गोवा: हिंदी भाषी बच्चे परेशानी नहीं, ताकत हैं

कैसे बहुभाषी बच्चों की कक्षा में एक साथ सभी बच्चों को ज्ञान का ककहरा सिखाया जा सकता है, एक शिक्षिका ने कर दिखाया.

WrittenBy:शिरीष खरे
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यदि कक्षा में बच्चों की मातृभाषाएं अलग-अलग हों तो आमतौर पर एक शिक्षक के लिए किसी विषय पर सभी बच्चों को अच्छी तरह से पढ़ाना समस्या बन जाता है. इस लिहाज से देखें तो गोवा राज्य में कई सरकारी स्कूल हैं, जहां कोंकणी, मराठी और हिंदी भाषी बच्चे एक-दूसरे के सहपाठी हैं. लिहाजा, यहां बहुभाषी कक्षा का विचार और अधिक जटिल लगने लगता है.

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लेकिन, इसी राज्य में कुछ स्कूल शिक्षण के पारंपरिक तौर-तरीकों की बजाय मूल्यवर्धन को अपना रहे हैं, जिसमें अलग-अलग भाषा बोलने वाले बच्चे पढ़ाई के दौरान बाधा नहीं बनते, बल्कि बेहतर ढंग से सीखने की राह में मददगार साबित होते हैं.

राज्य की राजधानी पणजी से करीब 20 किलोमीटर दूर उत्तर गोवा के बिचोलिम तहसील के मुलगाव में ऐसा ही सरकारी प्राथमिक स्कूल है, जहां प्रधानाध्यापिका प्रतीक्षा लाड़े शिक्षण की इस अनूठी पद्धति के बूते कोंकणी, मराठी और हिंदी बोलने वाले बच्चों की भाषाओं के अंतर को पाट रही हैं. यही नहीं, मूल्यवर्धन की कुछ गतिविधियों का असर है कि बच्चे विविधता का महत्व तो जान ही रहे हैं. साथ ही, एक-दूसरे की भाषा को ठीक से बोलने और समझने का प्रयास भी कर रहे हैं.

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गौर करने वाली बात है कि वर्ष 1963 में स्थापित इस मराठी माध्यम के स्कूल में दो शिक्षिकाएं हैं और दोनों की मातृभाषा मराठी है, जबकि यहां पहली से चौथी तक पढ़ने वाले 30 में आधे से अधिक बच्चे दूसरे राज्यों से पलायन करके आए परिवारों से हैं. मुलगाव करीब चार हजार की आबादी का गांव है. यहां बड़ी संख्या में उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी भाषी राज्यों से आए दैनिक मजदूरों के परिवार हैं. बता दें कि मुलगाव में कुल पांच स्कूल हैं. लेकिन, चर्चा हो रही है करीब तीन सौ की आबादी वाले बागबाड़ा बस्ती के स्कूल और यहां की शिक्षिकाओं द्वारा भाषा-संबंधी बाधाओं को पार करने के प्रयासों की.

इस बारे में बात करते हुए प्रतीक्षा एक वर्ष पुरानी स्थिति बताते हुए कहती हैं, “तब अधिकतर बच्चों को उनकी और उन्हें बच्चों की भाषा समझ नहीं आने से बहुत परेशानी होती थीं. इसलिए, हर बात को पहले मराठी, फिर हिंदी और जरुरत पड़ी तो कोंकणी में भी दोहराना पड़ता था. इसमें बहुत अधिक समय और ऊर्जा खर्च करनी पड़ती थी. इसके अलावा सभी बच्चों को अपना सबक याद रखने के लिए उसे बार-बार दोहराना पड़ता था.” जाहिर है इन कोशिशों के बावजूद वे संतुष्ट नहीं थीं.

फिर सितंबर, 2018 को बिलोचिम में उन्होंने मूल्यवर्धन का प्रशिक्षण हासिल किया. इसमें उन्हें शिक्षण के प्रबंधन और कौशल की तकनीकों के बारे में बताया गया. उनके मुताबिक, ”मुझे लगा कि यदि मैंने इन तकनीकों को अपनाते हुए तरह-तरह की गतिविधियों और सहयोग पर आधारित खेल कराए तो भाषा सीखने की राह में कोई बाधा नहीं रहेगी.”

चित्र और वीडियो से की शुरुआत

मूल्यवर्धन की कुछ गतिविधियों में बच्चों को चित्रों के माध्यम से सिखाने का प्रयास किया जाता है. लिहाजा, प्रतीक्षा ने बच्चों को जीव-जंतुओं के बारे में समझाने के लिए चित्रों का सहारा लिया. इसके लिए उन्होंने अखबार और पत्रिकाओं में छपे कई जीव-जंतुओं के चित्र काटकर एक फाइल तैयार की.

इसके बाद उन्होंने बच्चों को मोबाइल से कुछ वीडियो भी दिखाएं. जैसे कि कभी पृथ्वी पर पाया जाने वाला डायनासोर कैसा जीव था या मधुमक्खी शहद किस प्रकार से तैयार करती है.

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अगले क्रम में बच्चों की जोड़ियां और समूह बनाए गए. फिर बच्चों से चित्रों को अलग-अलग करके जीव-जंतुओं का वर्गीकरण करने के लिए कहा गया. प्रतीक्षा के मुताबिक, ”हम एक समूह से कहते कि इनमें से आप पेड़ों पर रहने वाले जीवों के चित्र छांटो. दूसरे समूह से कहते कि आप पानी में रहने वाले जीवों के चित्र छांटो. तीसरे से कहते कि आप पेड़ और पानी दोनों में रहने वाले जीवों के चित्र छांटो.”

फिर बच्चों ने जीव-जंतुओं का वर्गीकरण करके ये चित्र चार्ट पेपर में चिपकाए. अंत में शिक्षिका ने बच्चों के कुछ संदेहों को स्पष्ट किया. जाहिर है कि इस तरह से वे बहुत कम बोलकर बच्चों को कहीं अच्छी तरह से समझा सकीं. बच्चे जैसे-जैसे खुद से सीखने लगे, वैसे-वैसे शिक्षिका का काम आसान होता गया.

जोड़ी और समूहों में लगाए सत्र

मूल्यवर्धन की गतिविधियों में किसी भी विषय पर बच्चों की समझ तैयार करने के लिए जोड़ी और समूहों में काम करने पर जोर दिया जाता है. इस बारे में प्रतीक्षा अपने अनुभव साझा करती हुई बताती हैं कि जब अलग-अलग भाषा बोलने वाले बच्चों को जोड़ी या समूहों में साथ रखा गया तो वे आपस में घुल-मिल गए.

प्रतीक्षा के अनुसार, ”बच्चे भाषा बहुत जल्दी सीखते हैं. इसलिए, समूह के बच्चों के साथ चर्चा से लेकर सबके सामने प्रस्तुतीकरण की पूरी प्रक्रिया में मैंने देखा कि बच्चे एक-दूसरे की भाषा के कई शब्दों से परिचित हो रहे हैं. पर, इससे एक और फायदा हुआ. पहले कई बच्चे या तो गुमसुम रहते थे, या लड़ते-झगड़ते थे. पर, समूहों में काम करने से उनमें आपसी सहयोग की भावना बढ़ी.”

यही वजह है कि बतौर शिक्षिका प्रतीक्षा आज बच्चों के आत्मविश्वास, सामाजिक गुणों और उनकी क्षमताओं में बढ़ोतरी को देख अपनी खुशी जाहिर करती हैं.

भाषा को बनाई समझ की सीढ़ी

यहां विशेष बात यह है कि दूसरी भाषाओं से दूरी बरतने की बजाय उन्हें एक औजार की तरह उपयोग में लाया गया. प्रतीक्षा की मानें तो इसके लिए उन्होंने कुछ गतिविधियां कराईं. जैसे कि बच्चों के बीच कोई एक वस्तु रख दी जाती और फिर उनसे कहा जाता कि उस वस्तु का नाम अपनी मातृभाषा में बताना है. फिर उस नाम की चिट बनाकर उस वस्तु पर चिपकानी है.

प्रतीक्षा कहती हैं, ”मैं सभी बच्चों से मराठी में कोई प्रश्न पूछतीं. फिर बच्चों से कहती कि आप इसका उत्तर अपनी-अपनी भाषाओं में दो. इससे हर बच्चा अपनी बात सहजता से कहता. असल में बच्चे एक-दूसरे की भाषा का सम्मान करना ऐसे ही सीखते हैं.”

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शिक्षिका सुप्रिया सालगांवकर बताती हैं कि बच्चों को सिखाने के दौरान उन्होंने भी हमेशा यही ध्यान रखा कि यदि कोई बच्चा अपनी भाषा को कोई अटपटा लगने वाला शब्द बोले तो पूरी कक्षा में उसका मजाक न उड़े.

सुप्रिया कहती हैं, ”हमने अपने स्कूल में भाषा को लेकर किसी तरह का भेदभाव नहीं किया और न होने दिया. इसलिए, हमने मूल्यवर्धन के सत्र में कहा कि आप अपनी-अपनी भाषा में अभिवादन, धन्यवाद, क्षमा और विदा से संबंधित शब्दों का प्रयोग करें.”

मतदान ने मिटाया भाषा का भेद

मूल्यवर्धन में बच्चों द्वारा मतदान की गतिविधि की जाती है. इससे बच्चे मतदान की प्रक्रिया और महत्व को विस्तार से समझते हैं. इस स्कूल में मतदान की इस गतिविधि पर विशेष जोर दिया गया.

प्रतीक्षा के मुताबिक, ”इससे बच्चों को पता चला कि हर व्यक्ति का अपना मत और विचार होता है. सभी तरह की भिन्नताओं के बाद भी सबको समान अधिकार हासिल हैं और भाषा आदि को लेकर कोई भेदभाव नहीं करना चाहिए.”

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वहीं, मूल्यवर्धन के सहयोगी-खेल भी बच्चों के मन से हर प्रकार के भेदभाव मिटाते हैं. किंतु, यह स्कूल समय-समय पर सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करके बच्चों के साथ उनके परिवारों को भी आपस में जोड़ने का प्रयास करता हैं. प्रतीक्षा की मानें तो इससे बच्चों का पूरा परिवार एक-दूसरे की संस्कृति को देखते-समझते हैं और विविधता की पहचान करते हैं.

तीसरी कक्षा की सोनाक्षी गौड़ के शब्दों में, ”तब हम देखते हैं, कौन कैसा नाचता है, गाता है. थोड़ा-थोड़ा हम भी उसकी तरह नाचते-गाते हैं.”

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