक ही घटना के अलग-अलग तथ्‍यों में विश्‍वास करते हैं. इससे एक पत्रकार का काम और मुश्किल हो जाता है. ऐसे में जाहिर है कि समाधान भी केवल पत्रकारीय नहीं रह सकता, उससे कहीं ज्‍यादा व्‍यापक होगा. ऐसे समाधान के लिए पत्रकारों, शोधकर्ताओं, शिक्षाशास्त्रियों और सामाजिक लोगों को साथ आना होगा.

दुनिया भर में पिछले कुछ दिनों से पत्रकारिता में सच्‍ची सूचनाओं की बहाली को लेकर बहुत से शोध हुए हैं. इनमें मुख्‍य रूप से इसी समस्‍या पर विचार किया गया है कि आखिर सूचनामारी के दौर में सच को कैसे बोलें और लिखें. इस संदर्भ में मैं दो परचों का जिक्र करना उचित समझता हूं जिसे सुधी पाठक पढ़ सकते हैं. पहला परचा जर्नल ऑफ पब्लिक इकोनॉमिक्स में दिसंबर 2018 का है जिसका शीर्षक है: ‘’फैक्‍ट्स, आल्‍टरनेटिव फैक्‍ट्स एंड फैक्‍ट चेकिंग इन टाइम्‍स ऑफ पोस्‍ट- ट्रुथ पॉलिटिक्‍स’’. दूसरा परचा अमेरिकन जर्नल ऑफ कल्‍चरल सोशियोलॉजी में 28 सितंबर 2020 को प्रकाशित है जिसका शीर्षक है ‘’दि परफॉर्मेंस ऑफ ट्रुथ’’.

मोटे तौर पर कहें तो दुनिया भर में 2020 तक सामने आए पत्रकारिता के संकट के संदर्भ में जो वैकल्पिक काम हो रहे हैं, उनके मूल में एक ही बात है कि हमारे ज्ञानात्‍मक बोध में जो विभाजन है, उसे बढ़ाने के बजाय इस विभाजन को ही हमें विषय बनाना होगा और इस पर बात करनी होगी. सार्वजनिक विमर्श में बाइनरी यानी द्विभाजन की स्थिति के पार जाकर बुनियादी संवैधानिक मूल्‍यों पर एकजुटता और आस्‍था कायम करने के अलावा झूठ की कोई और काट नहीं है, चाहे उसमें कितना भी वक्‍त लग जाए.

और अंत में अर्णब

अर्णब गोस्‍वामी जब रिपब्लिक टीवी लेकर आ रहे थे तो एक साक्षात्‍कार के दौरान अपने बारे में पूछने पर उन्‍होंने कहा था, ‘जर्नलिस्‍ट्स आर नॉट स्‍टोरीज़’ (पत्रकार खबर नहीं होते). 2020 में अगर भारतीय मीडिया के सबसे ज्‍यादा खबरीले पत्रकार को चुना जाए, तो निस्‍संदेह वे अर्णब गोस्‍वामी ही होंगे. जितना दूसरों ने उनके बारे में नहीं बोला, उससे कहीं ज्‍यादा वे खुद के बारे में चीख-चीख कर बोल चुके हैं.

अर्णब गोस्‍वामी इस देश के मीडिया में सार्वजनिक नग्‍नता, आत्‍ममुग्‍धता, बेईमानी, अश्‍लीलता, झूठ और हिस्‍टीरिया की जीवित प्रतिमूर्ति बन चुके हैं. इससे ज्‍यादा उनके बारे में कुछ भी कहने का कोई अर्थ नहीं बनता.

उम्‍मीद की जानी चाहिए कि भारतीय मीडिया के इतिहास में यह पहला और आखिरी अर्णब हो.

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