लिंचिस्तान: दुनिया के 196वें देश की खोज हो चुकी है!

एक ऐसे देश की कल्पना जो रक्तरंजित है, जिसकी वजूद ही नफ़रत की बुनियाद पर टिकी है.

WrittenBy:चन्दन पांडेय
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इस बीच दुनिया में एक नए देश की तलाश हुई है. सबने अपने ज़मीर और दूसरे मनुष्यों को मार कर इस देश का निर्माण किया है. आईये देखें कैसा है हत्यारों का यह राष्ट्र.

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लिंचिस्तान

लिंच अंग्रेज़ी का एक क्रिया पद है. शब्दकोष के अनुसार लिंच का अर्थ बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया के किसी समूह द्वारा हत्या करना होता है. इसका समरूप है, हैंग. हिंदी में इसे हत्या कहते हैं.

लिंचिस्तान आधिकारिक तौर पर विश्व के सभी देशों की सूची में एक सौ छियानबे के क्रम पर है. इसका नाम भी इसके गुणों के आधार पर पड़ा. जैसे जहां कज्जाक रहते हैं उसे कजाकिस्तान कहते हैं. जहां उज्बेक रहते हैं उसे उज्बेकिस्तान कहते हैं. वैसे ही जहां अपने ही पड़ोसी को लिंच करने वाले रहते हैं, अपने मजदूरों की हत्या करने वाले रहते हैं, उन हत्यारों के नाम पर रैली निकालने वाले रहते हैं, धर्मस्थल तोड़ने वाले रहते हैं, हत्यारों के लिए चन्दा इकट्ठा करने वाले रहते हैं, आईएसआईएस के समरूप कार्यशैली वाले आतंकी रहते हैं, उसे लिंचिस्तान का नाम दिया गया.

नामकरण इस कदर कठिन नहीं है कि आपको समझ न आए फिर भी अगर मुश्किल आ रही हो तो देशी उदाहरण से समझिए. जैसे राजस्थान के पर्यटन विज्ञापनों में सबके नाम के साथ स्थान लिख कर कहते हैं कि उनको राजस्थान ऐसे दिखा! जैसे आर्या को राजस्थान यों दिखा इसलिए इनके लिए वो हुआ– आर्यास्थान. मीरा के लिए– मीरास्थान. मतलब जिसको जो दिख जाए उसके अनुसार नाम.

मैं राजस्थान की बात नहीं करता, वो तो बस उदाहरण के लिए जिक्र किया, और ना ही उस हत्या की जो बीते दिनों हुई लेकिन अगर कोई भौगोलिक हिस्सा ऐसा हो जहां किसी मनुष्य को काट कर जिंदा जला दिया जाए, उसे लिंचिस्तान कहा जा सकता है.

लिंचिस्तान के राष्ट्रीय प्रतीक

राष्ट्रीय शर्म– तर्कशील मनुष्य / शिक्षित मनुष्य

राष्ट्र रत्न– हत्यारे

राष्ट्रीय भावना– आहत भावना

राष्ट्रीय खेल– नरमुंडों का फुटबॉल

राष्ट्रीय शौक– हत्या का वीडियो बनाना

राष्ट्रीय फूल– फूलों ने इस देश में बसने से इनकार कर दिया है

राष्ट्र चिन्ह– कुल्हाड़ी से कटे मनुष्य पर मिट्टी का तेल छिड़कता और माचिस की तीली फेंकता मनुष्य

राष्ट्रीय पशु– एक तेंदुए ने दावेदारी की थी लेकिन उसकी दावेदारी आदमखोर मनुष्य बर्दाश्त नहीं कर पाए और उसे मार डाला. (जब तक कोई नया जानवर नहीं मिल जाता तब तक इस प्रतीक की जिम्मेदारी आदमखोर मनुष्य ने उठा ली है).

राष्ट्रीय पक्षी– बगुले ने तेंदुए का हाल देख अपनी उम्मीदवारी खारिज कर दी है

राष्ट्रीय झंडा– एकरंगा

राष्ट्रीय दोषी– अल्पसंख्यक

राष्ट्रीय रोग– सामाजिक बंटवारे को छुपाना और उसे जायज ठहराना

राष्ट्रीय नदी– सामूहिक कल्पना में खून की नदी

राष्ट्रीय भय– प्रेम

राष्ट्रीय इच्छा– तानाशाही

राष्ट्रीय नीतिनियंता– कॉर्पोरेट्स

राष्ट्रीय वनस्पति– बेहया

राष्ट्रीय वैद्य– पहचान तो आप गए ही होंगे.

हम लिंचिस्तानी

नए दौर में लिखेंगे हम/
मिल कर नई कहानी.
हम लिंचिस्तानी.

लिंचिस्तान के विचारक

यह हंसने की बात नहीं कि लिंचिस्तान में विचारक भी रहते थे. वो विचारक सैंतालीस वर्षीय मक़तूल को, जो बाल-बच्चेदार आम मनुष्य था, लव-जिहाद से सिर्फ इसलिए जोड़ रहे थे क्योंकि हत्यारे ने ऐसा कहा था. वो विचारक, हत्यारे को आरोपी कहना पसंद करते थे.

लिंचिस्तान के नाट्य-सिद्धांत

लिंचिस्तान के नागरिक रक्तकला के प्रेमी थे. वो अपने नाटकों में उन कुल्हाड़ियों का प्रयोग करने लगे थे जो दशकों से उनके मन-मस्तिष्क में धारदार की जा रही थीं. लिंचिस्तान के नागरिक हत्या प्रेमी भी थे. वो जिंदा जलाने की उस कला को भूल नहीं पाए थे जिसे राममोहन ने बंद कराया था. वो पारंगत हत्यारे थे. गुस्से का खूब अभिनय करते थे. मित्रता धोखे के लिए तैयार किया गया संचित धन था और इसकी कला उन्हें बलि के लिए तैयार किए गए जीव संबंधित प्रथा से मिलती थी. पीछे से वार करना लिंचिस्तान के नागरिकों को घर-आंगन में सिखाया जाता था. और, हत्याओं की तार्किक व्याख्या भी वो अपने घर-आंगन में सीखते थे. इनके समर्थक थे. इनमें हत्याओं की परंपरा थी.

लिंचिस्तान में रोजगार

हत्याएं अहर्ता थीं. तेल कंपनी किरानी बाबू के पदों पर हत्यारों को रखती थी. साम्प्रदायिक और गौ आतंकियों को बोनस भी देती थी. हत्यारे इस उम्मीद से हत्याएं कर रहे थे कि जातिवादी, आतंकी, अधिकारी की निगाह उन पर पड़े और वो रोजगार पा जाएं. जब प्रतिस्पर्धा बढ़ी तो हत्या के पहले जिंदा जला देने को अहर्ता परीक्षा का दूसरा चरण बना दिया.

लिंचिस्तान का मानचित्र

रक्त ने स्याही का मसला हल कर दिया. कागज में छुपी परतों से कोई वास्ता लिंचिस्तानवासियों का नहीं था तो भी उन्होंने आड़ी-बेड़ी चिताएं सजाई और उन पर ही लकीरें डाल दी. किसी संस्कृति या किसी धर्म पर कब्जा करने को भी वो नक्शे में दिखा लेने के हुनरमंद थे. मानचित्र में उन्होंने स्थल को दो तरह से विभाजित कर रखा था. जो जमीनें उनके पुरुखों ने लूटी थीं उसे मक़तूल के जले माँस से दिखाते थे. जो जमीनें इन्होंने अपने निर्वीर्य पौरुष से लूटी थी उसके रेखांकन की खातिर वो पहले हत्या करते थे और फिर उसकी ठंढी राख से रेखाएं उकेरते थे. पानी इनके मन से सूख चुका था इसलिए नक्शे में भी पानी नहीं के बराबर दिखता है. फिर भी इनकी सभ्यता में यह धारणा है कि नक्शे में पानी टिकता तभी है जब उसकी लकीर अपने किसी परिजन की राख से खिंची हो. राख अगर नौजवान की हुई तो इनकी मान्यता में नदी अमर हो जाती है. लिंचिस्तान के निवासी बदलते मानचित्र के नुमाइंदे हैं.

लिंचिस्तान के जानवर

हिरण हैं. बूढ़ी गाएं हैं. बिल्लियां हैं. कुत्ते तो बहुतायत में हैं. सड़क पार करते हुए बाज दफ़ा हाथी भी दिख जाते हैं. बकरियां चरती हुई आगे की तरफ निकल गई हैं. पिछले महीने एक तेंदुआ गांव में घुस आया था. लोगों ने उसे मार दिया. उस तेंदुए के बाद आदमखोरों में बस मनुष्य बचे हैं.

लिंचिस्तान में अपराध

अपराधों की सरकारी सूची में चोरी पहले पायदान पर है. लिंचिस्तानियों की दिलचस्पी चोरों की सामूहिक पिटाई में इतनी अधिक रहती है कि सरकार ने भी इसे पहला अपराध घोषित कर दिया है. दूसरे पायदान के लिए रिश्वत अभी मौजूद है. यों तो लिंचिस्तान के अधिकृत निवासी रिश्वत को दूसरे दर्जे पर रखने का अभिनय करते हैं और रिश्वत से उनका दुःख इतना तगड़ा है रिश्वत लेते-देते वक्त भी वो इसके विरुद्ध बढ़िया वक्तव्य दे सकते हैं. किन्तु अंदरखाने की तैयारी यह है कि पढ़े-लिखे और तार्किक बात करने वालों को अपराध सूची के दूसरे दर्जे पर रख दिया जाए. इससे हत्याओं में रियायत मिल जाया करेगी.

हत्याएं अपराधों की सूची में शामिल हैं लेकिन समाज में हत्यारों को मिलते एहतेराम को देखकर सरकार बहादुर ने अगले संसोधन में इसे अपराध सूची से बाहर रखने का मसौदा तैयार कर लिया है. एक वक्त आएगा जब हत्याएं, जघन्य चाहें जितनी हों, अपराध नहीं रहेंगी. साम्प्रदायिक और जाति के नाम पर हत्या करने वालों को पेंशन दी जाए या नहीं, इस पर विमर्श करने के लिए एक सिफारिश कमिटी बनी है.

अपवाद की बात अलग है लेकिन ऐसा भी नहीं कि लिंचिस्तान में हर हत्यारा प्रधान बन जाए. हत्यारे हद से हद मुख्यमंत्री या मंत्री बन पाते हैं. ज्यादातर हत्यारे जातिगत हैसियत के मुताबिक ठेकेदार या कंपनी के मालिक या कंपनी में कोई प्रबंधक बन पाते हैं. अन्य सभी रोजगार में हत्याओं की इच्छा वाले ही पहुंच पाते हैं.

जब तक हत्या, अपराध सूची से बाहर नहीं होती और तार्किक जीवन शैली अपराध घोषित नहीं हो जाती तब तक आप कैदखानों की आबादी पर नजर डालें. भरे पूरे क़ैदखाने इस बात का द्योतक हैं कि न सही सारे किन्तु दो-चार प्रतिशत अपराधी तो इन क़ैदखानों में बंद हैं.

लिंचिस्तानी नागरिकों का भय

थे तो वे आदमखोर लेकिन उनके अपने शब्दकोष में उन्होंने खुद के लिए नागरिक की संज्ञा दे रखी थी.

जब उन्हें लगा कि शंभूत आदमखोर (श.आ.) पर पूरी दुनिया थूक रही है तो उन्हें बेहद दुःख हुआ. उनका निर्दोष कहना यह था कि ऐसा क्या हो गया जो शं.आ. ने एक आदमी को कुल्हाड़ी से काट दिया, ऐसा कौन सा पहाड़ टूट पड़ा जो उसने जिंदा ही एक मनुष्य जला दिया. उन्हें पुलिस पर गुस्सा था कि दिखावे के लिए भी क्यों श.आ. को पकड़ा गया. आदमखोरों का यह भय दिलचस्प था.

श.आ. के जेल जाने से ये सब दुखी हो गए. एक वकील इसका मुकदमा मुफ्त ही में लड़ने के लिए तैयार हो गया. श.आ. को शूरवीर की उपाधि और लिंचिस्तान रत्न से नवाजने की तैयारियां देखने लायक थीं.

सबसे अहम यह था कि श.आ. की पत्नी के बचत खाते में इन सबने पैसे जमा कराए. उन्हें भय था कि झूठ-मूठ की जेल से भविष्य के आदमखोर कहीं अपना इरादा न बदल लें.

लिंचिस्तान के दंगा-पसंद

लिंचिस्तानियों के दंगा पुराण में पृष्ठ संख्या ‘माईनस एक सौ चौसठ’ पर लिखा है कि जनता बेहद अमन चैन से रहती है फिर एक दिन कोई नेता आता है और वो दंगे भड़का देता है. उन्हें बलात्कार करना कोई नहीं सिखाता, मजलूमों से नफरत पालना कोई नहीं सिखाता, खाते पीते लोगों को टैक्स चोरी करना कोई नहीं सिखाता, ये सब स्वतः हो जाता है लेकिन दंगे फसाद सिखाने के लिए एक नेता होता है.

अपने मन में छुपी घृणा को, जिसे फैलाने में हजारो लाखों लोग लगे होते थे और जो घृणा शुद्ध मुनाफे के आंकड़ों से संचालित थी, नेता के जामे का नाम देना दरअसल सबके मन में जमे कूड़े के ढेर को नाम देना था. उस कूड़े को नष्ट करने के बजाय सब ढो रहे थे ताकि अन्त में ये सभी लोग अपने अपराधों को उस पर थोप कर बरी हो सके.

यह महज संयोग था लेकिन अक्सर यही हुआ कि जैसे ही जाति आधारित उत्पीड़न के विरुद्ध कोई आवाज उठती थी या जातिगत आंदोलनों में तेजी आती थी तो अनायास ही धार्मिक दंगे भड़क जाते थे. लोगों के पास आरोप डालने के लिए नेता होता था. नेता को बदले में एक पद चाहिए होता था.

बाद में वही नेता अपने पद पर बने रहने के लिए फसाद करवाता था.

लिंचिस्तानी लोककथा

लिंचिस्तान में एक पागल रहता था. महीने के बत्तीसवें दिन राजा उसे अपने महल बुलाता था. उसी दिन उसे पागलखाने से बाहर आने की अनुमति मिलती थी. एक ऐसे ही दिन, जब दिन में चाँद और तारे दिख रहे थे तब, राजा ने और उस पागल ने महल की अटारी से देखा, ज्यादातर लोग इस कल्पना से घायल हो रहे हैं कि जो आज कमजोर है अगर उसकी अगली पीढ़ी समर्थ हो गई तो जुल्म हो जाएगा. बहुत लोग इस चिंता में सूख कर काँटा हो गए हैं.

पागल से राजा ने पूछा: उपाय बताओ, गुरुदेव?

पागल ने राजा से कहा: हे राजन, उपाय तो खैर मुश्किल है. आपको एक भयभीत मनुष्य की कहानी सुनाता हूँ. वह भयभीत मनुष्य सपने देखता था कि अगले जन्म में वो कुत्ता बनेगा. उस सपने से वह इतना घबरा गया कि इसी जन्म से उसने भौंकने का रियाज शुरु कर दिया.

सरकार बनाने की लिंचिस्तानी प्रविधि

ताकि लिंचिस्तान के सरकारी खजाने का इस्तेमाल रिश्वत और कॉर्पोरेट्स फंडिंग के लिए हो सके इसलिए, बाकी खर्चों पर कटौती होने लगी जो व्यवसायियों को मुनाफा नहीं पहुँचाते थे. चुनाव उनमें से एक था.

चुनाव की जगह सर्वेक्षण होने लगे. शुरुआती सर्वेक्षणों में कंपनियाँ खर्च करती थी, सौ-सवा सौ लोगों से सवाल पूछे जाते और फिर देश भर का परिणाम घोषित हो जाता. बाद में यह नियम जरा बदला. तय हुआ कि एक आदमी कई मर्तबा सर्वे में भाग ले सकता है लेकिन प्रति भागीदारी एक लाख लिंचिस्तानी मुद्रा का शुल्क देना होगा. इन सर्वेक्षणों के परिणाम पर ही सरकारें बनती थीं.

सरकार गठन का तरीका सीधा और सरल था. सर्वेक्षण कंपनी के मालिक द्वारा नामित व्यक्ति मुख्यमंत्री के पद के लिए चुना जाता बशर्ते मालिक खुद न मुख्यमंत्री बनना चाहता हो. अन्य पदों की नियुक्ति के लिए एक मामूली सा इम्तहान होता था-फाइलों पर दस्तखत करने की गति. जो व्यक्ति इसमें सबसे तेज पाया जाता उसे वित्त और जो औसत होता उसे संस्कृति मंत्रालय मिलता था.

शपथ ग्रहण में एक मामूली बदलाव को छोड़ दें तो सब पुराने जैसा ही चल रहा था. मामूली बदलाव यह था कि शपथ ग्रहण के पहले वाक्य में देश के नाम से पहले चुनाव में सबसे अधिक धन देने वाली संस्था या व्यवसायिक घराने का नाम भर लेना होता था.

( सौतुक डॉट कॉम से साभार)

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