ना तो मैं तुम्हारा आंकड़ा हूं ना ही कोई वोट बैंक

सामाजिक कार्यकर्ता और समाजशास्त्री अभय खाखा की याद में.

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बात 18 मार्च 2015 की है. झारखंड के लातेहर जिले के बरवाडीह प्रखंड-कार्यालय के नजदीक लगभग 60 आदिवासी पुरुषों ने 2013 के 'भूमि अधिग्रहण' में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार, पुनर्वास, पुनर्स्थापन अधिनियम’ में संशोधन के उद्देश्य से लाये गये मोदी सरकार के विधेयक की प्रतियों पर खुले में शौच कर विरोध जताया. एक लंबी लड़ाई चली थी कि भूमि-अधिग्रहण के मामले में लोगों को पूरी जानकारी देकर उनसे सहमति ली जाये और भूमि अधिग्रहण के सामाजिक प्रभावों का मूल्यांकन किया जाय. एक लंबी लड़ाई के बाद जीत के रुप में 2013 का भूमि अधिग्रहण अधिनियम अस्तित्व में आया था लेकिन एनडीए सरकार का विधेयक इस जीत को कमजोर करने की नीयत से लाया गया था. विधेयक एक तरह से उल्टी दिशा में कदम उठाने जैसा था ताकि राज्यसत्ता और उद्योग-जगत ग्रामीण, खासकर आदिवासी समुदायों को जबर्दस्ती विस्थापित कर सकें और उनकी भूमि तथा साझी मिल्कियत वाली संपदा का अधिग्रहण कर सकें.

बड़वाडीह का विरोध-प्रदर्शन नेशनल कैंपेन ऑन आदिवासी राइट्स ने आयोजित किया था. आदिवासी वंचना की जिस हालत में रह रहे हैं उसकी तरफ यह विरोध-प्रदर्शन मुख्यधारा की मीडिया का ध्यान कुछ देर खींचने में कामयाब रहा. अभियान से जुड़े युवा समाजशास्त्री, ओरांव आदिवासी, कार्यकर्ता तथा लेखक अभय फ्लेवियन खाखा ने विधेयक के विरोध में बीते रोज छत्तीसगढ़ के अपने जिले जशपुर में भी एक मार्च का आयोजन किया था. पुलिसबल की भारी मौजूदगी में यह मार्च आयोजित हुआ और इसकी तरफ मीडिया का कुछ खास ध्यान भी ना गया. बड़वाडीह में खाखा ने ‘अशिष्टता’ के आरोपों की काट करते हुए कहा था:-

“शौच कर विरोध जताने का हमारा यह प्रदर्शन अगर असभ्य है तो फिर मुझे बताओ कि इस देश में सभ्य क्या है. कारपोरेट की लालच के लिए लाखों आदिवासियों को विस्थापित करना सभ्य है?बगावत को कुचलने के नाम पर हजारों निहत्थे आदिवासियों की हत्या कर देना क्या सभ्य है? लाखों मासूम, आदिवासी लड़कियों को तस्करी के जरिये शहर पहुंचाना सभ्य है? संविधान ने आदिवासियों को जो हक दिये हैं उन्हें सरेआम अंगूठा दिखाना क्या सभ्य है? जो आदमी राष्ट्रीय हित के नाम पर अपनी जगह-जमीन से एक बार नहीं बल्कि दो-दो बार उखाड़ फेंका गया और जिसपर अब तीसरी दफा फिर से वही खतरा मंडरा रहा है तो आप ऐसे इंसान से किस किस्म की सभ्यता की उम्मीद करते हैं?”

तीक्ष्ण, रचनात्मक और बहुमुखी प्रतिभा के धनी अभय खाखा भारतीय समाज के पाखंडों को वेधक मुहावरों में बयान कर सकते थे. उन्होंने बड़ी बारीकी से दिखाया कि सत्ता की ऊंची इमारतों में बनी और खास आर्थिक स्वार्थों की सेवा में लगी नीतियां भारत के वंचित तबकों को किस विध्वसंक तरीके से प्रभावित करती है. बीते 14 मार्च के दिन, खाका आदिवासी समूहों से मिलने के लिए सिलीगुड़ी में थे. इसी दौरान उन्हें हार्ट अटैक आया और चंद मिनटों में ही उनकी मृत्यु हो गई. उनके परिवार में उनकी जीवनसाथी वाणी और दो बच्चे सारा तथा मानव हैं. अभय की अचानक हुई मृत्यु से लगे सदमे के बीच हममें से कइयों के मन में अभय को लेकर एक सोच उभरी. हमने उन्हें हृदय के उदार और तनिक शरारत के भाव वाले एक बुद्धिजीवी-कार्यकर्ता के रुप में याद किया जिसे हमारे समाज से महज 43 साल की जिंदगी मिली थी.

एक बुद्धिजीवी-कार्यकर्ता की मृत्यु से पैदा हुए नुकसान का सबसे बेहतर बयान बहुमुखी प्रतिभा के धनी विद्वान और आदिवासी अकेडमी के संस्थापक गणेश देवी की तरफ से आया. उन्होंने अभय से साल 2006 में हुई अपनी मुलाकात को याद करते हुए कहा, “तीन दशक पहले, आदिवासी अकेडमी में इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने एक बातचीत के दौरान मुझसे पूछा था कि आदिवासियों के बीच कोई आंबेडकर क्यों नहीं मिलते?’ इसके लगभग दस साल बाद जब मैं अभय का इंटरव्यू ले रहा था (एक फेलोशिप के लिए) तो वही सवाल मेरे जेहन में कौंधा. मुझे लगा कि अभय शायद उस सवाल का एक उत्तर हो सकता है. इसके बाद के वक्त में जब भी उससे बात हुई और भारत के आदिवासियों के सारे मसले पर पुनर्विचार करने के लिए आदिवासी नौजवानों को एकजुट करने के जो उसने प्रयास किये, उसे देखते हुए मेरे दिल में अभय को लेकर ये उम्मीद जिंदा रही.”

जब अभय मूलवासी-कार्यकर्ता बने

अभय ने अपना परिचय इन शब्दों में दिया है: “पेशे से समाजशास्त्री, हृदय से एक मूलवासी कार्यकर्ता!” छत्तीसगढ़ आदिवासी छात्र संगठनों के नेता तथा रिसर्चर-एक्टिविस्ट के रुप में उभरने के शुरुआती दिन हों या फिर दिल्ली में गुजरा दशक जब अभय ने दलित तथा आदिवासी नेटवर्क के साथ काम करने के दौरान जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में पीएचडी की, उनके जीवन की प्रेरक शक्ति रही न्याय-भावना. अभय सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरणीय तथा शिक्षा और ज्ञान-उत्पादन सरीखे जीवन के तमाम मोर्चों पर न्याय के हिमायती थे.

अभय के भीतर बलवती यह न्याय-भावना उनके परिवेश की देन थी. यह परिवेश सामाजिक भेदभाव, राज्य सत्ता के हाथों होती हिंसा, अगड़ी जातियों, सूदखोरों तथा ठेकेदारों के हाथों होने वाले आर्थिक शोषण का था और इस परिवेश को अभय ने अपने बचपन से देखा-समझा था तथा कॉलेज के आदिवासी विद्यार्थी के रुप में भी. मिसाल के लिए, जब अभय माध्यमिक स्कूल में थे तो उन्होंने राज्यसत्ता की ताकत की उस मनमानी का स्वाद चखा जो रोजाना आदिवासियों की गरिमा का हनन करती है. एक फ़ॉरेस्ट गार्ड ने उन्हें गांव के पास जलावन की लकड़ी इकट्ठा करते हुए पकड़ा और अंग्रेजी जमाने के कानून भारतीय वन अधिनियम,1927 के तहत गिरफ्तार कर लिया.

अपने स्कूल के छात्रावास में दोपहर का भोजन तैयार करने के लिए जलावन की लकड़ी इकट्ठा करने के क्रम में गिरफ्तार हुए अभय को आखिरकार जमानत पर रिहा कर दिया गया. पिछले साल, जब सुप्रीम कोर्ट ने अपनी जगह-ज़मीन पर रह रहे लाखों आदिवासियों और वनवासियों को बेदखल करने का आदेश दिया तो अभय ने अपने अनुभवों से सीख लेते हुए तुरंत नागरिक समाज और जमीनी स्तर के समूहों को इकट्ठा करने और सरकारों के साथ लॉबी करने पर जोर दिया. उन्होंने इस आदेश के खिलाफ विरोध प्रदर्शन की योजना बनाई, और इसे "ब्राह्मणवादी पर्यावरणवाद" का नतीजा बताया. अदालत को आखिरकार अपने आदेश पर रोक लगानी पड़ी.

परिवार की आर्थिक तंगी के कारण 1990 के दशक के शुरुआती सालों में अभय को कॉलेज की पढ़ाई छोड़नी पड़ी. राज्य के पहले आदिवासी न्यायाधीशों में से एक, उनके पिता, अपनी नौकरी गंवा चुके थे. पिता को नौकरी से हटाने की इस घटना को अभय ने जातिगत पूर्वाग्रहों की देन करार दिया था. अभय ने थोड़े दिन के लिए खुद का व्यवसाय भी चलाया. इसके लिए उन्होंने अनुसूचित जनजातियों के लिए चलायी जा रही एक ऋण-योजना के तहत जीप खरीदी. इस जीप से वे जशपुर के आसपास के गांवों में फेरी लगाते थे. बाद के दिनों में वे इन दिनों की याद करते हुए गर्व के साथ कहते थे- पूरे जिले में किसी आदिवासी की मिल्कियत में चलने वाली यह पहली जीप थी, जीप से फेरी लगाने का यह व्यवसाय सफल रहा क्योंकि ना तो सवारियों से ज्यादा पैसे ऐंठे जाते थे और ना ही उनके साथ कोई और बेईमानी होती थी.

शिक्षित बनने और प्रतिरोध करने की जरुरत को समझते हुए अभय अन्ततः कॉलेज की पढ़ाई की तरफ लौटे. उनके छोटे भाई अजय ने हमें बताया कि इन्हीं दिनों अभय एक संगठनकर्ता तथा आदिवासी छात्र संगठनों के नेता के रुप में सक्रिय हुए. उन्होंने इस दौरान छात्रवृत्ति की बकाया राशि, छात्रों को दिये जाने वाले किरासन तेल, छात्रों की पढ़ाई बीच में छूट जाने की ऊंची दर, जातिगत भेदभाव तथा आदिवासी छात्रावासों की खराब हालत जैसे मुद्दे उठाये.

दलित और आदिवासी छात्रों के एक पोर्टल को साल 2011 में दिये गये इंटरव्यू में अभय ने बताया था कि पलने-बढ़ने के शुरुआती सालों के अनुभवों ने उन्हें उदास और नाराज बना दिया था लेकिन इन्हीं सालों ने उन्हें सामाजिक-अपवर्जन को आजीवन चुनौती देने के लिए फौलाद जैसी ताकत भी दी.

इंटरव्यू में एक जगह वे कहते हैं, "आदिवासी छात्रावासों में रहने और पढ़ाई जारी रखने के लिए छात्रों को साल में बस 100 किलो चावल तथा बीस किलो दाल मुहैया कराने की जरुरत थी लेकिन उन लोगों से इतना भी ना बन पड़ता था.मुझे लगता है कि ये मेरा सौभाग्य है जो मैं अपनी पढ़ाई पूरी कर पाया हालांकि बीच में रुपये-पैसे की तंगी के कारण पढ़ाई छूटी भी. मुझे लगता है कि इन बातों का मेरे दिमाग पर बहुत गहरा असर हुआ है और मैं इस बात को लेकर हमेशा बहुत सचेत रहा करता था. बड़ा होकर मैंने इसके जवाब तलाशने शुरु किये.”

समाजशास्त्र और कानून में स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद अभय ने कुछ समय के लिए हिन्दी न्यूज मीडिया में काम किया लेकिन उन्हें लगा कि संपादक उनके सरोकारों को लेकर वैरभाव पाले हुए हैं. अभय शोध और एक्टिविज्म में लग गये, विकास के कारण पैदा हो रहे विस्थापन, पलायन, बंधुआ मजदूरी तथा तेंदु पत्ता इकट्ठा करने वाले वनवासी कामगारों के लिए उचित मजदूरी सरीखे कई मुद्दों पर उन्होंने सामाजिक आंदोलनों, शोध-संस्थानों तथा स्वयंसेवी संगठनों के साथ मिलकर काम किया.

साल 2007 में उन्हें ससेक्स विश्वविद्यालय में पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई करने के लिए फोर्ड फाउंडेशन इंटरनेशनल फेलोशिप मिली. यह फेलोशिप हासिल करने वाले वे छत्तीसगढ़ के पहले आदिवासी छात्र थे. इसी फेलोशिप के लिए देवी ने अभय का साक्षात्कार लिया था. अभय ने मानवविज्ञान (एंथ्रोपोलॉजी) को पढ़ाई के लिए चुना. साल 2011 के इंटरव्यू में उन्होंने हंसते हुए बताया था, “मैं देखना चाहता था कि गैर-आदिवासियोंने हमारे बारे में क्या कुछ लिखा है.”

संघर्ष के साल

अपने संघर्षों के बावजूद या कह लें संघर्षों के कारण ही अभय का मन कभी इस कड़वाहट तक नहीं पहुंचा कि वे अपना/पराया सरीखी कोई ठोस विभाजक रेखा अपने मन में खींच लें. देवी के शब्दों में कहें तो, “अभय आदिवासियों के बीच में चिन्तक था और चिन्तकों के बीच एक आदिवासी. वह इन दोनों दुनिया में समान रुप से बेचैन हो सकता था. दरअसल, विचारों के प्रति उसके भीतर मौलिक ललक थी और बौद्धिकता का उसका आग्रह मुझे मेरे एक और दोस्त डीआर नागराज की याद दिलाता था जिनके कम उम्र में गुजर जाने के कारण मेरा साथ छूट गया.” डीआर नागराज कर्नाटक के चिन्तक और लेखक थे.

फेलोशिप के दिनों के साथी रहे तथा अभी एशियन डेवलपमेंट बैंक में कंसल्टेंट के रुप में कार्यरत अजीजुर्रहमान अभय के साथ बीते अपने दिनों को याद करते हुए कहते हैं, “ससेक्स में गुजरे सालों ने अभय की दुनिया को व्यापक बनाया और वह आदिवासी लोगों (मूलवासियों) तथा उनके आंदोलनों से संबंधित अंतरराष्ट्रीय विमर्शों के संपर्क में आये. "झारखंड के अनुभव-वृद्ध और प्रसिद्ध कार्यकर्ता ज़ेवियर डायस भी सहमति के स्वर में कहते हैं- "अभय अपने दिल में एक आग लिए लौटा, वह अपने लोगों के लिए लड़ने और उन्हें सर्वश्रेष्ठ विकल्प देने को बेचैन था."

ये वही साल थे जब मध्य-पूर्वी भारत के खनिज-समृद्ध वन-प्रांतों के आदिवासी समुदायों को खनन तथा भूमि अधिग्रहण की परियोजनाओं के कारण बड़े पैमाने पर संसाधनों की लूट का शिकार होना पड़ा. इसके अतिरिक्त, राज्यसत्ता और माओवादियों की बीच का संघर्ष भी पूरे क्षेत्र में बढ़ रहा था. विद्रोह को दबाने के अभियान, सैन्यीकरण, और निगरानी के नाम पर की जाने वाली हिंसा तथा मानवाधिकारों का हनन भी जोर पकड़ रहे थे. अभय ने इन ज्यादतियों को उजागर करने के काम में शिरकत की. ऐसा ही एक कार्यक्रम साल 2010 में रांची में ‘फर्जी मुठभेड़’ वाली हत्याओं के मसले को उजागर करने की मंशा से हुआ था. रांची वाले इसी कार्यक्रम में अभय से हमारी पहली भेंट हुई थी. हम इस बात से चकित थे कि अपनी चुनौतियों को पूरी सहजता से अपनी संक्रामक हंसी के बीच समेटे रहने वाले अभय किस कदर विचारशील और मुखर हैं!

रांची के जेसुइट मानवविज्ञानी (एंथ्रोपोलॉजिस्ट) स्टेन स्वामी अभय को याद करते हुए कहते हैं, "जिस अभय को मैंने जाना, वो सचमुच शब्द के सटीक अर्थों में अ-भय यानि निडर था. वह धड़ल्ले से सरकारी बाबू के दफ्तर में घुसकर उसकी ऐसी-तैसी करते हुए बता देता था कि वह बाबू आदिवासियों के खिलाफ क्या-क्या कर रहा है या फिर वह ऐसा क्या नहीं कर रहा जो उसे आदिवासियों के लिए करना चाहिए.”

लेकिन एक ऐसे वक्त में जब राज्यसत्ता एक्टिविज्म और विरोध के स्वर को ‘माओवादी गतिविधि’ कहकर लांछित कर रही हो, साहस का धनी होना दरअसल सीने पर किसी भारी बोझ के समान है. अभय, बस्तर की सोनी सोरी, झारखंड के ग्लैडसन डुंगडुंग सरीखे अग्रिम पंक्ति के आदिवासी कार्यकर्ता तो ऐसे वक्त में खास तौर पर राज्यसत्ता के उत्पीड़न और अपराधीकरण की मुहिम के निशाने पर थे. स्टेन स्वामी उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, "थोड़े समय के भीतर अभय को बता दिया गया कि वो जो कुछ कर रहा है वही करता रहा तो उसके विरुद्ध कई सारे मामले चलाकर अनिश्चित समय तक के लिए उसे जेल में डाल दिया जायेगा."

दिल्ली में रहते हुए अभय ने शुरुआती तौर पर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ दलित स्टडीज में रिसर्च फेलो के रूप में काम किया और 2012 से 2019 तक वे नेशनल कंपेन फॉर दलित ह्यूमन राइटस् (एनसीडीएचआर) के प्रोग्राम को-ऑर्डिनेटर रहे. इस दौरान वे इस बात के हामी बने कि सरकारी खर्चे तथा उच्च शिक्षा में भेदभाव, अत्याचार निवारक अधिनियम के क्रियान्वयन में ढिलाई तथा वन और भूमि अधिकार कार्यक्रम जैसे अनेक मुद्दों पर दलित और आदिवासी आंदोलनों को एक-दूसरे से सीखने की जरुरत है. अभय के करीबी दोस्त और एनसीडीएचआर में उनके सहयोगी बीना पलिकल ने बताया कि "अपवर्जन और शोषण का हमारा साझा अनुभव रहा है और इसे देखते हुए उन्होंने लगातार तर्क दिया कि दलित और आदिवासी संघर्ष को एक साथ आगे बढ़ने की जरूरत है."

अभय लगातार यात्राएं करते थे और नेशनल कंपेन फॉर आदिवासी राइट्स के कन्वीनर तथा ट्रायबल इंटेलेक्चुअल कलेक्टिव के को-कन्वीनर के रुप में एक विशाल फलक पर यात्रा करने के कारण वे देश भर में जमीनी स्तर के समूहों, कार्यकर्ताओं, छात्र संगठनों तथा विद्वानों के बीच एक सूत्रधार बन चले थे.

कोरापुट निवासी शोधकर्ता शारन्यानायक याद करते हुए बताती हैं कि एक दफे अभय बंधुआ मजदूरी के मसले पर मलकानगिरी आये थे, तभी अभय से उनकी दोस्ती की शुरुआत हुई. नायक का कहना है, “अभय बहुत संवेदनशील और अंतरदृष्टिपूर्ण व्यक्ति थे. वे लोगों के अनुभव तथा मूलवासियों पर व्यापक रुप से हो रही संस्थागत हिंसा के बीच के गहरे संबंधों को भांप लेते थे. "

“ना तो मैं तुम्हारा आंकड़ा हूं, ना ही तुम्हारा वोट-बैंक.अपनी लड़ाई लड़ने को मैं अपने औजार आप गढ़ता हूं.”

डायस का कहना है कि इन वर्षों में "अभय ने कानून, बजट, आदिवासी उप-योजना, अनुसूचित क्षेत्रों से संबंधित नीतियों की अपनी समझ विकसित की और लोगों के सशक्तीकरण की बात मन में रखकर प्रशिक्षण मॉड्यूल बनाए." अनुसूचित जनजातियों के लिए बजटीय आवंटन में किये जाने वाले अवैध हेरफेर तथा कमी को जानने को लेकर अभय में गहरी रुचि थी. इन तरीकों से दशकों तक आदिवासियों को उनके सांवैधानिक हक से वंचित किया जाता रहा है. अभय के डाक्टरेट के सुपरवाइजर एल लाम खान पियांग का कहना है, "बजट वाले दिन अभय टीवी पर उन विरले लोगों में एक होते थे जो हमें ये बताते हैं कि बजट का आदिवासी समुदायों के लिए क्या मतलब निकलता है. लेकिन, अब ऐसा करने वाला कोई नहीं है."

इस दौरान साल 2011 मेंअभय ने अपनी प्रसिद्ध कविता ‘आय एम नॉट योर डेटा’ लिखी:

ना तो मैं तुम्हारा आंकड़ा हूं ना ही कोई वोट बैंक,

मैं तुम्हारा प्रोजक्ट नहीं हूं और ना ही

तुम्हारे अनोखे अजायबघर की कोई परियोजना

ना ही अपने उद्धार की प्रतीक्षा में खड़ी आत्मा हूं

और ना ही वह प्रयोगशाला जहां परखे जाते हैं सिद्धांत.

तुम्हारी तोप का बारुद नहीं हूं मैं और ना ही कोई अदृश्य कामगार,

या फिर इंडिया हैबीटेट सेंटर का तुम्हारे मनोरंजन का सामान

ना तो मैं तुम्हारा क्षेत्र हूं, ना भीड़, ना इतिहास,

ना ही तुम्हारी मदद का तलबगार,

तुम्हारी दोषभावना या फिर तुम्हारी विजय का तूर्यनाद.

तुमने जो नाम मुझे दिये हैं,

जो फैसले सुनाये, जो दस्तावेज लिखे, परिभाषाएं बनायीं

जो मॉडल गढ़े, नेता और संरक्षक दिये

मुझे सबसे इनकार, मैं करुं इन सबका प्रतिकार.

क्योंकि

इन्हीं ने वंचित किया मुझे मेरे अस्तित्व , मेरे स्वप्न और मेरे आकाश से.

तुम्हारे शब्द, मानचित्र, संख्या और संकेतक

सबके सब, रचते हैं भ्रम और देते हैं तुम्हें मंच

जहां खड़े होकर तुम नजर डालते हो मुझपर.

इसलिए, मैं बनाता हूं खुद से तस्वीर, गढ़ता हूं अपना खुद का व्याकरण

अपनी लड़ाई लड़ने के लिए बनाता हूं अपने औजार

अपने लिए, अपने लोगों, अपनी दुनिया और अपने आदिवासी आत्म के लिए!

सामाजिक बदलाव के लिए ज्ञान की रचना

अभय की समाजशास्त्र और कानून जैसे विषय में खास रुचि थी और जेएनयू में डाक्टरेट की उपाधि के लिए लिखी जा रही थीसिस के रुप में ये रुचि परवान चढ़ी. उन्होंने इस बात का अनुसंधान किया कि झारखंड में किस तरह भूमि से संबंधित कानूनों ने आदिवासी समुदायों को हाशिए पर रखा है और कैसे आदिवासी समुदायों की प्रतिक्रियाओं के जरिये भारतीय राज्यसत्ता से उनके रिश्तों को आकार मिला है. अभय तथा उन जैसे कई अन्य विद्वानों ने जो सवाल उठाये हैं, वे उनके जीवन तथा संघर्ष से उपजते हैं लेकिन कठोर रीति-नीति वाली अकादमिक दुनिया में ऐसे विद्वानों को अक्सर शत्रुता भरे तथा अलग-थलग कर देने वाले परिवेश का सामना करना होता है. अभय को अपने शोध-कार्य के बीच में सुपरवाइजर बदलना पड़ा और जब उन्होंने 2018 में अपनी थीसिस जमा की तो इसे याद करते हुए कहा कि यह ‘मेरे जीवन की सबसे कठिन यात्रा’ रही.

अभय की थीसिस के सुपरवाइजर पियांग बताते हैं कि अभय अपने ज्ञान को हाशिए की जगहों तक पहुंचाने और सामाजिक बदलाव लाने की भावना से हमेशा भरा मिलता था. पियांग ने बताया कि “उसके दिमाग में हमेशा खूब सारे विचार चलते रहते थे और वह शायद ही कभी कैम्पस में रहता था. मैं उससे पूछता, ‘कहां हो अभय?’ और पता चलता कि वह देश भर में यात्राएं कर रहा है, कहीं उसे ट्रेनिंग वर्कशॉप करना है तो कहीं अपना शोध-पत्र पढ़ना है.”

पिछले साल से अभय ने सोशल मीडिया के आपसी वार्तामूलक (इंटरेक्टिव) फॉरमेट के साथ अपनी आजमाइश शुरु की थी. उनका मकसद था कि इसके सहारे सुप्रीम कोर्ट के 2019 के बेदखली के आदेश सरीखी चुनौतियों के बारे में लोगों को व्यापक स्तर पर बताया जा सके. पिछले मार्च में अभय डिजिटल प्लेटफॉर्म ‘आदिवासी लाइव्समैटर’ तथा हमसे जुड़े ताकि आदिवासियों तथा अन्य वनवासी समुदायों के लिए बनी फिल्म दिखायी जा सके. फिल्म में बताया गया था कि राज्यसत्ता तथा कारपोरेट जगत के गठजोड़ से किये जा रहे वनभूमि के अधिग्रहण के विरुद्ध आदिवासी समुदायों को वनाधिकार कानून के तहत हक हासिल है कि अधिग्रहण से पहले उनसे तमाम पहलुओं को स्पष्ट करते हुए इसकी सहमति हासिल की जाय.

अभय के हाल के लेखन में आदिवासियत को लेकर मौलिक उद्भावनाएं देखने को मिलती हैं कि मूलवासियों को अस्मितावाद के घेरे से कैसे निकाला जाय और किस तरह उन्हें लोकतंत्र, पर्यावरणीय न्याय, जलवायु-परिवर्तन तथा प्रकृति के टिकाऊपन से जोड़ा जाये. बीते साल वे पेंगुईन प्रकाशन के लिए आदिवासी समुदायों पर केंद्रित कई खंडों वाली एक ऋंखला‘री-थिंकिंग इंडिया’ के एक संस्करण का संपादन कर रहे थे. आदिवासी लाइव्स मैटर के संस्थापक अंकुश वेंगुरलेकर तथा नायक सरीखे दोस्तों का कहना है कि अभय का लक्ष्य आदिवासियत के पक्ष में ज्यादा से ज्यादा लोगों को एकजुट करने का था. एनसीडीएचआर के उनके सहकर्मी पैल्लिकल तथा एन पॉल दिवाकर ने हाल की श्रद्धांजलि में लिखा है, “उन्हे यह मानने से इनकार था कि आदिवासी कोई विशिष्ट रुप से अबूझ समुदाय है, साथ ही वे यह भी महसूस करते थे कि आदिवासी समुदायों के पास टिकाऊपन की एक ताकत है और वृहत्तर समुदाय को ये बात स्वीकार करने की जरुरत है.”

अभय ने यह सवाल उठाया था कि पर्यावरण अध्ययन, जलवायु-परिवर्तन तथा प्रकृति के टिकाऊपन जैसे विषय आदिवासियों तथा अन्य वनवासी समुदायों को बाद देकर ही क्यों चलते हैं ?

साल 2019 के फरवरी में अशोका युनिवर्सिटी में दिये अपने एक व्याख्यान में अभय ने इंडिजेनोक्रेसी की अवधारणा की व्याख्या की थी. इसमें नागरिकता की धारणा को एक-दूसरे के प्रति दायित्व-भावना तथा पर्यावरण के प्रति उत्तरदायित्व से जोड़कर देखा गया है. उन्होंने परेशान करने वाला यह सवाल भी उठाया था कि पर्यावरण अध्ययन, जलवायु-परिवर्तन तथा प्रकृति के टिकाऊपन सरीखे विषय आदिवासियों तथा अन्य वनवासी समुदायों को बाद देकर ही क्यों चलते हैं. अभय ने पूछा था कि विश्वविद्यालय के विभाग, वन-विभाग या फिर पर्यावरण के मसले पर काम करने वाले स्वयंसेवी संगठन आदिवासी विद्वानों तथा नेताओं को जगह देने से तथा वन के परिस्थिति तंत्र को जिलाये रखने में इन समुदायों के योगदान तथा ज्ञान को मान्यता देने से इतने विमुख क्यों हैं?

उच्च शिक्षा के मसले पर होने वाली सार्वजनिक सभाओं में अभय अक्सर ध्यान दिलाते थे कि हमारे विश्वविद्यालय रोहित वेमुला तथा पायल तड़वी जैसे हाशिए के समुदाय से आने वाले विद्यार्थियों को कामयाब नहीं होने देते. कुछ ऐसा ही अभय के साथ भी हुआ. विश्वविद्यालयी व्यवस्था ने उन्हें शिक्षक का पद नहीं दिया. साल 2017-18 के एक सर्वेक्षण के मुताबिक उच्च शिक्षा में अनुसूचित जनजाति से मात्र 2.2 प्रतिशत व्यक्ति शिक्षक हैं. इन संख्याओं के पीछे अभय जैसे अनगिनत विद्वानों के धैर्य, संघर्ष तथा पराजय की कथा छिपी है.

डाक्टरेट की उपाधि हासिल कर लेने के बाद अभय इस कोशिश में थे कि मध्य-भारत में कहीं ठिकाना बनायें ताकि हाशिए के समुदाय के छात्रों के साथ सघन जुड़ाव के साथ काम कर सकें, अग्रिम पंक्ति की चुनौतियों के ऐन सामने रहें और जशपुर के अपने परिवार के साथ भी निकट बने रहें. लेकिन लालफीताशाही उनके आड़े आती रही. मिसाल के लिए, विश्वविद्यालय उनकी ससेक्स की एम.ए.की डिग्री स्वीकार करने को तैयार नहीं थे क्योंकि ये डिग्री एक साल की अवधि की थी जबकि भारत में एम.ए.की डिग्री दो सालों की पढ़ाई पर मिलती है. रांची के सेंट जेवियर्स कॉलेज ने भी शिक्षक के पद पर उनका चयन नहीं किया. इस बात का अभय को खासतौर पर धक्का लगा.

हाल के सालों में अभय की बातों से हमें थकान और उदासी की झलक मिलने लगी थी, बीते साल उनसे बातचीत के क्रम में यह हमारे आगे स्पष्ट हो चुका था. नागरिक संगठनों पर कठोर कार्रवाई तथा सुधा भारद्वाज, स्टेन स्वामी और आनंद तेलतुम्बडे जैसे कार्यकर्ताओं-विद्वानों पर मामले आयद होता देख उन्होंने हमसे कहा था, “मुझे नहीं लगता कि कल को सरकार दलित और आदिवासियों को दिया गया आरक्षण समाप्त कर दे तो भारत में लोग एकजुट आगे होकर विरोध भी जता पायेंगे.” अभय की सेहत भी खराब चल रही थी. उन्होंने साल 2019 के एक इंटरव्यू में कहा था, “यह संघर्ष लंबा चलने वाला है.” उनकी कविता ‘ए रिपब्लिक ऑफ लॉस्ट मेमरी’ में उनकी पीड़ा का इजहार मिलता है:

प्यारे गणराज्य,

जब तुम्हारे सर्वश्रेष्ट नागरिक सड़कों पर मारे जा रहे हैं,

जेलों में एक पर एक कैद किये जा रहे हैं

और देशद्रोही के सिर सज रहा है सत्ता का ताज

तो फिर कुछ भयानक गड़बड़ है तुम्हारे साथ!

अकादमिक जगत की चुप्पी

अभय की असामयिक मौत से अकादमिक जगत के सबसे चमकदार सितारों में से एक की ज्योति बुझ चुकी है. लेकिन अकादमिक जगत और समाज विज्ञानियों के बीच इस सितारे के खो जाने को लेकर चुप्पी बनी हुई है. ज्यादतर यही दिखा कि छात्र-समूह, दलित एवं आदिवासी नेटवर्क तथा वैकल्पिक मीडिया ने ही अभय की मृत्यु को चिन्हित किया—इस बात को रोहित वेमुला और पायल तड़वी की मृत्यु के समानान्तर देखा जा सकता है.

हाल में अभय ने हमें अपना लिखा एक शोध-लेख भेजा था. इसमें उन्होंने इंटरनेट की आभासी दुनिया (ऑनलाइन स्पेसेज) में चल रही उस ज्ञानमूलक हिंसा की चर्चा की है जो हाशिए के लोगों को सीखने और जानने से वंचित करती है. सुविधा-संपन्न भारतीय आदिवासी, दलित तथा बहुजन को जातिगत पूर्वग्रहों और विभावनों के चश्मे से देखते हैं और सस्ता श्रम मानकर बरतते हैं. द इंडिया फोरम पर प्रकाशित एक प्रभावशाली लेख में इतिहासकार मरुना मुर्मू तथा अर्थशास्त्री अदिति प्रिया ने दिखाया है कि अकादमिक जगत भी आदिवासी, दलित तथा बहुजन के संघर्षों के प्रति वैर-भाव का रवैया पाले रहता है. अकादमिक सत्ता-प्रतिष्ठान भी आदिवासी, दलित तथा बहुजन की कामयाबी तथा रचनात्मक जीवन के प्रति कोई उल्लास नहीं दिखाते तथा इन तबकों के किसी रचनाकार व्यक्तित्व की मृत्यु हो तो उसके प्रति भी तटस्थता का रवैया अपनाये रहतें हैं.

सिलीगुड़ी से अभय के पार्थिव शरीर को जशपुर में उनके गांव लाया गया और वहां उनका अंतिम संस्कार संपन्न हुआ. इसके एक दिन बाद, अभय के करीबी दोस्त और लेखक ग्लैडसन डुंगडुंग ने लिखा- “अगर इस योग्यता के आदमी को इस कदर अपमानित किया जाता है तो क्या उसके मन में शांति रहेगी? क्या उसे दिल का दौरा नहीं पड़ेगा? लेकिन हम लड़ते रहेंगे-मान्यता के लिए, अपनी पहचान के लिए,अपनी धरती, अपने जंगलों,पहाड़ों और नदियों के लिए.”

डायस ने उदासी के स्वर में हमसे कहा, “अभय जैसे आंगिक बुद्धिजीवी (आर्गेनिक इंटेलेक्चुअल) और नेता के पुष्पित-पल्लिवत होने में समय लगता है. बीते वर्षों में मुझे लगा कि अभय अब अपने स्वरुप में आने लगा है. वह एक ऐसे व्यक्ति के रुप में उभर रहा था जो पार्टियों की चुनावी राजनीति के दलदल में धंसे और उनका पिट्ठू बने बगैर आदिवासी जन को लामबंद कर सकता था. इसी कारण इतनी कम उम्र में हुई उसकी मौत इतनी ज्यादा दुखद लगती है.”

अपनी आकस्मिक मृत्यु से कुछ दिन पहले, मार्च की शुरुआत में अभय ने अपने छोटे भाई अजय के साथ फोन पर बात की थी. बातचीत में अभय फिर से अपनी पुरानी चिन्ता की तरफ मुड़ गये. अजय ने हमसे बात करते हुए याद किया: "दादा गांव की बात करते थे, कहते थे कि हमें यहां आर्थिक अवसरों को सुनिश्चित करने के लिए कुछ करना होगा ताकि लोग पलायन कर शहर जाने और वहां शोषण का शिकार होने को मजबूर ना हों." अजय ने जब हमसे ये बात कही थी तो बड़ी बेतरतीबी के आलम में लगाये गये लॉकडाऊन के बीच अपने घरों को लौटने के लिए बेजार और बेहाल, सरकार के हाथो शहरों में निस्सहाय छोड़ दिये गये हजारों-हजार आप्रवासी मजदूरों की छवियां मीडिया में तैर रही थी. ऐसे में अधिक न्यायपूर्ण और मानवीय भारत बनाने की बात कहने वाली अभय की आवाज ज्यादा पुरजोर होकर हमारे बीच गूंज रही है.

(अनुवाद: चंदन श्रीवास्तव)

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