एक बार सेंसर बोर्ड से पास हो जाने के बाद यह राज्य की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वे फिल्मकारों का साथ दें और फिल्म का सुचारु प्रदर्शन सुनिश्चित करे
फिल्म निर्माता संजय लीला भंसाली एक बार फिर से विवादों में घिर गए हैं. इस बार विवाद की जड़ है उनकी फिल्म पद्मावती. उत्तर भारत में खासकर राजपूतों ने फिल्म को रिलीज न करने और भंसाली व फिल्म की मुख्य भूमिका में अभिनेत्री दीपिका पादुकोण का सिर और नाक काट लेने की धमकी दी है.
कुछ वर्ष पहले भी धार्मिक संगठनों ने भंसाली को इसी तरह की धमकी उनकी फिल्म रामलीला के शीर्षक से नाराज होकर दी थी. भंसाली ने तब फिल्म को गोलियों की रासलीला- रामलीला बदलकर बच निकले थे.
उनकी अंतिम फिल्म, बाजीराव मस्तानी को भी रिलीज के पहले इस तरह के विवादों का सामना करना पड़ा था. तब महाराष्ट्र के उग्र कार्यकर्ताओं ने भंसाली पर आरोप लगाया कि रचनात्मक स्वतंत्रता की आड़ में वो इतिहास के साथ छेड़छाड़ कर रहे हैं. फिल्म तभी रिलीज हो सकी जब भंसाली ने कहा कि ये काल्पनिक कहानी है. इसलिए इस तरह के मामलों से पूर्व में निबटने में माहिर भंसाली इस बार भी सही सलामत बाहर निकल जाएंगे ऐसी उम्मीद है. हालांकि सुनने में आ रहा है कि प्रोड्युसर्स ने फिल्म की रिलीज को टाल दिया है.
भंसाली इसमें अकेले नहीं हैं. पूर्व में भी कई फिल्मकारों को फिल्म रिलीज से पहले इस तरह के डरावने अनुभवों से गुजरना पड़ा है. इसकी वजहें “धार्मिक भावनाओं को ठेस” से लेकर “इतिहास के साथ छेड़छा़ड़”, “पूर्व राजनेताओं का अपमान”, “पाकिस्तानी कलाकारों को फिल्म में लेना”, “विशेष समुदाय को आहत करना”, “भारतीय संस्कृति और पंरपरा के खिलाफ” तक तमाम रूप में सामने आई. लगभग हर महीने हमारी एक न एक फिल्म रिलीज से पहले विवादों में फंस जाती है. इसके साथ ही षडयंत्र की कहानियां बनने लगती हैं कि फिल्म निर्माता ने फिल्म को प्रचारित करने के लिए इस विवाद का इस्तेमाल किया. इन दिनों जब किसी भी फिल्म का अर्थशास्त्र इस बात पर निर्भर हो कि फिल्म को ओपनिंग कैसी मिलती है तो इन कहानियों को खारिज करना भी मुश्किल है. विवादों से फिल्म “हैशटैग” हो जाती है और लोगों का रुझान इसके प्रति बढ़ जाता है! और तब फिल्म निर्माताओं को लठैतों से समझौता करना पड़ता है ताकि फिल्म रिलीज की जा सके! लिहाजा इसकी भी संभावनाएं खारिज नहीं की जा सकती कि विवाद से फिल्म को कुछेक करोड़ की बढ़ोतरी की उम्मीद होती है!
इन दिनों, कुछ लठैत समूह या अन्य, फिल्म देखने के पहले सिर्फ ट्रेलर या प्रचार देखकर ही मन बना लेते हैं कि फिल्म से उनकी भावनाएं आहत हो सकती हैं. इस मामले में भंसाली सिर्फ इसलिए परेशानी में पड़ गए क्योंकि इसी साल कोल्हापुर में फिल्म के सेट पर करणी सेना के लोगों ने तोड़-फोड़ की थी. हैरत होती है कि आखिर करणी सेना शूटिंग के दौरान ही कैसे इस निष्कर्ष पर पहुंची कि फिल्म उनकी भावनाएं आहत करने जा रही है. क्या उन्हें फिल्म की कहानी पहले ही दी गई थी. हाल में ही करणी सेना के अध्यक्ष ने कहा कि उन्होंने फिल्म नहीं देखी है लेकिन उन्हें आभास है कि फिल्म किस विषय पर है. अच्छा हो अगर कोई इस तरह के पूर्वानुमान की प्रतिभा के प्रदर्शन का इस्तेमाल मौसम बताने के लिए करें, पूरे देश को लाभ होगा.
इसका असर यह होता है कि सेंसर बोर्ड की तार्किकता के आगे ये लठैत समूह ‘सेंसर सेना’ बन कर खड़े हो गए हैं. करणी सेना, जो मुख्य रूप से भेदभाव के खिलाफ राजपूतों के हितों की रक्षा के लिए बनाई गई थी, लगता है अब सिर्फ अपने समूह को फिल्म में कैसा दिखाया गया इसको लेकर चिंतित है. पहले ही विवादों की वजह से करणी सेना सुर्खियों में है- जैसे आशुतोष गोवारिकर की फिल्म जोधा अकबर हुई थी.
कमल हसन की विश्वरूपम के पहले, मैंने कहा था कि आने वाले वक्त में फिल्म निर्माताओं को लठैतों द्वारा फिल्म सर्टिफाई कराना पड़ेगा. लेकिन अब लगता है कि न सिर्फ लठैतों के द्वारा बल्कि फिल्म निर्माताओं को टीवी एंकरों से भी सर्टिफिकेट लेना पड़ेगा, जैसे हमने देखा कि पद्मावती के निर्माताओं ने कुछ विशेष न्यूज़ एंकरों के लिए फिल्म स्क्रीनिंग का इंतजाम किया. इसलिए अर्नब गोस्वामी जो टीवी एंकर के साथ प्राइम टाइम के अभियोजक उर्फ प्रतिवादी के वकील और जज हैं, वे अब सेंसर बोर्ड के ‘सुपर’ सदस्य भी बन गए हैं. जैसे भारत में चीजें चल रही हैं, ऐसा लगता है कि फिल्म निर्माताओं को लठैत समूहों के पहले स्क्रिप्ट दिखानी होगी, उनकी बहादुरी के सीन डालने होंगे और सेंसर सेनाओं से आशीर्वाद लेकर फिल्म की शूटिंग शुरू करनी पड़ेगी.
इस दौरान सबसे जरूरी है सरकार इन परिस्थितियों पर क्या करती या क्या नहीं करती है. इस मसले में कोई भी पक्ष साफ-सुधरा नहीं है. हमारे संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी को मौलिक अधिकारों में निहित किया गया है. पर यह राजनीतिक दलों के लिए मायने नहीं रखता. क्या उनके लिए जरूरी है कि, स्वतंत्रता के राजनीतिक प्रभाव कितने होते हैं. और वे पूर्व की घटनाओं का उदाहरण देकर ‘तब क्या हुआ, अब क्या हुआ’ में मामला उलझा देते हैं.
मुझे भरोसा है कि अगर सरकार अपनी मंशा साफ कर दे कि फिल्म सेंसर बोर्ड से क्लियर हो जाने के बाद सरकार हर तरह की जरूरी मदद देगी तो फिल्म रोकने वाली धमकियों में अपने आप गिरावट आ जाएगी. लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं है. पार्टी के नेता समुदाय के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से खड़े होकर मूकदर्शक की भूमिका अख्तियार कर लेते हैं. चाहे राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की भाजपा सरकारों को पद्मावती के मामले में देख लें या फिर जो विश्वरूपम के साथ एआईडीएमके सरकार ने किया. ऐसे में यह बोझ बेचारे फिल्म निर्माता के कंधे पर आता है कि वह या तो बवाल करने वालों से रुपए-पैसे ले-देकर मामला निपटाए या फिर फिल्म की विषयवस्तु में तब्दीली करे. दोनों ही तरीके अपने देश के उस दावों से मेल नहीं खाते जो दावा करकता है कि वह दुनिया की महत्वपूर्ण शक्ति बन गया है.
“आपकी छड़ी घुमाने की सीमा वहीं खत्म हो जाती है जहां से दूसरे व्यक्ति की नाक शुरू होती है”- यह कथन अक्सर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संदर्भ में इस्तेमाल होता है. लेकिन इस तर्क का लब्बोलुआब यह है कि रचनात्मकता के नाम पर किसी की भावनाएं आहत करने का अधिकार किसी को नहीं है. लिहाजा उन्हें धर्म, समुदाय, नेताओं की जीवनी, इतिहास और भारतीय संस्कृति जैसे विषयों से दूर रहना चाहिए. अगर ऐसा है तो मुझे डर है कि हमारे फिल्मकारों के सामने फार्मूला फिल्में बनाने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं होगा. ना ही नए प्रयोग की कोशिश होगी.
ऐसा देश जहां लोग भावुक और बहसबाज हैं, जहां सार्वजनिक जीवन में धर्म एक अहम पहलु है बहुत मायने रखने लगता है, वहां मेरा मानना है कि दूसरों की भावनाओं का सम्मान महत्वपूर्ण चीज है. हालांकि, किसी भी कथित अपमान या सम्मान का निर्णय कोई व्यक्ति खुद नहीं कर सकता है. हमारे पूर्व प्रधानमंत्री ने एक बार कहा था, “किताब का जबाव किताब होना चाहिए.” यह उन्होंने किताबों को प्रतिबंधित करने के संदर्भ में कहा था. उसी तरह अगर कोई फिल्म किसी को पसंद नहीं आती तो उसे उससे दूर ही रहना चाहिए और फिल्म बंद करने या सिनेमाघरों में तोड़फोड़ नहीं करनी चाहिए.
मुझे लगता है कि ऐसे मौकों पर सेंसर बोर्ड की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. प्रावधान के मुताबिक सीबीएफसी (केंद्रीय फिल्म नियमन आयोग) कई कारणों से किसी भी फिल्म को सर्टिफाई करने से रोक सकती है मसलन यदि किसी फिल्म से सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने की आशंका हो.
एक बार फिल्म सेंसर बोर्ड द्वारा पास कर दी जाती है तो यह राज्य की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वे फिल्मकारों का साथ दें. इस तरह की भारी जिम्मेदारी के बाद बोर्ड में सही सदस्यों का होना जरूरी हो जाता है. फिर यहां अपने विश्वसनीय लोगों को सेंसर बोर्ड में नियुक्त करने की जगह सरकार को चाहिए कि वे विभिन्न क्षेत्रों में विशेषज्ञता रखने वाले, किसी पूर्वाग्रह के बिना करने वालों को सदस्य बनाए. एक ऐसे वक्त में जब हम सब बतौर राष्ट्र दुनिया में अपनी छाप छोड़ने की जद्दोजहद में हैं, हमें इस तरह के भटकाव से बचना चाहिए. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खतरे नहीं होने चाहिए. लिहाजा सेंसर सेनाओं को चुप कराने का वक्त है!