सार्वजनिक जगहों पर छेड़छाड़ को ईव टीजिंग कहकर नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता, इससे आजादी के लिए जूझना होगा.
सार्वजनिक जगह पर भीड़ छेड़छाड़ करने वालों को दो चीज़ें सुनिश्चित करती है: निकटता और अनामिकता. ऐसे में हमारी प्राइवेसी और व्यक्तिगत स्वायत्तता में दख़लंदाज़ी बहुत पहले से दे दी जाती है. हमें यह बताने की कोशिश की जाती है कि हमारे शरीर पर अधिकार केवल हमारा नहीं. मानो स्त्री सार्वजनिक संपत्ति हो.
स्त्री के लिए सार्वजनिक स्पेस में अपनी हिस्सेदारी हासिल करना आसान नहीं. बेहद मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि निजी स्पेस या घर की चारदीवारी सुरक्षित है स्त्रियों के लिए. अमेरिकी नारीवादी कार्यकर्ता ग्लोरिया स्टेइनेम ने घर को स्त्री के लिए सबसे ख़तरनाक जगह बताया है. जो एक हद तक सच है.
ऐसे में पेश हैं कुछ आंकड़ें. नेशनल क्राइम रिपोर्ट्स ब्यूरो के अनुसार, भारत में 94 प्रतिशत यौन हिंसा के मामलों में, उत्पीड़क पीड़ित महिला की जान-पहचान वाला, निकट संबंधी होता है. भारत में एक-तिहाई पुरुषों ने यह स्वीकारा कि उन्होंने अपनी पत्नी पर उसकी मर्ज़ी के बग़ैर जबरन यौन संबंध बनाया है (बावजूद इसके अभी तक भारत में मैरिटल रेप ग़ैरक़ानूनी नहीं है). बच्चों के साथ यौन शोषण के आंकड़े भी चौंकाने वाले हैं. वर्ल्ड विज़न इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, इससे पहले कि बच्चे 18 वर्ष के हों, भारत में हर दो में से एक बच्चे के साथ यौन शोषण होता है. सेव द चिल्ड्रेन नामक गैर सरकारी संस्था की 2015 रिपोर्ट के अनुसार, 94.8 प्रतिशत मामलों में शोषणकर्ता परिचित व्यक्ति होता है.
इसलिये घर या निजी स्पेस को सुरक्षित कतई नहीं माना जा सकता. सार्वजनिक जगह पर होने वाली ‘छेड़छाड़’ को जिसे आम तौर पर ‘ईव टीजिंग’ कहकर नज़रअंदाज कर दिया जाता है, वास्तविक तौर पर यौन उत्पीड़न है. यौन हिंसा है. इस हिंसा को ‘टीजिंग’ या छेड़छाड़ कहना उसे सामान्य बना देना और दबे-छिपे उसको वैधता प्रदान करना है. साथ ही इस संस्थागत रूप ले चुकी इस हिंसा की स्वीकार्यता इस हद तक है कि उसे सिर्फ एक विकृत व्यक्ति की करतूत मानकर ढकने की कोशिश भी होती है. हमें यह समझना होगा कि आज़ादी को घोटकर दी जाने वाली शर्तबन्द ‘सुरक्षा’ सही मायनों में हमें न तो सुरक्षित कर सकती है, न ही आज़ाद.
तो भीड़ से भागना विकल्प नहीं है. भीड़ भले ही महिलाओं को सुरक्षा की गारंटी न दे सकती हो पर अपनी आज़ादी के लिए हमें इस भीड़ से जूझना होगा. भीड़ में उतरना होगा. इसी भीड़ से जुड़ी हैं एक याद जिसे मैं साझा करना चाहूंगी.
मेरी उम्र कुछ पांच-छः साल की रही होगी. भीड़ से भरी एक बस में मैं मां के साथ यात्रा कर रही थी. सहसा मैंने किसी अंजान व्यक्ति का हाथ अपनी योनि पर पाया. कुछ समय तक मुझे कुछ समझ नहीं आया कि क्या हो रहा था. शरीर सुन्न था, पर उसकी उंगलियां रुकने का नाम नहीं ले रही थीं. फिर मैं सारी हिम्मत जुटाकर ज़ोर से बोल उठी, “भैया!” मां मेरा चेहरा देखकर समझ गईं कि कुछ गड़बड़ है. उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे दूसरी तरफ़ करते, मेरी जगह पर खुद खड़ी हो गईं. अब मां उस आदमी की आंखों में आंखें डाल, ठीक उस आदमी के सामने थीं. मां के इस क़दम से मुझे काफी सुकून तो मिला लेकिन उतनी ही घबराहट भी. अब मां की चिंता होने लगी. लेकिन अगले ही स्टॉप पर वो आदमी बस से उतर गया.
दस साल की उम्र रही होगी जब फ़िल्म ख़त्म होने के बाद हम सिनेमा हॉल से बाहर निकल रहे थे. मां ने मेरा हाथ पकड़ा हुआ था. अचानक से अंधेरे में किसी ने अंधेरे का फायदा उठाते हुए, कंधे से कंधा सटा दिया और फिर मेरी योनि पर अपनी उंगलियां सहलाने लगा. एक बार बार फिर से मेरे दिमाग में चार साल पुरानी बस वाली घटना घूम गई. मैंने धीमी आवाज़ में मां को बताया. इस बार भी, मां ने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे अपनी जगह करते हुए, मेरी जगह पर खुद खड़ी हो गयीं. उस आदमी की आंखों में आंखें डाल, उसके ठीक सामने. इस बार भी मां को चिंता होने लगी. लेकिन कुछ ही देर में, वो शख़्स कहीं गायब हो गया.
जब तक मेरी उम्र कॉलेज जाने लायक हुई, तब तक बसों की धक्का-मुक्की की आदत पड़ गई थी. भीड़ से भरी खचाखच बसों में, उंगलियां कैसे जगह बनाती हुईं बीच में बेलग़ाम दौड़ती हैं और अपनी मौजूदगी का एहसास कराती हैं, उसका अच्छा-ख़ासा तजुर्बा हम जैसी अमूमन हर लड़की को हो गया था. शायद इसीलिए उस दिन घर आने में थोड़ी देर हो गयी.
सर्दियों का वक़्त था तो अंधेरा जल्दी हो जाता था. घर आने के लिए जब बस स्टॉप पर खड़ी इंतज़ार कर रही थी तो हर बस को खचाखच भरा पाया. जो बसें घर जल्दी पहुंचा सकती थीं, वो भरीं मिलीं. कुछ देर इंतज़ार करने पर, एक बस थोड़ी ख़ाली मिली तो सुकून आया. कुछ ही देर में घर पहुंची तो चाय पीते वक़्त, फ़िक्रमंद नाराज़ बैठे पापा बोल उठे, “इतनी देर कहां हो गयी?” मैंने बताया कि बड़ी मुश्किल से एक बस मिली चढ़ने लायक, तो फलानी बस में आना हुआ.
सिर हिलाते हुए वो ज़ोर से बोले, “हद है! कितनी बार बताया है कि ये… बस नंबर तुम्हें सीधे यहां छोड़ती है?” मुझसे भी रहा नहीं गया तो पलट के बोल उठी, “हां, मुझे पता है और वो बस मैंने जानकर छोड़ी. भरी हुई बसों में क्या होता है? कभी सोचा है आपने?”
मां चुप रहीं. कुछ मिनटों तक घर शांत रहा. चाय का कप आगे करती हुईं बोलीं, “लो! अब चाय पी लो!”
ऐसा पहली बार था जब पापा के आगे मैंने कोई ऐसी बात बोली हो, इस तरह बोली हो. दरअसल, जिसे पापा मेरी नासमझी समझ रहे थे, वो मेरे लिए परिपक्वता का क्षण था. अब मैं जोखिम उठाना सीख गयी थी और जोखिम को टालना भी.
वो आख़िरी दिन था जब पापा ने मुझे किसी बस के लिए टोका.