दिन ब दिन की इंटंरनेट बहसों और घटनाओं पर संक्षिप्त टिप्पणी.
इस बार की टिप्पणी में रेडियो रवांडा की कहानी. यह मोबाइल और व्हाट्सएप का दौर शुरू होने से पहले की बात है. अफ्रीका महाद्वीप के पूर्वी हिस्से में स्थित रवांडा में उस वक्त तक टेलीविज़न भी घर-घर नहीं पहुंचा था. तब रेडियो अपनी पहुंच और प्रभाव में बेहद शक्तिशाली था. वहां आरटीएलएम जैसे रेडियो चैनलों ने खुलेआम अपने प्रसारणों में बहुसंख्यक हुतू आबादी को अल्पसंख्यक तूत्सी आबादी का नरसंहार करने के लिए उकसाया.
रवांडा की त्रासदी हमारी ताज़ा याददाश्त में घटी सबसे भयावह मानवीय त्रासदी है, जिसमें वहां के मीडिया ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया था. इस नरसंहार में हुतू बहुसंख्यकों ने 8 लाख तूत्सी अल्पसंख्यकों और उदारवादियों को मौत के घाट उतार दिया था. रवांडा के उस नरसंहार की पटकथा वहां के मीडिया ने लिखी थी. इनमें से ज्यादातर रेडियो स्टेशन थे. इसीलिए आज के भारत और मीडिया, विशेषकर टीवी मीडिया के संदर्भ में रेडियो रवांडा की कहानी जानना बहुत जरूरी है.