फेसबुक के मालिक जुकरबर्ग की अमेरिकी सीनेट में पेशी दुनिया भर के लोकतंत्र और लोकतात्रिक संस्थाओं के लिए मिसाल बननी चाहिए, इतिहास में तो यह दर्ज होगा ही.
डाटा लिकेज के लिए मार्क जुकरबर्ग को दो दिन अमरीका की संसद में खड़ा होना पड़ा. जहां 44 सांसदों ने उनसे पांच घंटे तक कड़े सवाल पूछे. जुकरबर्ग को कई चीजों के लिए माफी मांगनी पड़ी. नीतियों में बदलाव और तकनीक में सुधार का भरोसा देना पड़ा. खुशी हुई यह जानकार कि तमाम वैचारिक और सियासी मतभेदों के बावजूद वहां किसी संस्थान की इतनी गरिमा बाकी है कि उसके सामने जुकरबर्ग का रसूख पानी भरता नजर आया.
मैं तभी से सोच रहा हूं कि भारतीय संसद में कब ऐसा दिन आएगा, जब वहां भी हम किसी जुकरबर्ग को ऐसे ही हाथ बांधे खड़ा देखेंगे. अपनी गलतियों पर माफी मांगते, पछताते और सुधार का भरोसा दिलाने की भरसक कोशिश करते हुए देख पाएंगे. यह असल में हमारे संस्थान की गरिमा बहाली का अवसर होगा.
मैंने ढूंढने की बहुत कोशिश की, लेकिन ऐसा कोई उदाहरण खोज नहीं पाया कि भारतीय संसद में किसी व्यक्ति को इस तरह बुलाया गया हो. उससे जवाब-तलब किया गया हो. एक-दो मामले ऐसे याद जरूर आए, जिसमें संसद की अवमानना को लेकर किसी को तलब करने की बात उठी थी. लेकिन अमेरिकी सिनेट में जो हुआ वह चमत्कृत करता है.
लोगों की निजता का अधिकार, 2016 के चुनाव में रूसी हस्तक्षेप, फेक न्यूज से जुड़े सवालों पर पूरी सिनेट एक तरफ और अपने शीर्ष वकीलों और नीति निर्माताओं की भीड़ से घिरे जुकरबर्ग एक तरफ खड़े थे. सिनेटर्स ने सीधे सवाल दागे. जुकरबर्ग से राजनीतिक भाषणों पर सवाल किया गया. उन्हें कहना पड़ा कि मैं नहीं चाहता कि मेरा कोई व्यक्ति किसी राजनीतिक विचारधारा पर कोई फैसला ले. फेसबुक के खलीफा को भरोसा दिलाना पड़ा कि वे पूरी कोशिश करेंगे कि राजनीतिक भाषणों में किसी तरह की छेड़छाड़ न हो.
एक सिनेटर ने तो सीधे ही पूछ लिया कि क्या आपको लगता है कि आप और फेसबुक बहुत पॉवरफुल हैं. जुकरबर्ग इस बात का कोई जवाब नहीं दे पाए. खामोशी से सुनकर रह गए. एक अन्य सिनेटर ने पूछा कि आप यूजर्स की जानकारियों की हिफाजत क्यों नहीं कर पा रहे हैं. अनुचित सामग्री हटाने का हक़ उन्हें क्यों नहीं दे पा रहे हैं. ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि किसी को कहीं अनुचित सामग्री नजर आए तो वह उसे हटा सके. जवाब में जुकरबर्ग इतना ही कह सके कि कंटेट नीति को बेहतर करने की जरूरत है. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद से ऐसे कंटेंट पर चेतावनी जारी करने का इंतजाम किया जाएगा.
एक सिनेटर ने निजता पर जुकरबर्ग को ही निशाने पर लिया. पूछा, आप रात को जिस होटल में ठहरे थे, उसका नाम सार्वजनिक करना पसंद करेंगे. उन लोगों के नाम बताना चाहेंगे जिन्हें आपने पिछले सप्ताह आपको मैसेज किए थे? आपकी निजता का अधिकार, उस अधिकार की सीमाएं क्या हैं, पूरी दुनिया को जोड़ने की आड़ में आप मॉर्डन अमेरिका को क्या दे रहे हैं? यह एक ऐसा सवाल था, जिसने दिल लूट लिया. आखिरकार जुकरबर्ग को मानना ही पड़ा कि हमने अपनी जवाबदेही मानने में चूक की है. मुझसे बड़ी गलती हुई है, माफ कर दें.
अक्सर टी शर्ट में रहने वाले जुकरबर्ग सिनेटर्स के सामने नेवी ब्लू सूट और चटकीली नीली टाई पहनकर आए थे. शायद वे जताना चाह रहे हों कि यूनिवर्सिटी के दोस्तों के बीच संवाद के माध्यम के रूप में शुरू हुए फेसबुक को वे अब परिपक्व बनाना चाहते हैं. नीले रंग से आसमानी उम्मीद देना चाहते हैं कि जो गलतियां की उसके लिए माफ कर दें और आगे के लिए मौके दें, ताकि हम सुधार कर पाएं. क्योंकि जिस समय जुकरबर्ग सिनेटर्स से रूबरू हो रहे थे, ठीक उसी समय बाहर कई लोग जासूसी बंद करो और डिलिट फेसबुक का झंडा बुलंद कर खड़े थे.
तब मुझे नीरव मोदी की याद आई, जब उसने कहा था कि बैंक और जांच एजेंसियों ने जल्दबाजी की. मेरा सारा धंधा चौपट कर दिया. अब मैं रुपए कहां से और कैसे चुका पाऊंगा. यानी हमारे यहां चोरी और सीना जोरी का मौसम है और वहां कैसे गलती पर कोई आदमी के संसद यानी पूरे देश के सामने आंख नीचे करके खड़ा है.
हमारे यहां तो बड़े से बड़े मुद्दे पर भी पक्ष-विपक्ष के बीच एकजुटता देव दुर्लभ ही है. फिर एक-दूसरे की मदद और प्रशंसा की तो कल्पना ही नामुमकिन है. दो ही उदाहरण पूरी सियासत को याद आते हैं, एक कि पं. जवाहरलाल नेहरू ने कभी अटल जी को कहा था कि मुझे खुशी होगी कि आप देश के प्रधानमंत्री बनें. और उन्हीं अटल जी ने पाकिस्तान के विभाजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने पर इंदिरा गांधी को दुर्गा कहा था. हालांकि बाद में इसे तोड़ने-मरोड़ने के भी तमाम उपक्रम हुए.
फिर भी अमेरिकी सीनेट में जुकरबर्ग के साथ जो कुछ हुआ वह मिसाल और उम्मीद जगाती है कि हमारे यहां भी वह सुबह कभी तो आएगी जब हम किसी नीरव मोदी, विजय माल्या या ललित मोदी को ऐसे ही खड़ा देखेंगे.
(अमित मांडलोई की फेसबुक वॉल से साभार)