किस्सा कश्मीर का पार्ट-3 : लोकतंत्र से जनता की विदाई

कश्मीर के लोकतांत्रिक इतिहास में दर्ज़ अनसुने चुनावी किस्से.

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साल 1983 के विधानसभा चुनावों में शानदार जीत के बाद फ़ारूक़ का दिमाग़ सातवें आसमान पर था. तब नेशनल कांफ्रेस के अहम पदों पर रहीं खेमलता वाखलू अपनी किताब ‘कश्मीर बिहाइंड द व्हाइट कर्टेन’ में बताती हैं कि इन चुनावों में फ़ारूक़ कांग्रेस की तीख़ी आलोचना ही नहीं की थी, बल्कि उसे जड़ से उखाड़ने का लगातार उद्घोष कर रहे थे. पाकिस्तान समर्थक और शुरू से ही शेख़ अब्दुल्ला की विरोधी रही मीरवायज़ फ़ारूक़ की अवामी एक्शन कमिटी के साथ हाथ मिलाकर लड़े गये इस चुनाव में इंदिराजी की सभा के दौरान कुछ कश्मीरी लड़कों ने जब फिरन कमर के ऊपर उठाकर अश्लील प्रदर्शन किया, तो आमतौर पर इसे मीरवायज़ सर्मथकों का काम माना गया लेकिन इंदिराजी ने फ़ारूक़ को न कभी इसके लिए माफ़ किया, न ही फ़ारूक़ ने इसके लिए माफ़ी मांगी.

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फ़ारूक़ अपनी उद्दंडता का परिचय तो पहले ही दे चुके थे, जब शेख़ साहब की मृत्यु के बाद मुख्यमंत्री बनने पर उन्होंने खुली सभा में सभी मंत्रियों को बर्ख़ास्त कर दिया था –इनमें जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश डीडी ठाकुर भी शामिल थे, जिन्हें शेख़ साहब ने अपने मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण जगह दी थी और जो शेख़ के दामाद जीएम शाह तथा फ़ारूक़ के बीच चले सत्ता संघर्ष में लगातार फ़ारूक़ के साथ रहे थे.

तत्कालीन राज्यपाल और इंदिरा गांधी के चचेरे भाई बीके नेहरू ने अपनी आत्मकथा ‘नाइस गाइज़ फिनिश सेकंड’ में बहुत विस्तार से बताया है कि किस तरह ठाकुर ने दिल्ली से लेकर श्रीनगर तक फ़ारूक़ के पक्ष में अभियान चलाया था. नये मंत्रिमंडल में पीएल हांडू उनके प्रमुख सलाहकार बनकर उभरे. कहते हैं हांडू की सलाह पर फ़ारूक़ ने ठाकुर के एक पुराने मामले को जब एक ऐसे जज से जांच कराने की कोशिश की जिसकी ठाकुर से दुश्मनी जगज़ाहिर थी, तो ठाकुर उसी उत्साह से फ़ारूक़ की सरकार गिराने में लग गये. एनटी रामाराव और अन्य विपक्षी नेताओं से मिलकर फ़ारूक़ जो अभियान चला रहे थे उससे इंदिरा की नाराज़गी और बढ़ गयी.

अब तक शेख़ साहब ने ख़ुद को राष्ट्रीय राजनीति से दूर रखा था और केंद्र से सहयोग की नीति अपनायी थी. लेकिन फ़ारूक़ कश्मीर के पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने एक तरफ़ ख़ुद को भारतीय तथा भारत से कश्मीर के विलय को अंतिम बताया था तो दूसरी तरफ़ वह राष्ट्रीय राजनीति में ख़ुलकर हिस्सा ले रहे थे. उन्होंने जामा मस्ज़िद में घोषणा की कि “मैं उनसे (कांग्रेस से) देश की हर गली, हर नुक्कड़ पर लडूंगा. मेरी परीक्षा पूरी हुई. लेकिन उन्हें जल्दी ही देश भर में मतदाताओं का सामना करना है और देखते हैं कि वे कैसे उनका सामना करते हैं.’

वाखलू बताती हैं कि इंदिरा गांधी ने उनसे श्रीनगर में होने वाले विपक्षी नेताओं के कॉनक्लेव को रोकने के लिए कहा था लेकिन फ़ारूक़ नहीं माने. 5-7 अक्टूबर, 1983 को उन्होंने श्रीनगर में केंद्र-राज्य रिश्तों को लेकर 17 ग़ैर-कांग्रेसी पार्टियों का एक सम्मेलन भी किया. हालांकि देखें तो किसी भी नेता को अपना पक्ष चुनने या ऐसी पहलकदमी का अधिकार है. लेकिन दिल्ली को कश्मीर में अपनी समर्थक सरकारों की आदत-सी थी और इंदिरा यह बर्दाश्त करने को तैयार न थीं. बीके नेहरू फ़ारूक़ की फ़िल्मी हीरो की तरह सरकार चलाने की कोशिशों के चलते ध्वस्त प्रशासनिक मशीनरी को स्वीकार करने के बावजूद अवैधानिक तरीक़े से सरकार गिराने के लिए तैयार नहीं हुए, तो इंदिरा गांधी ने उन्हें गुजरात भेजकर कश्मीर का जिम्मा सौंपा इमरजेंसी के दौरान तुर्कमान गेट पर की गयी कार्रवाई से प्रसिद्ध हो चुके जगमोहन को.

पहली जुलाई 1984 को जीएम शाह उर्फ़ गुल शाह के नेतृत्व में नेशनल कॉन्फ्रेंस का विभाजन हुआ और नयी बनी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस (के) कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने में सफल हुई. यह ‘के’ शेख़ साहब की बड़ी बेटी और गुल शाह की पत्नी ख़ालिदा शाह के नाम पर था. जो तेरह विधायक फ़ारूक़ का साथ छोड़कर गुल शाह के साथ गये, उनमें खेमलता वाखलू के अलावा मिर्ज़ा अफज़ल बेग के साहबज़ादे मिर्ज़ा महबूब बेग भी थे. वाखलू बाद में कांग्रेस में शामिल हो गयीं और बेग पीडीपी में. जाने को अब्दुल गनी लोन भी पूरी पार्टी के साथ गये, लेकिन निभी नहीं और जल्दी ही अपनी पार्टी के साथ ‘लोनली’ रह गये.

गुल शाह न केवल अपने अतिवादी धार्मिक व्यवहार और अनियंत्रित गुस्से के लिए जाने जाते थे, बल्कि कश्मीर में आम राय यह भी है कि वह शेख़ को झुकाने के लिए ख़ालिदा के साथ हिंसक व्यवहार करते रहे थे. शेख़ ने अपनी इस बड़ी लड़की की शादी केवल 13 की उम्र में कर दी थी, जिसका उन्हें हमेशा पछतावा रहा. छोटी बेटी सुरैया को उन्होंने उच्च शिक्षा दिलायी और उनकी शादी सही समय पर हुई. जानी-मानी लेखिका नायला अली इन्हीं सुरैया अली की पुत्री हैं. ख़ैर, गुल शाह की यह सरकार अपने बनने के साथ ही संकट में रही. महीनों कश्मीर में कर्फ्यू लगा रहा और कश्मीरियों ने इसे नाम दिया –कर्फ्यू सरकार.

असल में दिल्ली से तो समझौते हो जाते थे, लेकिन स्थानीय स्तर पर कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस में रिश्ते बेहद तल्ख़ थे. एक बार गुल शाह दिल्ली से लौटे तो हवाई अड्डे पर खड़े कश्मीर कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष मुफ़्ती मोहम्मद सईद से ढंग से बात भी नहीं की. मुफ़्ती की नाराज़गी स्वाभाविक थी, तो इसका असर दोनों पार्टियों के रिश्तों पर पड़ा.

अक्टूबर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए आम चुनावों में श्रीनगर में बेग़म शेख़ अब्दुल्ला के सामने उनकी बेटी ख़ालिदा जिया के साहबजादे मुजफ्फ़र शाह मैदान में थे. नानी और नाती के इस चुनाव की विडंबना हमारे भारतीय लोकतंत्र के परिवारवाद की शायद सबसे बड़ी दुर्घटनाओं में से एक थी. गुल शाह ने सारी सरकारी मशीनरी लगा दी, लेकिन न केवल श्रीनगर बल्कि घाटी की तीनों सीटों पर फ़ारूक़ के उम्मीदवार जीते. ज़ाहिर है, गुल शाह को जनता की स्वीकार्यता नहीं मिली थी और सबके बावजूद फ़ारूक़ अब भी लोकप्रिय थे. राजीव और फ़ारूक़ में दोस्ती पुरानी थी. कभी कांग्रेस को जड़ से मिटाने की बातें करने वाले फ़ारूक़ शायद राजीव को मिले प्रचंड बहुमत के आगे झुक गये.

मुफ़्ती तो गुल शाह की सरकार गिराकर ख़ुद मुख्यमंत्री बनना चाहते थे, लेकिन सरकार गिरने के बाद फिर तमाशा हुआ और ख़ालिदा ने अपनी पार्टी के नेशनल कॉन्फ्रेंस में विलय की घोषणा कर दी. कहते हैं कि फ़ारूक़ ने फोन पर तो बात मान ली थी, लेकिन सार्वजनिक रूप से इसका खुला मज़ाक उड़ाया. नतीज़ा यह कि सत्ता के साथ ही नेशनल कॉन्फ्रेंस(के) का वजूद भी ख़त्म हो गया. ज़्यादातर विधायक फ़ारूक़ की तरफ़ लौट गये, लेकिन शपथ दिलाने की जगह राज्यपाल ने 7 मार्च 1986 को पहली बार राष्ट्रपति शासन लगा दिया. मुफ़्ती को केंद्र में ले लिया गया और फ़ारूक़ के लिए मैदान खुला छोड़ दिया गया.

इस पूरे दौर में जमात-ए-इस्लामी अपनी गतिविधियां और प्रभाव बढ़ाने में सफल हुआ. उसका मॉडल काफ़ी कुछ आरएसएस जैसा रहा है. ढेरों शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से उसने कश्मीर में रेडिकल विचारों के स्पेस को बड़ा किया, फिर ये लोग शासन के विभिन्न स्तरों पर ही नहीं मुख्यधारा की पार्टियों में भी शामिल हुए. फ़ारूक़ ने जिस तरह मीरवायज़ के साथ समझौता किया था, उसका फ़ायदा उन्हें मिलना ही था लेकिन उनसे अधिक फ़ायदा मीरवायज़ को मिला. कश्मीर में हमेशा से उपस्थित रहा भारत विरोधी तबका राजनीतिक उठापठक के इस दौर में सक्रिय और मुखर हुआ.

1987 में जब विधानसभा चुनाव घोषित हुए तो ऐसी तमाम ताक़तों ने मिलकर मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट) बना लिया. आज का हुर्रियत काफ़ी हद तक इसी से बना है. नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कांग्रेस से समझौता किया, तो घाटी में प्रमुख विपक्षी दल के रूप में एमयूएफ सामने था. चुनाव के पहले जनता में एक तरह का उत्साह भी था. मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट की कोई एक विचारधारा नहीं थी, लेकिन इसने अब्दुल्ला परिवार, भ्रष्टाचार और विकास से महरूमियत के ख़िलाफ़ नाराज़ शिक्षित बेरोज़गारों, ग्रामीणों तथा किसानों को एक मंच दे दिया था. हज़ारों लोग पहली बार राजनीति में शामिल हुए थे.

कश्मीरी क्षेत्रीय अस्मिता की एमयूएफ की अपील ने लोगों को गहरे प्रभावित किया था और बड़ी संख्या में युवा इसके स्वयंसेवक बनकर सक्रिय हुए थे. खेमलता वाखलू कहती हैं – “लोगों की ज़बान पर बस एक ही बात थी कि लोकतंत्र में हम अपनी पसंद की पार्टी को चुनेंगे. एक ऐसी पार्टी को जो लोगों की उम्मीदों पर खरी उतरेगी और हमारी समस्याएं सुलझायेगी .” इन उम्मीदों के साथ जनता ने इस चुनाव में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, आज यह कल्पना करना मुश्किल है कि लगभग 80 फ़ीसदी कश्मीरियों ने चुनाव में हिस्सा लिया था. उन चुनावों में एमयूएफ के हरे झंडे जम के लहराये, ख़ूब शोर, हो-हल्ला. इतना कि फ़ारूक़ शायद डर गये और चुनाव नियंत्रित करने की कोशिश में वह ग़लती की, जिसका खामियाज़ा देश और कश्मीर आज भी भुगत रहा है.

एक प्रसिद्ध उदाहरण इसे समझाने के लिए काफ़ी होगा -श्रीनगर के आमिरकदल से मोहम्मद यूसुफ़ शाह मुस्लिम युनाइटेड फ्रंट के उम्मीदवार थे. बेमिना डिग्री कॉलेज में मतगणना शुरू हुई. इसके पहले दो चुनावों में हार चुके मोहम्मद यूसुफ़ शाह लगातार आगे चल रहे थे. रुझानों से स्पष्ट था कि यूसुफ़ शाह इन चुनावों में बड़े अंतर से जीत रहे हैं. नेशनल कॉन्फ्रेंस के मोइउद्दीन शाह इस क़दर निराश हुए कि मतगणना के बीच से ही उठकर घर चल गये. लेकिन थोड़ी देर बाद मतगणना अधिकारी ने उन्हें वापस बुलवाया और विजयी घोषित कर दिया! जनता सड़कों पर आ गयी और विरोध शुरू हो गया तो पुलिस ने यूसुफ़ शाह और उनके एजेंट को गिरफ़्तार कर लिया गया. अगले 20 महीने दोनों बिना किसी केस के जेल में रहे. मोहम्मद यूसुफ़ शाह जेल से निकलने के बाद सैयद सलाहुद्दीन के नाम से जाना गया और उसके एजेंट का नाम था यासीन मलिक.

नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस का गठबंधन चुनावों में सफल रहा और उसे 63 सीटें मिलीं. एमयूएफ को 4 सीटें मिलीं, जिनमें से एक पर सैयद अली शाह गीलानी भी थे. भाजपा को दो सीटें मिलीं और 4 सीटें आज़ाद उम्मीदवारों को. भदरवाह, लेह और कारगिल में चुनाव जून में हुए और उनमें भी गठबंधन विजयी रहा. विशेषज्ञों के अनुसार, अपने पर्याप्त असर के बावज़ूद मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट इन चुनावों में हद से हद 15-20 सीटें जीत सकती थी. नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस की सरकार शायद बिना धांधली के भी शायद बन सकती थी. लेकिन इस धांधली से कश्मीरी जनता का चुनावों से जो मोहभंग हुआ, उसने 1977 में पैदा हुई उम्मीदों को ध्वस्त कर दिया. बड़ी संख्या में कश्मीरी नौजवानों का यह असंतोष अगले दशक के आतंकवादी आंदोलन में तब्दील हो गया. यह दशक कश्मीर के इतिहास का सबसे ख़ूनी दशक होना था, जिसके निशान अब तक धुले नहीं जा सके हैं.

इस बीच मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने वीपी सिंह के साथ जनमोर्चा की राह पकड़ी. 1989 में लोकसभा चुनावों के दौरान ही पहली बार बहिष्कार का नारा दिया अलगाववादियों ने और असर यह कि श्रीनगर में नेशनल कॉन्फ्रेंस के मोहम्मद शफ़ी बट के अलावा कोई और उम्मीदवार खड़ा नहीं हुआ तो अनंतनाग में कुल 5.07 प्रतिशत वोट पड़े और बारामूला में 5.48 फ़ीसद. दोनों सीटें एनसी ने जीतीं, अनंतनाग से कश्मीरी पंडित पीएल हांडू तो बारामूला से सैफ़ुद्दीन सोज़. जम्मू और उधमपुर की सीटें कांग्रेस के खाते में आयीं, लेकिन लद्दाख से निर्दलीय मोहम्मद हसन जीते.

साल 1991 में जो हालात थे उनमें चुनाव नहीं कराया गया. नतीज़तन, लोकसभा में कश्मीर का कोई प्रतिनिधि नहीं था. हालात सुधरने पर साल 1996 में लोकसभा चुनाव हुए, तो घाटी में कांग्रेस ने दो सीटें जीतीं और जनता दल ने एक. इन चुनावों में भाजपा को उधमपुर में सफलता मिली, जबकि जम्मू कांग्रेस के पास ही रहा. आतंकवाद के लंबे दौर के बाद इन चुनावों में लगभग 50 फीसदी कश्मीरियों का अलगाववादियों की बायकाट की अपील के बावजूद वोट देने के लिए घर से निकलना भारतीय लोकतंत्र के लिए सुकूनदेह था. इसी साल हुए विधानसभा चुनावों में भी वे भारी संख्या में निकले और एक बार फिर फ़ारूक़ अब्दुल्ला को कमान सौंपी. नेशनल कॉन्फ्रेंस ने 57 सीटें जीतीं और भाजपा को 8 तो कांग्रेस को 7 सीटें मिलीं. इन चुनावों में एक रोचक तथ्य बसपा का चार सीटें जीतना था.

इसके बाद की कहानी हमारे अपने समयों की हैं. तमाम समस्याओं के बावजूद कश्मीरी जनता चुनावों में वोट देने के लिए निकलती रही, चुनावी धांधली धीरे-धीरे लोगों की याददाश्त से बाहर होती गयी और हम देखते हैं कि फ़ारूक़ से नाराज़ जनता ने अगले ही चुनाव में मुफ़्ती मोहम्मद सईद की नयी पार्टी पीडीपी और कांग्रेस को मिलाकर 36 सीटें दे दीं तथा बारी-बारी मुख्यमंत्री बनना तय किया गया. लेकिन अमरनाथ श्राइन बोर्ड विवाद के चलते जब मुफ़्ती ने समर्थन वापस लिया, तो जनता ने 2008 में फिर एन सी और कांग्रेस को इतनी सीटें दे दीं कि कांग्रेस के समर्थन से 38 साल की उम्र में उमर अब्दुल्ला राज्य के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने. इन चुनावों में 60 प्रतिशत से अधिक वोट पड़े थे. एक ख़ास बात हम यह देखते हैं कि जम्मू में कांग्रेस की जगह धीरे-धीरे भाजपा प्रभावी होती गयी और जहां 2002 में उसे 1 सीट मिली थी, वहीं इन चुनावों में उसे 11 सीटें मिलीं. साथ ही 1998 से लेकर 2004 तक के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने लगातार जम्मू और उधमपुर, दोनों ही सीटों पर क़ब्ज़ा किया.

साल 2009 के चुनाव में ये दोनों सीटें कांग्रेस को मिली थीं, लेकिन 2014 में भाजपा ने न केवल ये दोनों सीटें जीतीं बल्कि लद्दाख में भी पहली बार चुनाव जीतने में सफल रही. इन चुनावों में पहली बार एन सी घाटी की तीनों सीटें पीडीपी के हाथों हार गयी और बाढ़ के दौरान बेहद अलोकप्रिय हो चुके उमर अब्दुल्ला को विधानसभा में अब तक की सबसे कम 15 सीटों पर संतोष करना पड़ा, जबकि भाजपा को अब तक की अधिकतम 25 सीटें मिलीं और वह पहली बार पीडीपी के साथ बनी साझा सरकार का हिस्सा बनी.

इन चुनावों में जनता के बढ़-चढ़ के हिस्सा लेने के कारण हालात यह हुए थे कि साल 2014 में अलगाववादी हास्यास्पद लगने लगे थे. हुर्रियत दो हिस्सों में बंट गयी थी और कम-से-कम मीरवायज़ वाला हिस्सा भारत से बातचीत कर किसी नतीजे पर पहुंचने के लिए उत्सुक दिख रहा था. साल 2014 के विधानसभा चुनावों में कई अलगावादियों ने भी हिस्सा लिया था और लगने लगा था कि कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया सफल हो रही है.

लेकिन बारूद के ढेर पर बैठे कश्मीर में बुरहान वानी के एनकाउंटर से जो तूफ़ान उठा, उसे सरकार ने अपनी मिस हैंडलिंग और हाई डेसिबल राष्ट्रवादी प्रलाप से विनाशकारी सूनामी में बदल दिया. हाल ही में शाह फैसल ने जो कहा उससे सहमत होना ही पड़ेगा कि 35ए और 370 का मामला सरकार कश्मीर के लिए नहीं उठाती, बल्कि बाक़ी देश में चुनाव जीतने के लिए उठाती है. कश्मीर एक बार फिर से देश में सांप्रदायिक राजनीति का केंद्र बना दिया गया और नतीज़ा यह कि हालिया चुनावों के पहले हुए स्थानीय निकायों में घाटी में लगभग साढ़े सात फ़ीसद वोट ही पड़े. उस समय लगा था कि शायद एन सी और पीडीपी के बहिष्कार के चलते मतदान कम हुआ हो, लेकिन लोकसभा के चुनावों में तो और भी निराशाजनक माहौल लग रहा है. बडगाम और श्रीनगर जैसे इलाक़ों में भी मतदान प्रतिशत दो अंकों में नहीं जा सका और इस बार के विक्षोभ के केंद्र रहे दक्षिण के हालात तो बेहद चिंताजनक हैं. 6 मई को शोपियां और पुलवामा के लगभग 300 गांवों में कोई भी व्यक्ति वोट डालने नहीं निकला. पुलवामा में बमुश्किल एक फ़ीसद वोट पड़े, तो बाक़ी जगह भी हालात कोई बहुत अलग नहीं हैं.

विस्तार में फिर कभी लेकिन कश्मीरी चुनावों में जनता की भागीदारी वहां के अमन का एक बैरोमीटर रही है. इस लंबे इतिहास में आपने देखा कि कभी इस बैरोमीटर से दिल्ली की छेड़छाड़ तो कभी श्रीनगर की लापरवाही ने क्या-क्या गुल खिलाये हैं और अब तो लगता है कि मशीन जाने रिपेयेरेबल रही भी या नहीं.

(अशोक कुमार पाण्डेय चर्चित किताब ‘कश्मीरनामा’ के लेखक हैं और इन दिनों कश्मीरी पंडितों पर एक किताब लिख रहे हैं)

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