Assembly Elections 2022
गोरखपुर: कोविड के समय हुईं 40 से अधिक मौतें चुनाव ड्यूटी से जुड़ी हैं, लेकिन क्या महामारी एक चुनावी मुद्दा है?
15 अप्रैल 2021 को उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों के दौरान तमाम कोविड प्रोटोकॉल का उल्लंघन हुआ. जिसके चलते राज्य में 700 से अधिक शिक्षाकर्मियों ने कोरोना संक्रमण की चपेट में आकर जान गंवा दी. अकेले गोरखपुर में 40 से अधिक शिक्षाकर्मियों की मौत हो गई. उनके परिवार अब तक मुआवजे और नौकरी को लेकर परेशान हैं.
"हम किस सरकार के लिए वोट दें, जिसने हमे विधवा बना दिया?" 39 वर्षीय उमा शंकर रोते हुए कहती हैं.
कोरोना महामारी के दौरान लिए एक फैसले ने उत्तर प्रदेश में कई घर उजाड़ दिए. अप्रैल 2021 में, यूपी सरकार ने पंचायत चुनावों के दौरान स्कूली शिक्षकों को मतदान एजेंट के रूप में तैनात किया था. इस दौरान कोविड की दूसरी लहर राज्य में जगह-जगह तबाही की वजह बन गई थी. 700 से ज्यादा सरकारी स्कूलों के कर्मचारियों की कोविड के चलते मौत हो गई. ये सभी कर्मचारी उत्तर प्रदेश पंचायत चुनाव की ड्यूटी पर तैनात किए गए थे.
हालांकि उत्तर प्रदेश सरकार ने इस आंकड़े को मानने से मना कर दिया था.
उस समय प्रदेश के शिक्षक संघ, उत्तर प्रदेशीय प्राथमिक शिक्षक संघ ने जिला मेजिस्ट्रेट और राज्य चुनाव आयोग को पत्र लिखकर सबके लिए मुआवजे की मांग की थी. संघ का कहना था कि चुनाव के दौरान किसी भी कोरोना प्रोटोकॉल का ध्यान नहीं रखा गया, जिसके चलते इतनी बड़ी संख्या में शिक्षा कर्मियों को जान से हाथ धोना पड़ा.
इस त्रासदी पर न्यूज़लॉन्ड्री ने रिपोर्ट की थी कि कैसे सोशल डिस्टेंसिंग के मानदंडों का पालन करने में विफलता के परिणामस्वरूप, गोरखपुर में दूसरी कोविड लहर के चरम पर 44 शिक्षकों की मौत हो गई.
‘सरकार ने मुझे विधवा बना दिया’
एक भूरे रंग के फोल्डर पर काले रंग से 'मुकदमा रिकॉर्ड फाइल' लिखा हुआ है. इस फाइल में उषा मिश्रा का संघर्ष दबा है जिसे एक-एक कर वह न्यूज़लॉन्ड्री को बताती हैं.
उषा मिश्रा के पति 45 वर्षीय मनोज मिश्रा जब पंचायत चुनाव ड्यूटी से लौटकर आए तो उनकी तबीयत बिगड़ने लगी. लेकिन बहुत संघर्ष के बावजूद, 14 दिन बाद 29 अप्रैल 2021 को मनोज की कोविड संक्रमण के कारण मृत्यु हो गई. मनोज गोरखपुर के लसहडी गांव के एक सरकारी स्कूल में सहायक शिक्षक के पद पर कार्यरत थे.
“उन्होंने (मनोज) ड्यूटी से एक दिन बाद ही सर्दी और बुखार होने की शिकायत की. वह उसी हालत में स्कूल भी जाते रहे, जहां उनके कुछ सहयोगियों ने सुझाव दिया कि उनकी कोविड जांच कराई जाए. जल्द ही उनकी हालत बहुत खराब होने लगी", उषा ने याद करते हुए बताया.
प्राथमिक विद्यालय शिक्षक संघ के दबाव के कारण सितंबर में यूपी सरकार ने 1600 से अधिक शिक्षकों के लिए मुआवजा जारी किया.
इस लिस्ट से उषा का नाम गायब था. इसकी वजह भी उषा बताती हैं.
"मेरा मोबाइल मेरे भतीजे के पास था इसलिए मुझे ऑनलाइन आवेदन के बारे में पता नहीं चल पाया", उषा ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया.
मुआवजे के बारे में जानकारी उन्हें मनोज के दोस्त व अन्य अध्यापकों से मिली, लेकिन तब तक ऑनलाइन आवेदन की तारीख निकल चुकी थी.
पिछले साल 2021 में अक्टूबर और नवंबर के बीच, उषा ने दो बार जिलाधिकारी को पत्र लिखा. साथ ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को संबोधित एक और पत्र भेजा जिसका कोई जवाब नहीं मिला.
पति के आकस्मिक निधन के बाद उषा के लिए उनका जीवन कठिन हो गया है. उनके दो छोटे बच्चे हैं. मनोज ने बड़े अरमानों से दोनों बच्चों, एक लड़का (14 वर्ष) और एक लड़की (11 वर्ष), का दाखिला गोरखपुर में एक अंग्रजी माध्यम स्कूल में कराया था. इसलिए वे अपने परिवार के साथ देवरिया से गोरखपुर शिफ्ट हुए थे. अपने बच्चों को बेहतर कल देने के लिए मनोज ने गोरखपुर में परिवार के रहने के लिए 26 लाख रुपए कर्ज लेकर जमीन खरीदी थी. कुछ समय पहले अपनी बहन की शादी के लिए भी मनोज ने बैंक से 10 लाख का कर्ज लिया था.
मनोज के देहांत के बाद से परिवार कर्ज तले दब गया है. परिवार में 80 वर्षीय बूढ़ी मां हैं जो बीमार रहती हैं. उषा ने अपने बच्चों को हिंदी- माध्यम स्कूल में दाखिल करवा दिया है.
पिछले एक साल से कम पढ़ी-लिखी उषा का घर जमा पूंजी से चल रहा है.
उषा हमें बताती हैं, "मैं बच्चों की फीस नहीं भर सकती इसलिए गांव के सरकारी स्कूल में उनका दाखिला करवा दिया है. बुजुर्ग सास की दवाइयों का खर्चा निकाल पाना भी बहुत मुश्किल हो गया है. वह सारा दिन बेहोशी की हालत में एक खटिया पर लेटी रहती हैं. मनोज की मौत के बाद उनकी मानसिक स्थिति स्थिर नहीं है."
उषा अपनी मजबूरी पर रोते हुए कहती हैं, "परिवार पर कर्जा है जिसे चुकाने में मैं असमर्थ हूं. मुझे पेंशन मिल रही है, लेकिन सारा पैसा लोन की किश्त चुकाने में चला जाता है."
आज उषा सरकार के खिलाफ गुस्से से भरी हुई हैं. उनकी आंखों में लाचारी के आंसू दिखाई देते हैं. उषा सरकार से जवाब मांगती हैं, "क्या यह सरकार की जिम्मेदारी नहीं थी, कि वे उन लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करे जो पंचायत ड्यूटी पर आए थे? उस दौरान अस्पताल में मनोज के लिए बिस्तर तक नहीं मिल रहा था."
क्या वह इस बार 3 मार्च को मतदान करेंगी? हमने पूछा.
उषा जवाब देती हैं, "मैं किसी को वोट नहीं दूंगी. इस सरकार ने मुझे विधवा बना दिया और मुझे सड़क पर ला दिया. इसलिए हमारे लिए सरकार का कोई मतलब नहीं है."
'मुझे मेरे पति की नौकरी दे सरकार'
गोरखपुर के रुस्तमपुर कॉलोनी में 35 वर्षीय अरुणा निषाद अपने पति राम भजन की मृत्यु के बाद लगे सदमे से उबरने की कोशिश कर रही हैं. राम भजन भी पंचायत चुनाव ड्यूटी पर तैनात थे और 30 अप्रैल 2021 को कोविड से उनकी मृत्यु हो गई.
अरुणा पर घर चलाने की जिम्मेदारी है. उनके तीन छोटे बच्चे हैं. राम भजन परिवार में अकेले कमाने वाले थे. अब उनके पीछे उनके माता, पिता और बच्चों की देख-रेख का भार अरुणा पर आ गया है.
अरुणा रोते हुए कहती हैं, "आगे बढ़ना मुश्किल है. मेरी मानसिक स्थिति अभी भी ठीक नहीं है."
हालांकि अरुणा को राज्य सरकार से 30 लाख रुपए का मुआवजा मिला, लेकिन वह अनुकंपा के आधार पर अपने पति के स्थान पर नौकरी पाने की कोशिश कर रही हैं. ऐसा आमतौर पर सरकारी नौकरी के मामले में होता है, जहां मृत्यु के बाद कर्मचारी की जगह उसके परिवार के सदस्य को नौकरी पर रख लिया जाता है.
अरुणा कहती हैं, "मेरे तीन बच्चे और ससुराल वाले हैं जिनकी देखभाल करने की जरूरत है. इसलिए एक स्थायी नौकरी हमें आगे बढ़ने में मदद करेगी."
अरुणा के भाई अतुल कुमार निषाद, एक साल से नौकरी को लेकर अधिकारियों से बात कर रहे हैं.
नमस्ते इंडिया नाम के एक डेयरी उत्पाद के लिए बिक्री कार्यकारी के रूप में काम करने वाले अतुल कहते हैं, "ऐसा नहीं है कि हम नई भर्ती के लिए कह रहे हैं. हम केवल मेरे मृत बहनोई के स्थान पर मेरी बहन के लिए नौकरी की मांग कर रहे हैं."
सितंबर 2021 में अतुल को गोरखपुर के शिक्षा विभाग से जबाव आया था. जवाब में लिखा था कि चूंकि अब "नवीन" या नए रिक्त पद उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए सर्व शिक्षा अभियान के तहत भर्ती संभव नहीं है.
अतुल और अरुणा, शिक्षा मित्रों को लेकर सरकार की उदासीनता से जूझ रहे हैं. संविदा कर्मियों के रूप में एक शिक्षा मित्र को अक्सर नियमित शिक्षक से कम वेतन मिलता है. उत्तर प्रदेश में हर सरकार, वोट हासिल करने के लिए संविदा कर्मियों की नियुक्ति को स्थायी बनाने का झांसा देती रही है.
राम भजन के उदाहरण को ही लें. वे 2005 में एक शिक्षा मित्र के रूप में शामिल हुए थे, तब मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे. 2012 में सत्ता में आने के बाद अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सरकार ने, शिक्षा मित्रों को नियमित करने की घोषणा की. जिसका अर्थ था कि राम भजन और उनके ही जैसे और संविदा कर्मियों के वेतन में वृद्धि हुई.
हालांकि 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षा मित्रों के नियमितीकरण को यह कहते हुए रद्द कर दिया, कि उनकी संविदा स्थिति को सरकारी नौकरियों में परिवर्तित नहीं किया जा सकता है. उसके बाद की योगी सरकार ने इस मामले को देखने का वादा तो किया था, लेकिन लखनऊ में कभी-कभार विरोध-प्रदर्शन के बावजूद नीति के स्तर पर कुछ भी नहीं हुआ.
अरुणा कहती हैं, ''भले ही यह किसी क्लर्क का काम हो, मुझे मंजूर है. मुझे अभी नौकरी की जरूरत है.'' अरुणा अक्सर उस बाइक को उदासी से देखती हैं जिससे राम भजन स्कूल जाया करते थे.
अरुणा निषाद समाज से आती हैं. संजय निषाद के प्रतिनिधित्व वाली निषाद पार्टी ने विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ गठबंधन किया है. लेकिन अतुल और अरुणा को मतदाता के रूप में क्या चिंतित करता है?
''हम उसे वोट देंगे जो हमारे मुद्दे को लेकर चिंतित है. कोविड निश्चित रूप से हमारे लिए एक मुद्दा है. नुकसान अपूर्णीय है, लेकिन हम उम्मीद करते हैं कि नई सरकार हमारी मदद करने पर ध्यान केंद्रित करेगी”, अरुणा के भाई अतुल कहते हैं.
यूपी चुनाव में स्वास्थ्य सुविधाएं चुनावी मुद्दा नहीं
चुनावों के इस मौसम में गोरखपुर शहर हर तरह से भगवा रंग की चादर से ढका हुआ सा दिखाई पड़ता है. शहर में जगह-जगह झंडे और राजनीतिक दलों के पोस्टर लगे हुए हैं. गोरखपुर उत्तर प्रदेश का वह हिस्सा है, जहां पिछले साल कोविड की दूसरी लहर के दौरान श्मशान घाट पर खड़े होने तक की जगह नहीं थी. खबर थी कि उत्तर प्रदेश ने कोविड संक्रमण से मरने वालों के आंकड़े छुपाए हैं, लेकिन इस चुनाव में राजनीतिक दलों के लिए कोविड उतना बड़ा चुनावी मुद्दा नहीं दिखाई पड़ता.
गोरखपुर नगर निगम की ओर से लगाया गया एक होर्डिंग लोगों को बड़ी संख्या में मतदान करने और मतदान प्रतिशत को 70 प्रतिशत तक ले जाने के लिए कहता है.
2021 में जारी एक रिपोर्ट कार्ड में, योगी सरकार ने कोविड प्रबंधन के बारे में डब्ल्यूएचओ (विश्व स्वास्थ्य संगठन) और ऑस्ट्रेलिया के नेताओं का जिक्र करते हुए अपनी पीठ थपथपाई. जबकि शहर का सबसे बड़ा अस्पताल बीआरडी मेडिकल कॉलेज विवादों में रहा है.
कोविड की पहली लहर के वक्त 61 वर्षीय अनिल कुमार कोविड पॉजिटिव पाए गए थे. उनका इलाज बीआरडी मेडिकल कॉलेज में चला था. वहां उन्हें अपनी जिंदगी का सबसे खराब अनुभव हुआ. वह बताते हैं, "मुझे ही पता है कि मैं अस्पताल से जिंदा बचकर कैसे आया. उन्होंने मुझे इलाज के नाम पर भर्ती रखा."
अनिल न्यूज़लॉन्ड्री को बताते हैं कि वह बीआरडी मेडिकल कॉलेज में एक हफ्ते से अधिक समय तक भर्ती रहे. उनका आरोप है कि उस दौरान उन्हें इंसुलिन का टीका लगाया गया था, जबकि उन्हें डायबिटीज की कोई शिकायत नहीं है. यह बात उन्हें उस दिन पता चली जब एक डॉक्टर उनका परीक्षण करने आया.
अनिल ने सरकारी अस्पताल में कुप्रबंधन के बारे में बात करते हुए बताया, "46 मरीजों वाले एक कोविड वार्ड में दो यूरिनल और दो स्टूल पॉट थे. जब मैंने उनसे संक्रमण के डर से वैकल्पिक व्यवस्था करने का अनुरोध किया, तो मुझे एक बाल्टी दे दी गई.”
उन्होंने चिकित्सा लापरवाही के खिलाफ शिकायत दर्ज की है और यह मामला अदालत में चल रहा है.
2017 में, बीआरडी मेडिकल कॉलेज तब सुर्खियों में आया जब ऑक्सीजन की आपूर्ति में कमी के कारण, इंसेफेलाइटिस से 63 बच्चों की मौत हो गई थी. बाल रोग विशेषज्ञ डॉ कफील खान, राज्य सरकार पर उंगली उठाने के लिए तब से प्रशासन के निशाने पर हैं. नवंबर 2021 में यूपी सरकार ने आधिकारिक तौर पर डॉ कफील खान की सेवाओं को समाप्त कर दिया. उनके भाई अदील अहमद खान ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि गोरखपुर में जापानी इंसेफेलाइटिस से होने वाली मौतों में सरकारी धोखाधड़ी एक आम बात हो गई है.
आदिल ने अपने हाथ में डेटा दिखाते हुए कहा, “चूंकि सरकार बेनकाब हो गई थी, इसलिए वे वास्तविक आंकड़ों का केवल 10वां हिस्सा ही प्रकट करते हैं. उदाहरण के लिए, 2019 में स्थानीय सीएमओ ने जापानी इंसेफेलाइटिस के कारण केवल 13 मौतों की घोषणा की जबकि वास्तव में 1550 बच्चों की मौत हुई थी.” कफील और उनके भाई ने वर्षों से इस डेटा को एकत्र किया है, जिसमें सरकारी आंकड़ों को चुनौती देते वास्तविक आंकड़े लिखे हैं.
लेकिन चुनाव में सरकार द्वारा दी जाने वाली स्वास्थ्य व्यवस्था, मतदाताओं के एक बड़े वर्ग के बीच वोट देने का महत्वपूर्ण कारण नहीं है. गोरखपुर के स्थानीय निवासी योगी आदित्यनाथ से खुश हैं.
35 वर्षीय महफूज अहमद कहते हैं, "कोविड महामारी प्रकृति की देन है. सरकार ने अपनी तरफ से व्यवस्था में कोई कमी नहीं छोड़ी.” उनकी दवाइयों की दुकान बीआरडी मेडिकल कॉलेज के सामने है.
Also Read
-
BJP faces defeat in Jharkhand: Five key factors behind their setback
-
Newsance 275: Maha-mess in Maharashtra, breathing in Delhi is injurious to health
-
Decoding Maharashtra and Jharkhand assembly polls results
-
Pixel 9 Pro XL Review: If it ain’t broke, why fix it?
-
How Ajit Pawar became the comeback king of Maharashtra