तमाम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक भागीदारी का दावा करते हैं, लेकिन वहां असहमति का गला घोटना बहुत ही आसान है.
साल 2014 के लोकसभा चुनाव में, नरेद मोदी के नेतृत्व में, भारतीय जनता पार्टी पहली ऐसी राजनीतिक पार्टी बनी, जिसने सोशल मीडिया पर प्रचार की ताक़त को समझा. सोशल मीडिया के माध्यम से देश का विशाल नौजवान वर्ग (जो देश की आबादी का 60 प्रतिशत है) तक भाजपा अपना राजनैतिक संदेश पहुंचाने में पूरी तरह से कामयाब रही है. इस प्लेटफ़ॉर्म का एक और बड़ा फ़ायदा भाजपा को मिला. मोदी की मीडिया के साथ रिश्तेदारी गुजरात के 2002 में हुए दंगों के बाद से अच्छी नहीं थी. सोशल मीडिया के बल पर पार्टी इस बात को काफ़ी हद तक बदल पाने में कामयाब रही.
The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.
Contribute2014 में मोदी की जबरदस्त विजय के बाद, जिस तरह से उन्होंने अपने प्रचार में सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया था, उसके बूते पर मीडिया ने उनको भारत का प्रथम सोशल मीडिया प्रधानमंत्री घोषित कर दिया. और 2014 चुनाव को ‘भारत का प्रथम सोशल मीडिया चुनाव’ का दर्ज़ा दिया गया. अब 2019 के आम चुनाव सर पर हैं, और सोशल मीडिया पर राजनीतिक दंगल चालू है.
इंसानी वार्तालाप की भूल-भलैया
सोशल मीडिया आपको समाज की पुरानी धारणाओं और रुढ़िवादी सोच से आज़ादी देने की अनुभूति दिला सकता है. वहां आप अपनी झिझक को किनारे रखकर अपनी बात और भावनाओं को खुले मन से सबके सामने व्यक्त कर सकते हैं, और जो लोग आपके विचार सुन कर आपसे प्रभावित होते हैं, वो आपसे आसानी से जुड़ सकते हैं.
सोशल मीडिया अपके संदेश की आम लोगों तक पहुंच को बहुत आसान बना देता है. अगर आपका मैसेज ‘वायरल’ हो जाये तो समिझए लाखों-करोड़ों लोग उसे देख पाते हैं और आपकी बात सुन पाते हैं. अरब स्प्रिंग जैसे जनआंदोलन में भी सोशल मीडिया का योगदान था. यह सब एक लोकतांत्रिक परंपरा में सोशल मीडिया की सकारात्मक भूमिका के उदाहरण हैं.
लेकिन सोशल मीडिया को चलाने वाली कंपनियां इसकी प्रौद्योगिकी का विस्तार इस ढंग से कर रही हैं कि आपको इसकी लत पड़ जाये, जैसे किसी को नशे की आदत पड़ जाती है. अगर सोशल मीडिया पर किसी के उकसाने से आप उत्तेजित हो जाते हैं, तो शायद आप बार-बार वहां आयेंगे झगड़ा करने. दुनिया में एक ऐसा माहौल बन गया है, जहां लोग अपने दिमाग में आने वाले हर विचार का सोशल मीडिया पर ढिंढोरा पीटना शुरू कर देते हैं, और अगर कोई उनकी बात से असहमति जताता है या विरोध प्रकट करता है, तो उसे अपशब्द कहने, गाली-गलौज करने और एक-दूसरे को नीचा दिखाने पर उतर आते हैं. यानी सोशल मीडिया हमारे अंदर के छिपे जानवर को बाहर लाने का साधन बन रहा है.
चुनावों की लोकतांत्रिक धारा पर असर
अब कोई आश्चर्य की बात नहीं कि राजनैतिक पार्टियां सोशल मीडिया के ‘साएकोग्राफ़िक्स’ को समझने और अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने में माहिर हो चुकी हैं. 2016 के अमेरिकी चुनाव में 5 करोड़ (अमेरिकी जनसंख्या का तकरीबन 15 प्रतिशत) फेसबुक खातों की जानकारी कैंब्रिज ऐनालिटिका नामक कंपनी ने निकाल कर, राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप के चुनावी प्रचार के लिए इस्तेमाल किया. ट्रंप चुनाव जीतकर अमेरिका के राष्ट्रपति बने. अमेरिका की 77 प्रतिशत आबादी अब सोशल मीडिया का प्रयोग करती है, और काफी बड़ी तादाद में लोग सोशल मीडिया से ही सारे समाचार हासिल करते हैं.
2014 के चुनावों में भाजपा की व्यापक जीत में अनुमान है कि तक़रीबन 30-40 प्रतिशत सीटों पर सोशल मीडिया का काफ़ी असर पड़ा था. भाजपा के ‘आई-टी सेल’ ने डेटा विश्लेषण को काफ़ी महत्वपूर्ण ढंग से जनता की भावनाओं को समझने और उस हिसाब से प्रचार संदेश फैलाने में प्रयोग किया. आने वाले आम चुनावों में सोशल मीडिया लगभग 60 प्रतिशत सीटों को प्रभावित कर सकता है. हमारे देश में फिलहल करीब 32.6 करोड़ लोग सोशल मीडिया का उपयोग कर रहे हैं, जो 2014 के 10.6 करोड़ से कहीं ज़्यादा है.
बहुसंख्यकवादी राजनीति फैलाने का हथकंडा
सोशल मीडिया के प्रयोग में फंसे लाखों-करोड़ों लोग अब किसी को भी प्रचार के लिए परोसे जा सकते हैं. आजकल सोशल मीडिया पर राजनैतिक रणनीतियां तक बनायी और परखी जा रही हैं. टीकाकरण के विरुद्ध ग़लत धारणाएं हों या झूठी ख़बरें या फिर आतंकवादी हमले का सीधा प्रसारण, कट्टरपंथी सोच रखने वालों ने सोशल मीडिया के इस्तेमाल करने के नये-नये तरीक़े निकाल लिए हैं.
उनके इरादों को सोशल मीडिया की तकनीकी बनावट और डिज़ाइन से भी मदद मिलती है. यहां जितने आपके फ़ालोअर यानी अनुसरण करने वाले हैं, उतनी ही आपकी साख है. यह एक ‘व्यक्तित्व-पंथ’ को बढ़ावा देता है. जितने लोगों ने आपका संदेश ‘लाइक’ या ‘शेयर’ या ‘रीट्वीट’ किया, उतनी ही आसानी से आपकी बात मान ली जाती है. इसका साफ़ मतलब एक बहुसंख्यकवादी संस्कृति को बढ़ावा देना भी है. वाद-विवाद अगर 140-अक्षर या ‘मीम’ तक सीमित रहे तो ठीक है, और अगर किसी की बातें आपको न अच्छी लगें तो आप उनको ‘ब्लॉक’ करके इको–चेंबर में बैठ जायें,जहां आपको सिर्फ़ अपने जैसे विचारों की बातें ही सुनने को मिलें.
लोकतंत्र के लिए इस तरह की सोच ख़तरनाक साबित हो सकती है. लोकतंत्र में अलग-अलग विचारधाराओं को साथ में लेकर सहमति बनाना बहुत ज़रूरी होता है. इस तरह का नेतृत्व और मार्गदर्शन एक प्रगतिशील सोच और उदारवादी प्रतिभा से आता है न कि तकनीकी योग्यता से. जबकि हो यह रहा है कि 21वीं सदी का लोकतंत्र अब सोशले मीडिया की दुनिया जैसा बनता जा रहा है, जिसको तकनीकी अभियंताओं ने डिज़ाइन किया और बनाया है.
जिस तरह का माहौल बनाया गया है, और जो नियम इन तकनीकी लोगों ने अपने सॉफ़्टवेयर में बनाये हैं, उससे सत्तावादी सोच वाले नेता ही राज करने के लिए उभर कर आ रहे हैं, वह भी ऐसे समय में जब धरती आर्थिक और पर्यावरण के घोर संकटों से भी जूझ रही है. इस तरह की शासन-प्रणाली ने सोशल मीडिया को अपने राष्ट्रवादी और बहुसंख्यकवादी उद्देश्यों को भड़काने के लिए एक औजार की तरह इस्तेमाल करने में महारत हासिल कर ली है.
बोलने की आज़ादी या सेंसरशिप का विकेंद्रीकरण?
सोशल मीडिया कंपनियां गर्व महसूस करती हैं कि वे बोलने की आज़ादी का लोकतांत्रीकरण कर रही हैं. अगर सचमुच ऐसा है, तो हमारे लोकतंत्र में वैचारिक असहमति के अवसर भी काफ़ी बढ़ जाने चाहिए, क्योंकि असहमति लोकतांत्रिक प्रणाली का एक अभिन्न अंग है. चुनी हुई सरकारों को सोशल मीडिया के सशक्त माध्यम से जनता की प्रशंसा और आलोचना, दोनों को ही सर-आंखों पर लेना चाहिए, जिससे शासन की कमियों को दूर किया जा सके.
लेकिन ऐसा नहीं है. नेता एक तरफ तो अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं और दूसरी तरफ वही नेता सोशल मीडिया पर एकतरफ़ा उपदेश देते रहते हैं. इस तरह सोशल मीडिया वनवे संचार का मंच बन जाता है. वैसे तो मोदी सरकार ने जनता से इंटरनेट के माध्यम से संपर्क करने के कई तरीक़े ईजाद कर लिए हैं, लेकिन प्रधानमंत्री ने आज तक एक भी प्रेस-कॉन्फ़्रेंस का आयोजन नहीं किया है, जबकि सरकार के पांच साल पूरे होने चुके हैं.
मोदी ख़ुद चाहे खुले मन से अपने विरोधियों की कड़वी-से-कड़वी बुराई कर दें, लेकिन हाल ऐसा है कि उनके समर्थकों के कुछ जत्थे जब मोदी की आलोचना सुनते हैं तो हिंसक रूप से उग्र हो जाते हैं. जब असहिष्णुता का माहौल देश में पनप रहा हो, तो नफ़रत को सोशल मीडिया की दुनिया से निकल कर असली दुनिया की सड़कों पर आने में देर नहीं लगती. और कभी-कभी कुछ लोग आलोचना को दिन-दहाड़े चुप भी करा देते हैं.
‘ट्रोलिंग’ भी सोशल मीडिया की एक असलियत है. जब ट्रोलिंग किसी संगठित या अर्ध-संगठित समूह के द्वारा किसी ताक़तवर व्यक्ति के पक्ष में की जा रही हो, तो उसको फ़्री-स्पीच या बोलने की आज़ादी नहीं समझ सकते. बल्कि वह एक सेंसरशिप है, जो ताक़तवर की तरफ़ से कमज़ोर पर थोप दी गयी है. सोशल मीडिया के ज़माने में इस सेंसरशिप का भी विकेंद्रीकरण हो चुका है. ट्रोल्स एकदम अलग-अलग जगह से निकल आते हैं, नक़ली खाते और सोशल मीडिया ‘हैंडल्स’ की ओट में, गालियां और धमकियां दे कर वापस भीड़ में खो जाते हैं.
भारत दुनिया-भर में प्रेस की स्वतंत्रता की सूची में नीचे गिरता जा रहा है. यह इशारा करता है कि भारतीय प्रेस में भय का माहौल है, और ऐसे में पत्रकारिता के उसूलों को निभाना मुश्किल है. यहां तक कि एनडीटीवी के पत्रकार रवीश कुमार ने सुझाव दिया है कि चुनाव ख़त्म होने तक जनता टीवी समाचार ना देखे.
आप टीवी समाचार बंद कर सकते हैं, क्योंकि वह ‘पुल टेक्नोलॉजी’ पर आधारित है. मतलब आप बटन दबाकर उसको चालू या बंद कर सकते हैं. पर क्या आप सोशल मीडिया को बंद कर सकते हैं, जो ‘पुश टेक्नोलॉजी’ पर आधारित है, और हर समय, 24-घंटे आपको संदेश भेजता रहता है आपके मोबाइल फ़ोन पर. जब आप सो रहे हों तब भी. इस तरह की टेक्नोलॉजी आपके सोशल मीडिया के पृष्ठ तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसके पंजे आपके ईमेल, सर्च-इंजन, कार्यालय के संदेश-बॉक्स और आपके निजी व्हॉट्सएप में भी हैं. आपके मित्र अचानक कोई ऐसा संदेश भेज देते हैं, जिससे आप एक न ख़त्म होने वाले वार्तालाप के चक्र में फंस जाते हैं.
अभी इस टेक्नोलॉजी को जीवन से दूर करना संभव नहीं लग रहा. ऐसे में, कोई चारा नहीं बचता सिवाय इसके कि आप अपने विरोधियों के साथ वाद-विवाद करें, जैसा एक स्वस्थ लोकतांत्रिक माहौल में होता है. ध्यान रखें, धैर्य रखें, अपनी ऊर्जा को बचाकर रखें, भावनाओं से ज़्यादा तर्क पर ध्यान दें, हर किसी से सभ्यता से पेश आयें और सबसे महत्वपूर्ण बात है कि भारत के संविधान से सीख लें. याद रखें कि हमारे लोकतंत्र का भविष्य इसी पर निर्भर करता है.
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