चमन दिलों का खिलाने ये ईद आई है

जब हम किसी को मीठी चीज़ खिलाते हैं, तो इसका सीधा सा अर्थ है कि हम खुशी और प्यार बांटते हैं.

WrittenBy:वसीम अकरम
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मजहब-ए-इस्लाम में सिर्फ दो त्योहारों का ही ज़िक्र मिलता है- ईद-उल-फित्र और ईद-उल-अज़हा. इसके अलावा सालभर में बाकी जो दूसरे त्योहार मुसलमान मनाते हैं, वे सब अलग-अलग मुल्कों में उनकी अपनी-अपनी तहज़ीब और संस्कृतियों का हिस्साभर हैं, इस्लामी त्योहार नहीं. अरब में, जहां इस्‍लाम पैदा हुआ, आज भी सिर्फ ईद-उल-फित्र और ईद-उल-अज़हा ही मनाया जाता है. सामान्यतः ईद-उल-फित्र को मीठी ईद भी कहा जाता है, जिसमें सबसे ज़्यादा एहतमाम सेवइयों का होता है. हालांकि, इस्लामी नज़रिये से सेवई या ईद के दिन का खान-पान वगैरह इस्लाम का हिस्सा नहीं है, लेकिन हां, यह समाज, संस्कृति और जगहों की अपनी तहज़ीब का हिस्सा है.

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संस्कृतियों का धर्म से कोई वास्‍ता नहीं है और जो जहां रहता है वहां की संस्कृति के साथ रच-बस सकता है. इसलिए मुसलमान भी हिंदू संस्कृति को अपना सकते हैं और हिंदू भी मुस्लिम संस्कृति को अपना सकते हैं. यह बात दूसरे धर्मों के साथ भी है. और भारत में ऐसा सदियों से होता चला आ रहा है, जिसके लिए भारत को अनेकता में एकता की एक बेहतरीन मिसाल माना जाता है. लेकिन अब तो संस्कृतियों की दुहाई देकर कुछ लोग आए दिन भारत के समरसता भरे समाज को सांप्रदायिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं. इससे समाज की समरसता तो खत्‍म हो ही रही है, संस्कृतियां भी संकीर्ण और सांप्रदायिक हो रही हैं. कथा सम्राट प्रेमचंद ने कहा था- ‘वास्‍तव में संस्कृति की पुकार केवल ढोंग है, निरा पाखंड है.’ बीते कुछ सालों में यह ढोंग इस कदर बढ़ा है कि अब ईद मिलन और होली मिलन के मायने अपने तक ही सिमट कर रह गए हैं. ज़ाहिर है, हमारे त्‍योहार भारतीय त्‍योहार बने रहें, इसके लिए कोशिश तो हम सबको मिलकर ही करनी होगी. संस्कृति अगर संकीर्णता से बची रहेगी, तो धार्मिक त्‍योहार भी उसका एक खूबसूरत हिस्‍सा बन जाएगा. बहरहाल, इस पर चर्चा फिर कभी.

चांद के हिसाब से चलने वाले हिज्री कैलेंडर के नौवें महीने ‘रमज़ान’ के पूरे होने के बाद दसवें महीने ‘शव्वाल’ की पहली तारीख को ईद-उल-फित्र का त्योहार मनाया जाता है. और इसके ठीक सत्तर दिन बाद ईद-उल-अज़हा का त्योहार आता है. ईद-उल-फित्र का दिन एक प्रकार से शुक्राने का दिन है कि अल्लाह ने महीने भर के रोज़ों के बाद अपने बंदों पर यह करम फरमाया है कि वे सभी इकट्ठा होकर उसका शुक्र अदा कर सकें और यह अहद कर सकें कि जिस तरह से पूरे महीने वे तमाम बुराइयों से दूर रहे, उसी तरह से उनकी बाकी ज़िंदगी भी उपर वाले की रहमत के साये में गुज़रे और बरकतों की बेशुमार बारिश हो. रमज़ान एक तरह से ‘क़ुरान का महीना’ है, क्‍योंकि इसी महीने में क़ुरान नाजिल हुआ था, जिससे दुनिया आज फ़ैज़ेयाब होती है.

हिज्री कैलेंडर के बारे में इस्लाम के दूसरे खलीफा हज़रत उमर इब्न अल-खत्ताब ने पहली दफा सन 638 में बताया था. हालांकि, हिज्री कैलेंडर की शुरुआत उससे तकरीबन डेढ़ दशक पहले 622 में ही हो चुकी थी. इसे इस्लामी कैलेंडर भी कहा जाता है. हिज्री कैलेंडर का पहला महीना ‘मुहर्रम’ है और आखिरी महीना ‘जिलहिजा’ है. 16 जुलाई, 622 को हिज्री कैलेंडर के पहले साल के पहले महीने मुहर्रम की पहली तारीख थी. यहीं से हिज्री कैलेंडर यानी इस्लामी कैलेंडर की शुरुआत होती है. हिज्री कैलेंडर के दिन-महीने-साल सभी चांद की चाल के हिसाब से तय होते हैं. इसमें हर महीने में 29.53 दिन होते हैं और इस ऐतबार से एक साल में कुल 354.36 दिन होते हैं. यही वजह है कि अंग्रेजी साल (जनवरी से दिसंबर) के मुकाबले हिज्री कैलेंडर का साल तकरीबन दस-ग्यारह दिन छोटा होता है.

ईद के माने होते हैं- खुशी. इसके दो पहलू हैं. एक धार्मिक और दूसरा सांस्कृतिक. पहले बात धार्मिक पहलू की. एक महीने रमज़ान के रोज़े रखने के बाद अल्लाह ने रोज़ेदारों के लिए यह इंतज़ाम किया है कि पूरे एक महीने तक दिन में हर तरह के ज़ायके और पानी से महरूम बंदों को खुशी का एक तोहफा मिले, ताकि वे आपस में प्यार-मुहब्बत के साथ खुशियां मना सकें. ईद का त्योहार इस्लामी ज़िंदगी के दो अलग-अलग पहलुओं को हमारे सामने रखता है, जिसे हम सभी को समझना चाहिए. इस्लाम के मुताबिक, हमारी ज़िंदगी की दो मियाद (कालचक्र) है. पहली मियाद, हमारे पैदा होने से लेकर मौत तक की हमारी ज़िंदगी है, और दूसरी मियाद, मौत के बाद की हमारी दूसरी ज़िंदगी है, जिसे आखिरत यानी हमेशा-हमेश की ज़िंदगी कहते हैं. अगर हम अपनी पहली ज़िंदगी में अल्लाह के बताए रास्ते पर चलते हैं, तो दूसरी ज़िंदगी में हमें उसका इनाम मिलेगा. इस्लाम की यही सीख रमज़ान और ईद में देखने को मिलती है. रमज़ान का महीना हमारी पहली ज़िंदगी की तरह है, जिसमें भूख और प्यास की शिद्दत लिये हुए जद्दो-जहद के साथ जीना है, तो वहीं ईद हमारी दूसरी ज़िंदगी के शक्ल में एक इनाम है. यानी तस्दीक के साथ ईद एक अलामत है कि अल्लाह के बताए रास्ते पर चलने का इनाम खुशियों से भरा होता है. वहीं जहां तक इसके दूसरे पहलू की बात है, तो इस खुशी में सर्वधर्म समभाव की परिकल्‍पना शामिल है, जिससे मुराद है कि यह सिफ मुस्लिम रोज़ेदारों के लिए ही नहीं, बल्कि गैर-मुस्लिम लोगों को भी इस खुशी में शरीक करना ज़रूरी है, ताकि समरस समाज की बुनियाद को और भी मज़बूत किया जा सके. क्‍योंकि इस्‍लाम की शर्त है कि अगर आपकी खुशी में आपके पड़ोसी और दिगर मज़हब के लोग शामिल नहीं हैं, तो आपकी खुशी किसी काम की नहीं है.

ईद-उल-फित्र की सबसे खास बात यह है कि इस दिन दोगाना नमाज़ से पहले हर मुस्लिम मर्द और औरत अपने जान और माल का सदका-फितरा निकालता है, जिसे ज़कात कहते हैं. इस अरकान के चलते ही ईद को ईद-उल-फित्र कहते हैं. ज़कात हर मुसलमान पर फर्ज़ है. अपनी सालाना आमदनी में से तमाम खर्चों और देनदारियों को चुका देने के बाद हुई बचत का ढाई फीसद हिस्‍सा ज़कात होता है. या फिर जिसके पास सात तोले सोने के जेवर वगैरह हों, तो उसकी मौजूदा कीमत का ढाई फीसदी हिस्‍सा ज़कात देना होता है. ज़कात लेने के हक़दार बेहद ग़रीब लोग, आर्थिक रूप से कमज़ोर पड़ोसी या रिश्‍तेदार होते हैं. उन्‍हें ही ज़कात देना चा‍हिए, ताकि उन्‍हें अपनी तंगदस्‍ती का मलाल न हो और वे भी ज़कात पाकर अपनी ईद की खुशियां हासिल कर सकें. इस्‍लाम की यह पहल समाजार्थिक बराबरी के ऐतबार से कितना ज़रूरी है, इस बात को आसानी से समझा जा सकता है.

ईद के चांद के बारे में एक खूबसूरत वाक्‍या है. एक रवायत में आता है कि शव्वाल महीने का चांद (इसे ही ईद का चांद कहते हैं) देखकर इस्लाम के संस्थापक पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (स. अ.) ने कहा- ‘ऐ अल्लाह! इस चांद को अमन का चांद बना दे.’ उनकी इस दुआ का मतलब यह हुआ कि ईद अमन की अलामत है, शांति की पहचान है और हमारे जम्हूरी समाज में इसकी बड़ी ही अहमियत है. इस्लामी तारीख़ में यह दर्ज है कि हज़रत मुहम्मद (स. अ.) ने सन 624 में हुए जंग-ए-बदर के बाद पहली दफा ईद मनायी थी और तब से ही ईद मनाने की यह इस्लामी रवायत शुरू हुई, जो आज तक कायम है. इस ऐतबार से देखें, तो मुसलसल होती जंग के बाद अरबी समाज में शांति और सामुदायिक सौहार्द के लिए ही ईद-मिलन की बुनियाद पड़ी. ईद-मिलन जैसी शब्दावली से यह बात समझी जा सकती है कि समाज में भाईचारा बढ़ाने के लिए ईद का बड़ा ही अहम किरदार है, जहां दुश्मन को माफ करके उससे गले मिलने तक के वाकये नज़र आते हैं. दरअसल, ईद के दिन दुश्मन भी जब एक-दूसरे से हमकलाम होकर एक-दूसरे को मुबारकबाद और तोहफे देते हैं, तो इससे एक भाईचारे से भरा राबता यानी संवाद कायम होता है और यही संवाद हमारे समाज में शांति और सौहार्द का नेतृत्व करता है.

चांद के ऐतबार से उन्‍नतीस या तीस रोज़े पूरे होने के बाद ईद का दिन आता है. रमज़ान और ईद ये दोनों इस्लाम की दो खासियतों की तरफ इशारा करते हैं. एक रवायत में आता है कि हज़रत मुहम्मद (स. अ.) ने कहा था- ‘रोज़ों का महीना सब्र का महीना है.’ यानी इस सब्र का मीठा फल ईद है. ज़ाहिर है, रमज़ान जैसे सब्र का फल तो ईद की खुशी ही हो सकती है. यानी एक तरफ खाने-पीने से मुंह मोड़कर सब्र रखते हुए अल्लाह की इबादत में दिन गुज़ारना ही रमज़ान का मकसद है, तो वहीं दूसरी तरफ ईद की शक्ल में अल्लाह की तरफ से मिलने वाला एक नायाब तोहफा है. कुरान में अल्लाह फरमाता है- ‘ऐ फरिश्तों! तुम इस बात की गवाही देना कि मैंने यह तय किया है कि आखिरत में रोज़ेदारों के लिए जन्नत ही ठिकाना होगा.’ इसलिए सभी मुसलमान रमज़ान के रोज़े रखकर अल्लाह से अपनी मुहब्बत का इज़हार करते हैं और रमज़ान के तीन अशरों (रहमत, मगफ़िरत और निजात) में खूब दुआएं करते हैं कि अल्लाह उनके सारे गुनाहों को माफ़ फ़रमाए. तमाम गुनाहों की माफ़ी के साथ रमज़ान का महीना दुआ की मक़बूलियत का भी महीना है.

बाज तमाम त्‍योहारों की तरह ईद में भी खाने और पहनने की अपनी एक अलग पहचान है. ईद के दिन सुबह में नये-नये कपड़े पहनकर मुसलमान कोई मीठी चीज़ खाकर ईद की दो रक़ात नमाज़ अदा करने के लिए घर से ईदगाह की तरफ जाते हैं. ईद की नमाज़ से पहले हर मुसलमान मर्द और औरत पर यह फर्ज़ है कि वे सदका-फितरा अदा करें यानी ज़कात निकालें और ग़रीबों को दें, ताकि ग़रीब और ज़रूरतमंद लोग भी सबके साथ ईद की खुशियां मना सकें. यानी ईद वह त्योहार है, जो समाज में हर इंसान के बराबर होने की तस्दीक करता है, ताकि कोई किसी को ऊंच-नीच न समझे और एक साथ ईद की खुशी में शामिल होकर अल्लाह की रहमत का हक़दार बने.

ईद की नमाज़ आम नमाज़ों से अलग होती है. ईद की नमाज़ को ‘दोगाना’ कहते हैं. दोगाना के बाद यह दुआ की जाती है कि समाज में मानवता का बोलबाला बढ़े, शांति, सौहार्द और आध्यात्मिकता का विकास हो और सबकी ज़िंदगी में हमेशा ईद जैसी खुशी शामिल रहे. ईद की नमाज़ के बाद सभी एक-दूसरे को बधाइयां देते हैं, अपने घर दावत पे बुलाते हैं, दूसरे के घर भी जाते हैं, अच्छी-अच्छी और मीठी चीज़ें खिलाते हैं और दुआएं करते हैं कि हम सभी पर अल्लाह की रहमत बरकरार रहे. जब हम किसी को मीठी चीज़ खिलाते हैं, तो इसका सीधा सा अर्थ है कि हम खुशी और प्यार बांटते हैं. ईद का मतलब भी यही है कि समाज में ज़्यादा से ज़्यादा खुशी, प्यार और सौहार्द को बढ़ावा दिया जाए. आप सब भी ईद की खुशियों को मिल-जुलकर एक-दूसरे के साथ मुहब्बत से मनाएं, ताकि मुल्क में अमन का माहौल बने और समाज में सौहार्द को बढ़ावा मिले. ईद मुबारक!

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