कांचा इल्लैया के बहाने समाज में सहनशीलता का अभ्यास

तेलुगू देशम पार्टी से सांसद टीजी वेंकटेश ने खुलेआम कांचा इलैया का सर कलम करने का आह्वान किया.

WrittenBy:अपूर्वानंद
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कांचा इल्लैया ने बहुत दुःख और गुस्से से पूछा है कि क्या उनपर हो रहे हमलों पर चुप्पी इसलिए है कि वे उच्च वर्ण के नहीं! उनका क्षोभ स्वाभाविक है. पिछले दिनों उनकी एक पुरानी किताब के एक अंश के तेलुगू अनुवाद के प्रकाशन के बाद उन पर आर्य वैश्य समुदाय के लोगों की ओर से हमला हो रहा है. एक वीडियो में भगवा अंगवस्त्र डाले कुछ लोग उनकी तस्वीर पर पेशाब करने के लिए बच्चों को उत्साहित करते दिख रहे हैं. एक दूसरा वीडियो कुछ औरतों का है जो गा रही हैं कि कांचा तुझे दिमाग नहीं. राज्यसभा के सांसद और तेलुगू देशम पार्टी के सदस्य टीजी वेंकटेश ने खुलेआम कांचा इलैया का सर कलम करने का आह्वान किया. इसके बाद उनकी कार को घेर कर उनपर हमला किया गया.

यह कोई अतिशयोक्ति न होगी अगर कहें कि प्रोफ़ेसर कांचा इल्लैया की जान को खतरा है और इसी वजह से यह राज्य का और समाज का कर्तव्य है कि वह उनकी हिफाजत में जो भी कर सकता है करे.

जहां तक बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया में सुस्ती का आरोप है, संभव है प्रोफ़ेसर इल्लैया का सोचना सही हो. लेकिन अगर पिछले तीन वर्षों का रिकॉर्ड देखें तो शायद ही कोई हफ्ता ऐसा गया हो जब इस प्रकार का हमला कहीं न कहीं, किसी न किसी पर न हो रहा हो और उसके लिए विरोध संगठित न किया जा रहा हो. बल्कि कई बार तो यह लगने लगता है कि एक तबका है जिसका वजूद ही विरोध करने से है. बाकी ‘तटस्थ’ बुद्धिजीवी और अन्य भद्रजन इस तबके को किंचित स्मितपूर्ण विस्मय से देखते हैं.

मज़ा यह है कि इस तबके से हर मसले पर तुरंत बोलने की अपेक्षा भी की जाती है. दूसरे लोग इंतज़ार करते हैं या कुछ अधिक ज़रूरी काम करते हैं. इसका काम है विरोध स्वरुप हस्ताक्षर अभियान चलाना, प्रतिवेदन देना, जुलूस, धरने का आयोजन करना. ऐसा करते रहने में इस समूह को कोई ऐतराज नहीं लेकिन कभी-कभी संशय के क्षण में वह सोचने लगता है कि इस विरोध का लक्ष्य कौन है और इससे क्या बदलाव आ रहा है? इन सबसे खुद को संतोष तो होता है लेकिन क्या यह सब कुछ जिसे संबोधित है उसे यह इंच भर भी हिला पा रहा है? क्या इससे समाज में कोई विचार विमर्श शुरू हो पा रहा है? क्या जो संवाद या विवाद की जगह हिंसा का सहारा ले रहे हैं वे अपने तरीके पर सोचने को भी तैयार हैं, बदलने की बात तो छोड़ ही दीजिए! ऐसा होता नहीं दिख रहा. कोई भी समझने को तैयार नहीं. यह देख थोड़ी थकान तो होती है.

मसलन, प्रोफ़ेसर कांचा इल्लैया के खिलाफ हिंसक अभियान का विरोध करते वक्त हम किसका विरोध कर रहे हैं? क्या तेलुगू देशम पार्टी के उस नेता का, जिस पर निश्चय ही हत्या की धमकी के लिए मुकदमा चलना चाहिए या संपूर्ण वैश्य समुदाय का, या राज्य प्रशासन का? राज्य यह दलील देगा कि वैश्य समुदाय भी आहत है और वह उसे एक व्यक्ति के लिए नज़रअंदाज नहीं कर सकता.

विवाद शुरू हुआ जब प्रोफ़ेसर इल्लैया की नौ साल पुरानी किताब पोस्ट हिंदू इंडिया के एक अध्याय ‘सामाजिक तस्कर’ का तेलुगू अनुवाद अलग से प्रकाशित हुआ. इसमें कहा गया है कि वैश्य समुदाय ने समाज की संपत्ति हड़प कर ली है और उस पर कब्जा कर लिया है. इसे वे सामाजिक तस्करी कहते हैं और वैश्य समुदाय को इसका जिम्मेवार मानते हैं. वैश्य समुदाय को इस पर ऐतराज है कि पूरी जाति को तस्कर कहकर अपमानित किया जा रहा है.

अपनी नाराजगी जताने का क्या उपाय है इस समुदाय के पास? क्या उसे इसका अधिकार है? जैसे किसी को अपनी राय जाहिर करने का हक है तो किसी और को उसके बरक्स कानूनी रास्ता लेने का अधिकार भी है. कुछ समय पहले जयपुर में एक चर्चा के दौरान भ्रष्टाचार और दलित या ‘पिछड़ी’ जातियों के रिश्ते को लेकर आशीस नंदी के एक वक्तव्य से क्षुब्ध दलित समुदाय के कुछ लोगों ने उन पर मुकदमा कर डाला. जब उनसे कहा गया कि आप तर्क का उत्तर तर्क से दें तो उनका जवाब यह था कि चूंकि बौद्धिक क्षेत्र अत्यंत असमान है, उसमें सवर्ण स्वर की अधिकता है और दलित स्वर नगण्य, छापने की जगहों पर भी सवर्ण वर्चस्व है इसलिए तर्क में मुकाबला बराबरी का कभी न होगा. यह भी हो सकता है कि दलितों की आवाज़ दब जाए या सुनी ही न जाए. जब कानूनी रास्ता लिया जाता है जिसमें दंड की संभावना है तो तब मजबूरन यह आवाज़ सुननी ही पड़ती है.

इस बात में कुछ दम है. तर्क का जवाब तर्क कहना आसान है लेकिन उसका व्यवहार कैसे हो?
अगर कोई एक स्थापना किसी एक विद्वत्तापूर्ण शोध के जरिए की जाती है तो कायदे से उस पर उस ज्ञान क्षेत्र विशेष के दूसरे विद्वान विचार करते हैं और उसे स्वीकार, अस्वीकार या विचारणीय, अविचारणीय ठहराते हैं. लेकिन अगर वह प्रचारात्मक है जिसमें ऐसी पद्धति का प्रयोग नहीं किया गया जिससे आप किसी सुचिंतित नतीजे पर पहुंचे तो उसका जवाब भी प्रचारात्मक भाषा और तौर तरीके से दिया जाएगा. जैसे पूर्व पक्ष ने एक पोजीशन व्यक्त कर दी जिसकी वैधता के लिए उसकी सामाजिक स्थिति का समयानुसार सही होना काफी है. उसी तरह उत्तर पक्ष भी किसी तर्क या पद्धति की जगह अपनी सामाजिक शक्ति के सहारे पूर्व पक्ष को ध्वस्त करेगा.

इसे यों समझें. रामदेव की कई औषधियों और उपचारों को विशेषज्ञ संदिग्ध और गलत घोषित कर चुके हैं. लेकिन उनके दावे पूर्ववत जारी हैं और संदिग्ध घोषित किए गए उत्पादों की बिक्री भी जारी है. इसका कारण क्या है? इन सबके ठीक होने के लिए इनका स्रोत हिन्दूपन को बना दिया गया है. अगर एक तथाकथित स्वामी या बाबा कुछ कहे या करे तो वह गलत कैसे हो सकता है? उन्हें गलत कहने पर हिंदू धर्म का ही अपमान होगा न? कुछ वर्ष पहले नीतीश कुमार ने रामदेव को बिहार का ब्रांड अम्बेसडर घोषित किया. उस समय वे पटना आने वाले थे. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के तत्कालीन अध्यक्ष ने बयान जारी किया कि रामदेव के उपचारों को लेकर किए जा रहे दावे अपरीक्षित हैं, इसलिए उन पर भरोसा नहीं करना चाहिए. अगले दिन पटना में डॉक्टरों ने ही अपने अध्यक्ष की निंदा कर डाली और रामदेव से माफी मांग ली. उस वक्त वे डॉक्टर थे या बुद्धिविरागी हिंदू?

यह बात अब विद्वत्ता के क्षेत्र में भी होने लगी है. ऐसा नहीं कि किसी के लिखे या कहे पर पहली बार हमला हो रहा हो. प्रत्येक देश, समाज, धर्म में ऐसा होता रहा है. लेकिन अब जब ज्ञान के क्षेत्र में वे स्वर मुखर होकर आ रहे हैं जिन्हें पहले कुछ भी ज्ञानात्मक सुनने की ही मनाही थी तो स्थिति कुछ बदल जाती है. जो शताब्दियों से ज्ञान के क्षेत्र में वर्चस्वशाली रहे हैं, उन्हें इस नए स्वर को बिना सरपरस्ती के लेकिन धैर्य से सुनना होगा. उसमें तर्क की शीतलता की जगह जो क्रोध की गर्मी है, उसे समझना होगा.

द हंस इंडिया में प्रोफ़ेसर के नागेश्वर ने प्रोफ़ेसर इल्लैया पर हमलों और उनके विरुद्ध हिंसक अभियान की आलोचना की है.
उन्होंने ठीक ही लिखा है कि प्रोफ़ेसर इल्लैया के लेखन से वैश्य समुदाय को चोट लगी होगी लेकिन इस समुदाय को ठहर कर यह सोचने की ज़रूरत है कि शताब्दियों से एक जातिग्रस्त धार्मिक समाज में जो निरंतर दलित और अपमानित रहे हैं उनकी तकलीफ और क्रोध जायज़ है या नहीं! उसे जो शताब्दियों से चोट लगती आई है वह कभी व्यक्त होगी या नहीं? और यह चोट किसी प्राकृतिक शक्ति से नहीं ठोस, भौतिक रूप से विद्यमान सामाजिक समूहों के जरिए पहुंचाई जाती रही है. वैश्य समुदाय की तकलीफ और दलित या ‘पिछड़ी’ जातियों की तकलीफ का वजन एक बराबर नहीं है. लेकिन इसे समझना कठिन है.

लेकिन साथ ही प्रोफ़ेसर नागेश्वर ने लिखा कि असली समस्या तो यह है कि सामाजिक विचार विमर्श किस प्रकार चलाया जाए! क्या मकसद जाति नामक संस्था के उन्मूलन का है या उसे और दृढ़ करने का?

प्रोफ़ेसर नागेश्वर ने विवादित लेख के बारे में कहा कि उसकी कुछ बातों से वे सहमत हैं और कुछ से नहीं. वे उसमें किए गए सामान्यीकरण से सहमत नहीं. यह बौद्धिक बहस का सबसे मुनासिब तरीका है. लेकिन प्रोफ़ेसर इल्लैया ने एक टीवी कार्यक्रम में उनकी असहमति के लिए उनकी जाति को जिम्मेदार ठहरा दिया. प्रोफ़ेसर नागेश्वर का प्रश्न है कि जो प्रोफ़ेसर इल्लैया कहें वह तो विद्त्तापूर्ण और वैज्ञानिक है लेकिन जो नागेश्वर कहें वह जातिवादी, यह कौन सा तर्क है!

इस पूरे मामले के दो पक्ष हैं. एक प्रोफ़ेसर इल्लैया पर उनके लेख के कारण हमला. इस हमले को किसी भी तरह जायज़ नहीं ठहराया जा सकता और यहां किसी अगर-मगर की जगह नहीं. दूसरा पहलू है वह लेख. प्रोफ़ेसर इल्लैया के पक्ष में खड़े होने की शर्त उस लेख को स्वीकार करना नहीं हो सकता. लेख पर विचार करते वक्त उससे असहमति जाहिर की जा सकती है. इस असहमति का अधिकार किसी को है या नहीं? या लेखक के लिखने के अधिकार का समर्थन मैं तभी कर सकता हूं जब मैं उसके लिखे हुए से पूरी तरह राजी हो जाऊं? अगर ऐसा हो तो लेखक के बोलने के अधिकार की मेरे द्वारा की जा रही वकालत का कोई अर्थ नहीं रह जाता क्योंकि एक तरह से मैं अपने ही पक्ष में खड़ा हूं और यह कोई ख़ास बात नहीं. लेकिन उससे थोड़ी या ज्यादा असहमति के बावजूद अगर मैं उसके प्रकाशन के पक्ष में हूं तो फिर मेरे समर्थन के कोई मायने है.
कोई कह सकता है कि जब हमला हो रहा हो तो लेख की अंतर्वस्तु पर बहस का औचित्य नहीं क्योंकि उससे हमलावर अपनी वैधता हासिल कर लेते हैं. इस तर्क के मुताबिक़ हमले के केंद्र में जो है उसपर आलोचनात्मक विवेचना को कुछ देर के लिए स्थगित किया जा सकता है.

जो प्रचारक नहीं हैं, जो धार्मिक नेता नहीं हैं, जो ज्ञान व्यापार में संलग्न हैं उन पर अतिरिक्त जवाबदेही है कि वे प्रचारात्मक और घोषणात्मक भाषा से बचें. उन्हें विचार की भाषा का अभ्यास समाज में पैदा करना है.

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