पुरुषों की दुनिया में भूतिया किस्सों के खंडन का विमर्श है ‘स्त्री’

फिल्म के अन्दर राजनैतिक और सामाजिक विषमताओं का कलात्मक गठजोड़ है.

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भारतीय मिथकों को आधार बनाकर नारी अस्मिता की बात करने वाली फिल्म है स्त्री. हम अपने आसपास इस तरह की किंवदंतियों को सुनते रहते हैं. ‘भूत-पिशाच निकट नही आवे’ गुनगुनाने की कसीर तादाद इस देश मे मौजूद है. फ़िल्म इसी भूतिया किस्सों और कहानियों से निकलकर अपनी एक सरोकार युक्त उपस्थिति दर्ज कराती है.

वर्तमान भारतीय सिनेमा पर पश्चिमी प्रभाव का आरोप अब सामान्य हो चुका है. भारी-भरकम बजट वाली फिल्में अपनी प्रेरणा हॉलीवुड से ही हासिल करती हैं. इस बात में सच्चाई भी है. लेकिन समय-समय पर इस सच्चाई को नकारकर उदाहरण पेश करने वाले फिल्मकार आते रहे हैं. निर्देशक अमर कौशिक स्त्री के माध्यम से ऐसा ही नायाब उदाहरण पेश कर रहे हैं. फ़िल्म की कहानी 90 के दशक में घटी एक घटना पर आधारित है. लेकिन पूरी फ़िल्म में तात्कालिक राजनैतिक प्रसंगो को जिस चतुराई से पिरोया गया है वह काबिल-ए-तारीफ है.

हिंदी फिल्मों में मध्यवर्ग का प्रभाव पिछले कुछ सालों में काफी बढ़ा है. हाल के कुछ सालों में हमने देखा कि स्त्री विमर्शों पर फिल्मों की बाढ़ सी आ गई है. पिंक से लेकर क्वीन तक ऐसी फिल्मों की एक लंबी श्रृंखला है. स्त्री विमर्श के इस अघाए हुए दौर में स्त्री लीक से हटकर, कुछ अनूठे प्रयोगों वाली फिल्म है.

कहानी छोटे से कस्बाई शहर में सामान्य लोगों के बीच शुरू होती है. पूर्णिमा से पहले की दो रातें. इन रातों के प्रति टोने-टोटकों की गूंज पूरे शहर में मौजूद है. जैसा कि आमतौर पर हम देखते हैं, गंवई इलाकों में पूर्णिमा से लेकर अमावस्या से जुड़ी तमाम अंधविश्वास और मान्यताएं फैली होती हैं. तो कहानी के शहर में भी यह मान्यता फैली हुई है कि वर्ष भर में यही चार रातें ‘पुरुषों’ के लिए सबसे असुरक्षित होती हैं. इसी प्लॉट पर फ़िल्म को प्रस्तुत करने का खूबसूरत प्रयास फ़िल्म के कलाकार करते हैं.

निर्देशक इस भूतिया कहानी को जिस जिम्मेदारी के साथ दिखाता है, वही इस फिल्म का सकारात्मक पक्ष है. इस कारण फिल्म सामाजिक विसंगतियों को अपने संवादों में साथ-साथ लेकर चलती है. इसके लिए वह कटाक्षों और रूपकों का भरपूर सहारा लेती है. कटाक्ष के साथ ही चेतावनी का पुट नाटकों के काव्यात्मक समाधान के सिद्धांत के तहत फ़िल्म को आगे ले जाता है.

भविष्य के लिए वर्तमान को कैसा होना चाहिए? फिल्म के छिटपुट डायलॉग स्पष्ट करते हैं. “कुछ भी बनो लेकिन भक्त मत बनो” या “आजाद औरतों की आजाद पसंद” फिल्म की कहानी में वर्तमान को सटीक जगह रखती है. इसी तरह से फ़िल्म के संवादों को भी बेहद बारीकी से लिखा गया है. एक सजग दर्शक को इसके कलाकारों की संवाद अदायगी भरपूर मनोरंजन देती है.

आज जब देश में कठुआ और मंदसौर जैसे हादसों का सामान्यीकरण होता जा रहा है, राजनैतिक आलोचनाओं को साजिश और अनुशासनहीनता के आरोप में खारिज किया जा रहा है, हिंसक मानसिकता से भरा एक बेरोजगार युवा वर्ग तैयार हो रहा, ऐसे में निर्देशक उन युवाओं से फ़िल्म में ”हम क्या मांगे? आजादी” के नारे लगवाते हुए एक गहरा विरोधाभास पैदा करने की कोशिश करता है. ऐसे अंतर्विरोधी दृश्यों की फिल्म में प्रचुरता है.

पूरी फिल्म दर्शकों को आए दिन बनने वाली सुर्खियों के साथ जोड़ने वाली है. ड्राईंग रूम में होने वाली टीवी डिबेट को फिल्म के स्क्रिप्ट में भरपूर जगह दी गई है. कह सकते हैं कि फिल्म राजनैतिक और सामाजिक विषमताओं का कलात्मक गठजोड़ है.

पंकज त्रिपाठी का अभिनय सधा हुआ मनोरंजन परोसने वाला है. वहीं राजकुमार राव का अभिनय परंपरागत भारतीय फिल्मों की तरह है. श्रद्धा कपूर के साथ उनकी अंतरंगता का एक दृश्य बेहद नयापन लिए हुए है. दर्जी नायक का अपनी नायिका के शरीर मापन के क्रम में बिना अश्लील होते हुए निर्देशक एक खूबसूरत रीतिकालीन कविता रचने में सफल हुआ है. शेष सभी कलाकार कैमरे और संवाद के कारण ही थोड़ा बहुत गुदगुदाते हैं. अभिनेताओं की ठीक-ठाक तादाद के बीच विजय राज का “इमरजेंसी अभी खत्म नहीं हुई क्या?” वाला संवाद, इस फिल्म के माध्यम से तत्कालीन अतिक्रमणों का भयावह संबोधन है.

मौलक भारतीय फिल्म होने के कारण इस फिल्म को देखा जाना चाहिए. आयातित तकनीक के अलावा सबकुछ देशी है. स्त्री को रक्षक बताने वाली भारतीयता को फिल्म में मिथकों के हवाले करके निर्देशक चतुराई भरा संदेश देने में सफल हुआ है.

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