इतने काबिल बनिए कि मोदीजी, सुधीर चौधरी की तरह आपको साक्षात्कार दे सकें

प्रधानमंत्री मोदीजी के साक्षात्कार का एक सकारात्मक विश्लेषण.

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प्रधानमंत्री का साक्षात्कार अपने आप में अहम होता है, ऊपर से यह नरेन्द्र मोदी का है तो यह सिर्फ ख़बर नहीं होकर राष्ट्रीय विमर्श में तब्दील हो जाता है.

वर्तमान प्रधानमंत्री की लोकतंत्र में निष्ठा से हम सभी वाकिफ हैं. हर बात मज़ाक नहीं होती और प्रधानमंत्री का इंटरव्यू तो कदापी नहीं, इसलिए इस लेख की पहली शर्त है कि गंभीरता बनाए रखें और इस पंक्ति को व्यंग्य न समझें.

बीते दो दिनों से राष्ट्रीय विमर्श का केंद्र बना हुआ है प्रधानमंत्री का सुधीर चौधरी को दिया गया साक्षात्कार. मैं मीडिया को चौथा खंभा बताकर अपनी बात शुरू नहीं करना चाहता. हमारे लिए खंभा एक ही होता है. खैर आज मैं उस खंभे की चर्चा नहीं करूंगा, करना ही होगा तो आज खंभे के संगी-साथी “पकौड़े” की करूंगा. लेकिन बाद में.

तो प्रधानमंत्रीजी ने पद ग्रहण करने के बाद अभी तक सिर्फ 3 साक्षात्कार दिए हैं. यहां स्पष्ट कर दूं मैं उन्हीं तीन को जानता हूं जो ऑन एयर टीवी पर दिखाया गया. प्रिंट या पर्दे के पीछे पत्रकारों के निजी साक्षात्कारों की गिनती नहीं की जा सकी है. और हां प्रधानमंत्रीजी ने अबतक कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस भी नहीं की है.

अपना मत सिर्फ एक ही है कि प्रधानमंत्री का साक्षात्कार करने का अवसर मिलना किसी भी पत्रकार की उपलब्धि होती है. इसके दो कारण होते हैं. एक पत्रकारीय कारण, मतलब देशभर में जनता की आवाज का प्रतिनिधि बनकर सवाल करना. दूसरा, कि एक पत्रकार प्रधानमंत्री का साक्षात्कार लेकर हमेशा के लिए इतिहास का हिस्सा बन जाता है. आने वाले समय के पत्रकारों के लिए आदर्श बनने का अवसर होता है. रिटायरमेंट के दिनों में नाती-पोतों को सुनाने के लिए कहानियों का एक भंडार भी तैयार होता रहता है.

हमारे देश में यह सौभाग्य कम ही पत्रकारों को प्राप्त हो सका है. मीडिया के गलियारों में पत्रकारों और राजनेताओं के रिश्तों के किस्से बहुत आम हैं. फिल्मसिटी में गलीच किस्से भी प्रचलित हैं. लेकिन नब्बे के दशक के अंत तक आते-आते हमारे राजनेताओं ने पत्रकारों के साथ बातचीत सीमित कर दी. प्रेस कॉन्फ्रेंस और साक्षात्कार बेहद कम कर दिए हैं. कभी हुआ भी तो पहले से ही मामला सेट रहा. आज मोदीजी को ललकारने वाली कांग्रेस भी अपने समय पर पत्रकारों के सवालों से बचती ही रही.

ऐसे में ज़ी के संपादक सुधीर चौधरी को यह अवसर प्राप्त होना उनके पत्रकारीय (उन पर चल रहे 100 करोड़ की उगाही के मामले में हम कोई टिप्पणी नहीं कर सकते क्योंकि मामला सबज्यूडिस है) करियर के बड़े लम्हों में से एक था. हमारा मत है कि उन्होंने इस लम्हे का न्यायोचित इस्तेमाल किया. कुछ अहम सवालों पर नजर डालिए:

अर्थव्यवस्था के बारे में प्रधानमंत्री सवाल पूछते हुये सुधीर कहते हैं:

मोदीजी आपके सत्ता में आने के बाद हर तीन महीने में आने वाले जीडीपी ग्रोथ के आंकड़ों के आधार पर आपको सूली पर लटकाया जाता है. जबकी 2014 से पहले जनता या आम लोगों को जीडीपी की जानकारी तक नहीं होती थी?

मोदी जी जवाब देते हुये कहते हैं:

मेरे आने के बाद से व्यवस्था में परिवर्तन हुआ है, लोग बात करने लगे हैं. लोकतंत्र में आलोचना बहुत जरूरी है जो होनी ही चाहिए.

बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं- आलोचना आरोप में बदल गई है. उनके आने के बाद तो सिर्फ आरोप ही लगाये जाते हैं.

सुधीर ने आर्थिक सुधारों को लेकर सवाल पूछा:

आपके दिमाग में चुनावों का ख्याल नहीं आया कि सरकार के इन फैसलों से बीजेपी हार सकती है? नोटबंदी के बाद उत्तर प्रदेश और जीएसटी लागू करने के बाद गुजरात के अहम चुनाव हुए.

मोदी जी ने सवाल का जवाब दिया:

पहले की सरकारें अगले चुनाव के लिए सरकार चलाते थे लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचता. देश के विकास पर मेरा ध्यान होता है और सम्पूर्ण जीवन देशहित के लिए है.

इन पंक्तियों को सुनकर मैं भावुक हो गया. भावुक होने का हक सबको है. खुद प्रधानमंत्रीजी भी भावुक हो चुके हैं. अब तो हिंदू हृदय सम्राट प्रवीण तोगड़िया भी भावुक हो चुके हैं. बस एक ही सवाल मेरे मन में अटक गया, अगर 2014 के बाद लोगों ने जीडीपी बोलना सीखा तो हम अपने बचपन से नागरिक शास्त्र में जो सकल घरेलू उत्पाद रटते आए थे, वो क्या था? यहीं से मेरा कबीर में भरोसा और मजबूत हुआ कि “पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, जीडीपी जाना न कोऊ”.

खैर सुधीर ने भी मोदीजी के जवाब से अपनी सहमति जाहिर की.

सुधीर अगला सवाल विदेशनीति पर रहा:

मोदीजी आपके आने से पहले विदेश नीति महज डिप्लोमैटिक एक्सरसाइज़ होती थी. आपने पड़ोस में संबंध बना लिए, विदेशी मंचों पर जाकर फोटो सेशन में भाग लेकर वापस आ गये. पहले विदेशनीति का मतलब इतना ही समझा जाता था लेकिन आपके आने के बाद इसमें बदलाव आया है. आपके यूनिक स्टाइल के बाद इसमें बदलाव आए हैं.

यहां पर वीडियो प्रॉडक्शन टीम से एक गलती हो गई. सुधीर की कुर्सी को मोदीजी के सामने से हटाकर उनके बाएं तरफ लगानी थी. खैर इतने बड़े इंटरव्यू के दौरान नर्वसनेस में ये गलती हो गई होगी.

बाकी यह बात तो सच ही है कि मोदीजी के पहले भारत की विदेश नीति नहीं थी. वह झप्पियों-पप्पियों वाली ट्रिप हुआ करती थी!

इंटरव्यू के इस मुकाम पर बारहवीं में पढ़ा वो पाठ याद आ गया कि भारत की विदेश नीति की नींव प्रथम प्रधानमंत्री ने रखी थी. भारत की आजादी के बाद जब दुनिया दो शक्तियों में बंटी थी तब भारत ने गुटनिरपेक्षता का रास्ता अपनाया था. तब भारत का प्रधानमंत्री कौन था, नाम बताकर मैं कांग्रेसी और देशद्रोही नहीं होना चाहता.

साल 2015 में जाकर, व्हाट्सअप का आविष्कार के कुछ सालों बाद सच्चाई सामने आई कि जो पढ़ाई हमने स्कूल में की थी वह वामपंथियों की साजिश थी. वैसे भी फिल्मसिटी में अगर प्रबंधकों को मालूम चल गया कि मैं नेहरू की बात कर रहा हूं तो मेरी सीवी को कोई हाथ भी नहीं लगाएगा. और मेको तो पकौड़े भी बनाने नहीं आते! बेरोजगारी का विराट सागर मेरे सामने हिलोरे ले रहा है, अपने आगोश में खींचना चाह रहा है.

सुधीरजी ने बात को आगे बढ़ाया, बात विश्व के तीन आला तीन नेताओं के संदर्भ में थी जिसे “पीटीएम” के एक्रोनिम से पेश किया गया. पीटीएम का फुल फॉर्म आगामी एसएससी, रेलवे, बैंक पीओ की तैयारी करने वालों के काम आएगा. ध्यान दें, पी मने पुतिन, टी मने ट्रंप और एम मने मोदी.

लेकिन यहां पर सुधीरजी से मेरी असहमति है. मोदी जी पीटीएम में पीछे क्यों, पहले क्यों नहीं. मेरी मांग है कि इसको एमपीटी किया जाए या कम से कम बीच में करके पीएमटी कर दिया जाय, मेडिकल के बच्चों को आसानी हो जाएगी.

पूरे इंटरव्यू का वह दृश्य मेरे मन में बैठ गया. सिर्फ उस दृश्य के लिए मैं पूरा इंटरव्यू बार-बार देखना चाहूंगा जहां डोकलाम पर आंख उठाने वाले चीन को सुधीरजी ने अपने अंदाज में मुंहतोड़ जबाव दे दिया है! मुझे बार-बार गदर फिल्म के सनी देओल की याद आती रही. “तुम वीजा नहीं दोगे तो क्या तारा सिंह पाकिस्तान नहीं जाएगा?”

अगला सवाल, अर्थव्यवस्था पर:

मोदीजी ने कहा- “आज भारत का सम्मान पूरे विश्व में बढ़ रहा है. भारत एक बड़ा बाजार है यही कारण है कि पूरे विश्व के लिए आकर्षण का केन्द्र है और इसी कारण सम्मान की नजरों से देखा जाता है.”

मैं मोदीजी की इस राय से 1000 परसेंट सहमत हूं. एक किस्सा सुनिए- मैं डेढ़ साल पहले काठमांठू गया था. वहां भूंकप आया था. फ्रीलांस करता था तब. रिपोर्टिंग के लिए गया था. खुद को पत्रकार बताया तो लोगों ने चप्पल मारकर कहा, गो इंडिया, गो बैक. तब कांग्रेस की सरकार थी!

बाकी पूरा साक्षात्कार शिक्षा, रोजगार, खेती-किसानी, गरीबी जैसे अहम मुद्दों पर केंद्रित थी. चूंकि हमें फेसबुक पर लिबरल और वामपंथी (अपरोक्ष रूप से देशद्रोही) कहते हैं, कभी-कभार कांग्रेसी भी बता देते हैं. और आपको तो पता ही है कि ऐसे पत्रकारों के भीतर नकारात्मकता कूट-कूटकर भरी होती है. इसलिए हमने शिक्षा, रोजगार के बुनियादी सवालों का जिक्र करना उचित नहीं समझा!

साक्षात्कार के बाद लोगों ने करण थापर और विजय त्रिवेदी के पुराने, सड़े-गले इंटरव्यू, जो उन्होंने मोदीजी का किया था, निकालकर सुधीरजी को भला बुरा कहना शुरू कर दिया है. यह उचित नहीं है. जरूरी तो नहीं कि हर साक्षात्कार में मोदीजी असहज ही हो. क्या अनुभव से व्यक्ति सवाल और जबाव तय नहीं कर सकता? सॉरी मेरा मतलब जबाव.

एक अंतिम बात. पकौड़ों वाले रोजगार पर बहुत शोर हो रहा है. हम जैसे लौंडों के पास रोजगार से जुड़े एक से ब़कर एक किस्से हैं. एक मांगो, दस पेश हैं. किस्सा यूं है-

एक बार प्रसिद्ध मार्क्सवादी नेता सुरजीत सिंह ने अटल बिहारी की सरकार पर देश में रोजगार पैदा न कर पाने को लेकर हमला किया. इस सवाल का जवाब देते हुए अटलजी ने कहा, “सरकार के पास सीमित संसाधन होते हैं जिस कारण सभी को सरकारी रोजगार उपलब्ध नहीं कराया जा सकता. युवाओं को चाहिए कि वे अपने स्तर पर प्रयास करें और नौकरी लेने की बजाय देने पर फोकस करें.”

अटलजी के इस जवाब के बाद सुरजीत सिंह ने कहा कि सरकार स्वीकार करे कि वे रोजगार देने में नाकाम रही है और नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे.

अटलजी लंबी चुप्पी साध गए. संदेश यह था कि नैतिकता के आधार पर इस्तीफे के दिन लद गए कॉमरेड, कौन सी दुनिया में जी रहे हो.

खैर ये सब पुरानी बात है.

हमारे प्रधानमंत्री अब दावोस में हैं. अब वहां डंका बजेगा. जिन पत्रकारों को प्रधानमंत्री का साक्षात्कार नहीं मिल सका है उन्हें और मेहनत करनी चाहिए और ऐसे स्तर को छू लेना चाहिए कि अगले बार आपको साक्षात्कार के लिए चुन लिया जाए. इंटरव्यू की पात्रता के पैमाने तो सबको पता हैं ही.

तबतक के लिए,

जलने वाले जलते रहें, सुधीर चौधरी बढ़ते रहें.

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