एनएल चर्चा 143 : महान माराडोना का निधन, लव जिहाद और किसान आंदोलन

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एनएल चर्चा का 143वां एपिसोड ख़ासतौर से लव जिहाद, किसान आंदोलन और डिएगो माराडोना के निधन पर केंद्रित रहा. उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्रिमंडल द्वारा जारी अध्यादेश जिसमें दस साल जेल की सजा का प्रावधान शादी के बाद बलपूर्वक धर्म परिवर्तन अमान्य, दिल्ली के पंजाब और हरियाणा बॉर्डर पर किसानों का दिल्ली चलो प्रदर्शन, कोरोना के कारण कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और स्तंभकार अहमद पटेल और असम के पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई का निधन, जैसे विषयों पर जिक्र हुआ.

इस बार चर्चा में लेखक और दक्षिणपंथी विचारक शांतनु गुप्ता, शार्दूल कात्यायन और न्यूज़लॉन्ड्री के एसोसिएट एडिटर मेघनाद एस शामिल हुए. चर्चा का संचालन न्यूज़लॉन्ड्री के कार्यकारी संपादक अतुल चौरसिया ने किया.

चर्चा की शुरुआत करते हुए अतुल कहते हैं, "80 के दशक में माराडोना एक परिघटना थे, जिन्होंने 86 का वर्ल्ड कप अपने बुते पर जितवाया. हिंदुस्तान के लिहाज़ से 80 का दशक पतन का दौर था, जब हमारी इकोनॉमी की हालत ख़राब थी, सिनेमा में अपनी अच्छी शुरुआत के बाद अभिनेता अजूबा जैसी फिल्मों से जूझ रहे थे. वहीं 80 का दौर जाते जाते यूनिवर्सिटी का सिस्टम फ़ेल होने लगा, वहीं ग्रेजुएशन का सत्र खत्म होने में चार से पांच साल लगते थे और एग्जाम समय पर नहीं होते थे.

अतुल आगे कहते हैं," इसी दौर में स्टूडेंट पॉलिटिक्स अपराधीकरण में बदल गया. जो पीढ़ी इस दशक में जवान हुई वो कई मामलो में 60 और 70 के दशक की पीढ़ी से अभागे हैं. हमारे पास आइकनो की कमी थी, राजनीतिक दृष्टिकोण से तो कोई बड़ा चेहरा नहीं था. आज़ादी की लड़ाई से निकले तमाम बड़े नेता जा चुके थे, सपोर्ट का एक चेहरा जिसमें कपिल देव और फुटबॉल में माराडोना थे. तो इस लिहाज़ से माराडोना को याद करना बहुत ज़रूरी है, जब हम माराडोना को याद करते हैं तो फुटबॉल के ज़रिये जुड़ी पूरी दुनिया में लेफ्ट की राजनीति को समझने के लिहाज़ से यह बहुत ही दिलचस्प है, कि कैसे सपोर्ट में लेफ्ट ने इस तरह के आइकॉन को खड़ा किया. जिनका अपना वैचारिक प्रभाव है. जो लेफ्ट लर्निंग पार्टी के पक्ष में खड़े रहते हैं. वहीं जब माराडोना इंडिया आये तो उन्होंने ज्योति बासु से मुलाक़ात की, तो उनकी फुटबॉल के ज़रिये जो राजनीति थी, उसको समझने की ज़रूरत है."

शांतनु गुप्ता कहते हैं, "अपने बचपन की स्मृति याद है उस वक़्त केवल फुटबॉल के खिलाड़ियों के ही कार्ड आते थे. हम उस वक़्त कार्ड को इकट्ठा करते, अगर डिएगो माराडोना के कार्ड आपके पास पांच या छह हो जाते तो आपका रौला होता."

इस पर शार्दूल बताते हैं, "मैं जिस परिवेश में बड़ा हुआ, वहां फुटबॉल की कोई जगह नहीं थी. लेकिन मुझे याद है जब मैंने 1982 फीफा वर्ल्ड कप के बारे में पढ़ा था उस वक़्त माराडोना के खिलाफ इतने फाउल हुए तब पेले ने भी कह दिया कि वो नहीं कर पाएंगे. यह वर्ल्ड कप केवल माराडोना के लिए था जिसके बाद 1988 में नियमों में सुधार हुए. वो एक उम्मीद कि तरह थे जो अपने रस्ते की अड़चनों से शिद्दत से लड़ते थे."

मेधनाथ कहते हैं, "भारत में साल 1982 में बड़े तादाद में रंगीन टीवी आया, वहीं ये वर्ल्ड कप रंगीन टीवी पर देखे जाने वाला पहला वर्ल्ड कप भी था. इसमें माराडोना का योगदान था जो फुटबॉल के तौर पर जो पहला बड़ा टूर्नामेंट हुआ वो रंगीन टीवी पर हुआ था."

सलाह और सुझाव

मेधनाथ

टी.आर.पी एक्सप्लेनर

एट द एक्सिस्टेंटीयलिस्ट कैफ़े- सारा बकेवेल

शार्दुल कात्यायन

नथिंग जेनटाइल अबाउट टाकल्स ऑन माराडोना

न्यूज़लॉन्ड्री से आकांक्षा और निधि की रिपोर्ट

आर फ़्लैट आर्थर्स बिंग सीरियस ?

शांतनु गुप्ता

भारतीय जनता पार्टी पास्ट प्रेजेंट एंड फ्यूचर- शांतनु गुप्ता

भारतीय जनता पार्टी की गौरवगाथा- शांतनु गुप्ता

12209 बी.सी रामा रावण युद्धा- निलेश ओक

अतुल चौरसिया

युद्ध-यात्रा- धर्मवीर भारती

माराडोना, फुटबॉल और लातिनी अमेरिकी राजनीति

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इस बार चर्चा में लेखक और दक्षिणपंथी विचारक शांतनु गुप्ता, शार्दूल कात्यायन और न्यूज़लॉन्ड्री के एसोसिएट एडिटर मेघनाद एस शामिल हुए. चर्चा का संचालन न्यूज़लॉन्ड्री के कार्यकारी संपादक अतुल चौरसिया ने किया.

चर्चा की शुरुआत करते हुए अतुल कहते हैं, "80 के दशक में माराडोना एक परिघटना थे, जिन्होंने 86 का वर्ल्ड कप अपने बुते पर जितवाया. हिंदुस्तान के लिहाज़ से 80 का दशक पतन का दौर था, जब हमारी इकोनॉमी की हालत ख़राब थी, सिनेमा में अपनी अच्छी शुरुआत के बाद अभिनेता अजूबा जैसी फिल्मों से जूझ रहे थे. वहीं 80 का दौर जाते जाते यूनिवर्सिटी का सिस्टम फ़ेल होने लगा, वहीं ग्रेजुएशन का सत्र खत्म होने में चार से पांच साल लगते थे और एग्जाम समय पर नहीं होते थे.

अतुल आगे कहते हैं," इसी दौर में स्टूडेंट पॉलिटिक्स अपराधीकरण में बदल गया. जो पीढ़ी इस दशक में जवान हुई वो कई मामलो में 60 और 70 के दशक की पीढ़ी से अभागे हैं. हमारे पास आइकनो की कमी थी, राजनीतिक दृष्टिकोण से तो कोई बड़ा चेहरा नहीं था. आज़ादी की लड़ाई से निकले तमाम बड़े नेता जा चुके थे, सपोर्ट का एक चेहरा जिसमें कपिल देव और फुटबॉल में माराडोना थे. तो इस लिहाज़ से माराडोना को याद करना बहुत ज़रूरी है, जब हम माराडोना को याद करते हैं तो फुटबॉल के ज़रिये जुड़ी पूरी दुनिया में लेफ्ट की राजनीति को समझने के लिहाज़ से यह बहुत ही दिलचस्प है, कि कैसे सपोर्ट में लेफ्ट ने इस तरह के आइकॉन को खड़ा किया. जिनका अपना वैचारिक प्रभाव है. जो लेफ्ट लर्निंग पार्टी के पक्ष में खड़े रहते हैं. वहीं जब माराडोना इंडिया आये तो उन्होंने ज्योति बासु से मुलाक़ात की, तो उनकी फुटबॉल के ज़रिये जो राजनीति थी, उसको समझने की ज़रूरत है."

शांतनु गुप्ता कहते हैं, "अपने बचपन की स्मृति याद है उस वक़्त केवल फुटबॉल के खिलाड़ियों के ही कार्ड आते थे. हम उस वक़्त कार्ड को इकट्ठा करते, अगर डिएगो माराडोना के कार्ड आपके पास पांच या छह हो जाते तो आपका रौला होता."

इस पर शार्दूल बताते हैं, "मैं जिस परिवेश में बड़ा हुआ, वहां फुटबॉल की कोई जगह नहीं थी. लेकिन मुझे याद है जब मैंने 1982 फीफा वर्ल्ड कप के बारे में पढ़ा था उस वक़्त माराडोना के खिलाफ इतने फाउल हुए तब पेले ने भी कह दिया कि वो नहीं कर पाएंगे. यह वर्ल्ड कप केवल माराडोना के लिए था जिसके बाद 1988 में नियमों में सुधार हुए. वो एक उम्मीद कि तरह थे जो अपने रस्ते की अड़चनों से शिद्दत से लड़ते थे."

मेधनाथ कहते हैं, "भारत में साल 1982 में बड़े तादाद में रंगीन टीवी आया, वहीं ये वर्ल्ड कप रंगीन टीवी पर देखे जाने वाला पहला वर्ल्ड कप भी था. इसमें माराडोना का योगदान था जो फुटबॉल के तौर पर जो पहला बड़ा टूर्नामेंट हुआ वो रंगीन टीवी पर हुआ था."

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मेधनाथ

टी.आर.पी एक्सप्लेनर

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