महात्मा गांधी के डेढ़ सौवें जन्मवर्ष पर आग़ाज़ सांस्कृतिक मंच द्वारा आयोजित ‛भारत : एक विचार' व्याख्यानमाला के तहत दिया वरिष्ठ लेखक अशोक वाजपेयी के वक्तव्य का दूसरा और अंतिम हिस्सा.
गांधी की ‘राजनीति’ का केन्द्रीय शब्द ‘नीति’ है, ‘राज’ नहीं है. वो ‘राज’ को कम से कम करना चाहते थे और ‘नीति’ को ज़्यादा से ज़्यादा प्रबल करना चाहते थे. और इसी में वो द्वंद्व छिपा है, जो उनकी मृत्यु के बाद (विशेषतः उनकी मृत्यु के बाद) विचित्र ढंग से एक विडंबना बना. हमारा ‘राज’ आज नीति से बहुत दूर चला गया ‘राज’ है जिसको झूठ बोलने में, झूठे आंकड़े बताने में, झूठी ख़बर फैलाने में, झूठी अफ़वाहें फैलाने में कोई संकोच नहीं होता. ये एक ऐसा ‘राज’ बन गया जिसका कोई नैतिक अंतःकरण है ही नहीं. ये गांधी का सबसे विरोधी राज है क्योंकि इसमें नीति निःशेष है, बची ही नहीं है.
गांधी ने जिस राज्य की कल्पना की थी, वह कल्पना क्या थी? गांधी ने ‘रामराज्य’ को एक राजनैतिक अर्थ देने की कोशिश की थी. तुलसीदास ने एक वैकल्पिक राज्य की कल्पना की थी लेकिन उस राज्य की स्थापना के बाद तुलसीदास ने राम से कुछ कहलवाया भी था. वो अयोध्या के नागरिकों को संबोधित करते हुए कहते हैं- “मेरे भाइयों अगर तुम्हें कभी लगे कि मैं कुछ अनीति कर रहा हूं तो बिना भय के मुझे बताना.” तुलसीदास के रामराज्य में भी इसकी संभावना थी कि अगर आप कुछ गड़बड़ कर रहे हैं, कुछ ग़लत कर रहे हैं तो मुझे यह हक़ है नागरिक के नाते कि मैं आपको टोकूं. आज हमसे यह टोकने का हक़ लगातार छीना जा रहा है. कुछ बेसब्रे और कुछ सिरफ़िरे और कुछ जोख़िम उठाने वाले दुस्साहसी टोकते हैं, ये भी सही है लेकिन टोकना इस समय लगभग अपराध है.
गांधी ने जिस राज्य की कल्पना की थी, उसके लिए उन्होंने एक तरह से परम्परा से बहुत सारा विवेक पाया था और आधुनिकता से बहुत सारी नई अवधारणाएं पाई थीं, और उसको मिलाने की कोशिश की थी.
मुझे लगता है कि उन्नीसवीं सदी के अंत तक भारत में एकता की जो खोज की गई थी वो संस्कृति के माध्यम से थी, राजनीति के माध्यम से नहीं थी. हम राजनैतिक दृष्टि से बंटे हुए थे. कितने राजे-रजवाड़े थे, अंग्रेज़ ही 400 के क़रीब छोड़ गए थे. ये जितने भी राजे-रजवाड़े थे, सब अंग्रेजों के नकलची थे. उन्हीं की तरह के महल बनवाते थे. इंडिया गेट के चारों तरफ़ ये सब- बीकानेर हाउस और जयपुर हाउस आदि ये उन राजाओं के ही महल थे. ये सब अंग्रेज़ों के आज्ञापालक राजा थे, उनको भी वो स्वतंत्र छोड़ गये थे.
आप सोचिए कि उन्नीसवीं शताब्दी में तो और बहुत सारे राज्यों की बहुलता थी. इतने रजवाड़े थे तो फिर भारत एक कैसे था? क्योंकि भारतीय एकता संस्कृति के माध्यम से थी, राजनीति के माध्यम से नहीं थी. और बीसवीं सदी की एक बड़ी कश्मकश जो इक्कीसवीं सदी तक चली हुई है कि संस्कृति और राजनीति में एक भयानक द्वंद्व है. गांधी ने जो कल्पना की थी कि एक बहुधार्मिक, बहुभाषिक देश होगा जिसमें सभी धर्मों, भाषाओं, आस्थाओं, राजनीति, व्यापार, सामाजिक संबंधों आदि की अपनी अपनी जगह होगी और उनमें आपस में संवाद भी होगा, सहकार भी होगा, जब-तब तनाव भी होगा. एक ये परिकल्पना है, हमारे संविधान ने इसको मान्यता दी है.
दूसरा, कि भारत में राजनैतिक शक्ति, आर्थिक शक्ति, सामाजिक शक्ति और आध्यात्मिक शक्ति केन्द्रित नहीं होगी. वो बहुकेंद्रित होगी, विकेन्द्रित होगी. जैसी उनकी कल्पना थी कि ‘ग्राम-स्वराज्य’ होगा. यानि मैंने आपको जो एक उद्धरण पढ़कर सुनाया कि जैसे लहरें होती हैं, एक के बाद एक. इसी तरह का ‘ग्राम-स्वराज्य’ होगा जिसमें ऊंचा-नीचा कुछ नहीं होगा. शक्ति केंद्र में नहीं होगी.
गांधी की एक विडंबना है, विडंबना क्या एक अद्भुत दुस्साहस कि ‘सबसे हिंसक समय में अहिंसा का सहारा लेना’. उसी तरह से गांधी का एक दूसरा आग्रह था- ‘राज’ को अशक्त करना और समाज को सशक्त करना. गांधी की जो विफलता है, वो विफलता इसमें कोई शक नहीं लेकिन वो महान विफलता है. वो मनुष्य मात्र की विफलता है. ठीक उसी तरह से कार्ल मार्क्स ने जिस शोषण विहीन और राज्य विहीन समाज की कल्पना की थी वो बना नहीं है, कहीं नहीं बना. मार्क्स भी इस अर्थ में विफल हैं लेकिन मानवीय मुक्ति का, शोषण से मुक्ति का इतना महान स्वप्न उसने देखा था. तो महान स्वप्न की सच में न बदल पाने की जो विफलता है वो टुच्चा सपना देखकर टुच्ची सच्चाई में बदल पाने के संतोष से कहीं श्रेष्ठ है.
तीसरी बात; सत्ता, धन, शिक्षा, धर्म, सामाजिक व्यवहार आदि परस्पर ज़िम्मेदार और जवाबदेह होंगे. गांधी अपने को हिन्दू कहते थे. वे कहते थे- “मैं सच्चा हिन्दू हूं. और चूंकि मैं सच्चा हिन्दू हूं इसीलिए मैं सच्चा मुसलमान भी हूं, इसीलिए मैं सच्चा इसाई भी हूं.” तो गांधी का जो मानस है वो इन सब के बीच, एक बहु-स्थिति के बीच में एकता खोजता है. उस बहुलता को अतिक्रमित किये बिना, उसका एहतराम करते हुए. जो कहता है कि सारे धर्म सच्चे हैं लेकिन सब अधूरे हैं. वो धर्मों की एक संसद प्रस्तावित कर रहा है, वो धर्मों का एक समवाय प्रस्तावित कर रहा है. और स्वयं गांधी में ऐसे बहुत सारे विचार हैं जो असल में ईसाइयत से आए हैं.
गांधी से ज़्यादा बिबिलिकल अंग्रेज़ी भारत में किसी ने नहीं लिखी बल्कि उस दौरान तो अंग्रेज़ी साहित्य में भी किसी ने नहीं लिखी. बिबिलिकल अंग्रेज़ी गांधी की थी क्योंकि गांधी को बाइबिल ने बहुत प्रभावित किया था. और दूसरी तरफ अपनी प्रार्थना सभा में हर तीसरे दिन वो तुलसीदास को कोट करते हैं.
गांधी ने प्रार्थना को प्रतिरोध में बदला. गांधी की प्रार्थना सभा संसार के धार्मिक-आध्यात्मिक इतिहास में एक अभूतपूर्व आविष्कार है. आज भी आप जाएं सेवाग्राम तो सुबह साढ़े पांच बजे और शाम को साढ़े पांच बजे प्रार्थना सभा होती है. यह गांधीजी ने शुरू की थी. कोई मंदिर नहीं था सेवाग्राम में, प्रार्थना सभा ही अजब मंदिर थी. और कैसा मंदिर था वह? इस प्रार्थना सभा में वेद से, गीता से, कुरान से, बाइबिल से, यहूदी ग्रंथों से, जैन ग्रंथों से, बौद्ध ग्रथों से आदि सबसे पाठ होता था. पैंतालीस मिनट तक यह पाठ चलता था.
उन दिनों सेवाग्राम में बिजली नहीं थी. अब तो कहा जा रहा है कि हर गांव में पहुंच गई है. हालांकि उस वादे के आंकड़ों के झूठे होने की भी ख़बर आती रहती है. लेकिन बहरहाल तब लालटेन होती थी. लालटेन जलाकर रख दी जाती, लेकिन उसकी लौ कम रहती थी. जैसे-जैसे अंधेरा बढ़ता जाता था, वैसे-वैसे लालटेन की लौ ऊंची की जाती थी. और पैंतालीस मिनट के बाद गांधी बोलते थे. हमने ‘प्रार्थना-प्रवचन’ रज़ा पुस्तकमाला के अंतर्गत दो खंडों में छापे हैं. अगर आप ने उन्हें नहीं पढ़ा है तो भारतीय होने के नाते आपकी ज़िंदगी अकारथ है.
दुनिया में कहीं ऐसी प्रार्थना सभा नहीं होती थी. दुनिया में ऐसी कोई जगह नहीं जहां सब धर्मों से दिन में दो बार पाठ होता हो. ये प्रार्थना एक नए क़िस्म का मंदिर थी. इसमें सारे धर्मों को मिलाकर यह जो आविष्कार था गांधी का यह अद्भुत आविष्कार था. कहीं और ऐसा नहीं हुआ. यूरोपीय देशों में और अमेरिका में वहां के अल्पसंख्कों को ध्यान में रखते हुए संभव है कुछ ऐसा हुआ हो. लेकिन कुल मिलाकर यह अप्रतिम है. और प्रार्थना का उपयोग प्रतिरोध की तरह करना?
गांधी ने प्रतिरोध सिर्फ़ अंग्रेज़ी राज का नहीं किया, भारतीय सामाजिक रूढ़ियों का भी किया. जो भारतीय पिछड़ापन था, उसका भी किया. आधुनिकता के जो दुर्गुण थे उनका भी प्रतिरोध किया. राजनीति का प्रतिरोध किया, कांग्रेस का भी प्रतिरोध किया. यह प्रतिरोध करना वह भी प्रार्थना सभा में?
आप इस बात पर ध्यान दें कि गांधी की दृष्टि में देश के हर नागरिक को धर्म का, भाषा का, आस्था का, खान-पान का, वेशभूषा आदि के संबंध में समान अधिकार था. इसको संविधान ने मान्यता दी.
स्वच्छता, साफ-सफ़ाई पर आते हुए एक बात मैं कहना चाहता हूं कि आजकल जब मैं हौजखास विलेज जाता हूं, देखता हूं कि वहां एक कूड़ाघर है. जिसके अंदर तो कूड़ा है लेकिन वो बंद रहता है कैरिज की तरह. उसपर गांधीजी के चश्मे की एक तस्वीर लगी हुई है. उसे देखकर मुझे यादा आता है. मेरे मित्र थे. मित्र भी थे, शत्रु भी थे- शरद जोशी. उन दिनों ग़रीबी हटाओ नारा चलता था. उन्होंने अपने एक व्यंग्य निबंध में लिखा कि ठीक है ग़रीबी हटाओ लेकिन सवाल ये है कि ले कहां जाएं? तो उनका (शरद जोशी) ये कहना था कि भई पिछवाड़े रख दो ताकि सामने नज़र न आए.
तो अभी जब ये स्वच्छता अभियान चला, मैंने सोचना शुरू किया कि गंदगी तो हटाई जा रही है. कचरा साफ़ करते हुए राजनेता नज़र भी आते हैं. पर ये गंदगी जा कहां रही है? तो मुझे ये सूझा कि चूंकि कोई और जगह बची नहीं है, सब जगह नज़र आ जाएगी तो दिमाग़ में भर दो. भारत को स्वच्छ करो यानि उसके शहरों को और जो ख़ाली दिमाग़ हैं ज़्यादातर उनमें ये गंदगी भर दो. जिससे वो भी महफूज़ रहेगी और चिकने-चुपड़े अच्छे दिनों की चपेट में आया हुआ भारत भी उसके जैसा दिखेगा.
ये जो स्वच्छता की अवधारणा थी वो गांधी को चर्च से मिली थी. चर्च, मस्ज़िद और गुरूद्वारे ये बहुत साफ़ होते हैं और हिन्दू मंदिर (दक्षिण के मंदिरों को एक हद तक छोड़ दें) उत्तर भारत के सारे हिन्दू मंदिर कचराघर हैं. महात्मा गांधी काशी विश्वनाथ मंदिर गये और उनके साथ दो-चार हरिजन भी थे तो उन्हें रोक दिया गया. तब उन्होंने प्रण किया कि मैं अब मंदिर जाऊंगा ही नहीं.
परिवर्तन की जो उनकी अवधारणा थी वो सत्ता का मुंह जोहती थी परिवर्तन नहीं था. उनका एक प्रसिद्ध उद्धरण है जिसको बहुत से लोग (ओबामा आदि भी) कोट करते हैं- ‘बी द चेंज, यू वांट टू सी इन द वर्ल्ड’. इसपर थोड़ा विवाद है कि उन्होंने ऐसा कभी कहा कि नहीं कहा. लेकिन वो परिवर्तन को हर व्यक्ति की ज़िम्मेदारी मानते थे. साधारण पर इतना विश्वास पहले किसी ने किया ही नहीं है जितना महात्मा गांधी ने किया. वो मानते थे कि हर साधारण मनुष्य परिवर्तन कर सकता है. उनके भारत में कम से कम ऐसा ही परिवर्तन होगा.
आपको याद होगा महात्मा गांधी ने एक पुस्तक लिखी- ‘हिन्द स्वराज’; जो उन्होंने जहाज पर, जब वो लन्दन से लौट रहे थे तब लिखी. जब वे सीधे हाथ से लिखते लिखते थक जाते थे तो उल्टे हाथ से लिखते थे. हिन्द स्वराज प्रश्नोत्तर के रूप में है. हिन्द स्वराज में पहली बार पश्चिमी सभ्यता का एक रैडिकल क्रिटीक महात्मा गांधी ने प्रस्तुत किया. बीसवीं सदी के शुरूआत में ऐसा कुछ पहली बार हुआ. और उसमें जिस बात की ओर उन्होंने सबसे अधिक इशारा किया वो ये कि मनुष्य कहीं मशीन का गुलाम न बन जाए. और अब हम सब जिनके हाथ में ये चिकने-चुपड़े फोन वगैरह हैं, सब मशीन के गुलाम है. और इससे ज़्यादा अभद्र, असभ्य यंत्र बना ही नहीं. अब देखिए मैं आप से बात कर रहा हूं. अच्छे ख़ासे दो लोग हैं हम आमने –सामने, तभी आपका फोन बजा और आप किसी दूसरे आदमी से बात करने चले गये और मैं मुंह ताकता रह गया.
ये असभ्यता है और यंत्र संस्कृति ने तरह तरह की असभ्यताओं को सभ्यता में परिणत कर दिया है. कोई किसी से बोलता नहीं है, सब लोग ‘मूर्ख पेटिका’ के सामने बैठे रहते हैं. हमारे घर में एक टेलीविजन है, वो पिछले 6-7 सालों से बंद है, कोई देखता ही नहीं है. सुबह से शाम तक झूठ. हम सब जानते हैं कि सब झूठ बोल रहे हैं. नेता झूठ बोल रहा, अभिनेता झूठ बोल रहा, खिलाड़ी झूठ बोल, धर्मनेता झूठ बोल रहा. सब लोग झूठ बोल रहे और हम मगन होकर देख रहे. तो कहने का मतलब है कि ये जो यंत्र संस्कृति विकसित हुई थी या होने जा रही थी, गांधी को उसका बहुत गहरा, तीखा अहसास था.
गांधी ने दो कोटियों के लोगों की विशेष निंदा की है. डॉक्टरों और वकीलों की. उनका कहना था कि ये मनुष्य के शोषण के, सामाजिक शोषण के सबसे बड़े माध्यम बनने वाले हैं और यही हुआ, हो रहा है. अब उसमें और दुमछल्ले हो गये हैं कुछ कुछ, वो अलग बात है.
पश्चिमी सभ्यता की बहुत सारी अच्छी बातें गांधी को स्वीकार थीं लेकिन भारत पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण करे, ये बात उनको स्वीकार नहीं थी. लेकिन पिछले सत्तर-पचहत्तर बरस भारत ने पश्चिम के अनुकरण में ही बिताए हैं. पश्चिम का जो क्रिटीक भारत में पैदा हुआ था वो वो सिर्फ गांधी का क्रिटीक नहीं था; श्री अरबिंदो ने भी क्रिटीक पेश किया था, विवेकानंद ने भी पेश किया था, रविन्द्रनाथ ठाकुर ने भी किया था, लोहिया ने भी किया था, एमएन रॉय ने भी किया था. धीरे-धीरे इस रेडिकल क्रिटीक की परम्परा क्षीण होती गई.
अब हम ऐसे वक़्त में हैं, जबकि अमेरिका यह मानता है कि दुनिया में दो ही संभावनाएं हैं. अमेरिका और ग़ैर अमेरिका और ग़ैर अमेरिका की नियति ये है कि देर सबेर वह भी अमेरिका हो जाए. इसके अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता. तो ये जो मानसिकता है और जिसको हम मुदित मन स्वीकार भी करते हैं, गौर करने लायक है.
हमारे यहां इतनी बड़ी संख्या में अकादमिक लोग हैं. लाखों में होंगे. उनकी शिक्षा-व्यवस्था पर वर्तमान सरकार और उसके पहले की भी सरकार ने घातक हमले किये हैं. उनकी स्वायत्तता को नष्ट किया है और तरह तरह की मूर्खतापूर्ण बातें शिखर से बोली जाती हैं. मूर्खता और शिखर और अज्ञान के बीच पहले जो थोड़ी सी दूरी होती थी, वो अब पूरी तरह से मिट गई है. लेकिन इतना बड़ा अकादमिक, विद्वत संप्रदाय चुप रहता है. थोड़े लोग बोलते हैं बाकि सब मुतमईन हैं कि हमारा खाना पीना चल रहा है. हमारे पास तीन कमरे का फ्लैट है. एक गाड़ी है जिसका कर्जा हमने चुका दिया है, वगैरह वगैरह. अब हमको क्या करना है. एक पूरा ऐसा मध्यवर्ग विकसित हो गया है जो असल में भारत है ही नहीं. वो अपने स्वप्न में भी और अपने व्यव्हार में भी लगभग अमेरिका है.
इस मध्यवर्ग को मातृभाषा की कोई परवाह नहीं. हिंदी में ऐसा मध्यवर्ग सबसे बड़ा है क्योंकि हिंदी प्रदेश ही इतना बड़ा है. हिंदी अंचल इतना बड़ा है. और हिंदी अंचल में सबसे ज़्यादा अवज्ञा मातृभाषा की है जबकि सबसे अधिक मातृभाषाएं किसी एक बड़ी भाषा में; संभवतः हिंदी में ही हैं. 46 बोलियां. हिंदी या जिसको हम हिंदी कहते हैं, वो हिंदी खड़ी बोली दरअसल बहुत सारी बोलियों के बीच संपर्क भाषा है. वज्जिका वाला राजस्थानी वाले से किसमें बात करेगा? वो समझेगा कैसे? वो दोनों खड़ीबोली में ही बात कर सकते हैं.
बहरहाल, महात्मा गांधी का इसरार मातृभाषा पर था. और उनकी जो हिंदी है आप उस हिंदी को अगर पढ़ें, तो उस हिंदी में गुजराती बोलती है. गुजरात में सामान्य गुजराती में अरबी, फारसी और उर्दू के बहुत शब्द हैं और गांधी के यहां भी उनकी भरमार है. तो वो एक ऐसी भाषा की कल्पना करते थे. हमने जो राजभाषा बनाई वो ऐसी भाषा बनाई जो किसी की भाषा नहीं है. वो ‘राज’ की भी भाषा नहीं है जो कि छद्म है, ‘राज’ उस भाषा में कुछ नहीं करता. और वो सामान्य हिंदी जानने वालों के लिए भी अबूझ भाषा है, कोई वो भाषा नहीं बोलता लेकिन वो राजभाषा है. तो ये जो विडंबनाएं पैदा हुई हैं, इनपर ध्यान देने की ज़रूरत है.
गांधी, अल्पसंख्यकों चाहे वो धार्मिक हों, सांस्कृतिक हों, चाहे भाषिक हों सबको समान अधिकार देने की बात करते थे. न केवल ऐसी बात करते थे बल्कि उन सबकी अगर कोई चूक हो तो निंदा करने से भी घबराते नहीं थे. आपको याद होगा. अगर नहीं होगा तो होना चाहिए कि उनका अंतिम उपवास कब, किसलिए हुआ था. भारत ने विभाजन के दौरान हुए समझौते के तहत 55 करोड़ रूपये पाकिस्तान को देने का वादा किया था और अब हम उस वादे से मुकरना चाहते थे. क्योंकि पाकिस्तान से बहुत शरणार्थी यहां आए थे, दंगे हो रहे थे वगैरह वगैरह. गांधी ने तब उपवास किया, ये कहते हुए कि हालांकि मैं विभाजन के विरुद्ध रहा हूं लेकिन हमने जो करार किया है, उससे विचलित होना भारत जैसे देश के लिए एक नैतिक चूक होगी. और ये मेरे रहते संभव नहीं है. फिर कैबिनेट बैठी और उसमें यह सुनिश्चित किया गया कि यह पैसा दिया जाएगा.
गांधी की एक बड़ी विशेषता यह थी कि वो साधन और साध्य की एकता में विश्वास रखते थे. और हम इस स्थिति में हैं कि साध्य के लिए साधन कुछ भी हो, येनकेन प्रकारेण. पुलवामा मिल जाए तो पुलवामा और कोई ‘वामा’ मिल जाए तो वह ‘वामा’. उसके बहाने हम हर चीज को एक्सप्लॉएट करके सत्ता पाएंगे और उसमें बने रहेंगे. कहने का मतलब कि ये गांधी का सबसे बड़ा प्रयोग था, इससे बड़ा प्रयोग संभवतः मनुष्य के इतिहास में कभी हुआ नहीं, जहां साधन और साध्य दोनों की एकता होगी. ऐसा कुछ नहीं होगा कि साधन कुछ भी हो पर साध्य हमको मिल जाए. ऐसा गांधी नहीं मानते थे. और ज़ाहिर है कि वे ऐसा नहीं चाहते थे कि उनके भारत में ऐसा हो.
प्राचीनता, परम्परा और आधुनिकता, इन तीनों को मिलाकर कुछ किया जा सकता है- गांधी ऐसा मानते थे. और किसी हद तक यह चलता रहा नेहरु के ज़माने में भी. गांधी नहीं मानते थे कि आधुनिकता सिर्फ़ पश्चिम का उत्पाद है. गांधी यह भी नहीं मानते थे कि आधुनिकता में जो कुछ हो रहा है, वो सब सही है, अकाट्य है, अनिवार्य है. गांधी ने साधारण मनुष्य में एक प्रश्नवाचकता पैदा की थी. वो प्रश्नवाचकता लोकतंत्र में धीरे-धीरे कम होती गई जबकि लोकतंत्र का मूलाधार तो प्रश्नवाचकता है. हमको अगर प्रश्न पूछने की आज़ादी नहीं है तो फिर बाकी आज़ादियों का मतलब क्या है? ये प्रश्नवाचकता सिर्फ ‘राज’ से प्रश्न पूछने भारत तक सीमित नहीं थी. अपने से प्रश्न पूछो, दूसरों से प्रश्न पूछो और प्रश्नों के कई उत्तर संभव हैं इस संभावना से इंकार न करो.
तो अगर हम इस तरह से देखना शुरू करें तो गांधी ने एक अहिंसक सत्याग्रही लोकतंत्र की कल्पना की थी. उनका सत्य कोई अटल सत्य नहीं था और वो परम सत्य भी नहीं था. उनका ‘सत्य’ एक ‘बनता-बनता बिगड़ता सत्य’ था. वो कहते भी थे कि मैं सत्य के साथ प्रयोग कर रहा हूं. और इस प्रयोग करने में उनको लगता था कि भारत का अपना सत्य भी अलग होगा. वो उस समय तो ब्रिटिश उपनिवेश था, उन्हें डर भी था कि बाद में विकास की प्रक्रिया में वो बौद्धिक या वैचारिक रूप से पश्चिम का उपनिवेश न बन जाए, जोकि वह बन गया.
एक आख़िरी बात कहके मैं अपनी बकबक समाप्त करता हूं. गांधी ने जिस भारत की कल्पना की थी, क्या उस भारत का कुछ हिस्सा, कोई परछाईं, कोई छाया, कोई शबीह कहीं बची हुई है या कि हम उस भारत में हैं जिसके बारे में गांधी के 150वें वर्ष में हम ये कह सकते हैं कि ये अब गांधी शून्य भारत है. फिर भी मुझे लगता है कि ये थोड़ी जल्दबाजी में किया गया सामान्यीकरण होगा. छोटे-छोटे बहुत सारे समूह हैं- पर्यावरण में, शिक्षा में, सामाजिक क्षेत्रों में- जो भले ही गांधी का नाम न लेते हों, भले वो अपने को गांधीवादी न कहते हों. लेकिन वो लगभग गांधी की जो परिवर्तन लाने की प्रक्रिया थी, गांधी की जो दृष्टि थी और अपने साधन और साध्य के बीच एक पवित्र एकता बनाए रखने की जो ज़िद थी, उस पर अड़े हुए हैं.
तो मित्रों मैंने जिस भारत का ज़िक्र किया और जिसकी दुर्दशा, ‘भारत- दुर्दशा’ आपको बताई, उस भारत के पीछे एक और भारत है उसका भी हमको एहतराम करना चाहिए. जब तमिलनाडु के किसान आए और उनमें से एक ने मरे हुए चूहे को अपने मुँह में रख के प्रदर्शन किया (अब तो किसानों को दिल्ली आने ही नहीं दिया जा रहा) या आसनसोल के दंगों में एक इमाम ने जिसका बेटा मारा गया था, अपील की कि किसी को इसका बदला नहीं लेना है. ये वो गांधी का भारत है जो बचा हुआ है.