‘देवभाषा संस्कृत कोई मुसलमान कैसे पढ़ा सकता है?’

कुछ छात्र बीएचयू के संस्कृत विद्या धर्म संकाय में मुस्लिम प्रोफेसर की नियुक्ति का विरोध कर रहे हैं. 

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महामना यानि मदन मोहन मालवीय के बगीचे में विवाद का एक और बीज अंकुरित हो रहा है. ताजा विवाद का स्वरूप सांप्रदायिक है, अमूमन बीएचयू जाति और धर्म के मामले में इसी तरह का रवैया अख्तियार करता है. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय के छात्र इस दफा धर्म की पताका अपने कंधे पर उठा कर घूम रहे हैं.

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बीते 2 दिनों के दरम्यान संकाय के कतिपय छात्र विभाग में एक मुस्लिम प्रोफेसर की नियुक्ति के विरोध में विरोध पर उतर आए हैं. यूनिवर्सिटी के संस्कृत विद्या धर्म संकाय में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद के लिए एक विज्ञप्ति निकली थी जिस पर प्रो. फ़िरोज़ खान की नियुक्ति को बीएचयू प्रशासन ने 5 तारीख को अपनी संस्तुति दी. विभाग में एक मुस्लिम प्रोफेसर की नियुक्ति की बात जब कुछ छात्रों को पता चली तो बीते रविवार को वे इसके विरोध में प्रदर्शन करने यूनिवर्सिटी के होलकर भवन पहुंच गए.

प्रदर्शनकारी छात्रों की भीड़ में शामिल छात्र सुधांशु जो खुद भी संकाय के ही छात्र हैं, उनका कहना है, “संस्कृत देवों और हिंदुओं की भाषा है. इसे कोई मुस्लिम व्यक्ति से हम कैसे पढ़ सकते हैं?” प्रदर्शनकारी अन्य छात्रों से बातचीत में जो तथ्य निकल कर सामने आए उसका लब्बोलुआब इतना भर है कि संस्कृत देवताओं की भाषा है, और अब इस पर हिंदुओं का अधिकार है. साथ ही आज तक कोई गैर हिंदू व्यक्ति संस्कृत भवन में नही घुसा है तो आगे भी ऐसा नहीं होने दिया जाएगा. जाहिर है छात्रों की सोच में धार्मिक कुंठा और नफरत का भाव कूट-कूट कर भरा हुआ है. उनकी सोच में यह बात भरी हुई कि भाषाओं का अपना धर्म होता है इसलिए उसे पढ़ने और पढ़ाने वाले का भी धर्म तय होना चाहिए.

असल में बीएचयू को हिन्दू संगठनों ने अपनी प्रयोगशाला बनाने का प्रयास 2014 के बाद तेज़ी से किया है. चाहे आरएसएस की शाखाएं परिसर में लगाने का मामला हो या संख्या का मसला हो, धार्मिक विषयों पर सेमिनार करने का हो या फिर आरएसएस-भाजपा नेताओं को कैंपस में खुली छूट का मामला हो. विश्वविद्यालय के अंदर कई धड़े हैं जो हिन्दू धर्म की बैशाखी के सहारे बड़े बड़े पदों तक पहुंचने के जुगाड़ में सतत लगे रहते हैं. 

परिसर के राजनीतिक परिदृश्य को हिंदुत्व की राजनीति के जरिए नियंत्रित करने का सांगोपांग उपक्रम लगातार चल रहा है. बीएचयू वो विश्वविद्यालय है जो बिहार, यूपी, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश से लेकर मणिपुर तक के केंद्रीय एवं राज्य विश्वविद्यालयों को कुलपति दे रहा है. जो प्रोफेसर आरएसएस के पदाधिकारियों के जितना नज़दीक होगा उसकी उतनी ही बेहतर पदोन्नति होगी. इसी सेटिंग और लॉबिंग के खेल में प्रोफेसर अपना ग्रुप बनाकर छात्रों के सहारे ऐसी सस्ती और घटिया राजनीति कर रहे हैं. 

हालांकि इस मामले का सुखद पहलु यह है कि यूनिवर्सिटी की चयन समिति ने छात्रों के प्रदर्शन का कड़ा जवाब देते हुए एक प्रेस रिलीज जारी किया है. बीएचयू के पीआरओ राजेश सिंह ने बताया, “समिति ने सबसे योग्य अभ्यर्थी को नियुक्त प्रदान किया है. बीएचयू की स्थापना धर्म, जाति, लिंग, वर्ण से ऊपर उठकर राष्ट्र निर्माण हेतु सभी को अध्ययन एवं अध्यापन के समान अवसर के लिए की गई थी जिसका प्रारम्भ से बीएचयू पालन कर रहा है. मालवीयजी ने भी कहा था बीएचयू का उद्देश्य सभी धर्मों के लोगों तक बिना भेदभाव के शिक्षा पहुंचाना है.”

बीएचयू छात्र परिषद के पूर्व महासचिव एवं पीएचडी स्कॉलर विकास सिंह कहते हैं, “बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति, उस चयन समिति और उसकी चयन प्रक्रिया को धन्यवाद दिया जाना चाहिए, जिसने जाति और धार्मिक संकीर्णताओं से ऊपर उठकर संस्कृत विद्या धर्म संकाय में नियुक्ति प्रक्रिया को पूरा किया है और एक अल्पसंख्यक समाज का व्यक्ति संस्कृत का शिक्षक नियुक्त हुआ है.

वो आगे कहते हैं, यह पूरे विश्वविद्यालय परिवार के लिए गर्व का विषय होना चाहिए. जहां पर हर जाति व धर्म के लोगों के लिए समान अवसर उपलब्ध है. बीएचयू के सभी छात्र इन चंद नफ़रत फैला रहे छात्रों के खिलाफ खड़े हैं.”

बीएचयू के अंदर सैकड़ों छात्र-छात्राएं इस सांप्रदायिक भावना से प्रेरित विरोध प्रदर्शन का विरोध करने भी उतर गए हैं. ऐसे छात्रों का सोशल मीडिया में खुलकर विरोध जारी है. 

जो छात्र एक मुस्लिम प्रोफेसर को संस्कृत पढ़ाए जाने का विरोध कर रहे हैं उन्हें नहीं पता कि जो पाठ्यक्रम उन्हें स्कूलों में पढ़ाया जाता है वह किसी धर्म विशेष के छात्र को देखकर नहीं तय किया जाता. ऐसा नहीं है कि अंग्रेजी सिर्फ इसाई छात्रों को पढ़ाई जाती है, हिंदी सिर्फ हिंदुओं को. ऐसा होता तो फिराक़ गोरखपुरी उर्दू के सशक्त हस्ताक्षर कभी न बन पाते.  

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