2019 का रंगमंच: नदारद मुसलमान और मुस्लिम प्रतिनिधित्व

सेक्युलरिज्म बनाम कम्युनलिज्म के संघर्ष में हमेशा सेक्युलरिज्म के साथ खड़ा मुसलमान अंतत: सॉफ्ट हिंदुत्व का धोखा खाने को मजबूर है.

WrittenBy:सादिक़ ज़फ़र
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कर्नाटक में एचडी कुमारस्वामी का शपथ ग्रहण का स्टेज सजा था. अधिकतर समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले चेहरे खिले खिले नज़र आ रहे थे. ख़ुद के सेक्युलर होने का दावा करने वाले तमाम दलों के मुखिया लोगों की भीड़ थी पर जुम्मन मियां परेशान थे. क्यों? शायद इसलिए कि उनको अपनी पहचान जिनमें दिखती है उनमें से एक भी चहरा मंच पर नहीं था. आ जाते तो शायद मंच साम्प्रदायिक हो जाता, जैसा कि पिछले कुछ चुनावों से सुनने पढ़ने को मिल रहा है.

कुछ आंखें ओवैसी को ढूंढती रहीं, कुछ बदरुद्दीन अजमल को और कुछ उमर अब्दुल्ला को. पर हैरत की बात ये है कि मंच पर तो ग़ुलाम नबी आज़ाद साहब भी नज़र नहीं आये. सवाल इसलिए भी गंभीर हो जाता है क्योंकि राज बब्बर का ट्वीट इस मंच की तस्वीर को 2019 की आदर्श तस्वीर बताता है. तो क्या 2019 के लिए तैयार हो रही इस तस्वीर में मुस्लिम प्रतिनिधित्व नहीं होगा, कम से कम कांग्रेस की कार्यशैली और बयानों से तो ऐसा ही लगता है कि मुसलमान 2019 के लिए तैयार हो रहे भारतीय राजनीति के इस मंच के लिए अछूत हैं.

कर्नाटक प्रकरण में जनता दल (सेक्युलर) को दोष देने वाले ओवैसी और मायावती को भाजपा का एजेंट बताते थे और अब लोकसभा चुनाव के लिए एक महागठबंधन की बात पर ज़ोर दे रहे हैं. महागठबंधन बनने से क्षेत्रीय राजनीति कहीं न कहीं ज़रूर कमज़ोर हो जाएगी, वो राजनीती जो ज़मीनी मुद्दों पर जनता के बीच होती है, जिससे जनता जुड़ी रहती है. महागठबंधन से सत्ता परिवर्तन का काम तो हो सकता है पर ज़मीनी सतह पे क्रान्ति की उम्मीद नहीं है.

कर्नाटक प्रकरण ने साफ़ कर दिया है कि क्षेत्रिय राजनीतिक दलों की आवश्यकता क्या है और दिल्ली से दूरी साफ़ तौर पर बता भी दी है. ठीक उसी तरह जिस तरह से उत्तर प्रदेश के गोरखपुर उपचुनाव ने साफ़ कर दिया था कि क्षेत्रिय राजनीतिक दल जब मिलते हैं तो उनके साथ उस क्षेत्र का जातीय समीकरण भी होता है जो जातिवाद की मार झेल रहे समाज में किसी भी धार्मिक मुद्दे से बहुत ज्यादा मायने रखता है.

2014 के चुनाव के लिए दल बदलने वाले नेता सेक्युलर दलों को छोड़कर भाजपा में शामिल हुए और राष्ट्रवाद के धुंए में चुनाव जीत भी गए. महागठबंधन बनने से वो अपनी मौजूदा छवि के ऊपर एक बार फिर से सेक्युलरिज़्म का लबादा ओढ़ लेंगे और जनता की मजबूरी होगी ऐसे चेहरे बदलने वाले नेताओं को फिर से वोट देना. जो लोग इधर से उधर गए थे वो उधर से इधर आ जाएंगे और फिर से सांसद हो जाएंगे, जनता वहीं की वहीं रहेगी.

यह बात बहुत साफ़ तौर पर समझने की ज़रूरत है कि ऐसे गठबंधन से मुसलमान भारतीय राजनीति में अछूत हो जाएंगे. ‘राइट वर्सेज रेस्ट’ के इस मुकाबले में हिन्दुवादी होने की होड़ रहेगी, यह बात जानते हुए कि भाजपा की छवि मुस्लिम विरोधी है. ऐसे में मुसलमान ना चाहते हुए भी दूसरे गुट के साथ ही खड़ा रहेगा और फिर कोई भी दल मुस्लिम मुद्दों की न तो बात करेगा ना ही अपना समय और अपनी हिंदूवादी छवि ख़राब करेगा.

तो मुसलमान, मुस्लिम मुद्दे और मुस्लिम राजनीति जो कहीं ना कहीं क्षेत्रिय राजनीति में अपनी जगह बनाये हुए है, ऐसे महागठबंधन के निर्माण इन सबके तमाम दर बंद हो जाएंगे और मुसलमानों के हित की बात करने वाले चेहरे ख़ामोश कर दिए जाएंगे.

भाजपा का दलितों के साथ भोज और दलित प्रेम देख कर सेक्युलर दलों में खलबली मची हुई है. ऐसा होना लाजिम है क्योंकि 2014 में और उत्तर प्रदेश में 2017 में दलित हिन्दू होने का मज़ा पा चुका है.

इसी तरह पिछड़ा वर्ग जिस प्रकार भाजपा के साथ 2014 से 2017 तक होने वाले चुनावों में लामबंद हुआ वो भी इन सेक्युलर दलों के लिए चिंताजनक है. ऐसे में मुसलमानों की गिनती कहां आती है किसी को नहीं मालूम. वैसे भी जो काम आज महागठबंधन के माध्यम से होने का दावा किया जा रहा है, सांप्रादियक ताक़तों को रोकने और भाजपा को सत्ता से दूर रखने का, मुसलमान ने बाबरी प्रकरण के बाद से ही उसी आधार पर वोटिंग की है. इसके बावजूद मुसलमान मतदाताओं कि इस सूझबूझ को कभी सराहा नहीं गया.

ये सेक्युलरिज्म के झंडाबरदार नेताओं का एक चेहरा है, जो सांप्रदायिकता को रोकने के नाम पर मुसलमानों का वोट तो लेते आए हैं लेकिन उसका नेतृत्व हर कीमत पर अपने हाथों में ही रखने की इच्छा रखते हैं. और मौके-बेमौके सेक्युलरिज्म के यही झंडाबरदार सॉफ्ट हिंदुत्व के आंचल में लोटने लगते हैं.

मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की शैली और भाषा दोनों उसी राजनीति का संकेत दे रहे हैं जिसकी तर्ज़ पर भाजपा सत्ता में आयी है. गुजरात से लेकर कर्नाटक तक के चुनाव में राहुल गांधी का मिस्र के मुस्लिम ब्रदरहुड पर निशाना हो, सलमान खुर्शीद का एएमयू का बयान हो कि कांग्रेस के हाथ मुसलमानों के खून से रंगे हुए हैं या फिर सोनिया गांधी का पार्टी की मुस्लिम छवि और झुकाव को लेकर बयान, कांग्रेस ने साफ़ कर दिया है कि वो कैसी राजनीति आगे करने वाली है.

इन तमाम बातों के बाद भी येदियुरप्पा के इस्तीफ़े के बाद ट्विटर-फ़ेसबुक पर मुसलमानों के उत्साह ने ये खुले तौर पर एलान कर दिया है कि मुसलमान मतदाता दोनों पक्ष के मुक़ाबले में किसके साथ खड़ा है.

हाल ही में दुनिया छोड़ गए जस्टिस रजिंदर सच्चर साहब की रिपोर्ट, जिसे सच्चर कमेटी रिपोर्ट कहते हैं, में मुसलमानों की राजनितिक, आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक बदहाली का वर्णन है. उस रिपोर्ट पर काम ना करना भी उस समय की कांग्रेस सरकार की मजबूरी ही रही होगी.

सत्ता में बैठ कर विकास के कार्यों से पीछे हटने वाली पार्टी आज विपक्ष में होकर मुस्लिम मुद्दों की बात क्यों ही करेगी, हां इल्ज़ाम ज़रूर है कि कांग्रेस मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति करती है. स्कूलों और कॉलेजों में मुसलमानों की गिरती हुई संख्या और जेलों और क़ैदख़ानों में बढ़ते मुस्लिमों के आंकड़े शायद किसी तुष्टिकरण की राजनीति का ही नतीजा हैं.

मुसलमानों से दूरी बनाने के इस पूरे खेल में किसके लिए क्या सन्देश है, ये तो नहीं मालूम लेकिन ये ज़रूर कहा जाता है कि संघ जिसको सपोर्ट करता है, कारपोरेट लॉबी उसी को प्रमोट करती है. एक व्यक्ति पर केन्द्रित दल से कारपोरेट डील आसान होती है. फिर मीडिया का एक सेक्शन छवि बनाने और बिगाड़ने के काम में लग जाता है.

कांग्रेस के लिए इस बात को ख़ुद सलमान खुर्शीद ने कहा था कि हमारे साथ अच्छे संघी हैं. इसीलिए शायद कांग्रेस अपनी हिंदूवादी छवि बनाने की पूरी कोशिश में लगी हुई है जो कि महागठबंधन का प्रमुख दल होगी. कांग्रेस महागठबंधन से हटकर कोई सेक्युलर फ्रंट बनता है तो उस पर भाजपा एजेंट होने का इलज़ाम तो लगेगा पर कर्नाटक प्रकरण ने साफ़ कर दिया कि भाजपा को रोकने के लिए ही सही ऐसे फ्रंट की भारतीय राजनीति के इस मोड़ पर ज़रुरत और अहमियत क्या है.

इन तमाम राजनीतिक पहलुओं से हटकर अगर सामाजिक सरोकार को ध्यान में रखते हुए बात करें तो ग़रीबी, भुखमरी और सरकारी शिक्षा-चिकित्सा कारपोरेट के रूचि की चीज़ें हैं नहीं, तो सरकारें आती जाती रहेंगी लेकिन ज़मीन पर हालात बदलने की कोई उम्मीद नज़र नहीं आती.

महागठबंधन के लिए जो माहौल बनाया जा रहा है, उसे देखते हुए, गौरक्षा के नाम पर मुसलमानों पर हमले, इंडियन मुजाहिदीन के नाम पर झूठे मामलों में जेलों में बंद बेगुनाह मुसलमानों की ज़िन्दगियां ख़राब करने के बावजूद मुसलमान मतदाता के सामने अच्छे संघियों को चुनने की मजबूरी है. यही तो सलमान खुर्शीद कह रहे हैं.

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