पार्ट-1: ‘मनुष्य ने जब असंभव सोचा है, तभी मानवता आगे बढ़ी है’

महात्मा गांधी के डेढ़ सौवें जन्मवर्ष पर आग़ाज़ सांस्कृतिक मंच द्वारा आयोजित ‛भारत : एक विचार' व्याख्यानमाला के तहत दिया वरिष्ठ साहित्यकार अशोक वाजपेयी का वक्तव्य.

WrittenBy:अशोक वाजपेयी
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मित्रों! मैं बहुत आभारी हूं अशोक कुमार पाण्डेय का कि उन्होंने ने मुझे आमंत्रित किया. लेकिन ये इस ओर भी इशारा है कि हिंदी में कई क्षेत्रों में विशेषज्ञता का कितना अभाव है कि हम जैसे लोग भी अब हर चीज़ के विशेषज्ञ माने जाने लगे हैं. मैं ‘गांधी विचारक’ भी नहीं हूं, ‘गांधीवादी’ भी नहीं हूं. मैं तो एक लेखक हूं और जैसा होता है लेखकों का कि वे इधर-उधर कुछ-कुछ कतरते, ब्योंतते रहते हैं तो उसमें गांधी भी एक मत-मसला होते हैं. आप इसको गांधी विशेषज्ञ की बातें न समझिएगा.

मैं तीन भागों में अपनी बात कहूंगा. एक तो ये कि हम जिस भारत में ‘गांधी के भारत’ की कल्पना कर रहे हैं, उस भारत की आज स्थिति क्या है. दूसरा स्वयं गांधी ‘भारत एक विचार’ पर क्या राय रखते हैं. वैसे तो ‘मेरे सपनों का भारत’ इत्यादि ऐसी पुस्तकें निकली हुई हैं लेकिन मैं उनके कुछ उद्धरण आपको सुनाऊंगा, उनके मुख से कुछ अंतिम दिनों के प्रार्थना प्रवचनों में कहे गये को. और तीसरा, फिर इनसे यह नतीज़ा निकालने की संभवतः एक विफल चेष्टा करूंगा कि गांधी की भारत की परिकल्पना थी क्या.

ये जो भारत है, दो मायनों में यह गांधी से बहुत दूर का भारत है आज. इससे अधिक हिंसक भारत पहले नहीं हुआ. हिंसा हुई है, हिंसा की कमी नहीं रही है भारत में. लेकिन इतना हिंसक भारत नहीं हुआ जितना आज है. धर्म की हिंसा, जाति की हिंसा, गोरक्षा के बहाने हिंसा. हिंसा के रूप बदल गये हैं. अब दंगे नहीं होते, लिंचिंग होती है. एक तरह की हिंसा माहौल पर पूरी तरह से छाई हुई है. ख़बर में हिंसा है, सामाजिक संवाद में हिंसा है और टेक्नोलॉजी ऐसी बन गई है कि ये हिंसा बहुत तेज़ी से फैल जाती है. स्त्रियों, अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों के विरुद्ध हिंसा बढ़ती जाती है. पूंजी की हिंसा, बाज़ार की हिंसा, मनोरंजन की हिंसा, खेल-कूद की हिंसा, फैशन की हिंसा, सिनेमा की हिंसा. कितनी तरह की हिंसाओं से हम आज घिरे हुए हैं.

दूसरा, ये तो कहा जा सकता है कि संविधान गांधी ने तो नहीं बनाया लेकिन हमारे संविधान पर गांधी की बड़ी छाया है, बड़ा प्रभाव है. उसी के कारण उसके जो कुछ बुनियादी मूल्य बने उनमें इन दिनों तेज़ी से कटौती हो रही है. ये नहीं की आज ही हो रही है लेकिन अब रफ़्तार तेज़ है. पहले सत्ता के संस्थान ही करते थे, अब तरह-तरह के लफ़ंगे और हुड़दंगी भी आपकी स्वतंत्रता पर आघात कर सकते हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, बुद्धि, ज्ञान और विज्ञान की स्वतंत्रता पर भी हमला है. आप सब चतुर सुजान हैं. आप जानते हैं कि जेएनयू में क्या हुआ है, हैदराबाद में क्या हुआ है. अज्ञान इस समय शिखर पर है. जो जितना अज्ञानी है वह उतना ही सत्तारूढ़ है. इसके उदहारण देना बेकार है, आप सभी जानते हैं कि किसका ज़िक्र है ये. असहमति की स्वतंत्रता भी नहीं है. अगर आप असहमत हों तो आप देशद्रोह के निकट जा रहे हैं. तो ये जो बुनियादी मूल्य थे हमारे संविधान के उन्हीं में कटौती हो रही है.

तीसरा, ये वो भारत है जो अपनी बहुभाषिकता, बहुधार्मिकता और बहुलता से दूर ले जाया जा रहा है. ‘एकनिष्ठ भारत चाहिए, एकात्म भारत चाहिए’- इसमें बहुलता का कोई ख़ास मूल्य भी नहीं होगा, कोई ज़रूरत भी नहीं होगी. आज का भारत यानी- विकास के नाम पर ग़ैरबराबरी, शोषण, ग़रीबी, बेरोजगारी का भारत, घृणा, अविश्वास, आक्रामकता से बजबजाता भारत, हर रोज नए-नए ‘दूसरे’ बनाता भारत जिनको नेस्तनाबूत करने का फिर फ़ौरन उपाय खोजना चाहिए, लोकतंत्र में संस्थाओं को ध्वस्त करता या उनके कद को गिराता भारत, साम्प्रदायिकता, धार्मिक विद्वेष, जातीय भेदभाव इन सब में लिथड़ा भारत, अपने अंगों को जोड़ता संभालता नहीं, तोड़ता, बिखराता भारत, अपनी बुनियादी बहुलता मूलक भारतीयता को गंवाता भारत, अच्छे दिनों के फरेब में फंसा भारत जबकि जिनके अच्छे दिन आए हैं वो सब भारत छोड़ चुके हैं, ‘राज’ पर अधिक भरोसा करने वाला और ‘नीति’ से दूर जाता भारत. क्या ये जो भारत बनाया जा रहा है और कुछ-कुछ बन गया है, वो भारत असल भारत है? या कुछ और भारत है जो अंतःसलिल है, अंतरवर्ती है जिसकी हमें ख़बर नहीं है. मेरे पास इसका कोई उत्तर नहीं है, मैं ये आपकी अटकलों के लिए छोड़ देता हूं.

दिल्ली पर दो लांछन हैं, कम से कम गांधी के संदर्भ में. एक तो दिल्ली ने गांधी को अकेला किया. दिल्ली शहर भर ने नहीं, ‘दिल्ली’ नाम के रूपक ने. गांधी ने स्वयं कहा- “जब मैं अपनी आवाज़ उठाता हूं तो कौन सुनता है? आज तो मेरी दीन हालत हो गई है. एक ज़माना था जब मैंने कहा ‘ऐसा होना चाहिए’, तो हो जाता था. आज ऐसी बात नहीं रही. वो ज़माना चला गया. एक दिन था जब गांधी को सब मानते थे क्योंकि गांधी ने अंग्रेजों के साथ लड़ने का रास्ता बताया था. और ये अंग्रेज़ भी कितने? केवल पौन लाख. पर उनके पास इतना सामान था, इतनी ताक़त थी कि बकौल एनीबेसेंट, ‘रोड़े का जवाब गोली से’ दिया जाता था. तब अहिंसा से काम बनता दिखता था, इसलिए उस समय गांधी की पूछ थी. पर आज लोग कहते हैं कि गांधी हमें रास्ता नहीं बता सकता. इस वास्ते सुरक्षा के लिए हमें शस्त्र हाथ में लेने चाहिए. जब दूसरा कोई चारा नहीं था तब मेरी बात मानी गई और मेरा सिक्का चला.”

ये वो गांधी हैं, जो अपनी हत्या के थोड़े दिनों पहले दिल्ली में ये कह रहे थे.

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गांधी ने अपने को विचारक कभी नहीं कहा और उन्होंने किसी विचारधारा का जनक भी अपने को नहीं माना. लगभग पचास हज़ार से अधिक पृष्ठों में उनकी ग्रंथावली है, 94 या 96 ज़िल्दों में. अजब आदमी था, हर पत्र का उत्तर देता था और हर दिन कुछ न कुछ नोट करता था. वो ज़्यादातर हिंदी में था. कभी कभी अंग्रेज़ी में भी था. पहले कुछ अंग्रेज़ी के उद्धरण हैं- “वायलेंस इज ब्रेड बाई इनइक्वलिटी, नॉन-वायलेंस बाई इक्वलिटी.”

“अनटचेबिलिटी मे बी कंसीडर्ड टू बी ऐन ऐनसिएंट ट्रेडिशन, द इंस्टीट्शन ऑफ़ चाइल्ड विडोहुड एंड चाइल्ड मैरेज मे बी कंसीडर्ड टू बी ऐनसिएंट, एंड इवन सो मेनी ऐनसिएंट हॉरिबल बिलीफ़ एंड सुपरस्टीशस प्रैक्टिस. आई वुड स्वीप देम आउट ऑफ एक्झिस्टेंस इफ़ आई हैड द पावर.”

उन्होंने यह भी कहा था- “इफ़ समबडी शोज मी दैट देयर इज सैंक्शन ऑफ़ अनटचएबिलिटी इन द ‘वेदास’, आई (विल) रिजेक्ट द ‘वेदास’ बट नॉट एक्सेप्ट अनटचेबिलिटी.”

यानि कि अगर वेदों में भी अछूत प्रथा के बारे में कुछ लिखा गया होगा तो मैं वेदों को भी खारिज कर दूंगा लेकिन अछूत प्रथा को स्वीकार नहीं करूंगा.

यहां देखिए वो क्या कह रहे हैं- ”आल रिलीजन्स आर ट्रू बट दे आर इम्परफेक्ट एंड देयरफोर वी नीड सो मेनी रिलीजन्स.” यानी सभी धर्म सत्य है लेकिन कोई भी संपूर्ण नहीं है. इसलिए हमें अनेकों धर्मों की आवश्यकता है.

उस समय दंगों की आग दिल्ली में थी. गांधी दिल्ली में हैं. जिस दिन गांधी दिल्ली पहुंचे आपको याद होगा कि आज़ादी के दिन वो नोआखली में थे. उसके बाद वो कलकत्ते में थे और कलकत्ते में जो दंगे हो रहे थे उसको सत्तर-अस्सी हज़ार की सेना काबू में नहीं ला पा रही थी. लॉर्ड माउंटबेटन ने लिखा था कि “इतनी बड़ी फौज जो नहीं कर सकी, एक अधनंगे बूढ़े आदमी ने कर दिखाया.”

उसके बाद जब गांधी यहां (दिल्ली) आए तो वो कहते हैं- “इस आग से बचोगे तभी धर्म बच सकेगा. मैं कहां-कहां जाऊं, ये मुझे नहीं मालूम देता. मेरी शक्ति क्षीण होती जाती है. मेरा शरीर इस गर्मी को सहन करने के लायक नहीं रहा. मैंने जो कहा वो सत्य है, वो सब पर लागू होता है. वह सर्वमान्य दुनिया का नियम है. सत्य की हमेशा जय है और झूठ की क्षय होती है. मैं जो कह रहा हूं, वो डरपोक या कमज़ोर दिल के लिए नहीं बल्कि उनके लिए है जो बहादुर और निःस्वार्थ हैं. जो अपनी मां की लड़की की और धर्म की रक्षा करते हुए मरना जानते हैं, दूसरों को मारना नहीं. जो आदमी ख़ुशी से मर जाता है वो मारने वाले से कहीं ज़्यादा बहादुर होता है. मैं चाहता हूं इस बहादुरी के स्तर तक सारा हिंदुस्तान पहुंचे. काठियावाड़ मेरा घर है. जब घर ही इस तरह से जल जाता है. तो फिर किसी को कहने का क्या मौका रह जाता है. तब दिल्ली वालों को मैं क्या सुना सकता हूं. मेरे पास कुछ ऐसा बन गया है कि इर्द गिर्द चारों ओर यही चलता है. तब फिर मैं उसमें कैसे साबुत रह सकता हूं. जो इंसान हैं, समझदार हैं वो इस तरह के वातावरण में साबुत नहीं रह सकते. ये मेरी दुःख की कथा है, या कहो हिंदुस्तान के दुःख की कथा है जो मैंने आपके सामने रखी है.”

“आज ये कहना कि राजनीति में अहिंसा चल नहीं सकती, निक्कमी बात है. आज जो काम हम कर रहे हैं, वो हिंसा का है. पर वो चल नहीं सकता. मेरठ के मुसलमानों ने आज़ादी की लड़ाई में काफ़ी हिस्सा लिया है. आजकल की राजनीति अविश्वास से चल ही नहीं सकती. इसलिए हमें मुसलमानों पर विश्वास करना ही होगा. यदि हमने तय कर लिया है कि भाई-भाई बनकर रहना है तो फिर हम किसी मुसलमान पर खामखां अविश्वास न करेंगे. फिर भले वो लीगी हो. मुसलमान कहें कि हिन्दू-सिख बदमाश हैं तो ये निकम्मी बात है. ऐसी ही हर एक लीगी के लिए भी यह मान लेना बुरा है.”

“मुझे सूचना मिली है, उसके मुताबिक़ दिल्ली की क़रीब 137 मस्जिदें हाल के दंगों में बर्बाद सी कर दी गई हैं. उनमें कुछ को मंदिरों में बदल डाला गया है. ऐसी एक मस्जिद कनॉटप्लेस के पास है, इसकी तरफ किसी का भी ध्यान जाए बिना नहीं रह सकता. आज इस पर तिरंगा झंडा फहरा रहा है. उसे मंदिर का रूप देकर उसमें एक मूर्ति रख दी गई है. मस्जिदों को इस तरह बिगाड़ना हिन्दू और सिख धर्म पर कालिख पोतना है. मेरी राय में यह बिल्कुल अधर्म है. जिस कलंक का मैंने ज़िक्र किया उसे यह कहकर कम नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तान में मुसलमानों ने भी हिन्दू मंदिरों को बिगाड़ा.”

गांधी के मन में जो भारत की परिकल्पना इन उद्धरणों से संभवतः आपके मन में उभरेगी, वो एक लभभग असंभव आदर्श भारत है. असंभव से जो कम सोचता है वो सृजनात्मक और साहसी नहीं हो सकता. मनुष्य ने जब-जब असंभव सोचा है, तब-तब मानवता आगे बढ़ी है. ऐसा बहुत सारा है हमारे जीवन में जो एक ज़माने में असंभव था, आज संभव है. जब महात्मा गांधी ने स्वयं 1930 नमक सत्याग्रह किया तो उनको भी शायद यह अंदाज़ नहीं था कि कुल सत्रह वर्षों में अंग्रेज़ भारत को छोड़कर जाने पर मजबूर हो जाएंगे. उस समय भी यह असंभव आदर्श था.

इतने बड़े साम्राज्य से हम बिना अस्त्र के, बिना हथियारों के (ज़्यादातर बिना हथियारों के) लड़ पाएंगे, कौन सोच सकता था उस सदी में. सदी के उस दौर में जब संसार में हिंसा का ही साम्राज्य था. हिटलर की हिंसा, मुसोलिनी की हिंसा, स्टालिन की हिंसा, न जाने किस-किस की हिंसा. जिसमें करोड़ों लोग मारे जा चुके थे, उसमें यह सोचना कि इतने बड़े साम्राज्य को हम अहिंसा से, बिना हथियार उठाए, सविनय अवज्ञा से ध्वस्त कर देंगे. ये सोचना भी असंभव था लेकिन इस अधनंगे फ़क़ीर ने असंभव को भी संभव बनाया. इसलिए उनकी जो भारत की परिकल्पना है वो एक स्तर पर असंभव है. एक स्तर पर बहुत ही आदर्शवादी है.

महात्मा गांधी का सबसे बड़ा दोष संभवतः यही था कि वो साधारण से साधारण व्यक्ति की क्षमता और प्रतिभा में अगाध विश्वास रखते थे. एक उद्धरण मैं आपको देना चाहता हूं. यह मैं कई बार देता हूं, देने से बाज नहीं आता. कोई न कोई बहना मेरा मन निकाल ही लेता है इस घटना को बताने के लिए.

नमक सत्याग्रह में गांधी पहुंचे शाम के वक़्त, अंधेरा झुटपुटा था. एक नदी थी जिसको पार करके अगले गांव पहुंचना था. नदी उथली थी, उसमें नाव नहीं चल सकती थी. कीचड़ भरी थी, तो पैदल भी न जाया जा सकता था. तो तय हुआ कि बारह बजे ज्वार में जब पानी आ जाएगा तो गांधी और सत्तर-सतहत्तर सत्याग्रही जो उनके साथ थे, नाव से नदी पार करेंगे. गांधी जी ने अपनी जेब से अपनी प्रसिद्ध घड़ी निकाली और समय देख एक झोपड़ी में जाकर सो गये.

अब गांव वाले चिंतित होना शुरू हुए. अंधेरी रात है, गांधी और उनके सत्याग्रहियों को इस अंधेरे में नाव पर भी ले जाने का जोख़िम कैसे उठाएंगे, कुछ तो रौशनी होनी चाहिए. वो देहाती थे, अपढ़ थे, ग़रीब थे. उनको पता था कि अगर अंग्रेज़ बहादुर को पता चला गया कि हमने किसी तरह से गांधी की इस आन्दोलन में मदद की है तो हम पर कहर बरपा होगा. लेकिन उन देहाती, अपढ़, ग़रीब लोगों ने इसकी चिंता किये बग़ैर जो किया वो लगभग बाइबिल का प्रसंग लगता है. और किया क्या उन्होंने? जब गांधीजी बारह बजे रात को यानि आधीरात को उठकर आए तो उन्होंने पाया, सौ सवा सौ देहाती अपने हाथ में छोटे छोटे दीये लिए हुए खड़े हैं. और ये बात नदी के उसपार के गाँव में भी पहुंचा दी गई. वहां भी लोग छोटे छोटे दीये लिए हुए खड़े थे. ये संभव था इस देश में पचासी बरस पहले कि लोग जानते थे कि ये जोख़िम है. वे ग़रीब थे, अपढ़ थे लेकिन उनमें एक ऐसी शक्ति थी गांधी ने पैदा कर दी थी कि वो अंधेरे में इस तरह का दुस्साहस करने वालों को रास्ता दिखाने के लिए रौशनी रखने को तैयार थे.

हममें से आज कितने लोग हैं जो कहीं आज अगर ऐसा प्रसंग हो तो हाथ में रौशनी लेकर खड़े होने का जोख़िम उठाएंगे? हम ज़रूरत से ज्यादा सुरक्षाकामी मध्यवर्ग के लोग हैं, जिनमें ये हिम्मत बची ही नहीं है.

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