कोरोना महामारी के चढ़ते ग्राफ़ के बीच पत्रकारों की नौकरी जिस गति से जा रही है, वह दिन दूर नहीं जब कोरोना से संक्रमित होने वाले नागरिकों की संख्या को बेरोज़गार हुए पत्रकारों की संख्या पीछे छोड़ दे.
यह मामला हालांकि केवल थोक भाव में छंटनी का नहीं है. जिनकी नौकरियां जा रही हैं उन पत्रकारों की पहचान भी जरूरी है, जिससे इस ट्रेंड की वैचारिकी को समझा जा सके. कुछ कहानियां इस मामले को समझने में मदद कर सकती हैं जिन्हें मैं निजी रूप से जानता हूं.
फॉरच्यून के पत्रकारों का मिस-फॉरच्यून
तीन दिन पहले मेरे पास फॉर्चून इंडिया पत्रिका की एक महिला पत्रकार का फोन आया. कमेटी टु प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स, न्यूयॉर्क के भारत संवाददाता कुणाल मजूमदार ने उन्हें मुझसे सम्पर्क करने को कहा था. पत्रकारों की सुरक्षा पर काम करने वाले ऐसे समूहों की आधिकारिक सीमा ये है कि पत्रकारों पर “लाइन ऑफ ड्यूटी” में हमले के अलावा वे कोई केस नहीं लेते, इसलिए दूसरे समूहों को रेफ़र कर देते हैं. उस महिला ने लगभग रोते हुए बताया कि कैसे तीन साल की उसकी नौकरी ख़तरे में है.
नाम न छापने की शर्त पर उन्होंने बताया, “पहले कहा गया कि छुट्टी पर चले जाओ. फिर तनख्वाह की बारी आयी तो कह दिया गया कि आपने तो काम ही नही किया है तो वेतन किस बात का. ये तो सरासर बेईमानी हुई ना?” उन्हें यह भी डर है कि अब तक इस्तीफ़ा नहीं दिया और कोई केस भी नहीं किया, कहीं नाम आ जाएगा तो बेमतलब नौकरी चली जाएगी.
फॉर्चून इंडिया के अनुबंध का प्रावधान
फॉर्चून इंडिया पत्रिका, करीब नब्बे साल पुरानी अमेरिका की फॉरच्यून 500 का भारतीय संस्करण है जिसे अविक सरकार का एबीपी ग्रुप दिल्ली से प्रकाशित करता है. अमेरिकी फॉर्चून को पूंजीवाद का मुखपत्र माना जाता है जिसमें पूंजीवाद को चलाने वाली शीर्ष कॉरपोरेट कंपनियों की रैंकिंग पूरे कॉरपोरेट मीडिया के लिए खाद पानी का काम करती है. इस पत्रिका ने अप्रैल में अपने 20 संपादकीय कर्मियों को तीन महीने की छुट्टी पर भेज दिया था. एक आन्तरिक मेल में सभी को एक सहमति पत्र भी भेजा गया था दिलचस्प यह है कि ज्यादातर कर्मचारियों का अनुबंध मार्च और अप्रैल में ही रिन्यू होना था, जिसे कोरोना के बहाने टाल दिया गया. अब तीन महीने बिना पैसे के जीना मुहाल हुआ है, तो नौकरी छोड़ने की नौबत आ गयी है.
अनुबंध एक्सपायर हो चुका है, हाथ में पैसा नहीं है और कहीं भी दूसरी जगह लिख नहीं सकते. ऐसी स्थिति में इस युवा महिला पत्रकार ने तय किया कि वे नौकरी से इस्तीफ़ा नहीं देंगी और कंपनी के खि़लाफ शिकायत करेंगी. सवाल उठा कि शिकायत के लिए किसके पास जाएं? पत्रिका का दफ्तर नोएडा में है, जैसे अधिकतर मीडिया समूहों का है. उत्तर प्रदेश सरकार ने अगले तीन साल के लिए सभी श्रम कानूनों को निलंबित कर दिया है, इसलिए लेबर कमिश्नर के पास जाने का रास्ता नहीं बचता क्योंकि सरकार के इस फैसले की ज़द में श्रमजीवी पत्रकार कानून भी आ चुका है. बचता है दिल्ली हाइकोर्ट, इलाहाबाद हाइकोर्ट आदि में मुकदमा लेकिन उसके पैसे नहीं हैं. देर रात हुई बातचीत में उन्होंने कहा कि यदि कोई रास्ता दो दिन में नहीं निकलता है तो वे इस्तीफ़ा देने को मजबूर हो जाएंगी.
यह जानना ज़रूरी है कि छुट्टी पर भेजे गए बीस कर्मचारियों में यह महिला इकलौती है जिसने लड़ने का फैसला किया था, लेकिन अब उसे कोई रास्ता नहीं सूझ रहा. वे कहती हैं, “हम बड़े शौक से पत्रकारिता में आए थे. अब लगता है कि यहां पर भी सारे चोर ही बैठे हुए हैं. हम दुनिया भर के अधिकारों की बात करते हैं लेकिन जब अपने अधिकार पर आती है तो कुछ नहीं कर पाते.“ फिलहाल उन्हें व्हाट्सएप पर घूम रही एक तस्वीर का सहारा है जिसे जारी करने वाले नेटवर्क का कहीं अता पता तक नहीं है.
एक महीने का मुआवजा
वे ठीक ही कहती हैं. अनुभव और तथ्य बताते हैं कि जो पत्रकार स्वेच्छा से, कुछ सार्थक करने के उद्देश्य से इस पेशे में आए थे सबसे ज्यादा निशाना वे ही बन रहे हैं. ताज़ा मामला आवेश तिवारी का है जिन्हें एक झटके में राजस्थान पत्रिका समूह ने बिना किसी अग्रिम नोटिस के नौकरी से निकाल दिया है. आवेश पत्रिका समूह में सम्पादक स्तर के कर्मी हैं लेकिन उनकी पत्रकारिता लंबे समय से उनके प्रबंधन की आंखों में चुभ रही थी. निकालते वक्त बस इतना ही लिहाज रखा कि एक महीने का वेतन देने की बात चिट्ठी में लिख दी.
पत्रिका समूह से निलंबन की चिट्ठी
आवेश की कहानी भी दिलचस्प है. वे पिछली सरकार में बस्तर के प्रभारी हुआ करते थे. वहां उनके संवाददाताओं पर मुकदमा हुआ. इन्हें भी नोटिस दिया गया. उस वक्त बस्तर संभाग के आइजी रहे कल्लूरी का ख़़ौफ़ पत्रकारों के सिर चढ़ कर बोल रहा था और बस्तर पत्रकारिता के लिहाज से वॉर ज़ोन बना हुआ था. आवेश छत्तीसगढ़ के नहीं हैं, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं. वे कुछ दिन के लिए बनारस चले आए और वहीं से काम करते रहे. फिर उन्हें राजस्थान चुनाव में लगा दिया गया और बाद में रायपुर भेज दिया गया.
अब तक वे रायपुर में डिप्टी कन्टेंट स्ट्रैटेजिस्ट के पद पर बने हुए थे. महीने भर पहले ही वेतन कटौती हुई थी तो उन्होंने नौकरी जाने की आशंका जतायी थी, लेकिन बिना किसी अग्रिम सूचना या चेतावनी के इस तरह से निकाल दिया जाएगा उन्हें इसका अंदाजा नहीं था. दो दशक की आवेश की पत्रकारिता उनके नाम को सार्थक करती है, लेकिन उम्र के इस मोड़ पर उनके पास पत्रकारिता करने का कोई मंच नहीं रह गया है. बावजूद इसके, चूंकि उन्होंने पत्रकारिता को स्वेच्छा से चुना था, लिहाजा उत्साह में कमी नहीं आयी है, उनके फेसबुक पोस्ट से यही प्रतीत होता है.
कुछ कहानियां ऐसी भी हैं जहां साहसी पत्रकारिता के तमगे तो नहीं लटक रहे, लेकिन ईमानदारी से अपना काम करने और अन्याय के खिलाफ़ बोलने की कीमत पत्रकारों को चुकानी पड़ी है. इन्हीं में एक हैं अजीत यादव, जिन्हें पिछले ही हफ्ते लोकमत समूह से निकाला गया है. निकाले जाने की शैली बिलकुल वही है, बस औपचारिकताएं ज्यादा थीं. गाजि़याबाद के कौशाम्बी स्थित लोकमत हिंदी की वेबसाइट में वीडियो प्रभारी बनाकर डेढ़ साल पहले लाये गये अजीत लॉकडाउन में वर्क फ्रॉम होम कर रहे थे. एक दिन उनके पास एचआर से फोन आया और अगले दिन दफ्तर बुलाया गया. दफ्तर बुलाकर एक काग़ज़ पर दस्तखत करने को कहा गया जिस पर लिखा था कि मैं इस्तीफ़ा दे रहा हूं और उसके बदले में एक महीने का वेतन स्वीकार कर रहा हूं. मुकदमा करने का विकल्प अजीत के मन में भी था लेकिन लंबी और खर्चीली लड़ाई के बीच परिवार के भरण पोषण के सवाल ने उन्हें दस्तख्त करने को मजबूर कर दिया.
अजीत की कहानी भी सामान्य नहीं है, अतीत के साहसी अध्याय इसमें शामिल हैं. अजीत ने दो वर्ष के अवसाद और बेरोज़गारी के बाद मजबूरन डिजिटल माध्यम में नौकरी शुरू की थी वरना वे टीवी के मंझे हुए पत्रकार थे. चौदह साल उन्होंने नोएडा स्थित सहारा टीवी चैनल में काम किया और एक दौर में सहारा के मराठी और गुजराती चैनलों के प्रभारी भी रहे. मामला तब बिगड़ा जब सहाराश्री सुब्रत राय को जेल हुई और वेतन रोक दिया गया. सहारा चैनल में वेतन रोके जाने के के खिलाफ़ जो आंदोलन हुआ, उसमें अजीत अगुवा की भूमिका में रहे. पत्रकारों का प्रतिनिधिमंडल लेकर तिहाड़ में सहाराश्री से मिलने जाने और समझौता करवाने तक अजीत ने संघर्ष को नेतृत्व दिया. नतीजा?
आखिरकार उन्हें अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा. इसके बाद वे एक साल तक कम ब्लड प्रेशर और गहन अवसाद का शिकार रहे. उबरने में दो साल लगा, लेकिन टीवी चैनलों की सूरत मोदी सरकार आने के बाद जिस कदर बदल चुकी थी, कि उसमें वापसी के रास्ते सारे बंद हो चुके थे. आखिरकार किसी तरह लोकमत हिंदी की नयी वेबसाइट में उन्हें ठिकाना मिला, तब जिंदगी पटरी पर आती दिखी. उन्होंने पत्नी और बच्चे को नोएडा बुला लिया. बच्चे का स्कूल में नाम लिखवा दिया. सब कुछ दुरुस्त था, कि पिछले हफ्ते एचआर से फोन आ गया. उनके दिमाग में फिलहाल विकल्प के जितने भी रास्ते हैं, सभी अपने गृहजिले की ओर जाते दिखते हैं.
लोकमत, ग़ाज़ियाबाद में लिए गए इस्तीफों का प्रारूप
आचार संहिता की आड़ में
ऐसी और भी कहानियां हैं. ऐसी सभी कहानियों में नौकरी से निकाला गया पत्रकार पत्रकारिता करने के लिए पेशे में आया था और हरसंभव पत्रकारिता ही कर रहा था. उसे कोरोना में लागत कटौती के कारण नहीं, अपनी पत्रकारिता के कारण नौकरी गंवानी पड़ी है यह बात साफ़ हो जानी चाहिए. आजतक के पत्रकार नवीन कुमार से बड़ा उदाहरण कोई नहीं होगा, जिन्हें एक स्वर और सहमति से टीवी समाचारों का सबसे अच्छा स्क्रिप्ट लेखक माना जाता है. वे विरले ही हैं जिन्हें लोग चेहरे से नहीं, उनकी आवाज़ से पहचानते हैं.
नवीन को पहले तो छुट्टी पर भेजा गया यह कह कर कि उन्होंने संपादकीय आचार संहिता का उल्लंघन किया है. जब उन्होंने इस आरोप पर सवाल खड़े किए और अपनी रिपोर्टों में संपादकीय आचार संहिता के उल्लंघन के उदाहरण पूछे, तो लाजवाब हो चुके सम्पादक सुप्रियो प्रसाद ने उन्हें तत्काल प्रभाव से मुक्त करने का पत्र भेज दिया. इस कहानी में एक दिलचस्प साम्य फॉरच्यून इंडिया पत्रिका के साथ दिखता है कि उन्हें तब छुट्टी पर भेजा गया जब उनके अनुबंध की अवधि समाप्त होने वाली है. ज़ाहिर है, किसी कानूनी दांवपेंच की स्थिति में कंपनी की आड़ में यही तर्क काम आएगा कि हमने तो अनुबंध को बस रिन्यू नहीं किया. बाकी, अब आप लड़ते रहिए लड़ाई!
छिटपुट चुनौतियाँ
ऐसा नहीं है कि पत्रकारों ने इस दौर में निजी स्तर पर अपने संस्थान को चुनौती न दी हो. प्रसिद्ध पत्रकार और अब भाजपा के हमजोली बन चुके एमजे अकबर द्वारा स्थापित अख़बार संडे गार्जियन में कर्मचारी रहे आनंदो भक्तो ने अपने वकील के माध्यम से अख़बार को एक कानूनी नोटिस भिजवाया है. उनका मामला हालांकि 2018 का है, कोरोना के दौर का नहीं. संडे गार्जियन को आइटीवी नेटवर्क संचालित करता है. वही आइटीवी, जो इंडिया न्यूज़ नाम का चैनल चलाता है, जहां महीनों से लोगों को वेतन नहीं मिला है.
आनंदो फिलहाल फ्रंटलाइन में काम कर रहे हैं. उनके जो साथी संडे गार्जियन में उन्हीं के समान पीडि़त रहे, उनमें सनाउल्ला खान तीन साल से अपने भुगतान का इंतज़ार कर रहे हैं. आनंदो और साजी चाको का पैसा सितम्बर व अप्रैल 2018 से बकाया है. कस्तूरी और निकिता जैन का भी पैसा बकाया है. लंबे समय तक अलग-अलग कारणों से कंपनी के आश्वासन पर इतज़ार करने के बाद इन्होंने अब मोर्चा खोलने की ठानी है, लेकिन मामला कानूनी नोटिस से आगे नहीं बढ़ सका है. ये सभी संपादक स्तर के लोग हैं. आनंदो संडे गार्जियन में सहायक संपादक थे, साजी खेल संपादक थे.
दिल्ली के एक पत्रकार सिरिल सैम एक प्रोजेक्ट के तहत कोरोना के दौर में पत्रकारिता से जा रही नौकरियों का बहीखाता रख रहे हैं. उनकी अद्यतन सूची पर आप एक नज़र डाल लें तो समझ आएगा कि पत्रकारिता का संकट कितना बड़ा है. यह अलग बात है कि उनकी सूची पूरी तरह मुकम्मल नहीं है क्योंकि उसमें छोटे केंद्रों के पत्रकार शामिल नहीं हैं. फिर भी, तस्वीर साफ़ हो इसलिए कुछ बिंदु देखिए:
हिंदुस्तान टाइम्स, मुंबई से 9 जून को 13 पत्रकारों को इस्तीफा देने पर मजबूर किया गया. गुडगांव में 4 और चंडीगढ़ ब्यूरो में 30 सम्पादकीय कर्मियों को निकाला गया है. नोएडा यूनिट से 11 को निकाला गया है.
एशियाविले वेबसाइट से कुल सात पत्रकारों को निकाला गया.
3 जून को फर्स्टपोस्ट वेबसाइट ने छंटनी की है, संख्या ज्ञात नहीं है.
आगामी 30 जून से दिल्ली आजतक चैनल बंद हो रहा है समूह के प्रिंट संस्करण जैसे हार्पर्स बाज़ार, कॉस्मॉस आदि भी बंद होने वाले हैं, ऐसा अरुण पुरी ने एक आन्तरिक मेल में आगाह किया है.
चेन्नई के विकतन समूह ने एक झटके में 172 पत्रकारों को जिबह कर डाला.
टेलीग्राफ ने रांची और गोहाटी संस्करण बंद कर दिया, टाइम्स ऑफ इंडिया ने केरल के दो संस्करण बंद किए. न्यू इंडियन एक्सप्रेस केरल के आठों संस्करण बंद कर रहा है.
एबीपी समूह की फॉरच्यून पत्रिका ने दिल्ली, नोएडा, चेन्नई, बंगलुरु और हैदराबाद के दफ्तर खाली कर दिए हैं.
आउटलुक, स्टार ऑफ मैसूर, नई दुनिया, सांध्य टाइम्स, इकनॉमिक टाइम्स हिंदी ने प्रकाशन बंद कर दिया. हमारा महानगर बंद हो गया.
न्यूज़ नेशन ने मई में 15 कर्मचारियों को निकाल दिया था. क्विंट में कुछ पत्रकारों को छुट्टी पर भेज दिया गया है और कंपनी ने अपनी हिस्सेदारी बेच दी है.
सकाल ग्रुप और लोकमत ग्रुप में कुल दो दर्जन पत्रकारों से इस्तीफ़े लिए गए हैं.
लखनऊ में आइबीएन भारत ने सात कर्मचारियों को एक झअके में निकाल दिया है.
पीएम केयर्स फंड में पैसा देने वाले कांग्रेसी नेता विनोद शर्मा के आइटीवी नेटवर्क ने इंडिया न्यूज़ और आज समाज से कई पत्रकारों को निकाल दिया और बाकी का तीन महीने से वेतन बकाया है.
दैनिक भास्कर और हिंदुस्तान में भी छंटनी हुई है. नई दुनिया के ब्यूरो बंद किए गए हैं.
वेतन कटौती तकरीबन सभी मीडिया समूहों में की गयी है.
ये कुछ झलकियां हैं कोरोना के दौर में पत्रकारिता की, पूरी कहानी बहुत भयावह है. निकाले गए केवल दर्जन भर पत्रकारों की पत्रकारिता पर परिचय दिया जाए तो किताब बन जाएगी. इसमें अगर कोरोना से संक्रमित पत्रकारों को भी जोड़ लें तो ग्रंथ बन जाएगा. फ्रीलांसरों के बारे में चूंकि कोई बात नहीं कर करता, इसलिए मैं भी नहीं करूंगा क्योंकि उनकी नियति तय है. वे पत्रकारिता के संकट पर लिखे जाने वाले किसी भी ग्रन्थ में फुटनोट में ठेले जाने को अभिशप्त हैं. अभी चार दिन पहले ही एक स्वतंत्र पत्रकार ने ख़ुदकुशी करने की अपनी योजना साझा की थी फेसबुक पर, जिसे बाद में उसने हटा लिया.
पत्रकारिता से पत्रकारों की बेदखली का अभियान
यह संक्षिप्त तस्वीर आने वाली मेगा हॉरर फिल्म का ट्रेलर है. तस्वीर को खोल कर सामने रखने पर दो मोटी बातें समझ में आती हैं.
पहली, मीडिया संस्थानों के बाहर रह कर जो पत्रकारिता संभव हो पा रही थी, वह अब और ज्यादा मुश्किल हो चली है क्योंकि स्वतंत्र और स्वरोजगाररत उद्यमशील पत्रकारों को आज सबसे पहले अपने परिवार के जीने-खाने का जुगाड़ करना है. एनसीआर में मेरे जानने में कम से कम दो पत्रकार ऐसे हैं जो घर चलाने के लिए मास्क और सैनिटाइज़र बेच रहे हैं. कुछ पत्रकारों ने इस संकटकाल से पहले ओला और उबर गाड़ी चलानी शुरू की थी, अब वहां भी काम बंद पड़ा है. ख़ैर, जो संस्थागत तंत्र से बाहर हैं वे किसी न किसी तरह जी ही जाएंगे, इसलिए इससे इतर दूसरी बात कहीं ज्यादा अहम है.
मीडिया संस्थानों में बीते कुछ वर्षों के दौरान विवेकवान आवाज़ों का टोटा होता चला गया है. अब तक जो समझदार, जनपक्षधर पत्रकार इन संस्थानों में किसी तरह बने रहे अब उनकी यह आखिरी पारी है. इस रूप में देखें तो हम समझ सकते हैं कि पत्रकारिता से, खासकर भाषायी पत्रकारिता से वे आवाज़ें जल्द ही गायब हो जाएंगी जो अपने निजी प्रयासों के चलते मीडिया की स्टेनोग्राफी के बीच पत्रकारिता का एक अंश बचाये हुए थीं. फिर मैदान पूरी तरह खाली होगा चरने के लिए और भीतर सवाल पूछने वाला कोई नहीं बचेगा.
यह दौर मीडिया में छंटनी का नहीं, पत्रकारिता के सैनिटाइज़ेशन का है. सरकारों के चरणवंदन में चौबीस घंटा जुटे मीडिया समूहों के मालिकान व प्रबंधकों को यह समझ में आ चुका है कि अवांछित तत्वों से मुक्ति पाने का यही सही अवसर है. वे धंधे में लागत कटौती का बहाना बनाकर उन आवाज़ों को छांट रहे हैं जिनके चलते उनकी लेशमात्र विश्वसनीयता और पाठकीयता बची हुई थी. दर्शक और पाठक व्यक्तियों के होते हैं, संस्थानों के नहीं. पाठक की वफादारी लेखक के प्रति होती है, अख़बार के प्रति नहीं. ऐसा न समझ के वे दरअसल मूर्खता कर रहे हैं लेकिन अपनी मूर्खता में किसी की जान जोखिम में डाल रहे हैं.
मीडिया से पत्रकारों के निष्कासन की जो प्रक्रिया 2008-09 की मंदी के बहाने आज से दसेक साल पहले शुरू हुई थी, अब वह अपने आखिरी चरण में पहुंच चुकी है. उस वक्त कुछ कायदे के पत्रकार सिस्टम में बच गये थे, तो इसलिए कि मीडिया पर सत्ता-तंत्र का इतना दबाव नहीं था. अब मीडिया के सिस्टम को सैनिटाइज़ करना है. पत्रकारों को पत्रकारिता के ईको-सिस्टम से ही बाहर करना है. आड़ कोरोना की है. यह बात मालिकान समझ रहे हैं तो नौकरी खा रहे हैं. यही बात सरकारें समझ रही हैं तो झूठे मुकदमे करवा रही हैं. इस दोतरफा घेराव को एक साथ सम्बोधित करने वाला फिलहाल कोई नहीं है.
(जनपथ से साभार)