गूंगे निकल पड़े हैं ज़बां की तलाश में, सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिए

चुनावों के दौरान और उसके बाद भारत का मीडिया एक निर्णायक मोड़ से गुजरा है. यह पत्रकारिता के लिए ही नहीं बल्कि लोकतंत्र के लिए भी ज़रूरी था.

WrittenBy:निधीश त्यागी
Date:
नरेंद्र मोदी की तस्वीर और यू-टर्न का प्रतीक चिन्ह.

उन्हें भी पता है कि उनकी किसी बात का बहुत मतलब नहीं रह गया है. चाहे वह संसद में बोलें, या लाल क़िले पर. उनके टेलीप्रॉम्पटर और स्पीच राइटर को भी पता है. और देश को भी पता चल रहा है तेज़ी से. और उनके घटते, सिमटते, अपनी ग़ैरत खोते हुए इको चैम्बर को भी.

धीरे धीरे सब दरक रहा है. सिर्फ़ सड़क, पुल, छतें नहीं. पूरा देश ही. और वे भी.

जो कुछ 2024 के आम चुनावों में बदलना था, बदल चुका है. पासा पूरी तरह नहीं पलटा, पर बिसात नये सिरे से बिछती दिखलाई पड़ रही है. लोकतंत्र आईसीयू से वेंटीलेटर पर जाते-जाते रह गया पर है अभी भी अस्पताल में ही. मानसून और बजट का सत्र हो चुका है. लोकतंत्र में चुनाव उम्मीद लेकर आते हैं कुछ बेहतर की. यह उम्मीद वाजिब थी, कि मिली जुली सरकार बनने के बाद शायद सत्तारूढ़ ताक़तों को कुछ अक्ल आएगी और वह अपनी पुरानी हेकड़ी को छोड़कर उन कामों को ठीक से करेंगे, जिसके लिए उन्हें वोट मिला है. वह विपक्ष के लोगों की सुनेंगे और तालमेल के नये रास्ते निकालेंगे. पर पिछले दो महीनों से जो भी हैडलाइंस सुनने और पढ़ने में आ रही हैं, ये समझ में आ रहा है कि सरकार अभी भी पुराने तौर तरीक़ों पर बरकरार है. इससे उसकी उलझनें और उससे भी ज़्यादा खीझ और बढ़ी है. साथ ही गंभीरता और विश्वसनीयता और घटी है. हम इस समय की सारी सुर्ख़ियां देख सकते हैं, जिसमें सरकार अक्षम, मजबूर, कमजोर, थकी और कमअक्ल पहले से ज़्यादा साफ़ और रेखांकित नज़र आ रही है. चाहे कश्मीर का मामला हो, रेल का, नीट का, बजट का, बांग्लादेश का, हिंडनबर्ग का, अयोध्या के मंदिर का, बिहार के पुलों का, ओलिंपिक खेलों का, संसद से सड़क तक.. एक-एक कर के सब धसक रहा है, चू रहा है, गिर रहा है, फट रहा है. ख़ास तौर पर हर उस जगह पर जहां उनके चरण पड़े और उनके हाथ से झंडा हिलाया गया. उस जघन्यता के बारे में सोचना थोड़ा अजीब और मुश्किल लगता है कि अगर फिर से बहुमत आ जाता तो क्या होता. सियासत कैसी होती, अदालतें, नौकरशाही, बाज़ार.. और अपना मीडिया.  बहुत कुछ बदल गया है, बदल रहा है, पर कुछ लोगों को अभी भी यह लग रहा है, कि सब कुछ पहले की ही तरह है.

कोशिश तो अभी भी बहुत की जा रही है, पर अब चिपक नहीं रहा लोगों के ज़हन में. क़ानून को ताक पर रखकर बुलडोज़र अब भी चल रहे हैं, मुसलमानों को अभी भी प्रताड़ित किया जा रहा है, संसाधनों की बंदरबांट अभी भी चल रही है, मुद्दों से अभी भी भटकाया जा रहा है, सवाल अभी भी ठीक से पूछे नहीं जा रहे, जवाब देने से अभी भी मुकरा जा रहा है. सरकार बार-बार लोकतंत्र से शिकवा लेकर कोपभवन में चली जाती है. ब्रॉडकास्ट बिल की वापसी अबकी बार ‘यू-टर्न सरकार’ का मास्टर स्ट्रोक है, जिसे राजनीतिक इतिहास में उसी नीले रंग से लिखा जाएगा, जिस रंग की बाल्टी संसद की नई इमारत की चूती छत के नीचे रख दी गई थी. 

ऐसे में तीन जगह तेज़ी से हो रहे बदलावों को देखना, समझना ज़रूरी है. एक मुख्यधारा का मीडिया, दूसरा तेज़ी से आता हुआ डिजिटल स्टार्ट अप इको सिस्टम और तीसरा सोशल मीडिया की दुनिया में आ रहे बदलाव.

मुख्यधारा मीडिया की सिमटती दुकान, उठते मजमे

मुख्यधारा का मीडिया अभी भी पुराने मजमे लगाए हुए है, पुराने प्राइम टाइम हांके ही लगाए जा रहे हैं, जबकि लोगों की बातचीत के विषय और जगह बदल चुकी हैं. देश अब ख़ुद से बात करने के लिए मुख्यधारा के मीडिया प्लेटफ़ार्म की तरफ़ नहीं देख रहा. न पढ़ रहा है. सरकार, सत्ता और उसके कारिंदों को लगता है कि वह ऐसा करके लोगों का ध्यान सच से हटा लेंगे. ये जो नया ब्रॉडकास्टिंग क़ानून का मसविदा है, इसे पढ़कर लगता है कि सरकार को भी पता है उन्हें कोई गंभीरता से नहीं लेता. ये क़ानून बनाया ही इसलिए जा रहा था कि सरकार अपना नियंत्रण उन डिजिटल पत्रकारों और प्लैटफॉर्म्स पर कर ले, जो उनकी हैंडआउट हैडलाइन्स नहीं चलाते, एक सुर में ट्वीट नहीं करते, एक ही ताल पर वाहवाही नहीं करते. वे मोदी की रूस यात्रा पर भी जयजयकार कर रहे थे, और यूक्रेन यात्रा में भी. बिल वापस लेने के बाद भी ज़रूरी नहीं कि आगे सरकार ऐसी कोशिश न करे. तपस्या में जो कमी रह गई थी, उसकी भरपाई कर वह फिर से नया शगूफा छोड़ सकती है.

पहले सरकारी माध्यम ने अपनी गरिमा, प्रासंगिकता, महत्व और असर खोया. अब सरकार भी जान रही है मुख्यधारा का मीडिया की रेल भी अश्विनी वैष्णव की तरह पटरी से उतर चुकी है. पिछले दस सालों में इतना कुछ हो गया है कि मुख्यधारा मीडिया अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए पत्रकारिता, जनपक्षधरता और संवैधानिक मूल्यों की बुनियादी शालीनता को तिरोहित कर चुके हैं. जैसा कि हम नौकरशाही और अदालतों में भी देख रहे हैं. बिना बात के जेल में डाले गये छात्रों, अकादमिक और एक्टिविस्ट लोगों को अगर ज़मानत भी मिलती है, तो हम इसे इंसाफ़ की जीत मानने लगते हैं. लोकतंत्र इस कदर ख़तरे में हैं. उन्हें विचार से ख़तरा है, तर्क से ख़तरा है, स्टैंड अप कॉमिक, कार्टूनिस्ट, छात्रों, पहलवानों, महिलाओं, सिविल सोसाइटी के लोगों से भयानक ख़तरा है. उस सारी हेकड़ी के बरक्स जो सरकार के झंडाबरदार संसद और सार्वजनिक मंचों से ठेलते रहते हैं.

एक बार फिर टाल दिये गये नये ब्राडकास्टिंग क़ानून को लेकर भी कहा जा रहा है कि सरकार पीछे हट रही है. इस क़ानून को बनाने पर ही एक वेब सीरीज़ बन सकती है, जिसके कई सीज़न है. शेष अगले अंक में और गतांक से आगे के बीच जारी. पर इस सबमें सरकार की नीयत साफ़ देखी जा सकती है. एक वह अभिव्यक्ति की आज़ादी की पक्षधर नहीं है. उसे पारदर्शी, जवाबदेह और साझा विमर्श करने की अक्ल अभी भी नहीं आई है. तीसरा उसे हर उस जगह से दिक़्क़त है, जहां सरकार की नीयत, कार्रवाई और करतूतों पर सवाल किये जाते हैं. सरकार ख़ुद को ख़तरे में जब देखती है, तो उसके करम डर से निकलते हैं. उसे अपने लोगों, देशवासियों पर भरोसा नहीं रह जाता. वह उन्हीं को शक के दायरे में और कठघरे में खड़ा करने लगती है. कुछ राष्ट्राध्यक्षों को (बांग्लादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान) देश छोड़कर भागना भी पड़ा है, हालांकि, हमारे यहां भला ऐसा क्यों होने लगा. पर मोटे तौर पर जो प्रवृत्तियां हरकत में थीं, क्या वे बहुत अलग थीं? बढ़ती हुई बेरोज़गारी, गैरबराबरी, क्रोनी पूंजीवाद, चरमराती हुई न्याय और अर्थव्यवस्था, धर्म का इस्तेमाल और बहुसंख्यवाद का बेशर्मी के साथ साथ देकर समाज का ध्रुवीकरण करना. मेनस्ट्रीम मीडिया इसका एक और पहलू है.

सरकार का सूचना, पारदर्शिता, जवाबदेही को लेकर कितनी प्रतिबद्धता है, वह सूचना के अधिकार को लेकर उसके रवैये को देखते हुए जाना जा सकता है. आज़ाद प्रेस को लेकर भारत दुनिया में किस कदर नीचे गिरा है, वह अपने आप में इस देश को चलाने वालों के लिए शर्म की बात होनी चाहिए थी. पर गिरते, दरकते लोकतंत्र की ही तरह वह इसे भी झुठलाने में लगी है.

पहले सच का कत्ल हुआ, फिर पत्रकारिता का और फिर..

जो बात तय है, वह यह कि यह प्रस्तावित क़ानून एक तरह से मीडिया की पूर्व व्यवस्था को लेकर श्रद्धांजलि जैसा कुछ है. यह भी एक क्रूर मज़ाक़ है कि जिस मेनस्ट्रीम मीडिया ने ख़ुशी के साथ सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी के लिए यूजफुल इडियट (उपयोगी मूर्ख) की भूमिका निभाई, यह कार्रवाई उसकी उपयोगिता ख़त्म होने की घोषणा है. पहले उससे सच का शिकार करवाया, फिर ख़ुद उनका शिकार बना दिया. इसीलिये सरकार और पतंजलि के अलावा उनकी आमदनियों के रास्ते घटते जा रहे हैं. प्राइमटाइम पर सरकार के तरफदार हांकानिगार पिछले दस सालों से जो आल्हा गाये जा रहे थे, अब दयनीय विदूषकों की तरह दिखलाई पड़ रहे हैं. जैसे-जैसे उनका असर घट रहा है, नौटंकियां, शोर, जहालत, सनसनी उतनी ही बढ़ती जा रही है. असर फिर भी नहीं हो रहा. इनके बच्चे जब बड़े होकर इनका फ़ुटेज देखेंगे, तो वे भी हैरान होकर हंसेंगे. जैसा बाक़ी लोग अब हंस रहे हैं. लोकतंत्र हंस रहा है. वे पतंजलि का च्यवनप्राश खाकर अभी भी रायसीना से आई पर्ची पर अपनी हैडलाइन बना रहे हैं. वे इस समय के प्रहसन में ऐसे विदूषक हैं, जिसमें वे ख़ुद चुटकुले हैं, और लोग उनके रासो और चारण परम्परा पर कम उन ही पर हंस रहे हैं. जो अनिवार्य अर्हताएं इन लोगों के लिए पिछले दस सालों से रहीं है, शर्म और ग़ैरत उसमें नहीं हैं. सरकार को पता है कि मेनस्ट्रीम मीडिया अपनी एक्सपायरी डेट के क़रीब जा चुका है. ये मीडिया का कोरोनिलकाल था.

उनके ताबूत में आख़िरी कील इस चुनाव का कवरेज था. लीगेसी मीडिया (प्रिंट और टीवी) की एक दिक़्क़त यह भी है कि वे समय रहते बदल नहीं पाते. और उन्हें बहुत वक़्त लगता है ख़ुद में बदलने में. हालांकि, उनका काम यही होता है बदलावों को लेकर बाखबर रहना और उसके बारे में ख़बर करना. पिछले दस सालों में न सब्सटेंस रहा, न स्टाइल. न ईमानदारी. इनकी भूमिका देश, काल, समाज में वैसी ही रही जैसे कोरोना से निपटने में कोरोनिल की थी. ये क़ानून अब लागू हो न हो, गोदी मीडिया को अब उतारकर फ़र्श पर फेंक दिया गया है.

वे प्रधानमंत्री को झूठ बोलते सुनते रहे और हां में हां मिलाते रहे. वे देखते रहे सांप्रदायिक नफ़रत को चुनावी रैलियों में खुले आम इस्तेमाल होते और सवाल करने से बचते रहे. वे झूठे चुनावी सर्वेक्षणों की क़समें खाते रहे और असली नतीजे आने पर टांगों के बीच दुम दबाकर बैठ गये. वे न सच को ठीक से स्वीकार पाए न झूठ को चुनौती दे सके. वे प्रोपोगंडा भोंपुओं में बदल गये और झूठ को आगे बढ़ाते रहे. नौटंकी के मामले में वे एकता कपूर से आगे निकल गये. बदज़ुबानी के मामले में कंगना नौत से आगे.

इस मीडिया के चेहरे ज़्यादातर कठपुतलियां हैं. एक तरफ़ वे लोगों को असली एजेंडे से भरमाने की कोशिश करते रहे. कई बार उन्होंने किसानों, विद्यार्थियों और पहलवान खिलाड़िनों के ख़िलाफ़ भी एजेंडा चलाया, साथ में विपक्षी पार्टियों के नेताओं और सिविल सोसाइटी के एक्टिविस्टों पर भी निशाना साधा. वे एक कोरियोग्राफ्ड न्यूज़ एजेंडे को बिना सूझे समझे लादते रहे. वे प्रोपागंडा मशीनरी में शामिल होते रहे, जबकि 2014 से पहले तक ये काम सरकारी मीडिया ही करता था. उन्होंने पहले सरकारी मीडिया की प्रासंगिकता और उपयोगिता ख़त्म की, फिर ख़ुद अपनी भी. ये सब इस समय की राजनीति, मीडिया घरानों की स्थिति भी स्पष्ट करता है. जब जहां ज़रूरी हुआ, वे चुप्पी साधे रहे, ग़लत जगह पर बोले और झूठ को फैलाने में उत्साही भागीदारी दिखलाई.

थोड़ा इंतज़ार कर देखने पर ऐसा होगा कि या तो ये बुक्का फाड़कर रोएंगे या फिर पाला पलटने लगेंगे. और यह दोगलापन भी साफ़ दिखलाई देगा. जो रामदेव ने सुप्रीम कोर्ट में किया, उसकी क़तार लम्बी है. पर रामदेव हो या तथाकथित मुख्यधारा, दोनों के लिए देर हो चुकी है. चाहे विश्वसनीयता का सवाल हो, चाहे निष्पक्षता, जनपक्षधरता का या फिर सरकार से जवाबदेही मांगने का. प्राइम टाइम देखते देखते टाइमपास होते हुए टाइम वेस्ट हो चुका है. उनके एंकरों को पता ही नहीं है, कि अदृश्य मालाएं टंग चुकी हैं उनकी डेली बकवास पर. या शायद उन्हें पता है, पर अब कोई विकल्प नहीं. मुख्यधारा के मीडिया की आर्थिक निर्भरता जब सिर्फ़ सरकार और रामदेव टाइप के दोयम कारोबारियों पर हो, तो इंडस्ट्री की मजबूरी है चाटुकारिता (दोनों तरह की). पर पहले लोगों ने उन्हें गंभीरता से लेना बंद किया, और अब सरकार ने भी.

अब उन्हें कोई भी संजीदगी से नहीं लेता. वे ख़ुद भी नहीं. पता नहीं वे कब तक चलते रहेंगे. और क्यों? अगर अटेंशन सबसे बड़ी करंसी है मीडिया के लिए, तो उनकी तरफ़ से ध्यान, उनकी विश्वसनीयता, उनकी पहुंच, उनका असर तेज़ी से विलीन होता जा रहा है. और उन्हें पता ही नहीं, कि वे जो अपने डूबते जहाज़ों पर लदे हुए पढ़ रहें हैं, उस मीडिया का मर्सिया है, जिसे हम पारम्परिक कहते हैं.

डिजिटल स्टार्ट अप की दुनिया

अपनी समझ बेहतर करने के लिए लोग कहीं और जा रहे हैं. हर निकम्मी और डरी हुई सरकार जानती है कि परसेप्शन के खेल में बने रहने के लिए उसके पास इन स्रोतों पर नियंत्रण बनाए रखने के अलावा कोई रास्ता नहीं. उसे विचार, अभिव्यक्ति, सवाल, सच से दिक़्क़त है. एक तरफ़ यह सरकार डरी हुई है, दूसरी तरफ़ क्रूर और आक्रामक भी. यह क़ानून जन की आवाज़ के सामने असहाय महसूस करते तंत्र का सबूत है. इसे लग रहा है कि वह क़ानून के सहारे दुनिया के सबसे आबाद मुल्क की ज़ुबान पर ताला लगा सकता है. इसे लग रहा है कि वह विपक्ष या दूसरे हिस्सेदारों से बात किये बिना अभी भी क़ानून बना कर अपनी धौंसपट्टी देश पर थोप सकता है. यह डर इस बात से आता है कि जहां से ख़बरें और उनके अर्थात् को समझने के लिए लोग जा रहे हैं, वह उनके क़ाबू से बाहर है. चुनावों के दौरान जिन यूट्यूब चैनलों तक लोग गये, वे डिजिटल स्टार्ट अप ज़्यादा थे. चाहे वह देशबंधु का डीबी लाइव हो, या रवीश कुमार, सत्य हिंदी या फिर अजीत अंजुम या पुण्य प्रसून वाजपेयी या फिर न्यूज़लॉन्ड्री और द वायर जैसे कई सारे दूसरे चैनल भी. ज़्यादातर छोटी टीम के साथ, अपनी पत्रकारिता के साथ. बड़े मीडिया के बरक्स ये दबे पांव एक बड़ी बग़ावत हुई है, जहां कंटेंट और उसे देखने और सुनने वालों के बीच बिज़नेस (इंडस्ट्री) का बड़ा रोल नहीं है. सूचना और जानकारी तो लोगों तक अब इंटरनेट के कारण आसानी से पहुंच रही थी, पर अब उनका मतलब क्या है और उसका क्या किया जाए, यह समझना आसान हुआ है. इस अर्थात् को पहुंचाने का काम मेनस्ट्रीम मीडिया का ही था, जिसमें वह घामड़ तरीक़े से नाकामयाब हुआ. इसलिए भी कि पत्रकारिता को गंभीरता से लेने और करने वालों को वहां हाशिये पर किये गया और जिनके पास ख़ुद पर भरोसा था, उन्होंने ख़ुद अपना प्लेटफ़ॉर्म बनाया. यह इस समय का सबसे बड़ा, निर्णायक और क्रांतिकारी बदलाव है.

फिर एक दूसरी पौध उन स्टार्ट अप चैनल की है जो अपनी कम्यूनिटी ख़ुद बना रहे है. जैसे मूकनायक है या मकतूब मीडिया या क्षेत्रीय या भाषाई स्तर पर. डिजिटल स्टार्ट अप का इकोसिस्टम एक तरह से मीडिया का लोकतांत्रिकरण कर रहा है, जिससे हमारे विमर्श, समझ और चेतना की ज़्यादा खिड़कियां खुलती हैं और दुनिया भी बड़ी होती है, अपनी विविधता और इनक्लूसिविटी के साथ.

एक बड़ी बात यह भी है कि इन जगहों पर ज़्यादातर ऐसे हैं, जहां विज्ञापन के कारोबार को एक तरह से बाइपास कर दिया गया. ज़्यादातर जगह चंदे और सब्सक्रिप्शन का मॉडल आया और बाक़ी जगह डिजीटल रेवेन्यू पैदा किया गया कंटेंट के दम पर. कंटेंट बनाने और उसे देखने सुनने वालों के बीच किसी और मजबूरी की गुंजाइश नहीं रही. इससे पत्रकारिता के बुनियादी मूल्यों में फिर से प्राण प्रतिष्ठा होती दिखने लगी, जो मुख्यधारा के मीडिया में लगातार ग़ायब हो रही थी. और ये सब सरकार, सत्तारूढ़ दल और उनके पिछलग्गुओं को इतना नागवार गुजरने लगा कि उन्हें भी धमकियों, हमलों का शिकार बनाया जाने लगा. चाहे अदालतों में घसीट कर, या टैक्स या ईडी वालों को भेजकर. यह उनके प्रभाव और उनकी प्रामाणिकता का लोहा मानने की शुरुआत भी थी.

इन चुनावों में सिर्फ लोकतंत्र ही नहीं बचा. पत्रकारिता भी बच गई. इन्हीं लोगों की वजह से, जिन्होंने मेनस्ट्रीम को छोड़कर अपनी पगडंडियां ख़ुद बनाईं. जैसा राजनीति में विपक्ष और उसकी भोथरी एकजुटता के बावजूद बहुत से ग़ैर राजनीतिक लोगों ने लोगों की राय बनाने के लिए चुनाव में भागीदारी की, सिर्फ़ भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी की निरंकुशताओं को हराने के लिए नहीं, बल्कि देश को बचाने के लिए. क्या होता अगर मेनस्ट्रीम चैनलों पर जो कुछ दिखाया बताया जा रहा था, सच हो जाता. सोचने पर सिहरन होती है.

और डिजिटल न्यूज़ स्टार्ट अप का ये मॉडल एक तरह से प्रूफ़ ऑफ कन्सेप्ट है. इसमें कम से कम ऑडियेंस और कंटेंट बनाने वाले के बीच अगर कोई वाणिज्य है, तो वह मोटे तौर पर सीधा है. लोगों को अपने काम की ईमानदार ख़बर, राय, विश्लेषण के लिए पैसे या चंदा देने का विकल्प ज़्यादा मुआफ़िक़ है, बजाय विज्ञापनदाता, सरकार या रामदेव के कहने पर झूठ दिखाने और सच छिपाने की तिकड़म.

मिलावट शायद इसमें भी होगी. पर इसका फ़ैसला लोग ख़ुद कर सकेंगे. और जब कोई इसमें डंडी मारेगा, तो उसे उन्हीं क़ानूनों के तहत जवाब भी देना पड़ेगा, जो अभी देश में हैं. बिना विमर्श के, बिना सलाह मशविरे के, बिना सोचे समझे जो क़ानून बनाया जा रहा है, उसमें किसका स्वार्थ निहित है? सिवा सरकार के.

सबसे बड़ी लगाम की ज़रूरत तो ख़ुद सरकार को थी, जो भ्रामक और ग़लत जानकारियां, ग़लत बयानी और दुष्प्रचार में पिछले दस साल से लगातार लगी रही. ख़ुद फेक न्यूज़ के पैरोकारों, नफ़रत फैलाने वालों, क़ानून को धता बताने वालों, संविधान का मज़ाक़ उड़ाने वालों को प्रश्रय और उत्साहवर्धन करती रही. देश को ख़तरा किससे है, यह अगर सरकार देख पाती तो पहले ख़ुद पर कार्रवाई करती.

सोशल मीडिया का उड़ता हाथी

मेनस्ट्रीम का मीडिया जब विश्वसनीयता के घोर संकट से जूझ रहा हो और नये इकोसिस्टम की कोंपलें ही फूट रही हैं और उनके मुकम्मल और तसल्लीबख़्श पेड़ बनने में अभी समय है. ख़ुद से साथ बातचीत करना हो, या फिर धारणा बनाना, बदलना, देश सबसे ज़्यादा इस्तेमाल सोशल मीडिया का ही कर रहा है. उनका यक़ीन भी यूट्यूब और व्हाट्सएप पर बाक़ी स्रोतों की तुलना में ज़्यादा है.

यह देखना दिलचस्प है कि जिस सोशल मीडिया का सहारा लेकर मोदी, झूठ, नफ़रत, हिंसा और गोडसेवाद ने इस देश की सामूहिक चेतना में घुसपैठ की, जगह बनाई और ज़हर फैलाया, अब उन्हें ही वह नागवार गुजर रहा है. दिक़्क़त यह है कि इन्हें नौ में से एक ही रस लूप में आता है और जिसे वह वीर रस कह रहे हैं, वह दरअसल वीभत्स ही है. और वह जितना मुंह खोलते हैं, उनका सत्व और तत्व रामदेव के नीमहकीमी नुस्ख़ों की तरह फ़र्ज़ी है, जिसके बारे में सुप्रीम कोर्ट में माफ़ी मांगी जा चुकी है. पर तमीज़ आते आते अभी वक़्त लगने वाला है.

सोच के तो इंफ्लूएंसरों की बैठक यूं बुलाई थी, कि कुछ वोट मिलेंगे. पर ऐसा हुआ नहीं. चुनाव के बाद से ट्रोल की तरफ़ देखा जाना चाहिए. क्योंकि अभी भी सबसे ज़्यादा मीडिया (अटेंशन, समय और ऊर्जा) व्हाट्सएप पर ही है. देश में ख़ास तौर पर अयोध्या में हार के बाद बिदके हुए भक्तों के ट्रोल देखकर एक और बदलाव का अंधड़ आया. और चला गया. फिर कांवड़ियों के मामले में भी. फिर एक शंकराचार्य के ख़िलाफ़ भी. फिर बांग्लादेश में हुए छात्र आंदोलन और विद्रोह के बाद भारत के बहुसंख्यकों में यकायक वहां के अल्पसंख्यक वर्ग के लिए उमड़ी सहानुभूति भी एक प्रसंग है, जबकि बांग्लादेश के बहुसंख्यक और वहां की अंतरिम सरकार हमारी सरकार से ज़्यादा जागरूक, संवेदनशील और ज़िम्मेदारी से बर्ताव करती दिखलाई पड़ रही हैं. पिछले दस सालों में सबसे बड़ा नुक़सान भारत का ये हुआ है कि वह अपनी नैतिक ताक़त को तेज़ी से खो चुका है. चाहे वह बांग्लादेश के मामले में दुष्प्रचार फैलाना हो, या फिर फिलीस्तीन को लेकर या फिर भारत के भीतर ही अल्पसंख्यकों पर बढ़ती ज़्यादतियों को लेकर.

पर यह भी देखने में आया है कि जो लोग पंगे न लेने की शराफ़त में हाल तक चुप थे, बोलने लगे हैं. इस चुनाव ने ये ज़रूर किया है जो दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहें तो- गूंगे निकल पड़े हैं ज़ुबां की तलाश में/ सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिये. अब तक का कोर भाजपा वोटर- यानी सवर्ण हिंदू मध्य वर्ग भी बजट के बाद बिलबिलाता दिखने लगा है. विपक्ष बोलने लगा है और सरकारी चेहरों के विपरीत उनके भाषण और बयान ज़्यादा सुने और देखे जा रहे हैं. चुनाव बीत चुके हैं, पर चुनाव आयोग पर लगते लांछन कम नहीं हुए हैं. अदालतों में हल्की सी ही, पर हरकत है.

ऐसा हमेशा बना रहेगा, नहीं कहा जा सकता. पर ये लड़ाई लगातार और लंबी चलने वाली है. सोशल मीडिया का सिस्टम भी गेम किया जाता है. चाहे ट्विटर का हो, या फ़ेसबुक और यूट्यूब का. भारत के लोग इनके सबसे बड़े बाज़ार हैं और इसलिए इनके लिए बाज़ार में रहना ज़्यादा ज़रूरी है बजाय ईमानदार रहने के. नतीजतन सरकार अपनी धौंस पट्टी इन प्लेटफार्म्स पर भी चला रही है, और वे भी सरकारों पर अपने दांव आज़माते रहते हैं. यूरोप और अमेरिका में उन पर बाक़ायदा अदालती और संसदीय कार्रवाइयां शुरू हो चुकी हैं, जिससे अभिव्यक्ति, लोकतंत्र, अधिकारों को लेकर लगातार उन पर सवाल किये जा रहे हैं. यह भी लंबी प्रक्रिया है, जो भारत में अभी नहीं दिखलाई पड़ती. पर वह भी एक मोर्चा है, जहां पर देश को उन सवालों को लेकर लगातार उलझना पड़ेगा, ताकि लोकतंत्र बचा रह सके. पिछले दस-बारह सालों में सोशल मीडिया का इस्तेमाल अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम सबसे ज़्यादा नफ़रत, ध्रुवीकरण, हिंसा फैलाने वाली ताक़तों ने ही किया है. अब भी कर रहे हैं. इनमें वे लोग भी शामिल हैं, जो ये प्लेटफ़ॉर्म चला रहे हैं.

ट्विटर (अब एक्स) के मालिक इलॉन मस्क अमेरिका में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनल्ड ट्रम्प के तरफदार हैं. उसी ट्रम्प के, जिसके ऊपर अपनी ही सरकार के ख़िलाफ़ हमला करने, पोर्न स्टार से बलात्कार करने, टैक्स को लेकर झूठ बोलने के साबित अपराध हैं और अपने देश के प्रधान ने जिसके लिए अबकी बार ट्रम्प सरकार कह कर चुनावी प्रचार किया था. अब जब भारतीय मूल की कमला हैरिस ट्रम्प को चुनौती दे रही हैं, तो मोदी जी पता नहीं क्या करेंगे. उधर मेटा के जकरबर्ग के बारे में भी कयास लगाए जा रहे हैं कि वे अमेरिकी संसद में माफ़ी मंगवाए जाने के बाद ट्रम्प के साथ होंगे या ख़िलाफ़. जकरबर्ग की कंपनी मेटा- फेसबुक, व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम तीनों की मालिक है. इस बीच व्हाट्सएप के बाद सबसे ज़्यादा लोकप्रिय चैटएप टेलीग्राम के रूसी मूल वाले मालिक पॉल दुरोव को फ़्रांस में गिरफ्तार कर लिया गया. यूट्यूब और गूगल के ख़िलाफ़ मुक़दमे बढ़ रहे हैं और उन पर शिकंजे भी कसे जा रहे हैं. चीनी कंपनी टिकटॉक को अमेरिका में बैन कर दिया गया था. गलवान में चीनी फ़ौजियों के न घुसने के बाद भारत ने भी मज़बूत जवाबी कार्रवाई करते हुए टिकटॉक को भारत में बैन कर दिया (हालांकि हाल के बजट में चीनी कंपनियों के लिए फिर से कालीन बिछाए जा रहे हैं.) लंबे समय तक पाकिस्तान में यूट्यूब पर बैन था, फिर भी कोक पाकिस्तान अपने भारतीय वर्जन से लोकप्रियता के मामले में आगे रहा.

लोकतांत्रिक सरकारों की ही तरह टेक कंपनियां लगातार इन आरोपों के घेरे में आती जाती है कि एक बार अपना प्रसार संख्या बना कर, ये लगातार लोगों, बच्चों, स्त्रियों की प्राइवेसी, अपने ऐल्गोरिद्म के ज़रिये विपक्षी नेताओं को म्यूट करने जैसी हरकतें करती हैं. ख़ुद मस्क ने कहा है कि सरकारी दबाव के आगे वे मजबूर हैं. एक तरफ अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर कारोबार जमाते हैं, फिर उन्हीं लोगों का डाटा इस्तेमाल करते हैं और फिर सेंसरशिप में शामिल हो जाते हैं. एक तरफ़ अमेरिका, यूरोप, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में हम सोशल मीडिया और टैक कंपनियों को जवाबदेह और पारदर्शी बनाने के लिए लगातार बहस और कार्रवाइयां देख रहे हैं, दूसरी तरफ़ भारत में उनका दोहरा इस्तेमाल हो रहा है. एक तरफ़ गोडसेवादी ताक़तें लगातार इस पर हिंसा, नफ़रत, प्रोपोगंडा फैला रही हैं, दूसरी तरफ़ उन्हीं के सरकारी सरमाएदार उन पर सवाल करने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करते और करवाते हैं. सोशल मीडिया का हाथी हमारे विमर्श का सबसे नया हिस्सा है और सबसे बड़ा हाथी भी. साथ ही वह एक वर्क इन प्रोग्रेस है. इसलिए हमें उम्मीद करनी चाहिए कि जहां भी लोकतंत्र और अदालतें, मीडिया और अक्ल ठीक से काम कर रही है, इन कंपनियों को मुनाफ़ाख़ोरी के चक्कर में आदमखोर होने नहीं देंगी. ब्रॉडकास्ट बिल की वापसी को अच्छाई की जीत माना नहीं जा सकता. वह नीयत अभी भी है. जो एक अच्छे भले लोकतंत्र को तानाशाही प्रवृत्ति में बदल देती है.  इसी ग़ज़ल का एक और शेर है- उन की अपील है कि उन्हें हम मदद करें/ चाक़ू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिए.

इन्हीं प्रवृत्तियों से लड़ते हुए लोकतंत्र, आज़ादी और देश यहां तक पहुंचा है. और ये लड़ाई जारी ही रहेगी. 

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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