रांची से पटना के बीच कैसे बांधी है लालू यादव ने चुनावी डोर?

गंवई अंदाज़, खिलंदड़ भाषा-शैली और चतुर सियासी दिमाग वाला करिश्माई नेता आज बिहार के राजनीतिक परिदृश्य से गायब है, लेकिन नेपथ्य से उसने अपनी चौसर बिछा रखी है.

WrittenBy:हृदयेश जोशी
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(तस्वीर https://adboopathy.wordpress.com  से साभार)
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“बिहार की राजनीति में लनटेन (लालटेन) अभी बुझा नहीं है बाबू… लालू जादव (यादव) का ज़ोर खतम नहीं हुआ अभी…समझे ना.” पटना से करीब 200 किलोमीटर दूर सिवान-गोपालगंज रोड पर चाय की एक दुकान पर चल रही बहस में यही वाक्य सुनायी दिये. यह इलाका लंबे वक़्त तक लालू का मज़बूत गढ़ रहा है, लेकिन अब धीरे-धीरे यहां सत्ता और सियासत उनके हाथ से फिसल रही है. ऐसे में सड़क किनारे लालटेन (लालू यादव की पार्टी आरजेडी का चुनावी निशान) को लेकर यह बात मौजूदा लोकसभा चुनावों का एक यक्ष प्रश्न दोहराती है- क्या 2015 विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के साथ मिलकर नरेंद्र मोदी का विजय रथ रोकने वाले लालू प्रसाद अब मोदी-नीतीश की जोड़ी को बिहार में रोक पायेंगे? लालू की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल और उनका महागठबंधन क्या 2019 में “सुशासन बाबू” और “चौकीदार” की जुगलबंदी से टकरा पायेगा?

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(इन लोकसभा चुनावों में बिहार की राजनीति का यक्ष प्रश्न यही है कि क्या अंतत: लालू प्रसाद यादव का राजनीतिक सूर्य अस्त हो जायेगा?फोटो – हृदयेश जोशी)

“हेलीकॉप्टर कूदा दिया ललुआ ने”

यह दिलचस्प है कि पढ़ाई-लिखाई और किताबों से काम चलाने भर का रिश्ता रखने वाले लालू यादव ने जीवन के सबसे निर्णायक राजनीतिक समर में किताब को ही अपना हथियार बनाया है. साल 2019 के चुनावी समर में जब वह पटना से 300 किलोमीटर दूर रांची की सेंट्रल जेल में कैद हैं, तो अपनी आत्मकथा के ज़रिये उनका लोगों के बीच अवतरित होना कतई इत्तेफ़ाक नहीं है.

“पिछले कई सालों से बतौर आइडिया यह किताब मेरे दिमाग में थी. लेकिन 3 साल पहले ही उन्होंने (लालू ने) मुझे याद दिलाया कि मुझे उनकी आत्मकथा लिखनी है,” लालू प्रसाद की आत्मकथा“गोपालगंज से रायसीना” के सह-लेखक और पत्रकार नलिन वर्मा कहते हैं. ज़ाहिर है लालू समय की अहमियत समझते हैं. “पिछले 12 महीने में ही इस किताब के संपादन का सारा काम किया गया है,” आत्मकथा को प्रकाशित करने वाली रूपा प्रकाशन में एक सूत्र ने न्यूज़लॉन्ड्री को यह बात बतायी. लोकसभा चुनावों से ठीक पहले बाज़ार में प्रकट हुई उनकी जीवनगाथा में वह सारे हथियार हैं, जो इस वक़्त लालू की पार्टी को चाहिये.

“हेलीकॉप्टर कूदा ही दिया ललुआ ने.” बिहार की राजनीति में सक्रिय एक वरिष्ठ नेता के ये शब्द बताते हैं कि जैसे हेलीकॉप्टर लालू यादव की पसंदीदा सवारी है, वैसे ही उड़नचिरैय्या (हेलीकॉप्टर) वाले अंदाज़ में वह अपनी आत्मकथा के ज़रिये चुनावी मैदान में टपक पड़े हैं. इसमें उन्होंने नीतीश कुमार को “सियासी मौकापरस्त” बताने के साथ-साथ उन पर बिहार में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को संरक्षण और बढ़ावा देने के आरोप भी लगाये हैं. पिछड़ों को लुभाने के लिए खुद को मंडल कमीशन लागू कराने का सूत्रधार बताया है और यह “रहस्योद्घाटन” किया है कि 2017 में उन्हें छोड़कर मोदी से मिल जाने वाले नीतीश 6 महीने के बाद फिर से वापस उनके पास आने को लालायित थे और कई बार उन्होंने इसकी कोशिश की.

लालू गैरमौजूद, लेकिन हर फैसले पर नज़र

पटना की 10 सर्कुलर रोड. राबड़ी देवी का निवास. यहां पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक चल रही है, लेकिन लोकसभा में किस सीट पर कौन लड़ेगा यह लालू यादव को ही तय करना है. “लालूजी हमारे बूथ लेवल तक सारे कार्यकर्ताओं को जानते हैं. उनके नाम तक याद रखते हैं. आज इस वक़्त उनका जेल में होना हम सब के लिए रणनीतिक लिहाज़ से एक बड़ा नुकसान है,” आरजेडी नेता और सांसद मनोज झा कहते हैं.

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(रांची के राजेंद्र आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती लालू प्रसाद यादव विपक्षी राजनीतिक का केंद्र बने हुए हैं.)

उधर रांची के राजेंद्र आयुर्विज्ञान संस्थान (रिम्स) में कैद लालू से मिलने के लिए नेता हर रोज़ अर्जी लगा रहे हैं. डायबिटीज, ब्लड प्रेशर और गुर्दे की समस्याओं के साथ हृदय संबंधी विकार और बढ़े हुए प्रोस्टेट की दिक्कत से जूझ रहे लालू के लिए रिम्स के एक हिस्से को जेल में तब्दील किया गया है. वह अपने सामने पेश की गयी इच्छुकों की लिस्ट में से तय करते हैं कि उनसे कौन मिल पायेगा. हर शनिवार सिर्फ तीन लोगों को ही इस रोगी से मिलने की अनुमति है, फिर भी कई लोग इसी उम्मीद में चले आते हैं कि शायद मुलाकात हो जाये.

कभी लालू के क़रीबी रहे और बिहार सरकार में कैबिनेट मंत्री रह चुके रमई राम भी आरजेडी अध्यक्ष से मिलने रिम्स पहुंचे थे. उन्हें हाजीपुर सीट से लोकसभा टिकट चाहिए, लेकिन महागठबंधन का वह टिकट लालू परिवार के भरोसेमंद शिवचंद्र राम को देने का वादा हो चुका है. अब तेजस्वी और राबड़ी देवी की शिकायत लेकर लालू के पास बड़ी आस से पहुंचे हैं रमई राम.

टिकट मिलना तो दूर लालू ने रमई राम से मिलने से भी इनकार कर दिया. “आज वो ठीक फील नहीं कर रहे हैं,” पुलिसकर्मी रमई राम को बताता है. इसके कुछ मिनटों बाद ही लालू ने कांग्रेस के तारिक अनवर और एनसीपी नेता डीपी त्रिपाठी से मुलाकात की. राजनीति के चतुर योद्धा लालू जानते हैं कि चुनाव के वक़्त किससे मिलना है, किससे नहीं. आरजेडी छोड़कर बार-बार पार्टी बदलने वाले रमई राम पर लालू को भरोसा नहीं रहा और उन्हें यहां से बैरंग लौटना पड़ा.

विपक्ष के तमाम नेता पिछले काफी दिनों से इसी जुगाड़ के ज़रिये  रांची के मेडिकल जेल में लालू प्रसाद से मिलते रहे हैं. तबीयत जानने के बहाने हुई सारी मुलाकातों में मक़सद राजनीति साधना ही रहता है. कांग्रेस के अखिलेश सिंह और अजय कुमार, सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी, सीपीआई के डी राजा, हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के जीतनराम मांझी, विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के मुकेश साहनी, अभिनेता और अब कांग्रेस में शामिल शत्रुघ्न सिन्हा के अलावा जेडीयू छोड़कर नयी पार्टी बनाने वाले शरद यादव. लालू चुनावों के ऐलान के साथ ही 2019 में विपक्षी राजनीति की धुरी बन गये.

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(कैद में लालू उसी से मिल रहे हैं जिस पर भरोसा है. हाजीपुर से लोकसभा टिकट की आस लेकर रांची पहुंचे पूर्व मंत्री रमई राम को बेरंग वापस लौटना पड़ा. फोटो – हृदयेश जोशी)

जेल में होना जहां लालू को चुनाव प्रचार से दूर रखे हुए है, वहीं आरजेडी के काडर और समर्थकों में लालू से जुड़ाव बढ़ा भी रहा है. “आज लालू के वोटरों, समर्थकों और काडर के बीच उनके लिए एक सहानुभूति भी है कि देखो हमारे नेता को अंदर कर दिया, जबकि सच यह है कि भ्रष्ट तो सभी हैं,” यूपी-बिहार समेत उत्तर भारत की राजनीति पर लंबे समय से लिख-बोल रहे पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक उर्मिलेश कहते हैं.

कैसे संभाली है लालू ने चुनावी डोर

पटना में राबड़ी देवी के निवास से कुछ किलोमीटर दूर राजवंशी नगर के बंगला नंबर B-3/23 में सुबह-सुबह भीड़ बढ़ने लगी है. काली-सफेद पट्टियों वाली नीली टी-शर्ट और सफेद धोती पहने एक अधेड़ व्यक्ति के पास टिकट के लिए उम्मीदवार पहुंच रहे हैं. गोल मुंह और छोटे छोटे सफेद बाल, हजामत न कर पाने से उग आयी हल्की दाढ़ी वाला यह शख्स टिकट के दावेदारों के इंटरव्यू ले रहा है. दरभंगा की बहादुरपुर सीट से विधायक भोला यादव आज लालू प्रसाद के सबसे भरोसेमंद सिपहसलारों में हैं. पटना से करीब 300 किलोमीटर दूर कैद लालू प्रसाद की चुनावी रणनीति का पहला चक्र भोला यादव जैसे विश्वासपात्र लोगों के नेटवर्क पर टिका है.

लालू के बेटे तेजस्वी यादव जहां कांग्रेस और गठबंधन के दूसरे घटकों के साथ सीटों के बंटवारे के लिए जूझते रहे, वहीं भोला यादव हर सीट के संभावित आरजेडी उम्मीदवारों की लिस्ट तैयार करते दिखे. भोला किसी भी वक़्त लालू यादव से मिल सकते हैं, क्योंकि उनके पास मरीज़ के तीमारदार (अटेंडेंट) वाला एंट्री पास है. जब राजनीतिक बात करनी हो, तो वह तीमारदार बनकर रिम्स में दाखिल हो जाते हैं. लालू के एक और तीमारदार हैं, असगर जो ज़्यादातर वक़्त रिम्स में ही मौजूद रहते हैं. लालू का मोबाइल संपर्क अपने विश्वस्तों की टीम  के साथ बना रहता है, जो ज़रूरत पड़ने पर किसी से उनकी बात करवा सकते हैं. लालू के फ़रमान पर ही आरजेडी की बैठकों की रूपरेखा बनती है और उसके आधार पर ही पार्टी के रणनीतिकार अगले क़दम तय करते हैं.

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(लालू के बेहद भरोसेमंद भोला यादव आज अस्पताल में कैद अपने नेता का बाहरी दुनिया से संपर्क सूत्र हैं और आरजेडी की रणनीति को लागू करने में उनकी अहम भूमिका है. फोटो – हृदयेश जोशी)

आख़िरी वक़्त तक जब महागठबंधन की सीटों का बंटवारा नहीं हो पा रहा था, तो उसमें कांग्रेस की ज़िद के साथ लालू यादव का भी रोल था. लालू के करीबियों ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि वह आख़िरी पल तक विपक्षियों को भ्रम में रखना चाहते हैं.

“क्या जल्दी है? वो (बीजेपी-जेडीयू) हमारा इंतज़ार कर रहे हैं. हम उनका,” लालू परिवार के क़रीबी और आरजेडी नेता जगदानंद सिंह ये बात कहते हैं. लेकिन देरी के पीछे का सच यह भी है कि लालू कांग्रेस को उतनी सीटें देने के पक्ष में भी नहीं थे जितनी सीटें कांग्रेस मांग रही थी, क्योंकि उन्हें पता है कि बिहार में असली फोर्स लालटेन है न कि पंजा.

“नीतीश-मोदी की लड़ाई तो आज बिहार में लालूजी से ही है ना. और जनाधार उन्हीं (लालू) का है वहां. तो उन्हें लग रहा है कि वोट तो हमारा है. इस तरह सब सीट लोगों में बांट देंगे तो कैसे चलेगा,” पूर्व जेडीयू सांसद अली अनवर ये बात कहते हैं, जिन्होंने 2017 में नीतीश कुमार द्वारा बीजेपी का साथ पकड़ने से ख़फा होकर पार्टी छोड़ दी थी.

2014 के लोकसभा चुनावों में आरजेडी को कुल 20% से अधिक वोट मिला, लेकिन बीजेपी विरोधी वोट में बिखराव के कारण उसे 4 सीटें ही मिलीं. लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव में जब जेडीयू और कांग्रेस उनके साथ मिलकर लड़ी तो जिन सीटों पर लालू के उम्मीदवार उतरे, वहां आरजेडी के कुल वोट 44% तक हो गये.

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2015 के विधानसभा चुनावों में आरजेडी का स्ट्राइक रेट सबसे अधिक था और उसने अपने हिस्से की 101 में से 80 सीटें जीतीं. लालू को भरोसा है कि मुस्लिम और यादव के साथ दलित और पिछड़ों का एक हिस्सा उसके साथ जुड़ेगा और गठबंधन की ताक़त लालटेन ही रहेगी. फिर भी लालू अपने सहयोगियों के साथ सीट बंटवारे में चौकस भले हों लेकिन तंगदिली नहीं कर रहे, क्योंकि उन्हें पता है कि यह चुनाव जीवन-मरण का सवाल है. इसीलिए, अपने लिए राहुल गांधी की नापसंदी को जानते हुए भी लालू ने कांग्रेस का साथ बनाये रखा है. तमाम विपक्षी पार्टियों की चुप्पी के बावजूद तेजस्वी यादव खुलकर कहते हैं कि विपक्ष की गठबंधन सरकार बनी, तो प्रधानमंत्री राहुल गांधी ही होंगे. जानकार बताते हैं कि विपरीत राजनीतिक हालात में ऐसी रणनीति के पीछे लालू का तिकड़मी दिमाग है.

परिवार और पार्टी की फ़िक्र  

जहां एक ओर कांग्रेस और घटक दलों ने आख़िरी वक़्त तक सीटों को लेकर आरजेडी के नाक में दम किये रखा, वहीं लालू यादव ने इस बात का ख़याल रखा कि सीटों के बंटवारे और उम्मीदवारों के चुनाव में उनकी पार्टी भी सुरक्षित रहे और परिवार भी. इसीलिए नीतीश से अलग होकर अपनी पार्टी बनाने वाले शरद यादव को लालू ने आरजेडी के टिकट पर लड़ने को राज़ी किया और उन्हें उनकी पसंदीदा मधेपुरा सीट दे दी. शरद यादव के लालटेन तले आ जाने से आरजेडी के लिए एक वरिष्ठ यादव नेता की कमी पूरी हो गयी. अब शरद यादव पार्टी के लिए प्रचार करते दिखेंगे और आरजेडी के कोटे की 20 सीटें भी बनी रहेंगी. इतनी सीटों पर राज्य में कोई दूसरी पार्टी चुनाव नहीं लड़ रही.

पटना में टीवी पत्रकार सौरभ कुमार कहते हैं, “बीजेपी और जेडीयू भी 17-17 सीटों पर ही लड़ रही हैं. सबसे अधिक सीटों पर लोकसभा चुनाव लड़ने से आरजेडी का दबदबा बढ़ गया है और मीडिया में लालटेन की एक हैसियत भी बनी है.”

लालू यादव को अपनी पार्टी मज़बूत करने के साथ परिवार के मोर्चे पर भी संघर्ष करना पड़ रहा है. उनके बड़े बेटे तेजप्रताप के पत्नी के साथ तल्ख़ रिश्तों को देखते हुए लालू ने तेजप्रताप के ससुर और स्थानीय विधायक चंद्रिका राय को छपरा सीट से टिकट दिया है. ताकि पारिवारिक तनाव घटे और भितरघात न हो. हालांकि तेजप्रताप का सनकी रवैया और बार-बार पार्टी छोड़कर अपनी पार्टी बनाने की ज़िद बरकरार है.

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(अपनी राजनीतिक सांझ में परिवार और पार्टी दोनों को बचाने की लालू यादव ने तिकड़मी कोशिश की है. फोटो – नागेंद्र कुमार सिंह)

एक और महत्वपूर्ण कदम में आरजेडी ने अपने हिस्से की 20 लोकसभा सीटों में से सीपीआई (माले) के लिए आरा सीट छोड़ दी है. माले आरा में मजबूत है और वह इस मदद के बदले पाटलिपुत्र सीट पर अपना उम्मीदवार नहीं उतार रही. पाटलिपुत्र में लालू अपनी बेटी मीसा भारती को लड़ा रहे हैं. मीसा पिछली बार (2014 में) भी यहां से लड़ी थी, लेकिन तब टिकट न मिलने से नाराज़ आरजेडी नेता राम कृपाल यादव बीजेपी में चले गये और उन्होंने मीसा यादव को 40,322 वोटों से हरा दिया था. महत्वपूर्ण है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में मोदी लहर के बावजूद माले के उम्मीदवार रामेश्वर प्रसाद को यहां 51,623 वोट मिले थे. माले के साथ इस समझौते का फ़ायदा मीसा को मिलना तय है. यानी लालू ने इस कदम से बेटी के लिए सीट सुरक्षित की और माले से रिश्ते भी सुधारे हैं.

कानों-कान प्रचार

टीवी कवरेज से लेकर सोशल मीडिया तक एनडीए के हाइवोल्टेज कैंपेन का क्या महागठबंधन के पास कोई तोड़ है? परिवारवाद और भ्रष्टाचार से लेकर जातिवाद और एंटीनेशनल होने के आरोपों का जवाब क्या है? लालू की पार्टी और उनके परिवार के सदस्य खुद अपने नेता को “फंसाने” के लिए सीबीआई के बेजा इस्तेमाल का आरोप लगाते हैं. अपने निवास पर सुबह-सवेरे समर्थकों से घिरे भोला यादव ने कहा, “उनके नेता (लालू यादव) जानते हैं कि बीजेपी की “व्हाट्सएप” और “सोशल मीडिया आर्मी” से कैसे निबटना है.”

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(लालू यादव की कई समस्याओं में से एक पारिवारिक कलह भी है. बड़े बेटे तेजप्रताप के गुस्से और धमकियों का क्रम लगातार जारी है. फोटो – नागेंद्र कुमार सिंह)

“जिसके पास जनशक्ति है, उसके पास धनशक्ति न भी हो तो वह भारी रहेगा. वह धनशक्ति के सहारे किराये के लोगों को, आरएसएस के लोगों को पैसा देकर काम करवा रहे हैं,” भोला यादव बताते हैं. उनके मुताबिक़ लालू का अपने समर्थकों को पैगाम है कि गांव-गांव में “कानों-कान प्रचार” किया जाये.

“हमारे लोग बिना वेतन के कानों-कान अपनी बात सब लोगों तक पहुंचा रहे हैं. यह जो व्हाट्सएप और सोशल मीडिया है, इस पर हमारे लोग भी सजग हैं और (जनता) अब इन लोगों के छलावे में आनी वाली नहीं है. लालू जी का कहना है कि कानों-कान संदेश को हर जगह पहुंचाया जाये. हम ये काम कर रहे हैं.”

“नून-रोटी खायेंगे लेकिन…”

पटना से करीब 100 किलोमीटर दूर शाहपुर गांव में भी कई लोग लालू प्रसाद को बिहार में पनपे भ्रष्टाचार और पिछड़ेपन के लिए ज़िम्मेदार मानते हैं और नरेंद्र मोदी को उम्मीद की किरण बताते हैं. दिलचस्प है कि यहीं पर लालू के कट्टर समर्थक भी हैं, जिनके लिए लालटेन को जिताना ही मक़सद है. 45 साल के शंकर यादव और 51 साल के लाल मोहन राय हर हाल में “लनटेन छाप” को ही वोट करने की बात करते हैं और उन पर एयर स्ट्राइक और राष्ट्रवाद के नारों का कोई असर नहीं दिखता.

“इ जो हादसा हुआ पाकिस्तान का और भारत का और जो इसमें सुन रहे हैं कि 200 से 300 मारा गया, इ हमें सही नहीं बुझा रहा है,” शंकर यादव कहते हैं. शंकर और राय दोनों मज़दूर हैं और उन पर लालू द्वारा निर्देशित “कानों-कान प्रचार” का असर साफ़ दिखता है. दोनों ही पाक पर एयर स्ट्राइक, काले धन पर चोट और विकास योजनाओं को “ठगी” और “झूठा प्रचार” बताते हैं. आरजेडी नेता बताते हैं कि उनका प्रचार तंत्र इस बात को अपने वोटरों तक पहुंचा रहा है कि लालू प्रसाद में ही “कॉरपोरेट के आगे न झुकने” और “सांप्रदायिकता से समझौता न करने” की हिम्मत रही है.

लालू को “पिंजड़े में बंद शेर” कहने वाले उनके करीबी जगदानंद सिंह कहते हैं कि अब आरजेडी कार्यकर्ताओं के हाथ में भी स्मार्ट फोन है और वह बीजेपी और उनके समर्थकों को “खदेड़” रहे हैं.

“आपको दिखता नहीं है… सोशल मीडिया के बल पर ये (बीजेपी) लोग आये और आज क़ानून लाना चाहते हैं इसे (सोशल मीडिया को) कंट्रोल करने के लिए,” जगदानंद सिंह कहते हैं. “यह लोग भागे फिर रहे हैं आज. आप बताइये जब सोशल मीडिया पर कैंपेन चल पड़ा कि ‘चौकीदार ही चोर है’ तो इन्हें क्यों काउंटर करना पड़ रहा है कि ‘चौकीदार चौकन्ना है’… बताइये ज़रा.”

तो इस सोशल मीडिया की नयी ताक़त और कानों-कान प्रचार रणनीति का असर शंकर यादव और लाल मोहन राय के साथियों के सुर में भी दिखता है. “भैय्या देखियेगा चुनाव के दिन. डटे रहेंगे पोलिंग बूथ पर. नून-रोटी (नमक और रोटी) खायेंगे, लेकिन लनटेन छाप को जितायेंगे.”

पुत्रमोह और कन्हैया को नो सपोर्ट

यह दिलचस्प है कि माले के साथ सहयोग करने वाले लालू ने दूसरी वामपंथी पार्टियों सीपीएम और सीपीआई को घास नहीं डाली. बेगुसराय के दिलचस्प मुकाबले में सीपीआई के कन्हैया कुमार के सामने आरजेडी के तनवीर हसन हैं. माना जा रहा है कि इससे पैदा हुआ त्रिकोणीय मुकाबला बीजेपी के उम्मीदवार गिरिराज सिंह के लिए संजीवनी की तरह काम कर सकता है. बिहार सीपीआई के सचिव सत्यनारायण सिंह ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि पिछले एक साल से उनकी पार्टी लालू यादव के साथ संपर्क में थी और लालू ने मिलकर चुनाव लड़ने की बात कही थी. “25 अक्टूबर को हमारी पटना में रैली हुई थी 2 से 3 लाख लोग इकट्ठा हुए उसमें. उनके नेता रामचंद्र पूर्बे और तनवीर हसन दोनों आये थे. शरद यादव, गुलाम नबी आज़ाद, जीतन राम मांझी सभी थे. सबने मिलकर एक सुर में कहा कि बिहार में मिलकर चुनाव लड़ना है और एनडीए को हटाना है.”

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(सीपीआई के कन्हैया कुमार को लालू की पार्टी ने समर्थन क्यों नहीं दिया? क्या पुत्रमोह में लालू किसी युवा नेता को बिहार की राजनीति में नहीं उतरने देना चाहते?)

कन्हैया के खिलाफ उम्मीदवार उतारना इन चुनावों में लालू की एक बड़ी भूल कही जा सकती है, क्योंकि इस सीट पर बीजेपी के धाकड़ भूमिहार नेता गिरिराज सिंह को आरजेडी और सीपीआई मिलकर हरा सकते थे. लेकिन क्या कन्हैया का भी भूमिहार होना आरजेडी प्रमुख की आंख की किरकिरी बना या फिर लालू यादव का पुत्रमोह आड़े आ गया. जहां पार्टी सांसद मनोज झा “आरजेडी कार्यकर्ताओं की ज़िद” और कई साल से चल रही तैयारी को मजबूरी बताते हैं, वहीं दूसरा पहलू अधिक समझ में आता है.

“भूमिहारों को आरजेडी और लालू यादव फूटी आंख नहीं सुहाते. लालू जानते हैं कि कन्हैया को सपोर्ट करने के बदले कभी भूमिहार वोट उन्हें नहीं मिलेगा. लेकिन दूसरी समस्या ज्यादा बड़ी है और वह है कन्हैया का तेजस्वी की तरह युवा होना. कन्हैया उनको (तेजस्वी को) अपनी छाया में ढक सकते हैं,” आरजेडी के एक नेता ने नाम न बताने की शर्त पर न्यूज़लॉन्ड्री को बताया.

तेजस्वी यादव पार्टी के समर्पित काडर और मतदाताओं के बीच एक युवा और स्वीकार्य नेता तो हैं, लेकिन अभी वह अपने पिता की विरासत ही ढोते दिख रहे हैं. उन्हें लालू की तरह जननायक बनने के लिए लंबा रास्ता तय करना होगा, जबकि कन्हैया की चमक और लोगों के साथ जुड़ाव उन्हें एक अलग पहचान देता है. सत्यनारायण सिंह कहते हैं कि लालू और तेजस्वी पर कन्हैया का खौफ़ छाया है. “उन्हें लगता होगा कि अभी (कन्हैया) जीता, तो अगले विधानसभा चुनाव में सक्रिय हो जायेगा.”

लालू की गलती सिर्फ बेगुसराय तक सीमित नहीं है. उपेंद्र कुशवाहा, जीतनराम मांझी और मुकेश साहनी जैसे लोगों को 40 में से 11 सीटें दे देना भी सवाल खड़े करता है. माना जा रहा है कि अगर ये खिलाड़ी जीते भी, तो पूर्ण बहुमत न मिलने की स्थिति में मोदी-शाह की जोड़ी ऐसी छोटी पार्टियों को अपनी ओर खींच सकती है.

प्रभात ख़बर के पत्रकार मिथिलेश कुमार इन अटकलों के बारे में कहते हैं, “वैसे इसी बात का ख़याल रखते हुए आरजेडी ने इन पार्टियों के उम्मीदवारों में अपने लोग फिट कर दिये हैं. तीनों ही दलों में कम से कम एक-एक उम्मीदवार लालू प्रसाद का ही आदमी है.”

फिर भी कई राजनीतिक पर्यवेक्षकों को लगता है कि यह कदम मोदी-नीतीश के ख़िलाफ़ मुहिम में काफी महंगा साबित होगा और लालू को ऐसे दलों के बजाय सीपीआई (माले) जैसी पार्टियों से अधिक तालमेल बिठाना चाहिये था.

“मैं समझता हूं कि महागठबंधन ने सीटों का जो बंटवारा किया है, उसमें बड़ी गलती की है. कम्युनिस्टों के पास यहां कुछ जगह संगठन, वोट और बीजेपी के ख़िलाफ़ लालू से अधिक समर्पित विचारधारा के लोग हैं.” लेखक और पूर्व विधान परिषद सदस्य प्रेम कुमार मणि कहते हैं. “चुनाव के बाद ये सब (कुशवाहा, साहनी, मांझी) किधर जायेंगे पता नहीं, लेकिन वामपंथी तो बीजेपी के ख़िलाफ़ ही रहेंगे. जो सीटों का बंटवारा किया गया है, उससे बाद में इन्हें (आरजेडी को) असुविधा हो सकती है.”

“लालू जी का फोटो स्टेट” 

छपरा की धूल भरी सड़क पर गहरे रंग की एसयूवी से सफेद पतलून और सूती कमीज पहने एक नौजवान उतरता है. साथ में समर्थकों की एक टोली भी. जितेंद्र कुमार राय छपरा से लगी मरहौड़ा सीट के विधायक हैं और लोकसभा टिकट की उम्मीद लिए अपने क्षेत्र में जनसंपर्क करते दिखे. वह अपने नेता की तारीफ़ के पुलिंदे अपने साथ लिए चलते हैं.

अपने 15 साल के राज में आरजेडी ने कोई विकास क्यों नहीं किया? इस सवाल के जवाब में विधायकजी अपनी गाड़ी से दस्तावेज़ निकलवाते हैं और परचे दिखा-दिखा कर “लालू जी” की विकास योजनाएं गिनाने लगते हैं. राय कहते हैं, “दिल्ली में पत्रकार लोगों को पता नहीं है. कुछ ज़मीन के नीचे का बात है, जो आप तक नहीं पहुंचा है.”

“आप टिकट चाहते हैं?”

“हां…बिलकुल… मिला तो लड़ा जायेगा.”

“अगर किसी और को टिकट मिल गया तो क्या करेंगे?” यह पूछने पर राय गंभीर हो जाते हैं. “देखिये यहां कंडिडेट-वंडिडेट कुछ नहीं है. जो भी खड़ा होगा, लालू जी का फोटो स्टेट होगा.” वह अपनी हथेली दिखाते हुए ऐलान करते हैं.

जितेंद्र राय को टिकट नहीं मिला. उनकी “फोटो-स्टेट” थियरी बताती है कि आरजेडी की जीत किस कदर लालू के करिश्मे और जातिगत समीकरण पर टिकी है. आज यही जातिगत राजनीति जो लालू यादव की ताकत रही है, वह उनकी आलोचना का आधार भी बन रही है.

“सब अपनी ही जात के लोगों को टिकट बांटा है लालू जादव ने” यह राजनीतिक गलियारों से लेकर आम जनता में सुनायी देने वाला सामान्य कथन है. लालू राज में यादवों को मिला संरक्षण और ताक़त का अहसास इतना बढ़ा कि धीरे-धीरे वह दूसरे कमज़ोर-पिछड़े समुदायों को भी अपने साथ सौतेला व्यवहार लगने लगा. ताक़तवर राय (यादव) अक्सर अपने को भगवान का एजेंट बताने लगे.

“लालू जादव को कैसे भोट (वोट) दें… जब उनका राज रहा तो यादव कहते थे कि ऊपर राम है और नीचे राय (यादव),” मल्लाह समुदाय के जोखन ने ये बात कही.

“लद गये लालू के दिन?”

बिहार में नब्बे के दशक में लालू के साथ जुड़ी कई जातियां आज उनसे छिटक गयी हैं. बीजेपी-जेडीयू गठबंधन ने उनकी पार्टी की इस चुनौती को और विराट बनाया है. अब उनकी संभावनाएं बिहार के उस मुस्लिम-यादव वोट पर टिकी हैं, जिसका जोड़ क़रीब 28% माना जाता है. जहां एक ओर मुस्लिम वोटरों का अधिकांश हिस्सा आरजेडी के साथ खड़ा दिखता है, वहीं आज असली परीक्षा लालू प्रसाद के अपने यादव वोट की है.

“यादवों की युवा पीढ़ी अब बीजेपी और नीतीश को वोट देने में नहीं हिचकेगी. हमारे कई दोस्त-साथी यादव समुदाय के हैं. वह लालू को पसंद नहीं करते,” 48 साल के श्रीकृष्ण शर्मा छपरा के बाज़ार में ये बातें बताते हैं. “लालू के दिन अब लद गये हैं सर. वह फिर से नहीं आने वाले. नीतीश ग़लती किये पिछले (विधानसभा) चुनावों में इनसे हाथ मिला के. फिर से ज़िंदा कर दिये वो लालू की पार्टी को.”

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(कमज़ोर और दबे कुचलों का एक बड़ा हिस्सा जो कभी लालू के साथ था, अब आरजेडी से अलग होकर अपनी राजनीतिक पहचान खोज रहा है. इनमें से कई अब लालटेन के वोटर नहीं रह गये हैं. फोटो – हृदयेश जोशी)

राजनीति के माहिर और समाज विज्ञानी कहते हैं कि लालू यादव ने बिहार के पिछड़े और दबे-कुचले समाज को सम्मान और ताक़त का अहसास कराया और सामाजिक बराबरी का यह संघर्ष भी “ऊंची जातियों” की लालू के प्रति इस आक्रामकता के पीछे एक कारण है.  लेकिन आज यह अभिजात्य आक्रामकता लोकतांत्रिक होड़ में चुनावी रूप से कामयाब भी हो रही है, क्योंकि सत्ता में रहते हुए जिन पिछड़ों और शोषितों के लिए काम करने का लालू प्रसाद दावा करते थे, व्यावहारिक रूप से देखा जाये तो उनमें से सिर्फ यादव जाति ही लालू के साथ रह गयी है.

“नब्बे के दशक से अब तक राजनीति में बहुत परिवर्तन हो गया है. यादवों के अतिरिक्त बाक़ी कमज़ोर और छोटी जातियों की अपनी अलग अस्मितायें बन गयी हैं और वह अलग तरीके से राजनीति में होड़ करना चाहती हैं चाहे वह कुशवाहा हो या मांझी हो या दूसरे लोग हों. इन सब जातियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी उतनी ही प्रबल हैं, जितनी यादवों की हैं. ये सब भी राजनीति में अपनी हिस्सेदारी चाहती हैं.” सीएसडीएस के अभय कुमार दुबे कहते हैं.

दुबे के मुताबिक चूंकि लालू यादव इन सब जातियों को सत्ता में यादवों की तरह हिस्सेदार नहीं बना सके, इसलिए वह बीजेपी और एनडीए के अन्य घटकों के साथ जाने से नहीं हिचकते. इसी तरह लालू पर अपने पूर्ववर्ती कर्पूरी ठाकुर के उलट विकास कार्यों की अनदेखी के साथ परिवारवाद को बढ़ावा देने और भ्रष्टाचार को पनपाने का दाग भी लगा.

“उन्होंने न केवल सत्ता प्राप्त की, बल्कि सत्ता का परिवार और परिवारवाद के लिए इस्तेमाल भी किया जो कर्पूरी ठाकुर की शैली नहीं थी. इसीलिए कर्पूरी ठाकुर के देहांत के बाद भी बिहार के समाज में उनकी एक साख है और उन्हें आदर्श के रूप में देखा जा सकता है. मुझे शक है कि लालू का इतिहास उन्हें इसी रूप में याद करेगा.” दुबे कहते हैं.

यह चुनाव कई मायनों में लालू यादव की ताक़त, लोकप्रियता और उनकी नियति का गवाह रहेगा. ढलती राजनीतिक सांझ में उनकी प्रत्यक्ष गैरमौजूदगी पूरे महागठबंधन की सेहत पर असर डाल सकती है. देहाती अंदाज़ और विनोदपूर्ण भाषा-शैली से ऊर्जा का संचार करने वाला करिश्माई नेता आज छपरा से किशनगंज तक नदारद है, लेकिन नेपथ्य से वह कुटिल दिमाग एक सियासी चौसर खेलने में कितना कामयाब हो पाता है, इसकी झलक लोकसभा के नतीजों पर ज़रूर दिखेगी.

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