काला फिल्मी क्रांति का प्रतीक है. यह भारतीय फिल्म उद्योग के लिए बदलाव का मोड़ साबित हो सकती है.
हमने कितनी बार आम्बेडकर और बुद्ध के अनुयायियों को बड़े परदे पर एक शक्तिशाली ब्राह्मण पात्र को आड़े हाथों लेते देखा है? शायद कभी नहीं. भारतीय सिनेमा उन तमाम स्थानों में से एक है जहां जाति व्यवस्था की ‘पवित्रता’ अभी भी सुरक्षित बची हुई है. भारत की फिल्मों में इस नियम का बहुत समर्पित ढंग से पालन किया जाता है.
हीरो आम तौर पर “ऊंची जाति” का होता है जबकि खलनायक “निचली जाति” से. ‘द हिंदू’ नामक अखबार द्वारा किये भारतीय फिल्मों के एक हालिया अध्ययन से इस अभ्यास की पुष्टि हुई थी. दो वर्षों में जारी लगभग 300 बॉलीवुड फिल्मों के अध्ययन के बाद ये पाया की इनमें से केवल छह प्रमुख पात्र पिछड़ी जाति के थे.
निर्देशक पी रंजीत की फिल्म ‘काला’ उस धारणा को ध्वस्त कर देती है. यहां ‘काला’ (एक अस्पृश्य) अपने भूमि अधिकारों की रक्षा के लिए एक शक्तिशाली बुरे आदमी हरिदास अभयंकर (ब्राह्मण) के साथ लड़ने के लिए तैयार होता दिखाई देता है.
एक अछूत नेता बनाम एक ब्राह्मण विनाशक. एक अनसुनी कहानी
हरिदास (नाना पाटेकर) पुनर्विकास की आड़ में में मुंबई शहर के धारावी झुग्गी बस्ती पर कब्जा करना चाहता है. ‘काला’ इस चाल का जान की बाज़ी लगा कर विरोध करता है. सिर्फ इतना ही नहीं, निर्देशक रंजीत ने काला और हरिदास के किरदारों को काफी स्पष्ट तरके से अलग-अलग स्थापित किया है.
हरिदास राम की पूजा करता है जबकि काला बुद्ध की मूर्ति घर में रखता है है. हरिदास अपने हथियारों से प्यार करता है जबकि काला डॉ आम्बेडकर की किताबें पढ़ता है. हरिदास एससी/एसटी समुदायों के घरों को नष्ट करना चाहता है, जबकि काला अपने लोगों को शिक्षित होने और उत्पीड़न के खिलाफ लड़ने के लिए हमेशा कहता रहता है. हरिदास अपने रंग से प्यार करता है, और काला के नाम, रंग और जाति से वह इतनी घृणा करता है की वह ‘काला’ के घर का पानी भी नहीं पीना चाहता. दूसरी तरफ काला हरिदास और उसके भगवान को भी अपनी जमीन के अधिकार छीनने के लिए ललकारता है.
हरिदास और काला- जाति व्यवस्था के दो किनारों के बीच जारी संघर्ष के प्रतीक हैं जो फिल्मों में शायद ही कभी देखने को मिला है. फिल्म उद्योग के सभी मानदंडों को नष्ट करके, एक यथार्थवादी सामाजिक समीकरण जोड़ कर, पी रंजीत ने पूरे फिल्म उद्योग को बड़ा आईना दिखाया है.
हां, काला अनिवार्य रूप से एक बुरे राजनेता के खिलाफ एकजुट और विद्रोह करने वाले झुग्गी बस्तीवासियों की कहानी है. हिंदी फ़िल्म अंगार (1992) और दयावान (1988) में इससे पहले इसी तरह की साजिशें दिखायी गई हैं. असल में, फ़िल्म अंगार में, नाना पाटेकर ने हरिदास का रोल निभाया था जो झोपड़पट्टी हटाना चाहता है. धारावी पर बनाई गई फिल्मों में इसके पहले झोपड़पट्टी के निवासियों की सामाजिक पृष्ठभूमि को कभी भी हाइलाइट नहीं किया गया था.
लेकिन पी रंजीत बैकड्रॉप, रंग और चरित्र के नामों का उपयोग करके जाति, संस्कृति और त्वचा के रंग की जटिलताओं को एकसाथ बुनकर कहानी को प्रभावी और यथार्थवादी बनाते है.
एशिया की दूसरी सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती धारावी मुख्य रूप से अन्य राज्यों के प्रवासियों तथा बौद्ध, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और मुसलमानों की आबादी से भरी है. ‘काला’ इसे महात्मा फुले, डॉ अम्बेडकर की मूर्तियों तथा बुद्ध विहार की पृष्ठभूमि में चित्रित हुए दृश्यों से यह रेखांकित करती है.
इन्हीं महापुरुषों ने ब्राह्मण जाति व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया था. तमिलनाडु में जन्मे पेरियार ने अपनी पुस्तक ‘सच्ची रामायण’ में रावण सहित काले वर्ण के लोगों के चित्रीकरण पर सवाल उठाये थे. जब हरिदास रावण के साथ ‘काला’ की तुलना करता है, तो इसे आप पेरियार के विचारों से जोड़ सकते है.
‘काला’ फ़िल्म की काली अभिनेत्रियां जबरदस्त हैं
भारत जैसे सांवले रंग वाली आबादी से भरे देश में, काले रंग के खिलाफ घृणा और गोरे रंग के प्रति असीम प्रेम एक ऐसी पहेली है जिससे हमारी फिल्में भी बच नहीं पाई हैं. फिल्म उद्योग, विज्ञापन एजेंसियों और मैट्रीमोनियल पोर्टल ने काली सांवली त्वचा वाली महिलाओं को पहले से ही बदनाम कर रखा है.
दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग में भी काली और सांवली अभिनेत्रियों को कम जगह मिलती है. इन दिनों उत्तर भारत की कई अभिनेत्रियां दक्षिण भारतीय फिल्मों में नजर आती है जैसे काजल अग्रवाल, तमन्ना, राकुल प्रीत सिंह वगैरा. इन अभिनेत्रियों को नृत्य और अंग प्रदर्शन के सिवा गंभीर फिल्मों में तवज्जो नहीं मिलती.
‘काला’ इस धारणा को भी ध्वस्त कर देती है. सफ़ेद रंग के पीछे छिपी क्रूरता को उजागर करते हुए काले रंग में सम्मिलित प्रेम भाव को दर्शाती है. फिल्म का सिर्फ हीरो ही काला नहीं है, उसकी पत्नी (ईश्वरी राव) और नौजवान दलित लड़की (अंजलि पाटिल) भी काली है. दोनों को निर्देशक पी रंजीत ने काफी बड़ी भूमिकाएं दी हैं जिसे वे बहुत ही खूबी से निभाती हैं.
फिल्म बेहद समकालीन है और सभी हालिया राजनीतिक घटनाओं को चित्रित करती है- जैसे मौजूदा सरकार और उनके समर्थकों द्वारा अपने किसी भी विरोधी को देशद्रोही कहना, स्वच्छ भारत जैसे खोखले दावे करना और राजनेताओं द्वारा अपने फायदे के लिए हिन्दू बनाम मुस्लिम दंगा भड़काना इत्यादि. इतना ही नहीं विरोध दृश्यों के दौरान, निर्देशक रंजीत ने भीमा कोरेगांव में दलितों पर हुए हमलों के खिलाफ आंबेडकरवादी प्रदर्शनकारियों के मुंबई में हुए विरोध के वास्तविक दृश्यों का उपयोग किया है.
काला के जरिए पी रंजीत ने एक बिसरे हुए नायक डॉ आम्बेडकर को मुख्यधारा में लाने की कोशिश भी की है. अब तक, डॉ आम्बेडकर का चित्र फिल्मों में पुलिस स्टेशनों और अदालतों तक ही सीमित था, लेकिन अब यह भारतीय फिल्मों फैंड्री (2013), कबाली (2016) न्यूटन (2017) जैसे प्रमुख अभिनेताओं के संवादों और घरों में गूंज रहा है. ‘काला’ इसे एक नए मुकाम पर ले जाती है.
काला फिल्मों में क्रांति का प्रतीक है. यह भारतीय फिल्म उद्योग के लिए बदलाव का मोड़ साबित हो सकती है. इसमें हमेशा के लिए सिनेमा के सामाजिक ढांचे को बदलने की क्षमता है. पी रंजीत ने निश्चित रूप से भारतीय सिनेमा के जाति और रंग के प्रतिमान को पलट कर रख दिया है.