हल्के प्लॉट के बावजूद फिल्म में है नारीवादी अभिव्यक्ति

अलग-अलग सामाजिक, आर्थिक परिवेशों से आ रही महिलाएं अपनी स्थिति बेहतर करने, आजादी के विस्तार और ताकत के संतुलन का आंदोलन रोज़मर्रा की जिंदगी में लड़ रही हैं.

WrittenBy:Rohin Kumar
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वीरे दी वेडिंग का ट्रेलर रिलीज होने के बाद से ही फिल्म समीक्षकों और आलोचकों के निशाने पर है. ज्यादातर फिल्म समीक्षाओं और सोशल मीडिया की आलोचनाओं में कुछ मूल बातें हैं जैसे फिल्म में लड़कियां गाली दे रही हैं, सिगरेट और शराब में धुत हैं, बेहद अमीर घरों से ताल्लुक रखती हैं और सबसे ऊपर यह कि इस फिल्म में महिला किरदारों की मुख्य भूमिका के बावजूद कई आलोचक इसे नारीवाद का प्रतिनिधित्व करने वाली फिल्म नहीं मानते.

यह साफ है कि इस तरह के निष्कर्ष मध्यवर्गीय मानसिकता के आधार पर दिए जा रहे हैं. एक सामान्य भारतीय मध्यवर्गीय परिवार अभिजात्य परिवारों के रहन-सहन से नहीं जुड़ पाता. यह गैर-बराबरी पर आधारित समाज की सच्चाई है. विभिन्न सामाजिक व्यवस्थाओं में विचारधाराओं और धारणाओं का स्वरूप बदल जाता है.

गाली, गलौज, सिगरेट, शराब-पुरुषों की नकल

फिल्म में चारों लड़कियां शराब पीती हैं, धुम्रपान करती हैं. गाली गलौज करती है. यौन संबंध बनाने को कई दफे ‘लेना-देना’ कहकर संबोधित करती हैं. लंबे वक्त से समाज में जो हरकतें पुरुषों के हिस्से आती रही है उसमें अब महिलाओं ने दखल देना शुरू किया है, फिल्मों के माध्यम से ही सही. वीरे दी वेडिंग कुछ हद तक समाज में बदलती जेंडर रोल (लैंगिक भूमिका) का एक मॉडल पेश करती है.

चूंकि महिलाओं ने शराब और धुम्रपान से सहजता दिखाई है इसकी वजह से स्वास्थ्य संबंधी बहसें फिर से प्रमुखता में आ गई हैं. आलोचक महिलाओं के शराब पीने पर प्रश्न उठाते रहे हैं कि क्या पुरुषों की नकल करना ही नारीवाद है?

गालियों के संदर्भ में यह स्थापित तथ्य है कि जितनी भी गालियां प्रचलित हैं उनमें महिला के निजी अंगों ही निशाने पर होते हैं. वीरे दी वेडिंग की आलोचना में भी इन्हीं बातों को दोहराया गया है. पर क्या यह महत्वपूर्ण नहीं है कि महिलाएं, पुरुषों की नकल उतार पा रही हैं? बेशक इसकी अच्छाईयों और बुराईयों पर बहस की जा सकती है. अपने अच्छे और बुरे का फैसले लेने का अधिकार तो महिला को ही देना होगा न?

फिल्म में महिला किरदारों द्वारा गालियों के प्रयोग पर जिस तरह की प्रतिक्रिया हो रही है, वह महिला को ही महिला के खिलाफ खड़ा करती है. इसे एक उदाहरण से समझते हैं. “औरत ही औरत की दुश्मन है” यह बात हम सब अक्सर सुनते रहते हैं. कभी सास-बहु के झगड़ों में, कभी कार्यालय में दो महिला सहयोगियों के बीच तनातनी के संदर्भ मंड इस कथन का इस्तेमाल किया जाता है.

लेकिन इसके पीछे के समाजशास्त्र को समझने की कोशिश नहीं की जाती है- क्यों एक सास अपनी बहू को प्रताड़ित करती है, जबकि दोनों महिलाएं हैं? यह इसलिए होता है क्योंकि वह जीवन में पहली बार परिवार की शक्ति संरचना में एक दूसरे के विपरीत खड़ी होती हैं. सास को वह शक्ति अपने पति से मिलती है. वह शक्ति का प्रयोग करती है और महत्वपूर्ण और प्रभावशाली होने का एहसास करवाना चाहती है. वह शक्ति संरचना में अपने से नीचे वाले को नियंत्रित करने की कोशिश करती है.

एक मर्द को शराब पीने से जितनी स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां हो सकती हैं उतनी ही एक महिला को भी हो सकती है. शराब पीने और न पीने दोनों का चुनाव करने की स्वतंत्रता पुरुष को है. वह अपने विवेक से फैसले ले सकता है. क्या आलोचकों को यह भरोसा नहीं है कि ये चार महिलाएं अपने स्वास्थ्य संबंधी फैसले अपने विवेक से कर सकती हैं?

नारीवाद और वर्ग संघर्ष

फेसबुक पर एक महिला मित्र की टिप्पणी पढ़ रहा था, “वीरे दी वेडिंग जैसी फिल्में नारी संघर्षों को कमजोर करती है. नारीवाद महिला अधिकारों की लड़ाई है अय्याशी की नहीं.”

करीना कपूर (कालिंदी), सोनम कपूर (अवनी), शिखा तलसानिया (मीरा) और स्वरा भास्कर (साक्षी) चारों लड़कियों का खास चरित्र है. बेशक वे धनाढ्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं लेकिन चारों का व्यक्तित्व काफी अलग है. कालिंदी, ऋषभ (सुमित व्यास) से प्यार करती है पर शादी को लेकर दुविधा में रहती है. मीरा घर से अलग होकर विदेशी लड़के से शादी कर चुकी है. एक बच्चा भी है पर उसने बीते एक साल से यौन संबंध नहीं बनाया है, और उसके मन में इसकी कसक है.

सोनम कपूर को पसंद का लड़का नहीं मिल रहा लेकिन वह शादी करना चाहती हैं. वह अवनी के विवाह समारोह में किस के साथ यौन संबंध बना लेती हैं और यह वन नाइट अफेयर ही रहता है. दोनों पार्टनर इस बात को लेकर सहज रहते हैं. साक्षी ने बिना मां-बाप की सलाह के शादी रचाई और वह ज्यादा दिन तक नहीं चल सकी. अब वह तलाक लेने की कोशिश कर रही है.

वीरे दी वेडिंग की आलोचना किरदारों के वर्ग चरित्र (क्लास बिहेविअर) को लेकर हो रही है कि महिलाओं के ‘हाई क्लास’ जीवन शैली से नारीवाद की अवधारणा का क्या लेना-देना है? दरअसल यहां आलोचना एक खास वर्ग की महिलाओं के अपव्ययी रहन-सहन की हो रही है.

गौर कीजिए, महिलाएं सोशल मीडिया पर ब्रा, माहवारी, सेक्सुअलिटी जैसे विषयों पर खुद को अभिव्यक्त करने लगी है. ‘स्लट वॉक’, ‘नो ब्रा डे’, ‘हैप्पी टू ब्लीड’ जैसे कैंपेन होते रहते हैं. एक तरफ जहां इसे महिला सशक्तिकरण के टूल्स के तौर पर देखा गया वहीं दूसरी तरफ इसे अभिजात्य अभिव्यक्तियां कहकर खारिज करने के प्रयास भी किए गए. उन महिलाओं से कहा गया कि फेसबुकिया मुहिमों से ग्रामीण महिलाओं के जीवन पर कोई असर नहीं पड़ता है. ये सब सिर्फ़ सोशल मीडिया पर ध्यान आकर्षित करने के लिए किया जाता है.

समझने कि जरूरत यह है कि नारीवादी संघर्ष की कोई एक सीमित परिधि नहीं है. विभिन्न सामाजिक आर्थिक परिवेशों से आने वाली महिलाएं अपनी स्थितियां बेहतर करने, आजादी के विस्तार और शक्ति के हस्तांतरण का संघर्ष रोजमर्रा के जीवन कर रही हैं. नारीवाद समाज में पुरुषों और महिलाओं के राजनीतिक संबंधों की व्याख्या है. यह एक विशिष्ट समय और जगह पर पुरुषों और महिलाओं के संबंधों का सामाजशास्त्रीय विश्लेषण पेश करता है.

एक सामान्य वर्ग की महिला के लिए ‘लव मैरिज’ बड़ा संघर्ष हो सकता है जबकि बहुत संभव है कि उच्च वर्ग की महिला के लिए यह सामान्य बात हो. देश में आज भी ज्यादातर घरों में महिलाओं को नौकरी करने की छूट नहीं दी जाती और ऐसे भी कुछ उदाहरण हैं जहां वे कुशल नेतृत्व कर रही हैं. फिल्म में स्वरा भास्कर के किरदार को हस्तमैथुन करते दिखाया गया है जबकि आज भी महिलाओं की बड़ी आबादी का अपनी योनी पर अधिकार तक नहीं है, बिस्तर पर पति को ‘ना’ कहने की हिम्मत वे नहीं कर पातीं.

कहने का मतलब है नारीवाद का संघर्ष पितृसत्ता के नियंत्रण से बाहर आकर अपनी शर्तों पर जीवन जीने का है. जो महिला जिन भी पारिस्थितियों में है वह अपने हिस्से का संघर्ष करेगी. अभिव्यक्त करने के तरीके और माध्यम भी अलग हो सकते हैं. वीरे दी वेडिंग चार महिला मित्रों की एक ऐसी ही अभिव्यक्ति है.

नवउदारवादी नीतियों ने गैर-बराबरी पाटने के बजाय बढ़ाई ही है. जब बाज़ार का सक्रिय हस्तक्षेप और पूंजीवादी व्यवस्था हमारी आकांक्षाओं का जरिया बन चुका है फिर एक अभिजात्य वर्ग की महिला का विदेश में चार दोस्तों के साथ छुट्टियां मनाना, ब्रांडेड कपड़े पहनना और मंहगी गाड़ियों में घूमना स्वीकार्य क्यों नहीं है? अव्वल तो खुले बाज़ार की पहली शर्त ही है कि खूब कमाओ और खर्च करो!

किरदार ‘ऐब्सलूट’ नहीं

गाली देना, शराब पीना, स्लैंग (असंसदीय शब्द जो बोलचाल की भाषा में आम हो जाते हैं)- इसको अभिव्यक्त करने या न करने की स्वतंत्रता पहली बात है. दूसरी बात यह है कि क्या एक महिला केन्द्रित फिल्म किस तरह के विमर्श की जमीन तैयार कर रही है.

वीरे दी वेडिंग अभिजात्य महिलाओं के जीवन का प्रतिबिंब पेश करती है. इसकी तुलना ग्रामीण महिलाओं के संघर्षों से करना दोनों ही वर्गों के लिए बेमानी होगी. बाइनरी बनाकर देखने का मतलब नारी विमर्श को संकुचित करना होगा. फिल्म यह जरूर कोशिश कर सकती थी कि गालियों के वजूद को चुनौती देती. महिला अंगों पर केन्द्रित गालियों की प्रतिक्रिया में वैकल्पिक मुहावरे गढ़ती. इसमें कोई दो मत नहीं कि ऐसी प्रतिक्रिया की जबरदस्त आलोचना होती लेकिन यह प्रतिरोध और रोष प्रदर्शित करने का बोल्ड तरीका हो सकता था. जबकि हुआ क्या कि किरदारों ने गालियों को आत्मसात किया और इसके विपरीत शक्तिहीन वर्ग को निशाना बनाया.

फिल्म के एक सीन में महिला किरदार अपनी सहयोगी के लिए ‘रंडीरोना’ शब्द का प्रयोग करती है. क्या वेश्या का रोना सामान्य नहीं है? क्या रोने का अधिकार भी सबको नहीं है? रोने का मतलब शक्तिविहीन और दयनीय होना है? शायद स्क्रिप्ट राइटर यह भूल गए कि घरों से ही बच्चों के दिमाग में भरा जाता है- ‘औरत हो, जो रो रहे हो?’, ‘मर्द के सीने में दर्द नहीं होता’ और अब यही गलती निर्देशक द्वारा अभिजात्य महिला के किरदार से करवाया जा रहा है.

फेमिनिज्म नहीं है अपमानजनक शब्द

महिला अपने आप में एक वर्ग है. इस वर्ग के भीतर में अलग-अलग आइडेंटी है और इसका आधार जाति, वर्ग, आर्थिक स्थिति, किसी खास शक्ति संरचना में महिला का स्थान आदि हो सकता है. उनकी अपेक्षाएं और संघर्ष के तरीके और माध्यम भिन्न हो सकते हैं. नारीवाद एक साथ एक ही तीव्रता से हर जगह पूर्णकालिक विस्तार नहीं पाता है.

फिल्म में मुख्य भूमिका में महिला किरदारों के होने के बावजूद प्रेस कॉन्फ्रेंस में करीना कपूर ने बड़े गौरव से कहा कि वह फेमिनिस्ट नहीं हैं. नारीवाद की अवधारणा से खुद को अलग कहकर करीना कपूर ने साबित किया कि भारतीय अभिनेत्री स्क्रीन पर नारी मुक्ति की भूमिका निभाने के बावजूद मानसिक स्तर पर पितृसत्ता की जकड़ में हैं. अभिनेत्री वह कुबूल नहीं करना चाहती जो उसने स्क्रीन पर निभाया है.

कलाकारों की रियल और रील लाइफ के इस भेद पर 1984 में आई फिल्म पार्टी में ओम पुरी का डायलॉग याद आता है, जहां वे कहते हैं- “अगर कलाकार राजनीतिक रूप से प्रतिबद्ध नहीं है तो उसकी कला किसी काम की नहीं है.”

यह भी मजेदार संयोग है कि फिल्म की अभिनेत्रियां और आलोचक दोनों फिल्म के संदर्भ में फेमिनिज्म से दूरी बनाते हैं. करीना को लगता है पुरुष और महिलाओं की बराबरी की बात होनी चाहिए. नारीवाद का अर्थ यह नहीं है कि सिर्फ़ पुरुषों को कोसते रहें. वहीं आलोचकों को लगता है फिल्म की ये चार लड़कियां बड़ी आबादी में महिलाओं का कोई नेतृत्व नहीं करती.

ऐसा इसलिए भी है क्योंकि दोनों ही तरफ नारीवाद की समझ सोशल मीडिया की बहसों से निर्मित हुई है. पितृसत्ता और मर्दवादी समाज में महिला की बुनियाद सशक्त करने, उसे बंदिशों से मुक्त करने, उसे अपनी यौनिकता को अभिव्यक्त करने, समाज में जेंडर रोल चेंज करने, गे रिलेशनशिप, फीमेल मास्टरबेशन आदि का चित्रण भी नारीवाद की संघर्ष यात्रा में ही गिना जाएगा.

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