विवेकशील जनसमूह को अस्तित्व में लाना

एक उन्नत, सजग समाज के लिए एक तर्कशील, आलोचनात्मक और प्रश्नाकुल मस्तिष्क का निर्माण जरूरी है. 

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ऐसे जनसमूहों को कैसे अस्तित्व में लाया जाय जो सजग हैं, और उनसे किन बातों पर चर्चा की जाये और क्यों? ऐसे जनसमूह की आवश्यकता है जो आलोचनात्मक तर्क से उत्पन्न प्रश्नों का उत्तर दे सकें. यह जरूरी नहीं कि उत्तर सदा संतोषजनक हो परन्तु कम-से-कम संवाद के मुद्दे को सजीव रखा जा सके. तो शुरू करने के लिए, शिक्षित जनसमूह होना अपेक्षित है. हम अपने को कैसे शिक्षित करें? इसके लिए आवश्यक है कि विभिन्न क्षेत्रों के पेशेवरों की भागीदारी हो और जनहित बुद्धिजीवियों की भी जो अपनी वैकल्पिक सत्ता अपने व्यवसायों में अपनी प्रसिद्धि से पाते हैं.

सभी के लिए उचित शैक्षणिक सुविधाओं के अभाव में हम सूचना पाने के लिए अन्य स्रोतों पर निर्भर रहते हैं. इसमें से एक स्रोत है मौखिक प्रकार का अनौपचारिक, अप्रत्यक्ष दृश्य मीडिया. इसके केंद्र में है इंटरनेट परन्तु इसकी पकड़ अभी पूरे समाज पर नहीं बनी है. सूचना अपने आप में सत्ता का स्रोत है. हम कुछ तकनीकों के इतने आदी हो गये हैं कि गलत सूचना भी सत्ता का स्रोत हो जाती है. उदाहरण के लिए, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जिसमें उच्च स्तरीय सूचना भी है और बकवास भी. अतः आवश्यक है कि जनसमूह को सचेत किया जाये ताकि वह उपयोगी सूचना और बेमतलब की बातों में फ़र्क कर सके.

जैसा कि इंटरनेट या सोशल मीडिया में है, वैसा ही दृश्य मीडिया के साथ भी है. कुछ अपवादों को छोड़कर टीवी चैनल परस्पर प्रतिद्वन्द्विता करने वाले वक्ताओं को बुलाते हैं जो दूसरे वक्ता पर चिल्लाकर उसे शान्त करना चाहते हैं. वही कुछेक वक्ता विभिन्न चैनलों पर दिखलाई पड़ते हैं. सब कुछ छोड़कर मात्र वर्तमान राजनीति के सन्दर्भ में चीजों को देखा जाता है- वहां भी जहां यह निरर्थक है. वक्ताओं द्वारा इतना समय बर्बाद किया जाता है कि उन्हें चुप कराना पड़ता है. जो तर्क से उत्तर देने में अक्षम हैं, वे मूल प्रश्न से भटक कर ऊंची आवाज़ में आग उगलने लगते हैं. इसका परिणाम यह होता है कि किसी सार्थक तरीके से गम्भीर विषय पर उद्देश्यपूर्ण चर्चा नहीं हो पाती.

एक ऐसे ही संवाद का ताज़ा उदाहरण है- इस चर्चा का विषय था कि मुसलमानों को वोट देने के अधिकार से वंचित कर दिया जाय. यह मांग एक हिन्दू संगठन ने उठायी थी. परन्तु इसे ठीक से विश्लेषित नहीं किया गया कि यह मांग किसी स्थानीय राजनीति से जनित थी और यह संविधान पर आघात थी. धर्म विवाद का मुद्दा नहीं था, यह तो नागरिकों के अधिकार का प्रश्न था. यह चर्चा ज़्यादा सार्थक होती, यदि यह मुद्दा इस प्रकार रखा जाता कि क्या यह नागरिकता की पुनर्व्याख्या करने जैसा नहीं है! यह तो बहुत गम्भीर मुद्दा है और इसके फलक मात्र धर्म तक सीमित नहीं हैं.

शायद ही इस तरह के कार्यक्रम अपने वक्तव्यों के अलावा वास्तविकता की अलग से छानबीन करते हों. यदि नक्सलवाद पर चर्चा हो रही हो तो क्यों नहीं आदिवासी क्षेत्रों से वक्ता बुलाये जायं, जहां नक्सलवाद ज़्यादा फैला है, ताकि वे बतला सकें कि वे नक्सलों का समर्थन क्यों या क्यों नहीं करते हैं, या फिर किसी घटना के घटित होने के कारणों के बारे में उनका क्या अभिमत है. हम उनके रहन-सहन की दशाओं को क्यों नहीं देखते कि सरकार उनके लिए क्या कर रही है या क्या नहीं कर रही है ताकि हम अपना स्वतन्त्रा दृष्टिकोण बना सकें. उन क्षेत्रों में वास्तव में क्या हो रहा है और इस विचार-विमर्श में क्यों ऐसे वक्ता हावी रहते हैं जिनके विचार हम पहले से जानते हैं क्योंकि वे अपनी पार्टियों के प्रवक्ता होते हैं. दिल्ली के टिप्पणीकार या वक्ता प्रायः सभी मुद्दों पर बोलते हैं और इतना शब्दाडम्बर करते हैं जिसका कोई अर्थ नहीं होता. क्या हम उन क्षेत्रों के अन्य नागरिकों की बात नहीं सुन सकते?

जब डोंगरिया कोण्ड जनजाति अपने पवित्र पर्वत नियमगिरि को एक व्यापारिक घराने से बचाना चाहती है तब हमें उनकी बात ज़्यादा सुनाई पड़नी चाहिए जो उसे बचाने के लिए प्रयत्नशील हैं. नियमगिरि उनके लिए एक पवित्र पर्वत श्रृंखला है जिसकी वे पूजा करते हैं. यह हिन्दुओं के मन्दिर या मुसलमानों की मस्जिद के समान ही है. उस पवित्र पर्वत को ध्वस्त करने का मतलब है कि हम किसी मन्दिर या मस्जिद को नष्ट करने की अनुमति मांग रहे हैं. इस प्रकार का बिन्दु दर्शकों को नहीं समझाया जाता क्योंकि हम आदिवासियों को अपने से कमतर मानते हैं.

अगर यह क़ानून है कि जहां कोई मूर्ति मिले, उस भूमि पर उस मन्दिर का अधिकार है जहां वह मूर्ति स्थापित है- यह बिन्दु बाबरी मस्जिद में प्राप्त मूर्तियों के प्रसंग में कहा गया है- तो क्या यह अधिकार उस मूर्ति के लिए अपवर्जित है जो पर्वत के रूप में प्रतीक है? इस संबंध में कानूनी स्थिति क्या है. यदि कोई कानूनी स्थिति है तो वो ये कि कोण्ड इस देश के सम्मानित नागरिक हैं. क्या हम उन्हें उन अधिकारों से वंचित कर सकते हैं. ये अधिकार उन्हें औपनिवेशिक शासन में प्राप्त नहीं थे जबकि मन्दिर के देवों को वह अधिकार प्राप्त है? इसमें क्या तकनीकी भिन्नता है? और हमें यह भी प्रश्न करना चाहिए कि क्या इन अधिकारों की वैधता उन्हें भी प्राप्त है जिनका कोई भौतिक रूप नहीं है और वे मात्र अमूर्त हैं?

लगभग सभी टीवी चैनल एक जैसे हैं और कोई भी सोच सकता है कि इसका कारण यह है कि इन चैनलों को व्यावसायिक घराने वित्तीय सहायता देते हैं जिनका उद्देश्य टीवी चैनल चलाने का एक जैसा है. या इसका कारण यह है कि इन टीवी चैनलों में काम करने वाले कर्मियों में बहुत कम ऐसे हैं जिनमें ऐसी संवेदनशीलता होती है कि वे उन मुद्दों की पड़ताल करें जो हमारे समाज में उठते हैं. यदि सारा मीडिया नहीं तो कम-से-कम आंशिक मीडिया तो अपना कर्तव्य-पालन करे.

क्या यह सम्भव नहीं कि कम-से-कम एक टीवी चैनल तो ऐसा हो जो पूर्णतः व्यावसायिक न हो या राज्य से वित्तीय सहायता प्राप्त न हो. ऐसा चैनल हर शाम को नियत समय पर कुछ घण्टों के लिए ही चले और जो कुछ घट रहा है, उसके प्रति एक वैकल्पिक नज़रिए को स्थान दे सके. यदि ऐसा टीवी चैनल वित्तीय कारणों से सम्भव न हो तो कोई रेडियो स्टेशन ही पर्याप्त होगा जो मात्र व्यावसायिक लाभ के लिए न हो. ऐसा रेडियो स्टेशन वह केंद्र होगा जो वैकल्पिक विचारों और उनके समाधान की खोजबीन को बढ़ावा दे सकेगा. यह महज बयान दर्ज करने से आगे बढ़ते हुए उसके तर्कसंगत कारण जानने की प्रक्रिया को बढ़ावा देगा. इंटरनेट पर कुछ वेबसाइट इस प्रकार के वैकल्पिक विचारों को समर्पित हैं लेकिन इन विचारों को पढ़ने के लिए जो इच्छुक हैं, उन सब तक यह साधन सुलभ नहीं है. सोशल मीडिया इस प्रकार का काम कर सकता है परन्तु उसकी सीमा है. गलत भाषा के प्रयोग को रोकना सदा सम्भव नहीं है और कुछ इस माध्यम को अपना गुस्सा निकालने के लिए इस्तेमाल करते हैं. हम उस तबके की आवाज़ को कैसे दबा दें जो मात्र वर्तमान का दोहन नहीं करते बल्कि भविष्य के बारे में भी सोचते हैं.

समाज या जनता के लिए सूचना प्राप्ति का अन्य स्रोत है- औपचारिक शिक्षा. इसे दो स्तरों पर विश्लेषित किया जा सकता है- शिक्षण की विषयवस्तु और शैक्षणिक संस्थाओं की स्वायत्तता. आज शिक्षा शिक्षाशास्त्रियों के हाथ से निकलकर राजनीतिज्ञों, नौकरशाही और सांस्कृतिक या धार्मिक संगठनों के हाथ में पहुंच गयी है जिनका दृढ़ राजनीतिक एजेंडा होता है. हमें इस बात के लिए सजग रहना चाहिए कि यदि राजनीतिज्ञ बुद्धिजीवियों से जुड़ें तो किस तरह से जुड़ें. यदि पचास वर्ष पूर्व के परिदृश्य का देखें तो आज जो राजनीति में प्रवेश कर रहे हैं, उनके गुणों में पर्याप्त अन्तर आ गया है. संकोचपूर्वक भी कहें तो शैक्षणिक क्रियाकलापों के प्रति वह संवेदनशीलता अब दिखलाई नहीं पड़ती. यह सही है कि शैक्षणिक योग्यता अपने आपमें कोई मापदण्ड नहीं है परन्तु शिक्षा के उद्देश्य के बारे में तो समझ होनी चाहिए.

यदि रचनात्मकता की बात न करें तो भी आदर्श रूप से यह जरूरी है कि कोई व्यक्ति विश्लेषण के साथ, तर्कयुक्त स्वायत्त होकर सोचे. यह अधिगम के सभी पक्षों से सम्बन्धित है. उदाहरण के लिए, कोई शिक्षित व्यक्ति तर्क पर आधारित समझ से यह जान सकता है कि जब ज्ञान तकनीक का स्थान लेता है तो उसका एक विशिष्ट सन्दर्भ होता है और वह वैसी समझ को जन्म देता है जो स्थिर होती है, यदि पहले से कुछ नहीं है तो कोई तकनीकी आविष्कार आकार ले सकता है. बीसवीं सदी के खास तकनीकी आविष्कार इसलिए हो सके क्योंकि पहले से (उस विषय की) समझ लिपिबद्ध रही और तभी वह तकनीक सम्भव हो पायी. उस प्रकार के आविष्कार तीन हज़ार साल पहले सम्भव न होते यदि उस आविष्कार से सम्बन्धित तकनीकी ज्ञान पहले से विज्ञ न होता. यह कहना कि आज पश्चिम में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सहारे जो नयी-नयी खोजें या आविष्कार हो रहे हैं, वे प्राचीन भारत में विद्यमान थे तो यह इस सन्दर्भ में उचित होगा कि हम पहले भारत से सम्बन्धित ही कुछ प्रासंगिक प्रश्न करें. यह प्रश्न प्रासंगिक है यदि केरल के गणितज्ञों ने पन्द्रहवीं शताब्दी में कैलकुलस की खोज की थी, जैसा गणित के इतिहासकार कहते हैं, तो इन गणितज्ञों को किसने रोका था कि वे आधुनिक विज्ञान में कदम न बढ़ाएं, जैसा कुछ समय बाद न्यूटन ने किया, यह समझने के लिए किसी कालक्रम में केरल में ज्ञान की कोई धारा थी जिसका सामाजिक और बौद्धिक सन्दर्भ था.

भारत के वैज्ञानिक केंद्रों को यह प्रश्न अपने से करना चाहिए कि क्यों भारतीय वैज्ञानिक जब भारतीय केन्द्रों पर कार्य करते हैं तो कोई नोबेल पुरस्कार नहीं प्राप्त कर पाते, जबकि वही वैज्ञानिक जब विदेशी पश्चिमी विज्ञान के केन्द्रों में काम करते हैं तो ऐसे पुरस्कार पा जाते हैं. हमारे केंद्रों पर नवाचारी स्वायत्त शोध को कौन रोकता है? क्या इसका कारण यह है कि इन संस्थानों पर नौकरशाहों और सरकार का नियन्त्रण है जिस कारण जो ज्ञान प्रगट है, उस पर प्रश्न करना निषिद्ध है?

क्या यह प्रश्न वैज्ञानिकों के अपने बोध से जुड़ा है? दूसरा प्रश्न है – वैज्ञानिक कार्य और उसके सामाजिक सन्दर्भ. जिस प्रकार हम आज विज्ञान की शिक्षा देते हैं और उसे दुर्बोध ज्ञान/समझ के प्रभामंडल से ढके रखते हैं, इस कारण भी यह प्रश्न प्रासंगिक नहीं रहता. लगभग गूढ़ रहस्यमय तरीके से मानवीय सन्दर्भों से विज्ञान कैसे जुड़ा है, हम इस बिन्दु को भुला बैठे हैं. मैं इस प्रश्न में उलझ जाती हूं कि क्यों इतने कम भारतीय वैज्ञानिक जेडी बर्नाल या जोसेफ़ नीडहेम या जेबीएस हालडेन के लेखनों से उत्साहित नहीं होते या हाल के थॉमस कुहन के विश्लेषणों से. या फिर स्टेफिन जय काउल्ड के ज़्यादा प्रचलित लेखनों से या फिर रिचर्ड डवाकिन के विवादास्पद लेखनों से.

विज्ञान अपने आपमें जनित नहीं है. उसका सम्बन्ध उस समाज-समुदाय से रहता है, जहां वह प्रयोग में लाया जाता है. ऊपर उल्लिखित लेखकों की रचनाओं ने जो विशेष बिन्दु उठाये हैं, वे तात्कालिक महत्व के भले न हों परन्तु उनके बृहत्तर सन्दर्भों और प्रश्नों की गूंज प्रासंगिक है. यदि विज्ञान को प्रौद्योगिकी और आविष्कार से आगे बढ़कर दिखना है तो ऐसे प्रश्नों पर व्यापक बहस की ज़रूरत है.

शुरुआती दौर में शिक्षा, जो ज्ञान अभी प्राप्त है, उसकी सूचना देती है. दूसरा चरण है कि यह मूल्यांकित किया जाये कि जो ज्ञान अभी प्राप्त है, उसका नवीकरण क्या ज़रूरी है और यह सुधरा ज्ञान हमें अधिगम की श्रृंखला से प्राप्त होगा. यह अभी तक प्राप्त ज्ञान का विरोध नहीं है अपितु यह नये ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में उसका विश्लेषण है. भारत में जैसी शिक्षा व्यवस्था है, उसमें ज़्यादा स्कूलों में प्रथम चरण- ज्ञान के नये विस्तार- की सम्भावना भी नहीं है. कुछ लोगों की शंका है कि वर्तमान में स्कूलों की कमी, और जो है, उनकी ख़राब दशा का क्या यह कारण तो नहीं है कि अधिकांश सरकारें समझती हैं कि शिक्षित नागरिकों को अपने अधीन रखना आसान नहीं होगा या यह भी हो सकता है कि शिक्षित नागरिकों का क्या महत्व है, इस बिन्दु को हम समझ ही नहीं पाये हैं.

पिछली आधी सदी में स्कूली शिक्षा की उपेक्षा हमने देखी है. बजट में शिक्षा को सबसे कम आवंटन किया जाता है और यह तब है, जबकि हमारा नारा ‘विकास’ है. शिक्षा पर व्यय बढ़ाया नहीं जाता अपितु घटता ही जा रहा है, जैसा कि हाल में किया गया है. हम यह क्यों नहीं समझते कि यदि हमारे नागरिक शिक्षित होंगे तो ‘विकास’ की गुणवत्ता नाटकीय रूप से अपने आप बदल जायेगी.

क्रमश:

(यह लेख वाणी प्रकाशन की अनुमति से प्रकाशित)

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