8 जवानों की मौत और लगभग 800 कोरोना संक्रमित जवानों के बीच कैसे काम कर रही है दिल्ली पुलिस और उसके जवान.
यह रिपोर्ट लिखने के दौरान ही दिल्ली पुलिस में कोरोना से 9वीं मौत हुई है. दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल में तैनात इंस्पेक्टर संजीव कुमार यादव की मंगलवार देर रात मौत हो गई. वह साकेत स्थित मैक्स अस्पताल में वेंटिलेटर पर थे. उन्हें दो बार प्लाज्मा दिया गया था.
इससे पहले 12 जून को दिल्ली के जीटीबी अस्पताल में दिल्ली पुलिस के एसआई संजीव कुमार की कोरोना से मौत हो गई. 53 वर्षीय संजीव कुमार क्राइम ब्रांच में कार्यरत थे. इस घटना से सिर्फ चार दिन पहले ही सीमापुरी थाने में तैनात अजय कुमार नाम के कॉन्सटेबल की मौत कोरोना संक्रमण से हुई थी.
कोरोना से लड़ रहे फ्रंटलाइन वारियर्स में पुलिस का अमला बेहद महत्वपूर्ण है. कई मामलों में यह बेहद असुरक्षित भी हैं क्योंकि इन्हें खुले में अपनी ड्यूटी निभानी पड़ती है. अब तक सामने आए आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली पुलिस के नौ कर्मचारियों की मौत कोरोना संक्रमण के चलते हो चुकी है, इसके अलावा अब तक लगभग 1400 दिल्ली पुलिस के कर्मचारी संक्रमित हो चुके हैं.
जैसे-जैसे देश और दिल्ली में कोरोना का संक्रमण बढ़ रहा है, उसी गति से दिल्ली पुलिस के जवान भी इसकी चपेट में आ रहे हैं. इस जानलेवा वायरस से संक्रमितों का कुल आंकड़ा 5.48 लाख और मरने वालों की संख्या 16,500 को पार कर गई है.
कोरोना संक्रमण के मामलों के बीच राजधानी दिल्ली का कुछ बुरा ही हाल सामने आ रहा है. यहां पिछले कुछ दिनों में रोजाना लगभग 3000 कोरोना के मामले सामने आ रहे हैं. अब तक दिल्ली में 2500 से ज्यादा लोग इससे अपनी जान गंवा चुके हैं.
कोरोना का प्रभाव बढ़ने के बाद दिल्ली पुलिस की दिनचर्या में क्या बदलाव आया है. उनके सामने क्या चुनौतियां पेश आ रही हैं, बल का मनोबल और जोश किस तरह से ऊपर उठाया जा रहा है,परिवारिक जिम्मेदारियां किस तरह से निभा रहे हैं. और इन सबके बीच किस तरह से वो अपनी डयूटी कर रहे हैं. इन सवालों का जवाब खोजने के लिए न्यूज़लॉन्ड्री ने दिल्ली के कुछ पुलिस थानों का दौरा किया.
थाना, न्यू फ्रेन्ड्स कालोनी
दक्षिणी-पूर्वी दिल्ली के थाना, न्यू फ्रेन्ड्स कालोनी के गेट पर हमें एक पोस्टर लगा नज़र आया. इसमें कोरोना से बचने के उपाय लिखे थे और साथ ही साफ-साफ लिखा था- “कृपया थाने में प्रवेश से पहले हाथों को ठीक प्रकार से धोयें.” अंदर घुसते ही इंक्वायरी रूम में भी कोरोना से बचाव व उपाय के दो छोटे-छोटे पोस्टर दिखे. थाने में पुताई का काम भी चल रहा था.और दूसरी तरफ एक सैनेटाइजर की बोतल रखी हुई थी.
यहां हमारी मुलाकात एक हेड कॉन्स्टेबल से हुई. ये कुछ दिन पहले ही कोरोना पॉजिटिव पाए गए थे और स्वस्थ होकर दोबारा से ड्यूटी पर लौटे थे. लेकिन हमसे बात करने से वो कतराते रहे. उन्होंने संकोच के साथ कहा, “हमें कुछ भी बोलने की इजाजत नहीं है.”
जब हमने उनसे उनके कोरोना के दौरान हुए अनुभव साझा करने को कहा तो वे मुश्किल से बताने को तैयार हुए लेकिन अपना नाम उजागर करने को तैयार नहीं हुए. उन्होंने बताया, “मई में मैंने खुद ही अपना चेकअप कराया था, तो उसमें मेरी रिपोर्ट पॉजीटिव आई. मैंने तुरंत अपने एसएचओ को सूचित किया. उन्होंने तुरंत मुझे एम्स में भेजा, लेकिन वहां बहुत बुरी हालत थी. मुझसे कहा गया कि यहां बेड खाली नहीं है. फिर मुझे वहां से हरियाणा के झज्जर एम्स के लिए रेफर कर दिया गया.वहां काफी अच्छी सुविधाएं थीं. बल्कि वहां दिल्ली एम्स से भी अच्छी सुविधाएं मौजूद थी.वहां से 12 दिन के बाद मैं अपने घर लौटा. उस समय पड़ोसियों के हल्के विरोध का सामना करना पड़ा. लेकिन फिर मैंने उन्हें समझाया और खुद को अपने घर में क्वारंटीन कर लिया. किसी से मिलता भी नहीं था. इस तरह मैं लगभग एक महीने घर रहा, अभी सोमवार को फिर से डयूटी जॉइन किया है.”
जब आपके घर में पता चला कि आपको कोरोना हो गया है, तो उनकी क्या प्रतिक्रिया थी. इसके जवाब में वो बताते हैं, “मैंने सिर्फ अपने लड़के से इस बारे में बताया था, अपनी पत्नी को नहीं बताया. और बेटे से भी मना कर दिया था कि उन्हें न बताए. क्योंकि वह खुद बीमार रहती हैं.जब मैं घर वापस लौटा उन्हें तभी पता चला.”
इसके बाद उनके कहने पर एक अन्य हेड कांस्टेबल ने हमसे बात की. इस सवाल पर कि कोरोना के चलते आप लोगों के कामकाज के तरीके में किस तरह का बदलाव आया है, वो एक तरह से पल्ला झाड़ते हुए बोले, “कोई खास बदलाव नहीं आया, जैसे पहले थी वैसी ही अब है, पुलिस तो जनता की सेवा करने के लिए बनी है, वह पहले भी करती थी, अब भी कर रही है.”
परिवारवालों में कोई डर वगैरह के बारे में पूछने पर उन्होंने फिर इसी तरह का जवाब देते हुए कहा, “मैं नौकरी कर रहा हूं, तो पूछ है, सब पैसे को पूछते हैं. इसके बाद उन्होंने कहा कि आप थोड़ा इंतजार करिए मैं आपकी बात किसी और से कराता हूं, वह आपको सही से जानकारी देंगे.”
इस दौरान हमने पाया कि थाने में आने वाले हर व्यक्ति को बाहर गेट पर ही रोक दिया जाता है. उसकी शिकायत एहतियातन गेट के बाहर से ही सुनी जा रही थी. अधिकारी कई मौकों पर खुद ही भीतर से आकर उनकी शिकायतें सुन रहे थे.
इसी दौरान कांस्टेबल बिजेंद्र यादव हमसे मिलने आए. उन्होंने कहा,“कोरोना के बाद सबसे बड़ा बदलाव तो ये आया है कि सभी ने साफ रहना सीख लिया है. हर कोई इस डर से कि कोरोना न हो जाए, साफ-सफाई रखता है.”
मूल रूप से मेरठ निवासी बिजेंद्र ने आगे बताया, “थाने में अब रोज सभी का रूटीन से हेल्थ चेकअप किया जाता है और बाकायदा उसे रजिस्टर में लिखा जाता है. थाने के डयूटी अफसर की देख-रेख में ये कार्य किया जाता है. इस दौरान अगर किसी को कोई परेशानी होती है तो तुरंत एसएचओ को सूचित किया जाता है और एसएचओ उसे अस्पताल भिजवाते हैं. इसके अलावा खाने-पीने में भी विशेष ध्यान दिया जा रहा है.”
अपराधियों को किस तरह से आप ला रहे हैं. इस पर बिजेंद्र ने बताया कि पकड़ने के बाद पहले उसकी शारीरिक जांच की जाती है. साथ ही सारी सावधानियों के साथ उसे लाया, ले जाया जाता है. अब किसी को भी सीधे अंदर आने की इजाजत नहीं है. जैसे पहले अंदर कोई भी आ जाता था, अब ऐसे नहीं आ सकता.
हमने एसएचओ से बात करने की कोशिश भी की लेकिन उन्होंने मना कर दिया. लगभग एक घंटे के दौरान हमने इस थाने के कई पुलिसकर्मियों से बातचीत की. उनमें से ज्यादातर बोलने सेबचते नजर आए.एक पुलिसकर्मी ने दबी जुबान में यह बात स्वीकार की कि सुधार तो हुआ है लेकिन उतना नहीं, जितना होना चाहिए.
थाना, लाजपत नगर.
न्यू फ्रैन्डस कालोनी के बाद हमारा अगला पड़ाव था, दिल्ली का लाजपत नगर थाना. यहां हमें गेट पर ही तीन सिपाही खड़े मिले, जिनमें से 2 हेड कांस्टेबल थे. जब हमने बताया कि इस बारे में बात करनी है तो उनमें से एक ने बिफरते हुए कहा, “हमें नहीं पूछता कोई भी, हम तो पहले भी बेकार थे अब भी बेकार हैं.”
वे अभी बोल ही रहे थे, तभी दूसरे कांस्टेबल ने बीच में बोलते हुए कहा, “हम कुछ नहीं कह सकते, हमें इसकी परमिशन नहीं है. वर्दी पहनने के बाद हम एक शब्द भी मीडिया से नहीं बोल सकते.” जब हमने पूछा कि फिर किससे बात करनी पड़ेगी तो उन्होंने कहा, “डीएसपी साहब से बात करो, वही कुछ बोलेंगे. वह सरिता विहार में बैठते हैं, आप वहां चले जाओ.”
इसके बाद हमने वहां से जाना ही बेहतर समझा. और हम अगले थाने की तरफ निकल पड़े.
थाना, अमर कॉलोनी
इके बाद हम पहुंचे, लाजपत नगर के ही अंतर्गत आने वाले अमर कॉलोनी थाने. यहां हमने पाया कि कोरोना के दौर में इस थाना से अन्य थाने वाले भी कुछ सीख हासिल कर सकते हैं.
गेट पर हमें 2 महिला कांस्टेबल मिलीं, जिन्होंने हमसे कहा कि पहले आप अंदर से परमिशन ले लो. अंदर जैसे ही हम घुसे दरवाजे के पास ही एक मशीन लगी थी, जिसमें कागजों को सेनेटाइज करने की सुविधा थी. इसके बाद एक महिला कांस्टेबल हमें एसएचओ अनंत कुमार गुंजन के पास ले कर गईं. जाने से पहले सैनेटाइज मशीन में हमारे हाथों को सैनेटाइज कराया गया. एसएचओ से हमने बताया कि कोरोना में पुलिसवालों की लाइफ में कैसे और क्या बदलाव आया है इस पर काम कर रहे हैं तो उन्होंने दो अन्य थानों के विपरीत, बेझिझक हमसे कहा कि आप जिससे चाहो बात कर सकते हो.
इसके बाद हम पास ही के कमरे में काम कर रहीं महिला कांस्टेबल ललिता नागर से मिले. लगभग 11 साल से डयूटी कर रहीं ललिता ने बताया, “कोरोना ने जिंदगी पूरी तरह से बदल दी है. पहले मैं डयूटी के बाद रोज चाहे रात को 2 बजे जाना हो, फरीदाबाद के पास स्थित तिगांव अपने घर जाती थी. लेकिन इस दौरान लगातार 2 महीने घर नहीं गई थी. क्योंकि मुझे अपने से ज्यादा अपने 2 बच्चों और परिवार की चिंता थी. इस दौरान अगर बच्चे परेशान होते तो वीडियो कॉलिंग से बात कर लेती. बच्चों की देखभाल भी पीडब्लूडी हरियाणा में कार्यरत हसबैंड ही कर रहे हैं.”
ललिता आगे कहती हैं, “जब कभी घर जाती हूं तो सबसे अलग अपने कमरे में रहती हूं, बच्चे कहते हैं कि जब कोरोना खत्म हो जाए तब डयूटी जाना,छुट्टी ले लो. लेकिन अब इसका का तो कोई पता नहीं है, कब तक रहे. साथ ही जब पहली बार गई थी तो गांव वालों ने घुसने नहीं दिया था. लेकिन कह सुन कर जा पाई थी.”
ऑफिस में आने वाली चुनौतियों पर ललिता कहती हैं, “यहां भी बहुत कुछ बदल गया है. अब सब अपने से मतलब रखते हैं. पहले इस रूम में 4 लोग काम करते थे, लेकिन अब सिर्फ 2 लोग ही हैं. हालत ये है कि अगर एक कागज मेरे पास है तो यही कोशिश रहती है कि ये किसी दूसरे के पास न जाए. एक डर सा बन गया है. लेकिन इस बीच हमारे एसएचओ अनंत कुमार गुंजन ने हमारा बहुत साथ दिया है और हमें हिम्मत दी है. हमें यहां थाने में काढ़ा, दवाई, सैनिटाइजर आदि सब उपलब्ध है.”
इसी थाने में हमारी मुलाकात 54 वर्षीय एएसआई नेमचंद से हुई. उन्होंने बताया, “कोरोना से बुरी तरह डर हो गया है. सादगी से रहना शुरू कर दिया है. बाहर की चीजें खाना बिल्कुल बंद कर दिया है. बल्लभगढ़ से 20 किलोमीटर आगे से रोज 70 किलोमीटर अप-डाउन करता हूं. फैमिली कहती है कि बहुत कमा लिया, लेकिन क्या करूं. डर बैठ गया है, जो सही भी है. कुदरत न करे किसी परिवार के सदस्य को हो गया तो डेड-बॉडी भी नसीब नहीं होगी. ऑफिस में सब एक-दूसरे से दूरी बनाकर रखते हैं, कम से कम किसी दूसरी चीज को छूते हैं.”
अगर कोई अपराधी है तो उससे निपटने का तरीका क्या है, हो सकता है वह कोरोनाग्रस्त हो. इस पर नेमचंद कहते हैं, “पहले उसे अपने स्तर पर सैनेटाइज करते हैं, फिर मेडिकल चेकअप कराते हैं. फिर लॉकअप में डालते हैं. और अगर क्वारंटीन करना हो तो वहां भी उसपर नजर रखी जाती है, क्योंकि वह अपराधी भी है, जिसकी सजा उसे दिलानी है. लेकिन कोरोना में अपराध काफी घट गया था, जो अब अनलॉक के बाद फिर बढ़ गया है.
नेमचंद ने हमें बताया कि उनके यहां भी 5 साथी और 2 पुलिस मित्र कोरोना पॉजिटिव हो चुके हैं लेकिन सबके सहयोग से वो लोग ठीक हो चुके हैं और अपना प्लाज्मा भी दान किया है.
इस पर हमने उनसे मिलने की इच्छा जताई जो कोरोना को मात देकर वापस आए हैं. तब हम फील्ड कांस्टेबल गौरव त्यागी से मिले और पूछा कि फील्ड में कोरोना के बाद क्या चुनौतियां बढ़ी हैं. गौरव ने बताया, “चुनौतियां तो बढ़ी हैं, आरोपी को भी पकड़ना है और अपने आप को भी बचाना. साथ ही कानून व्यवस्था भी बनाए रखनी है. इसके लिए, मास्क वगैरह सुरक्षा उपकरणों से लैस रहकर फील्ड में डयूटी करते हैं.बाकि गर्म पानी, काढ़ा आदि का प्रयोग भी करते हैं. अपना बचाव खुद से ही करना है.”
गौरव ने बताया, “ऐसे ही ओखला सब्जी मण्डी में डयूटी करते समय हमारे साथी पॉजिटिव आ गए थे. क्योंकि लॉकडाउन के बाद वहां भीड़ बहुत ज्यादा हो गई थी. मैं भी 14 दिन तक क्वारंटीन रहा. लेकिन मैंने अपनी पत्नी को इस बारे में नहीं बताया क्योंकि उन्हें और टेंशन होती. 3 महीने बाद अनलॉक होने पर ही मैं मेरठ अपने घर गया. हमारे एसएचओ अच्छे आदमी हैं और उन्होंने हमारा पूरा साथ दिया.”
हम गौरव से बात कर ही रहे थे कि वहां सब इंस्पेक्टर सचिन कुमार आ गए. सचिन भी कोरोना को मात देकर आए हैं और फिर 2 बार प्लाज्मा भी दान कर चुके हैं.
सचिन ने बताया, “अप्रैल के अंत में ओखला सब्जी मण्डी में डयूटी थी तो वहां सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं हो रहा था.इ सलिए वहां 20-20 घंटे डयूटी करनी पड़ती थी. इसी में लापरवाही हो गई. तो मेरी बॉडी में दर्द और थकान हुआ तो मैंने उसे अनदेखा कर दिया कि हो सकता है ज्यादा ड्यूटी की वजह से हो रहा हो. लेकिन फिर जब मैंने टेस्ट कराया तो पॉजिटिव आया.”
सचिन कहते हैं, “जैसे ही मैंने रिपोर्ट देखी, मेरी दुनिया घूम गई. मेरी आखों से आंसू निकल पड़े (वो हमें अपना फोटो दिखाते हैं). लेकिन हमारे थाने के स्टाफ और एसएचओ ने बहुत अच्छा काम किया. तुरंत मुझे अपोलो हॉस्पिटल में भर्ती कराया. जहां मैं 10 दिन भर्ती रहा. थोड़ा मुश्किल रही लेकिन हिम्मत भी बांधी. साथ ही इस दौरान मैं अपने घरवालों को भी समझाता रहता. और फिर मैं डिस्चार्ज हो गया. फिर यहां 14 दिन क्वारंटीन रहा. अभी कमजोरी है, बाकी ठीक हूं.”
बातचीत के दौरान सचिन ने हमें एक कड़वी जानकारी दी, “जब मैं पॉजिटिव आया तब सोसाइटी के बेहद रूखे व्यवहार का सामना हमें करना पड़ा. जब लोगों को पता चला तो महरौली स्थित हमारे घर की गली को सील कर घर पर बोर्ड लगा दिया गया. सोसाइटी के लोग अगर बच्चे बाहर आते तो उन्हें डांट कर अंदर कर देते. घर का सामान लाने में भी परेशानी होती थी. उस समय पास के पुलिसवालों ने मदद की.”
सचिन के मुताबिक वो दो बार, 8 जून और 25 जून को अपना प्लाज्मा डोनेट कर चुके हैं. वो वीडियो बनाकर अन्य लोगों को भी इसके लिए प्रेरित करते हैं.
कांस्टेबल ललिता ने हमसे कहा, “सचिन सर हमारे रोल मॉडल हैं. इन्होंने हम सबके अंदर से डर खत्म कर दिया है.”
अन्त में हमने एसएचओ अनंत कुमार गुंजन से बात की तो उन्होंने कहा, “मैं बस इतना ही कहूंगा किएक अधिकारी को अपने साथियों की हमेशा हौसला अफजाई करनी चाहिए और उनका मनोबल ऊंचा रखना चाहिए. मैंने वही किया है.”
पुणे, महाराष्ट्र
राजधानी दिल्ली की तरह महाराष्ट्र भी इस महामारी से बुरी तरह प्रभावित हुआ है. पुणे शहर देश के सबसे महामारी प्रभावित वाले शहरों में से एक है. पुणे पुलिस को कोरोना से भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. अब तक पुणे के तीन पुलिसकर्मियों उप-निरीक्षक दिलीप लोंधे, कांस्टेबल दीपक सावंत और सहायक उप-निरीक्षक भगवान पवार की कोविड-19 से मौत हो चुकी है. पुणे पुलिस के 122 जवान पॉजिटिव हैं.
लॉकडाउन के बाद पुलिसकर्मियों के संक्रमण का खतरा बढ़ गया है क्योंकि जनता के साथ उनका संपर्क बढ़ गया है. शनिवार, 29 जून को 10 और पुलिसकर्मियों के पॉजिटिव आने की खबर आई है.
नाम न छापने की शर्त पर पुणे शहर की क्राइम ब्रांच के एक सिपाही ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, "हमारे ऊपर कई जिम्मेदारियां हैं,हम बहुत से ऐसे काम भी कर रहे हैं जो हमारे नहीं हैं. एक दिन या रात के काम के बाद, जब हम घर आते हैं तो हमें डर रहता है कि अनजाने में हमसे अपने परिवार के सदस्य संक्रमित न हो जाएं. यही वह सोच है, जो हमें सबसे ज्यादा डराती है."
स्वारगेट पुलिस स्टेशन में असिस्टेंट पुलिस इंस्पेक्टर शबनम शेख ने बताया, "एक ही घर में रहने के बावजूद मैं पिछले चार महीने से अपने 8 साल के बेटे से प्यार नहीं कर पा रही हूं. मैं सुबह 7 बजे घर से निकलती क्योंकि सुबह 8 बजे से पहले मुझे स्वारगेट के पास जेडे चौक पर पहुंचना होता था और रात 8 बजे तक पूरा दिन हम वहीं रहते. इस गर्मी में 12 घंटे सड़क पर खड़े रहना आसान काम नहीं था, यह बहुत थकाऊ और व्यस्त था. हम जनता के सीधे संपर्क में थे. मेरी ड्यूटी शहर में घूमने-फिरने पर रोक लगाना है. हमें नहीं पता था कि कौन कोरोना संक्रमित है और कौन नहीं. इसलिए हमारे संक्रमित होने की संभावना बहुत अधिक थी.”
शबनम आगे बताती हैं, “मैं अपने बेटे को मिस करती हूं. लॉकडाउन शुरू होने के बाद से मैं अपने माता-पिता से भी मिलने नहीं गई. मैं 12 साल से पुलिस में हूं, लेकिन कोरोना के दौरान डयूटी सबसे कठिन है. कोविड कर्तव्यों को पूरा करने के अलावा हमें थानों में दर्ज मामलों का भी ध्यान रखना होता है.”
पुणे पुलिस की विशेष शाखा में एएसआई भगवान पवार की 15 जून को कोरोना से मौत हो गई थी. वह 21 दिनों से अस्पताल में ही थे.
उनके बेटे निखिल पवार ने न्यूज़लॉन्ड्री से कहा, “शुरू में जब उन्हें खांसी हुई तो हम उन्हें एक निजी अस्पताल में ले गए. उन्होंने एक्स-रे किया और दवाएं दीं. लेकिन जब दो दिन बाद कोई सुधार नहीं हुआ तो हमें सह्याद्री अस्पताल ले जाने के लिए कहा गया. यहां उनका कोरोना टेस्ट हुआ जो निगेटिव आया. हालांकि उनकी तबियत खराब थी लेकिन दो बार उनका टेस्ट निगेटिव आया. तीसरे टेस्ट में वह पॉजिटिव आए और उन्हें आईसीयू में भर्ती कर दिया गया.”
यह महत्वपूर्ण है कि पवार परिवार को 9,50,000 रुपए का बिल वहन करना पड़ा. जबकि महाराष्ट्र सरकार ने अस्पतालों में कोविड पॉजिटिव पुलिसकर्मियों के मुफ्त इलाज के लंबे-चौड़े दावे किए हैं.
पवार ने कहा,“हमने अब तक 4,60,000 रुपये का भुगतान किया है और शेष बिल का भुगतान करना है. उपचार के समय मेरे पिता के सीनियर भी हमारी मदद के लिए आए और अस्पताल के अधिकारियों को आश्वासन दिया कि उन्हें पैसा मिल जाएगा. उन्होंने उसे पुलिस पैनल में एक अस्पताल में स्थानांतरित करने का भी सुझाव दिया लेकिन उस समय मेरे पिता वेंटिलेटर पर थे. हाल ही में, मुझे शेष राशि का भुगतान करने के लिए अस्पताल से कॉल आया था. हालांकि, इन राशियों की प्रतिपूर्ति हो जाएगी, लेकिन इसमें कम से कम 6-7 महीने लगेंगे.”
महाराष्ट्र इनपुट - प्रतीक गोयल