राज्यपाल का काम होता है सरकार बनाने की हर संभावना को तलाशना, न कि खुद की अटकलबाजियों के आधार पर विधानसभा को भंग करना
बुधवार की रात जो कश्मीर में हुआ वो भारत के और जम्मू-कश्मीर दोनों के संविधान पर एक गहरी चोट है. कश्मीर के इस दुर्भाग्य की पराकाष्ठा देखिये कि वहां बीते कई वर्षों में हुआ सबसे संगीन असंवैधानिक कृत्य एक ऐसे शख्स के हाथों हुआ जिसकी नियुक्ति एक अनूठे परिचय के साथ हुई थी.
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Contributeसत्यपाल मलिक के रूप में जम्मू और कश्मीर को 80 के दशक के बाद, जब आतंकवाद चरम पर था, पहला ऐसा राज्यपाल मिला था जो एक राजनेता है. उनसे पहले के सभी राज्यपाल या तो पूर्व अधिकारी थे या पूर्व सैनिक. मलिक से उम्मीद ये थी कि वो राजनेता होने के नाते जनता के दिल की बात समझेंगे और ऐसे क़दम उठाएंगे जिनसे घाटी में फैली अशांति थोड़ी कम होगी.
लेकिन 21 नवंबर, 2018 की रात जो उन्होंने जो किया उससे अशांति और गहरा गई है, जनता के दिलों में मौजूदा प्रशासन के प्रति रोष संभवतः और बढ़ गया है.
विधानसभा भंग करने की मांग नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी समेत सभी स्थानीय पार्टियां तब से कर रही हैं जब से भाजपा ने समर्थन खींचकर महबूबा मुफ़्ती की सरकार गिराई थी, यानि जून 2018 से. पर राज्यपाल मांग स्वीकार नहीं कर रहे थे और राज्य को अपने हिसाब से चला रहे थे. इन पार्टियों के विरोध के बावजूद स्थानीय निकाय के चुनाव कराना भी राजयपाल की इसी मनमानी का हिस्सा था.
फिर अचानक से ऐसा क्या हुआ कि राज्यपाल ने विधानसभा भंग कर दी? और वो भी ठीक उसी वक़्त जब महबूबा मुफ़्ती ने ये ऐलान किया की उनकी पार्टी कांग्रेस और एनसी के साथ मिलकर राज्य में सरकार बनाने की इच्छुक है, और इस बाबत उन्होंने राज्यपाल को पत्र लिखा है.
ठीक उसी वक़्त पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के नेता सज्जाद लोन ने भी एलान किया की वो भाजपा और कुछ अन्य विधायकों के समर्थन से सरकार बनाने के इच्छुक हैं. उन्होंने ये जानकारी राज्यपाल के सचिव को, अब यहां सांस थाम लीजिये, व्हाट्सैप के ज़रिये दे दी थी.
87 सदस्यों की जम्मू-कश्मीर विधानसभा में सरकार बनाने के लिए 44 विधायकों का समर्थन चाहिए होता है और पीडीपी-कांग्रेस-एनसी के पास कुल 55 विधायक हैं. ज़ाहिर है ये गठबंधन सरकार तो बना ही लेता और सज्जाद लोन के मुख्यमंत्री बनने का सपना अभी कुछ दिन और टल जाता. तो क्या लोन के ज़रिये भाजपा की प्रॉक्सी सरकार बनाने के मंसूबे को चकनाचूर होते देख राज्यपाल महोदय ने विधानसभा भंग करने का निर्णय लिया, ताकि पीडीपी-कांग्रेस-एनसी को भी ये मौका न मिल पाए? एक लिहाज से इसे बिल्ली का खिसियाना भी कह सकते हैं.
लेकिन इस क़दम से जो सवाल राज्यपाल सत्य पाल मलिक के आचरण पर उठे हैं वो कहीं ज्यादा गंभीर हैं. कोई गठबंधन आगे जाकर चलेगा या नहीं इस भविष्यवाणी करने का अधिकार राज्यपाल को किसने दिया? सरकार बनाने के लिए न्यौता देने की प्रक्रिया पर भावी सरकार के भविष्य को ले कर राज्यपाल का व्यक्तिगत आकलन कब से मायने रखने लगा?
अगर पूर्ववर्ती राज्यपाल एनएन वोहरा भी इसी सोच से प्रभावित हुए होते तो 2015 में भाजपा और पीडीपी के गठबंधन को सरकार बनाने का मौका बिल्कुल नहीं देते. अगर सवाल सिर्फ विचारधारा और नीतियों के अंतर का है तो भाजपा-पीडीपी गठबंधन से भी अव्यवहारिक कोई गठबंधन हो सकता है क्या?
राज्यपाल का काम होता है सरकार बनाने की हर संभावना को तलाशना, न की उभरती हुई संभावनाओं को नकारना. जो भी सरकार बनाने का दावा कर रहे थे राज्यपाल को उनसे बात करनी चाहिए थी और संख्या-बल का आश्वासन पा कर उनको निमंत्रण देना था. दावों के बीच में विधानसभा भंग करने का क्या औचित्य है?
राज्यपाल कह रहे हैं कि ये निर्णय उन्होंने विधायकों की ख़रीद-फरोख्त रोकने के लिए भी लिया. महोदय, ज़रा ये बताइये की अगर आपको विधायकों के व्यापार की वाकई परवाह थी तो पिछले छह महीनों में क्यों विधानसभा भंग नहीं की गई? एनसी और पीडीपी ने तो जून में ही कहा था की विधानसभा भंग कर दीजिये नहीं तो हॉर्स-ट्रेडिंग होगी.
अब थोड़ा सा प्रकाश राज्यपाल मलिक की शब्दावली पर भी डाला जाए. विधानसभा भंग करने के बाद अपने आप को किसी महानायक सा महसूस करते हुए वो सभी टीवी चैनलों को दर्शन दे चुके हैं और सीना तान कर अपने निर्णय को न्यायोचित सिद्ध करने में लगे हैं. ऐसा करने के दौरान उन्होंने ‘मैं राज्य को कैसे छोड़ देता’, ‘सौंप देता’, ‘हवाले कर देता’ सरीखे भारी भरकम शब्द सुनने को मिले. ये शब्द एक विशेष किस्म की मानसिकता के परिचायक हैं.
कोई भी राज्य राज्यपाल की संपत्ति नहीं होता जिसे उन्हें किसी को सौंपना हो. राज्य अगर किसी की संपत्ति होता भी है तो मालिक होती है वहां की जनता, जो की खुद अपने संचालन के लिए विधायकों को चुन कर विधानसभा बनाती है. फिर उसी विधानसभा में से सरकार का जन्म होता है. जनता को इस अधिकार से वंचित रखने की ताकत नहीं है राज्यपाल को. और यही राज्यपाल मलिक ने किया है. ये संविधान का मात्र उल्लंघन नहीं, संवैधानिक मूल्यों की निर्मम हत्या है.
संवैधानिक मूल्यों की ऐसी ही हत्या की कोशिशें पिछले चार सालों में एनडीए के तीन और राज्यपाल कर चुके हैं. 2015-16 में अरुणाचल प्रदेश में, 2016 में ही उत्तराखंड में और फिर 2018 में कर्णाटक में. तीनों बार न्यायपालिका ने संविधान की रक्षा की और भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार को जमकर लताड़ा. उत्तराखंड के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दो-टूक कहा की सरकार इस भ्रम में न रहे कि वो कोई राजा है या देश में तानाशाही स्थापित है. अदालत ने ये साफ़ कहा की आप चाहे कितने भी ऊपर क्यों न हों, क़ानून आप से ऊपर है.
जम्मू-कश्मीर का मामला अभी अदालत में तो नहीं पंहुचा है, पर मलिक का नाम एनडीए के पिछलग्गू राज्यपालों की सूची में दर्ज हो चुका है. जाने भाजपा कब चेतेगी और कब राज्यपाल के पद का दुरुपयोग करना बंद करेगी.
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