सुषमा स्वराज: संकल्प से बंधी सांसें

सुषमा स्वराज की खास बात रही कि अलग-अलग दौर में, भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में वह कभी भी सरकार नहीं बनीं, 'सरोकार' बनी रहीं.

WrittenBy:हितेश शंकर
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सुषमा स्वराज नहीं रहीं. कहने को तो यह सिर्फ चार शब्द हैं किंतु शब्दों के साथ उमड़ने वाले दर्द का आवेश और आंसुओं की छलछलाहट ऐसी है कि सब धुंधला लगने लगा है. जिस देश में पल भर पहले संसद द्वारा धारा 370 के उन्मूलन से उपजा उत्साह उफान पर था उस ज्वार को एक धक्का पहुंचाने वाली ख़बर ने सहसा शांत कर दिया.

उत्साह तरल हो गया. आंसू बहने लगे. नारे लगाते हुए जोश से भरे युवाओं की मुठ्ठियां खुल गईं. लोग एक दूसरे को ढांढस बंधाते दिखे. जहां सुबह मेवा-मिठाई और ढोल की थाप के दौर शुरू हुए थे वहां शाम को कई घरों में चूल्हा भी नहीं जला. वह चार शब्द थे और यह सुषमाजी की चार दशक की राजनीतिक यात्रा की गाढ़ी कमाई है!

सनातन दर्शन में जीवन को भी एक यात्रा ही तो माना गया! जीवन पूरा अर्थात महाप्रयाण! यानी बड़ी यात्रा. जनसंघ के दिनों से जो संकल्प कार्यकर्ताओं के मन में, पार्टी के मूल में रहा, उस संकल्प के पूरा होने के बाद सुषमाजी के जीवन की यात्रा पूरी हुई. क्या यह केवल संयोग है! कहें कुछ भी, किंतु आखिरी सांस लेने के सिर्फ 3 घंटे पहले किया गया उनका आखिरी ट्वीट बताता है कि धारा 370 और अनुच्छेद 35ए के उन्मूलन से उनकी सांसें बंधी थीं. जीवन में यह दिन देखने का प्रण था.

वे भाजपा की उस पीढ़ी से थीं जिन्हे अटल-आडवाणी जैसे राष्ट्रीय विचार के शिल्पकारों ने गढ़ा था.  यहां अटल जी की कुछ पंक्तियां याद आती हैं-

ठन गई,

मौत से ठन गई!

जो ठाना था उसके पूरा होने के बाद मृत्यु का वरण…

यदि यह संयोग है तो इससे सुंदर संयोग किसी व्यक्ति के लिए क्या होगा! यह कहने में संकोच नहीं कि सुषमाजी जैसे पारदर्शी, प्रभावी और दृढ़ व्यक्तित्व राजनीतिक जगत में दुर्लभ हैं. तुर्श-तेजाबी सियासी माहौल में सुषमाजी का होना घात-प्रतिघात के बबूलों में, रणनीतियों की पथरीली ज़मीन पर हरी दूब के होने जैसा था. इस दूब की नरमी को महसूस करना हो तो उस हामिद अंसारी की हिचकियां को महसूस करना होगा जिसे पाकिस्तानी जेल से छुड़ाकर लाने वाली देवदूत बनी थी सुषमाजी. इसकी शीतलता को अनुभव करना हो तो उस गीता की सिसकियों को सुनना होगा जो खुद सुन बोल नहीं सकती मगर उसके लिए तो साक्षात मां थीं सुषमाजी. नरमी और शीतलता के अलावा सुषमाजी के अलग रूप का विवरण आपको दलबीर कौर से मिलेगा सरबजीत के लिए उसकी बहन दलबीर की ही तरह चट्टान की तरह खड़ी रही थी सुषमा जी. ऐसी एक नहीं हजारों कहानियां मिल जाएंगी जहां हर ओर से निराश लोगों के लिए वे उम्मीद का सितारा बनकर उभरीं.

इस दुनिया में इंसान अपनी इच्छाओं का पुलिंदा भर है. कहते भी हैं कि व्यक्ति बुढ़ा जाए किंतु तृष्णा बूढ़ी नहीं होती. लेकिन सुषमाजी का जीवन देखें तो पाएंगे कि सामाजिक जीवन में आगे बढ़ते हुए उन्होंने अपनी इच्छाओं को समाज की अपेक्षाओं के लिए होम कर दिया. लोकेष्णा, वित्तेष्णा, पुत्रेष्णा.. कोई तृष्णा नहीं.

व्यक्तिगत इच्छाओं की छाया भी इतने बड़े सामाजिक राजनीतिक जीवन पर ना पड़े यह सरल नहीं था किंतु यह चमत्कार हुआ है.

हल्की बात न कहना न उन पर ध्यान देना, यह उनका स्वभाव था. सत्ता के शिखरों में टकराव पैदा करने वाले शरारती उन्हें ट्विटर मंत्री और वीजा माता जैसे टहोके देते थे, किंतु सधे कदमों से भारतीय कूटनीति की राह बनाती, दोनों हाथों  से विदेश में बसे फंसे पीड़ितों की रक्षा करती सुषमाजी अविचल भाव से अपना काम करती रहीं.

कह सकते हैं कि पैसे के लिए,  प्रचार के लिए, संतति के लिए उन्होंने कुछ नहीं किया. हां, देश के लिए, सामाजिक संस्कार के लिए, भारतीय संस्कृति के प्रसार के लिए उनसे जितना ज्यादा से ज्यादा हो सकता था उन्होंने वह सब किया.

खास बात यह की अलग-अलग दौर में, भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में वह कभी भी सरकार नहीं बनीं, ‘सरोकार’ बनी रहीं. खाड़ी युद्ध के बाद के दौर में जब केवल टीवी अश्लीलता का औजार बनने लगा तो एफटीवी के पर कतरने की पहल करने वाली सुषमाजी को संकीर्ण कहा गया. वह इससे बेपरवाह रहीं.

जब देर रात खुलने वाले पर रेस्टोरेंट में युवतियों से अभद्रता का मामला सामने आया तो उनकी परवाह करने वाली, उनके पक्ष में मोर्चा संभालने वाली प्रगतिशील भी सुषमाजी ही थीं. सुषमा स्वराज यानी वाग्देवी की आशीष पाने वाली अद्भुत वक्ता, कुशल संगठनकर्ता, भिन्न भूमिकाओं से खुद को अभिन्न रूप से जोड़ लेने वाली नायिका, संसद में अल्पमत के विपक्ष की गूंजती आवाज, बेल्लारी में  जीत से भी बड़ी छाप छोड़ने वाली वैचारिक सेनापति.

सुषमा स्वराज यानी अपराजिता! अपनी चार दशक से ज्यादा लंबी यात्रा में महिला नेत्री के तौर पर पहली बार कई कीर्तिमान बनाने वाली वह अनूठी लौ आज एकाएक बुझ गई है. सुषमा का अर्थ ही है उजास, दीप्ति, चमक. जिस तरह कोई तीली बुझने से पहले किसी दिए को प्रदीप्त कर जाती है सुषमाजी का जीवन वैसा ही तो है! कभी जहां स्थाई सा सिरदर्द बना था आज उस जम्मू कश्मीर में, भारत के उस माथे पर, नए सुबह के सूर्य की लालिमा ‘बड़ी लाल बिंदी’ की तरह दमक रही है. तीली बुझी, लाखों-करोड़ों उम्मीदों के दिये जगमगा उठे.

‘सुराज’ आया, ‘सुषमा’ चली गई…

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