देहरादून: सिमटती खूबसूरती में पैबंद लगाता अनियंत्रित विकास

उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में बीते दो दशकों के दौरान हुए अनियंत्रित फैलाव ने शहर को कंग्रीट के जंगल में बदल दिया है.

WrittenBy:हृदयेश जोशी
Date:
Article image

कभी हिमालय के फुटहिल में स्थित मनोरम नगर देहरादून, जो उत्तरांखड की राजधानी भी है, बढ़ते जनसंख्या दबाव, पर्यावरणीय संवेदनशील क्षेत्रों की कीमत पर तीव्र ढांचागत विकास, नष्ट होते जलीय जंतु और अनुचित अपशिष्ट प्रबंधन के वजह से बर्बाद होता जा रहा है. 2017 में देहरादून को स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट में शामिल किये जाने के बाद भी अभी तक इसकी किस्मत में कोई खास बदलाव नहीं आया है.

देहरादून की घाटी, गंगा और यमुना के बीच 70 किलोमीटर में फैली हुई है. ये जगह शुरू से कृषि और बागवानी उत्पादों के लिए उपजाऊ रहा है. घने जंगल, जलाशय, नहरें इसकी जैव-विविधता को और समृद्ध बनाते हैं. पिछले दो दशक में इसका प्राकृतिक वास तेजी से बदला है. कई लोग ये मानते हैं कि इसका दुर्दिन तभी शुरू हो गया था, जब 2000 में उत्तराखंड की राजधानी बनाया गया.

उदाहरण के तौर पर कभी देहरादून का मोहब्बेवाला पूरे विश्व में अपने प्रचुर बासमती चावल के लिए मशहूर था. माजरा, हरबर्टपुर और जोगीवाला का बासमती तराई पूरे दक्षिणी दून वैली में फैला हुआ था, लेकिन अब उसका उत्पादन लुप्त हो गया है. एक जमाने में धान के खेतों वाले इलाके में आज आलीशान व्यावसायिक और आवासीय इमारतें सड़कों पर भाग रही तेज रफ्तार की गाड़ियों को निहारते रहते हैं.

मोहब्बेवाला में रहने वाले 42 वर्षीय जितेंद्र सिंह ने बताया, "मेरे पिता 1990 के मध्य तक यहां बासमती के चावल का निर्यात किया करते थे. ये हमारी घाटी के लिए एक गर्व की बात थी, लेकिन जब से यहां भवन निर्माण शुरू हुए हैं सब बदल गया है. अब हमारे लिए बासमती उगाना कठिन, वित्तीय रूप से फायदे का सौदा नहीं रहा."

देहरादून में पिछले दो दशकों के दौरान तेजी से बढ़ी जनसंख्या और निर्माण कार्यों के वजह से प्रॉपर्टी की कीमतों में भी बढ़ोत्तरी हुई है. किसानों के लिए ज़मीन बेचकर दूसरे काम धंधे करना खेती से होने वाली आय से ज्यादा आसान है. कई अन्य कारकों ने भी इस परिवर्तन में अपना योगदान दिया है. जलवायु परिवर्तन, शुद्ध जल की उपलब्धता में कमी आने के वजह से भी घाटी में विशेष किस्म के चावल का उत्पादन अब संभव नहीं है.

राज्य जैव विविधता बोर्ड के चेयरमैन डॉ. राकेश शाह बताते हैं, "पूरी परिस्तिथिकी बदल गई है. देहरादून की मशहूर टाइप थ्री बासमती चावल के उत्पादन के लिए शुद्ध जल की आवयश्कता होती है. बासमती को आम धान के पौधे की तरह स्थिर पानी में नहीं उगाया जा सकता है. देहरादून का बासमती पौधा बड़ा भी होता है, इसलिए इसमें अतिरिक्त सावधनी की भी ज़रूरत होती है. अब बदलते पर्यावरण में ये सब संभव नहीं है.”

बढ़ते शहरीकरण ने घाटी में लीची के पैदावार को भी कम कर दिया है. देहरादून के आसपास प्रचुर मात्रा में लीची के बागों का दिखना अब सामान्य नहीं है. इस बदलाव का सबसे मुख्य कारण जनसंख्या है, जो पिछले बीस सालों से बहुत तेजी से बढ़ी है और इसकी वजह से संसाधनों पर भी दबाव बढ़ गया है.

imageby :

2011 की जनगणना के अनुसार, देहरादून की जनसंख्या 5,78,000 थी, जबकि देहरादून जिले की जनसंख्या 16.9 लाख थी. थी. हालांकि, नगरपालिका के अधिकारियों के अनुसार, देहरादून शहर की जनसंख्या अब 800,000 के पार हो गई है. नागरिक मामलों को लेकर सक्रिय सिविल सोसाइटी समूहों और विशेषज्ञों का मानना है कि यह आंकड़ा भी आबादी के आंकड़े का अनुमान भर है, सही तस्वीर नहीं है.

“देहरादून की जनसंख्या के आंकड़े इसके संसाधनों पर पड़ रहे दबाव की असली तस्वीर पेश नहीं करते. कैंट, रायपुर, क्लेमेंट टाउन जैसे इलाकों की जनसंख्या शहर की गणना में शामिल नहीं है जबकि सच्चाई ये है कि इनका दबाव भी देहरादून के ऊपर है. देहरादून शहर की असल आबादी 12 लाख के स पास है,” सोशल डेवलपमेंट फॉर कम्युनिटी के संस्थापक अनूप नौटियाल बताते हैं. यह देहरादून स्थित एक पर्यावरण हितैषी संस्था है.

विडंबना यह है कि पिछले दो दशकों में विकास की तमाम परियोजनाओं और योजनाएं के बावजूद देहरादून की कानूनी स्थिति अभी भी उत्तराखंण्ड की 'अस्थाई' राजधानी की ही है. राज्य की राजधानी को घाटियों के शहर चमोली के गैरसैंण में स्थानांतरित करने की मांग लगातार चल रही है. नाम के लिए एक विधानसभा भवन के निर्माण के इतर गैरसैंण में अभी और कोई निर्माण नहीं हुआ है. बुनियादी ढांचे का सारा विकास मौजूदा राजधानी देहरादून में ही केंद्रित हो गया है.

आवास और विकास गतिविधियों की ज़रूरतों ने पिछले दो दशकों में काफी ज़मीन पर कब्जा कर लिया है. स्थानीय विशेषज्ञों का कहना है कि राज्य के गठन के बाद सरकार ने भूमि विकास गतिविधियों के नाम पर हर तरफ सिर्फ आर्थिक नीतियों को बढ़ावा दिया और राजनेताओं ने भी मोटे मुनाफ़े के चक्कर में रियल स्टेट के बाजार को आगे बढ़ाया.

पिछले 50 सालों से देहरादून में रह रहे मानव विज्ञानी और सांस्कृतिक कार्यकर्ता लोकेश ओहरी ने हमें बताया, "मैं कहूंगा, वर्तमान में, घाटी में एकमात्र आर्थिक गतिविधि रियल स्टेट ही है. आप गंगा और जमुना के बीच फैली दून घाटी के विशाल क्षेत्र को देखिए, जो साल भर पहले बहुत ही उपजाऊ कृषि भूमि थी. वहां अब ऊंचे-ऊंचे अपार्टमेंट और वाणिज्यिक इमारतों का बाढ़ आ रहा है. हालांकि यह भूकंप संवेदनशील क्षेत्र है इसके बावजूद अधिकारियों द्वारा शायद ही कोई एहतियाती उपाय किए जा रहे हों."

मास्टरप्लान नदारद

आश्चर्जनक रूप से, राजधानी बनाए जाने के 20 सालों के बाद भी देहरादून के लिए कोई स्वीकृत मास्टरप्लान नहीं है. जून 2018 में, केंद्रीय वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसी) से आवश्यक अनुमति न मिलने के कारण उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने देहरादून के लिए मास्टरप्लान 2005-2025 को निरस्त कर दिया था.

बहरहाल, राज्य सरकार के योजनाकारों ने जुलाई, 2018 में सुप्रीम कोर्ट के यथास्तिथि बनाए रखने के आदेश का हवाला देते हुए पुराने मास्टरप्लान को ही जारी रखा. देहरादून विकास प्राधिकरण (एमडीडीए) के उपाध्यक्ष आशीष कुमार श्रीवास्तव ने कहा, "सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उच्च न्यायालय के आदेश पर स्टे का आदेश आने के बाद हमने उच्च न्यायालय के आदेश से पूर्वस्थिति को बहाल किया." श्रीवास्तव ने कहा, "एमडीडीए एक 'ग्रीन सिटी अवधारणा' का अनुसरण कर रहा है जो जनसंख्या के घनत्व को कम करने में सहायता करेगा. हम नहीं चाहते कि लोग छोटी-मोटी आवश्यकताओं के लिए यहां से वहां जाएं. इस मास्टरप्लान में एक सेटेलाइट टाउनशिप की अवधारणा बना रहे हैं ताकि जनसंख्या को वितरित किया जा सके. हम जल को बचाने के लिए वर्षा जल-संचयन के लिए भी प्रोत्साहित करेंगे और कार्बन उत्सर्जन को बन्द करके पूर्ण इलेक्ट्रिक मोबिलिटी भी लाएंगे."

खत्म होते पानी का स्रोत

देहरादून में तेज़ विकास की दौड़ शुरू होने से पहले यह नदियों, जलधाराओं वाला नगर हुआ करता था जिसमें एक जिसमें एक व्यवस्थित नहरों का तंत्र था. लेकिन पिछले दो दशकों में, शहर में चौड़ी सड़कों की मांग को पूरा करने के लिए प्रशासन ने नहरों को पाट दिया. जमीन के नीचे पाइपों का जाल बिछाकर प्राकृतिक नहर प्रणाली को पाट दिया गया है जो एक समय में क्षेत्र की सिंचाई और पेयजल सुविधा प्रदान करने के अलावा भूजल को भी रिचार्ज करते थे.

imageby :

नाम न छापने के अनुरोध पर उत्तराखंड सरकार के एक अधिकारी ने प्रशाशन का बचाव करते हुए कहा, "यह किसी की गलती नहीं है. ऐसे कदम उठाने बहुत ज़रूरी थे. बढ़ते ट्रैफ़िक को समायोजित और नियंत्रित करने के लिए सड़कों को चौड़ा करना ही था. आप इन सीमेंट पाइपों का उपयोग किये बिना ऐसा नहीं कर सकते हैं."

2019 में, जिला प्रशासन ने उत्तराखंड उच्च न्यायालय से कहा कि निर्माण की गतिविधियों के लिए जलधाराओं, प्राकृतिक नहरों सहित समृद्ध जल निकायों के साथ 270 एकड़ क्षेत्र को अतिक्रमित किया गया है. इस 270 एकड़ में से 100 एकड़ केवल देहरादून शहर में अतिक्रमण हुआ है.

अनुचित अपशिष्ट प्रबंधन.....!

जून 2017 में, देहरादून को केंद्र सरकार द्वारा स्मार्ट शहरों के रूप में विकास के लिए चयनित शहरों की सूची में शामिल किया गया था. 2018 में, केंद्र सरकार ने संसद को बताया कि इस योजना के कार्यान्वयन के लिए राज्य को 220 मिलियन (22 करोड़ रुपये) प्राप्त हुए.

गलत अपशिष्ट प्रबंधन, अप्रभावी सीवेज ट्रीटमेंट के वजह से कई तरह की समस्याएं पैदा हो गई हैं. 2017 में, देहरादून को स्वच्छ सर्वेक्षण रैंकिंग के तहत भारत के शीर्ष 300 स्वच्छ शहरों में भी जगह नहीं मिली. पिछले साल, देहरादून पूरे देश में 425 शहरों की सूची में 384वें स्थान पर फिसल गया.

imageby :

तेजी से हो रहे शहरीकरण और उचित नागरिक प्रबंधन न होने के वजह से देहरादून की नदियों की जल धाराओं पर भी दुष्प्रभाव पड़ रहा है. उदाहरण के लिए, बिन्दल और रिस्पना जैसे मौसमी नदियां, जो एक समय शहर के बीच से बहती थी, अब वो गन्दगी और कचरे से भरी नलियों में बदल गए हैं. अब इन्हीं नदियों में बड़ी मात्रा में सीवेज भी डाला जा रहा है.

शहर 165 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रतिदिन) से अधिक सीवेज उत्पन्न करता है, लेकिन कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है कि पानी को फिर से नदियों में डालने से पहले इसे किस तरह से उपचारित किया जा रहा है. 2009 में, मास्टर प्लान (2025) की घोषणा करते हुए, सरकार द्वारा कुल मिलाकर 138 एमएलडी की क्षमता वाले कुल आठ सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) को मंजूरी दी गई थी. हालांकि, 2017 तक, चार ऑपरेशनल एसटीपी सिर्फ 18 एमएलडी सीवेज का शोधन करते थे और 55 से अधिक एमएलडी को जल निकायों में बिना शोधन के ही डाला जा रहा था.

imageby :

“सीवेज उपचार बहुत बेकार है. ज्यादातर सीवेज बिना शोधन के ही दो मौसमी नदियों रिस्पना और बिन्दल में डाले जा रहे हैं. मीडिया रिपोर्टों ने नियमित रूप से इस संबंध में प्रशासन की उपेक्षा और अपनी अक्षमता का खुलासा किया है,” नॉटियाल ने बताया. "मुझे नहीं लगता है कि 25 प्रतिशत से अधिक (सीवेज) का भी उपचार अच्छे से किया जा रहा है."

उत्तराखंड सरकार के पर्यावरण मंत्री हरक सिंह रावत मानते हैं कि सीवेज और अपशिष्ट प्रबंधन में "समस्या" है.

"हमारे पास नियम तोड़ने वालों को दंडित करने की शक्ति हैं और नगरपालिका निकायों और उद्योगों को नोटिस भी जारी किया जा सकता है. सीवेज या कोई भी प्रदूषक नदी या किसी भी जलधारा में नहीं डालना चाहिए. हम इसपर नजर रखे हुए हैं," रावत ने कहा.

imageby :

रावत ने बताया कि सरकार गुजरात में "साबरमती रिवरफ्रंट" की तरह "मृत" जलधाराओं को को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रही है. एमडीडीए के उपाध्यक्ष ने यह पुष्टि की है कि इन "संकटग्रस्त" नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में वृक्षारोपण किया जा रहा है और सरकार रायपुर क्षेत्र में सांग नदी पर एक बांध का निर्माण कर रही है जो शहर में पीने के पानी की आपूर्ति के अलावा नदियों को फिर से जिंदा करेगा.

संस्थानों के हरे-भरे कैम्पस आखिरी उम्मीद

कई समस्याओं के बीच एक उम्मीद की किरण मौजूद है. घाटी में स्थित कई संस्थान देहरादून की हरियाली को काफी हद तक संरक्षित किये हुए हैं. फारेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एफआरआई), भारतीय सैन्य अकादमी (आईएमए), वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (वाईआईआई), फारेस्ट सर्वे (एफएसआई) और भारतीय संस्थान के अन्य ट्रेनिंग और शैक्षिक परिसर पक्षियों और यहां तक कि जंगली जानवर को भी आश्रय देते हैं.

वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (वाईआईआई) के निदेशक, जो पिछले चार दशकों से पक्षियों पर नजर रखते आ रहे हैं ने बताया, "यह देहरादून को भारत के अन्य राज्यों में सबसे हरी-भरी राजधानी बनाता है. यद्यपि पक्षियों की निगरानी के लिए कोई प्रोटोकॉल नहीं है, लेकिन हमें विश्वास है दस किलोमीटर के दायरे में लगभग 300 विभिन्न प्रकार के पक्षियों की प्रजाति निवास करती है."

देहरादून घाटी में ऐसे संस्थान दर्जन भर से भी ज्यादा हैं. इनमें से कुछ संस्थान तो हज़ारों एकड़ में फैले हुए हैं और पूर्णतः व्यवस्थित भी हैं.

मोहन ने हमें बताया, "शहर को विकसित करने के पेर में बहुत सारा प्राकृतिक पर्यावास समाप्त हो गया है. खासकर नाले, झाड़ियां और बीहड़ जैसे इलाके जिनमें पक्षियों और दूसरे जीवों का निवास होता था. पक्षियों के हैबिटेट के खत्म होने से इनकी संख्या भी घटी है. हालांकि, सकारात्मक पक्ष यह है कि देहरादून में कई उत्कृष्ट संस्थान हैं और इन परिसरों में काफी हरियाली है जो पक्षियों को फलने-फूलने में मदद करता है.”

Comments

We take comments from subscribers only!  Subscribe now to post comments! 
Already a subscriber?  Login


You may also like