भाग I: बेल्लारी की लाल मिट्टी और धीमी मौत

बेल्लारी में अंधाधुंध खनन ने पर्यावरण को तबाह करने के साथ ही स्थानीय लोगों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर डाला है.

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अगर आप बेल्लारी में हैं, तो यहां की लाल मिट्टी से आप बच नहीं सकते, यहां की धूल आपके कपड़ों से चिपक जाती है, आपके शरीर पर जम जाती है. आपने पलक झपकाई नहीं कि यह आपकी आंखों में समा जाएगी. सांस लेते ही यह आपके शरीर में घुलने लगती है. ये लाल धूल के एक बादल जैसी है, जो पूरे इलाके में फ़ैली हुई है. धूल का ये गुबार बेल्लारी के संदूर तालुक में कम्ठुर जैसे गांव से लौह अयस्कों की ढुलाई करते ट्रकों के कभी खत्म ना होने वाले काफिले की तरह लगता है. कच्ची सड़कों से उड़ती हुई यह लाल धूल पेड़ पौधों पर छा जाती है, गांव के मवेशियों और खड़ी हुई बाइकों पर अपनी एक परत चढ़ा देती है, और यहां के प्राचीन मंदिरों की दीवारों का रंग बदल देती है.

स्थानीय लोगों के लिए यह धूल एक महामारी की तरह है. कम्ठुर के रहने वाले पोनप्पा मलगी ने बताया, “लोग धूल के कारण बीमार पड़ते हैं.” इस बात पर उनके आसपास खड़े 15 गांव वालों ने भी सहमति में सिर हिला दिया.

कम्ठुर गांव एक टापू की तरह है जो खदानों के समुद्र से घिरा हुआ है. इस छोटे से गांव में आने जाने के लिए कोई साधन नहीं है, जबकि बेल्लारी शहर से यहां तक का सफ़र 5 घंटे का है. इस गांव तक पहुंचने का इकलौता तरीका है निजी वाहन. जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, कम्ठुर में 701 परिवार हैं और आबादी है लगभग 3,600, जिसमें सभी किसान हैं. यहां रहने वाले तकरीबन 40 साल के मलगी ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, “कभी यह पहाड़ियों से घिरा जंगल का इलाका था. यहां झील, तालाब, जानवरों के चरने की जगह और एक कब्रिस्तान भी था. लेकिन खनिकों ने यहां के जर्रे-जर्रे का इस्तेमाल कर लिया है.”

1970 के आस पास तक बेल्लारी के 1,38,000 हेक्टेयर इलाके में फैला हरा-भरा जंगल था. जिले में कई तरह के जीव-जंतु और पेड़-पौधे देखे जा सकते थे, इनमें से कई ऐसी प्रजातियां भी थी जिनमें से कई दवाइयों के रूप में इस्तेमाल होते थे. राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान (एनईईआरआई)  के निष्कर्षों के मुताबिक, बेल्लारी के पर्यावरण में 194 पौधों की प्रजातियां, 16 स्तनपायी जीवों की प्रजातियां, 145 पक्षियों की प्रजातियां तथा  नौ सांपों की प्रजातियां शामिल थीं. यह पारिस्थितिकी और जैव विविधता थी जिसने राज्य सरकार को बेल्लारी में 60 और 70 के दशक में एक हिल स्टेशन के रूप में संदूर तालुका को बढ़ावा देने पर विचार किया था.

2002 और 2009 के बीच इस जिले में अवैध खनन चर्म पर पहुंच गया. 2011 में जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश से इसे रोका गया, तब तक बेल्लारी एक तरह से तबाह हो चुका था. 2009 तक, यहां के जंगल के इलाके में 77,200 हेक्टेयर तक की कमी आई थी.

2012 में भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) की एक ऑडिट रिपोर्ट के मुताबिक बेल्लारी में रहने वाले लोगों की सेहत पर अवैध खनन ने बड़े पैमाने पर चोट की थी. अवैध खनन के बाद से तपेदिक (टीबी) और सांस के रोगियों की संख्या में भारी बढ़ोत्तरी देखी गयी. केवल संदूर में, टीबी की घटनाएं 2006 से 2010 के बीच 45 से बढकर 88 हो गयी हैं. इसी अवधि में, सांस के रोगों के मामले भी 14,902 से बढ़कर 20,251 हो गये हैं.

मलगी ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, “हम सब अस्थमा के रोग से परेशान हैं.” उन्होंने आगे कहा कि दिल का दौरा पड़ने और आंखों में एलर्जी जैसी बीमारियां भी बढ़ गयी हैं. एक दूसरे गांववाले, शन्मुख गौड़ा ने कहा, “पहले यहां हजारों भैंसें थी, लेकिन अब मुश्किल से 50 दिखती हैं.” उन्होंने बताया, “वे धूल और जहरीली चीजें खाने से मर रहीं हैं.” 2012 की सीएजी रिपोर्ट ने भी पशुपालन पर अवैध खनन का जिक्र किया है. खनिकों के अवैध अतिक्रमण से पशुओं के चराने की जगह और खेतों में चारे की कमी हो गई है. सीएजी की रिपोर्ट में 2007 में पशुपालन और पशु चिकित्सा सेवाओं के उप-निदेशक ने पशुओं की 18वीं जनगणना के आंकड़े बताये हैं. रिपोर्ट के मुताबिक, बेल्लारी में पशुओं की आबादी में काफी गिरावट आई है.

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स्रोत: डिपार्टमेंट ऑफ़ एनिमल हसबैंड्री एंड वेटेनरी सर्विसेज

सीएजी रिपोर्ट के मुताबिक, प्रदूषित पानी से भी मवेशियों के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ता है, जिससे पानी और हवा में मैंगनीज़ की मौजूदगी की वजह से श्वसन, पाचन और प्रजनन संबंधी समस्याएं बढ़ जाती हैं. ग्रामीणों का कहना है कि पशुओं की आबादी घटने के कारण अब उन्हें पैकिंग वाला दूध पीना पड़ता है.

लौह अयस्क के अलावा, बेल्लारी में मैंगनीज़ भी पाया जाता है, जो कि मैंगनीज़ के खनिकों को अपनी ओर खींचता है. इस इलाके में खनन के कामों  ने भारी मेटैलिक पदार्थों जैसे कि हेक्स़ावालेंट क्रोमियम, निकल और कैडमियम के खनन को बढ़ावा दिया है. हवा में इन पदार्थों की मौजूदगी से उन लोगों में कैंसर का खतरा बढ़ सकता है जो किसी भी तरह से पेड़-पौधों, सब्जी या दूसरे तरीके से इनका इस्तेमाल करते हैं. हवा में अतिरिक्त मैंगनीज़ स्ट्रोक और लकवे जैसी न्यूरोलॉजिकल समस्याएं पैदा कर सकता है.

70 साल की  लक्ष्माक्कम्मा का कहना है कि वह चाहे कितनी भी दवाइयां ले ले, उसकी कमजोरी जाती ही नहीं. उन्होंने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, “हर दिन इंजेक्शन और दवाएं लेने के बावजूद, धूल हमारे लिए समस्याएं पैदा करती है.” “आगे क्या होगा और क्या नहीं, यह तो ईश्वर पर निर्भर करता है.”

हमारे देश की बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं ने इस जिले की स्थिति को और बदतर कर दिया है. कम्ठुर के सबसे पास जो अस्पताल है वह संदूर में है जो लगभग दो घंटे की दूरी पर है. मलगी बताती हैं, “हमें यहां से रोगियों को ले जाने में परेशानी होती है. कई बार रास्ते में ही मरीज़ों की मौत हो जाती है.” एक और गांववाले  ने बताया, “एक आदमी को बेल्लारी शहर ले जाते समय रास्ते में दिल का दौरा पड़ा जिससे रास्ते में ही उसकी मौत हो गई. ऐसे मरीजों का एकमात्र सहारा हैं डॉ प्रकाश मुरली जैसे ‘अस्थायी डॉक्टर्स’.”

मुरली बेल्लारी के संदूर तालुका के भुजननगर गांव में पैदा हुए थे, उन्होंने बेल्लारी मेडिकल कॉलेज में मेडिसिन की पढ़ाई की और 2000 से 2002 तक संदूर में ही प्रैक्टिस की. उसके बाद वे सेंट किट्स चले गये जहां वे इस समय रहते हैं. न्यूज़लॉन्ड्री को उन्होंने बताया, “पिछले साल से मैं यहां चिकित्सा शिविर चला रहा हूं.” पिछले दिसम्बर में मुरली और अन्य 27 डॉक्टरों ने यहां तक़रीबन 2000 मरीजों को जांचा. उनके बीच कई गंभीर बीमारियों के मामले थे जैसे अस्थमा, आंखों में जलन, एलर्जी ब्रोंकाइटिस, त्वचा के रोग और यहां तक कि गठिया संबंधी समस्याएं भी थी .

मुरली ने बताया, “संदूर में कोई विशेष डॉक्टर नहीं है क्योंकि यहां कोई बसना भी नहीं चाहता है.” बुनियादी सुविधाओं की कमी से सभी को सामाजिक और आर्थिक स्तर पर परेशानियां होती हैं. मुरली ने कहा, “मेरे पास पैसा है, लेकिन अगर मैं यहां चिकित्सा सुविधाएं चाहता हूं तो वो मुझे यहां नहीं मिलती.” “मैं अपनी ही जगह में खुद को खतरे में डाल रहा हूं.”

जब हमने कम्ठुर गांव की एक स्थानीय दुकान पर बैठे गांववालों से बातचीत की, तो हमें पीने के लिए चाय दी गई जिसका रंग लाल था. एक गांव वाले ने कहा. “यही हमारे पेट और फेंफड़ों में जाता है,” और फिर वो हमें बेरुखी से देखने लगा क्योंकि हम उस चाय का घूंट लेने में झिझक रहे थे.

यह स्टोरी एनएल सेना प्रोजेक्ट का हिस्सा है. इसे संभव बनाने में अर्नब चटर्जी, राहुल पांडे, नरसिम्हा एम, विकास सिंह, सुभाष सुब्रमण्या, एस चटोपाध्याय, अमिया आप्टे, और एनएल सेना के अन्य सदस्यों का योगदान रहा है. हम इस तरह की ढेरों स्टोरी करना चाहते हैं जिसमें आपके सहयोग की अपेक्षा है. आप भी एनएल सेना का हिस्सा बनें और खबरों को स्वतंत्र और निर्भीक बनाए रखने में योगदान करें.

अनुवाद: बाल किशन बाली

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