Media
रिपोर्टर डायरी: शुभ और शगुन की मां जब भी याद आती हैं तो आंखें भर जाती हैं…
साल अब खत्म हो रहा है और गुजरता वक्त अपने साथ यादें छोड़ जाता है. कुछ तकलीफदेह, कुछ हसीन. जिन्हें याद कर कभी हम मुस्कुरा उठते हैं और कभी खामोशी ओढ़ लेते हैं.
एक रिपोर्टर के तौर पर यह साल भागदौड़ भरा रहा. साल के शुरुआती महीने में ही कुंभ में हादसा हुआ. आंकड़े छुपाने में माहिर हमारी सरकार, मृतकों के आंकड़े भी छुपा रही थी. जब मैं रिपोर्टिंग के लिए प्रयागराज पहुंचा तो शुरूआती कुछ दिन तो जैसे ‘अमावस का अंधेरा’ छाया था.
मृतकों के वास्तविक आंकड़ें मिलने की कोई राह ही नजर नहीं आ रही थी. न जाने कितने घंटे मोर्चरी और अस्पताल के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने, आने-जाने वाले से टोह लेने में गुजरे. फिर एक शाम, एक शख्स मिला. उसने कहा कि मृतकों के आंकड़े मैं तुमको दे भी दूं तो उसे बता नहीं पाओगे. मैंने भी थकी सी जबान से कहा- न्यूज़लॉन्ड्री में काम करता हूं. अगर आप सबूत देंगे तो उस पर ख़बर की जिम्मेदारी मेरी.
फिर मुझे कुछ दस्तावेज मिले. उसमें मृतकों के जो नाम थे, उनमें से कई के परिजनों से मैं मोर्चरी के बाहर ही मिला था. दस्तावेज में मृतकों के नाम के साथ ही पहचान के लिए शव की संख्या भी अंकित थी. दस्तावेज को अच्छे से जांचने के बाद मैंने आंकड़े सबके सामने रख दिए.
आपको पता है, कुंभ में हुए हादसे के मृतकों के सही आंकड़े सरकार अब तक जारी नहीं कर पाई है. इतना ही नहीं हादसे की जांच को लेकर तीन सदस्यों वाली जो कमेटी बनी थी, उसकी भी रिपोर्ट अब तक नहीं आई है.
साल की शुरुआत मृतकों के आंकड़े इकठ्ठा करने से हुई, जो त्रासदी जैसी थी. लेकिन किसे पता था कि आने वाले कुछ महीने में ही भारत एक और बड़ी त्रासदी का गवाह बनने वाला है.
कोरोना के वक़्त में रिपोर्टिंग के दौरान जो देखा सुना था वो आज भी कभी-कभी याद आता है तो आंखें भर जाती हैं. लेकिन गुजरात में हुए एयर इंडिया के हादसे ने तो जैसे दिल पर एक बड़ा पत्थर रख दिया.
15 जून की दोपहर, मैं अहमदाबाद के थलतेज शवदाह गृह के बाहर खड़ा था. दो एम्बुलेंस शवदाह गृह के गेट पर रुकीं. उसमें दो भाई-बहनों का शव था. शुभ और शगुन मोदी का. शुभ 25 साल के थे और शगुन 23 साल की. दोनों लंदन में पढ़ाई करने के बाद, अपने पिता के कारोबार में हाथ बंटा रहे थे. लंदन अपने दोस्तों से मिलने जा रहे थे. 23 जून को उनकी वापसी का टिकट था, लेकिन यह वापसी कभी नहीं हो पाई.
शव को एम्बुलेंस से उतारकर अंदर लाया गया. अंतिम विदाई से पहले ‘दर्शन’ के लिए रखा गया. यह ऐसा दर्शन था, जिसमें आप आखिरी बार अपनों का चेहरा भी नहीं देख पा रहे थे. उस ताबूत के अंदर जो कुछ मौजूद है, वो उसके प्रिय का ही है या नहीं. कोई नहीं जान पा रहा था. दरअसल, ताबूत को खोलने से प्रशासन ने मना कर दिया था.
जब शुभ और शगुन का शव रखा हुआ था. उनकी मां पहले शुभ के ताबूत को हिलाते हुए बोली, उठ न कब तक सोयेगा बेटा. उसके बाद शगुन के पास जाकर भी ऐसा ही बोलने लगी.
एक रिपोर्टर की ट्रेनिंग होती है कि खबर के साथ इमोशनल नहीं होना है. 10 साल के रिपोर्टिंग अनुभव से मैं ऐसा ही कुछ हो गया हूं. लेकिन उस वक़्त न जाने क्यों बहुत तेज रोना आया. मैंने मोबाइल और डायरी को पॉकेट में रखा और शमशान घाट के बाहर जाकर खूब तेज रोया.
रोते-रोते शमशान घाट की चिमनी से निकलता धुंआ देखकर लगा परिवार की खुशियां धुंआ होकर उड़ रही हैं. शुभ और शगुन की मां की जब भी याद आती हैं. आंखें भर जाती है. उनके दोनों बच्चे अब इस दुनिया में नहीं है.
साल गुजरते-गुजरते मैंने कुछ ऐसी स्टोरी की जो बताती हैं कि हमारी सरकार जनता के पैसे को कैसे उड़ाती है. मुझे इसे ‘उड़ाना’ कहने में गुरेज नहीं. दरअसल, जिस उत्तराखंड में स्वास्थ्य जैसी बेसिक सुविधा के लिए लोगों को सड़क पर उतरना पड़ता है. पेपर लीक से युवा बेहाल हैं. पलायन जिस राज्य के साथ जोंक की तरह चिपक गया हो. वहां की बीजेपी सरकार ने पांच साल में विज्ञापनों पर 1000 करोड़ से ज़्यादा खर्च कर दिए.
जनता से जुड़ी योजनाओं को उन तक पहुंचाने के लिए विज्ञापन हो तो भी ठीक बात है लेकिन यहां तो नेताओं की छवि चमकाने के लिए हजार करोड़ रुपये खर्च कर दिए गए. जैसे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के केदारनाथ यात्रा के प्रचार में ही उत्तराखंड की बीजेपी सरकार ने लोगों को मोबाइल पर सिर्फ मैसेज भेजने में करीब 50 लाख रुपये ‘उड़ा’ दिए. मालूम हो कि प्रधानमंत्री आवास योजना के लाभार्थी को पहाड़ी क्षेत्र में घर बनाने के लिए सिर्फ सवा लाख रुपये मिलते हैं. इससे तुलना करें तो जितने पैसे प्रधानमंत्री के दौरे पर मैसैज भेजने में खर्च हुए उतने में कम से से 38 लोगों के घर बन जाते. ऐसे में जनता की कमाई से मिले टैक्स के पैसों को ‘उड़ाना’ नहीं तो क्या कहा जाए? उत्तराखंड सरकार ने इस तरह अख़बारों, टीवी चैनलों और पत्रिकाओं को करोड़ों रुपये के विज्ञापन दिए.
वैसे यह मॉडल उत्तराखंड तक सीमित नहीं है. भारत सरकार भी ऐसे ही टैक्स के पैसों को प्रचार में ‘उड़ा’ रही है. प्रसार भारती ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले 6 करोड़ रुपये खर्च कर सड़क, रेल और हवाई जहाज के विज्ञापन के लिए डॉक्यूमेंट्री बनवाईं. और इसमें नियमों को भी ताक पर रख दिया गया. कर्ली टेल्स की प्रमुख कामिया जानी, जिन्हें प्रधानमंत्री मोदी ने चुनाव से ठीक से पहले इन्फ्लुएंसर ऑफ़ द ईयर का अवार्ड दिया था. उन्होंने 6 करोड़ रुपये के बदले सिर्फ तीन, 22-22 मिनट के वीडियो बनाएं. यहां प्रसार भारती ने कैसे एक निजी इंफ्लुएंसर के आगे घुटने टेक दिए. उसके बारे में आप मेरी यह रिपोर्ट पढ़ सकते हैं.
साल गुजरते-गुजरते सरकारी तंत्र के यूं ही भ्रष्टाचार के आगे घुटने टेकने का एक और मामले की जानकारी मुझे मिली. उत्तर प्रदेश में सरकारी अधिकारियों, बिचौलियों के पूरे तंत्र ने कम से कम 112 करोड़ रुपये का हेरफेर कर दिया. खास बात ये है कि आयकर विभाग ने इस पूरे गबन का खुलासा किया था. लेकिन उनकी यह गोपनीय रिपोर्ट ही जैसे ‘गबन’ कर दी गई. अगर आपको इस बारे में ज्यादा जानना है तो मेरी यह रिपोर्ट पढ़ सकते हैं.
इस सबके अलावा सालभर के दौरान बिहार चुनाव का काफी नजदीक से कवर किया. बिहार की बहनों को 10 हजार के वादे के बीच बेटियों के हालात बयां करती ये रिपोर्ट आज भी मेरे दिल के करीब है. यह कहानी बिहार की उन लड़कियों की है. जो बीजेपी और नीतीश सरकार के दावे से कोसों दूर एक ‘दूसरी’ दुनिया में जीने को मजबूर हैं.
गुजरात से की गई ये डॉक्यूमेंट्री भी शायद आपकी याददाश्त ताजा कर दे. एक ऐसा कानून, जिसे ‘साफ नीयत’ से बनाया गया था लेकिन आज ‘बदनीयती’ से उसी का इस्तेमाल कर मुसलमानों को घेटो में रहने के लिए मज़बूर किया जा रहा है.
इनके अलावा भी सालभर में मैंने कई रिपोर्टंस की. और यह सब मुमकिन हुआ हमारे सब्सक्राइबर्स की बदौलत. क्योंकि न्यूज़लॉन्ड्री इस देश का इकलौता ऐसा मीडिया संस्थान है जो किसी भी सरकार या कॉर्पोरेट से विज्ञापन नहीं लेता है.
इसका फायदा एक रिपोर्टर के तौर पर यह होता है कि एक जायज स्टोरी करने के लिए किसी तरह के नाजायज़ दवाब के आगे झुकना नहीं पड़ता. मीडिया के साथी अक्सर बताते हैं कि कैसे उनकी स्टोरीज़ संपादक की टेबल पर ही दम तोड़ दे रही हैं.
एक रिपोर्टर के लिए इससे बड़ी सजा शायद ही कोई हो कि उसकी स्टोरी छप न पाए. मेरे एक साथी ने मीडिया की नौकरी छोड़ते हुए कहा था कि जब सरकार की तारीफ ही करनी है तो पीआर एजेंसी या आईटी सेल ज्वाइन करने में क्या बुराई है. पैसे भी अच्छे मिलेंगे और सरकार की बुराई करने जैसे ‘पाप’ से भी बच जाऊंगा.
यकीन मानिए, मीडिया की आज़ादी खतरे में है. हमें ये आजादी प्यारी है. और सिर्फ आपका सहयोग ही इस आज़ादी को बनाए रख सकता है. तो नए साल पर आज़ाद मीडिया के समर्थन का संकल्प लीजिए.
नया साल आपके और आपके परिवार के लिए खुशनुमा यादें लेकर आए. यही कामना है.
बीते पच्चीस सालों ने ख़बरें पढ़ने के हमारे तरीके को बदल दिया है, लेकिन इस मूल सत्य को नहीं बदला है कि लोकतंत्र को विज्ञापनदाताओं और सत्ता से मुक्त प्रेस की ज़रूरत है. एनएल-टीएनएम को सब्स्क्राइब करें और उस स्वतंत्रता की रक्षा में मदद करें.
Also Read
-
Why the CEO of a news website wants you to stop reading the news
-
‘A small mistake can cost us our lives’: Why gig workers are on strike on New Year’s Eve
-
From Nido Tania to Anjel Chakma, India is still dodging the question of racism
-
‘Should I kill myself?’: How a woman’s birthday party became a free pass for a Hindutva mob
-
I covered Op Sindoor. This is what it’s like to be on the ground when sirens played on TV