पत्रकारों पर हमला: सरकारी हंटर का भय धीरे-धीरे पत्रकारिता की शिराओं में फैलता जा रहा है

सोमवार को प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया में पत्रकारों की एक सभा रखी गई. इस सभा में पत्रकारों पर बढ़ रहे हमलों पर बातचीत हुई. लेकिन क्या ऐसे आयोजन काफी हैं?

   

नायनन की तरह ही कर्णिका ने भी कुछ सुझाव दिए हैं. उन्होंने हमें बताया, "हमें ऐसे ग्रुप की जरूरत है जो सोशल मीडिया की रीच पर ध्यान लगाकर काम करे. एनडीटीवी, वायर, न्यूज़लॉन्ड्री, कारवां और स्क्रॉल के अलावा कोई और इस तरह के आयोजनों की कवरेज नहीं करता, और इसलिए ऐसे आयोजनों में दिए गए संदेश कम लोगों तक पहुंचते हैं."

क्या इस तरह की सभाओं का कोई फायदा नहीं?

कर्णिका के सवाल वाजिब लगते हैं. क्या पत्रकारों के समर्थन में सभा आयोजन कर लेने भर से सब ठीक हो जाएगा? इस पर हमने वहां मौजूद कई पत्रकारों से बातचीत की.

स्वतंत्र पत्रकार प्रभजीत सिंह ने कहा, "मेरी चिंता इस तरह के आयोजनों की मौलिकता को लेकर है, क्या बंद कमरे के बाहर ये कोई प्रभाव छोड़ पाते हैं?" प्रभजीत एक उदाहरण से समझाते हैं, "इस साल की शुरुआत में मैं श्रीनगर में था. वहां का प्रेस क्लब बंद था पर दिल्ली में इसकी कोई चर्चा तक नहीं होती थी. आज की सभा अच्छी पहल पर ख़त्म हुई है लेकिन अभी बहुत कुछ करना बाकी है."

कारवां के पॉलिटिकल एडिटर हरतोष सिंह बल ने कहा कि इस तरह की सभाएं जरूरी हैं, लेकिन काफी नहीं. वह कहते हैं, "मैं 2014 से इस तरह की सभाओं में अपने विचार रखता हूं. कानूनी सहायता जैसे सुझावों की बात बरसों से हो रही है. हमें ऐसे लोगों की जरूरत है जो ये सब काम करने की जिम्मेदारी ले सकें. जो संगठन इस तरह के आयोजन कराते हैं, उन्हें मिलकर, जिन सुझावों की बात होती है उन पर काम करना चाहिए. वरना सब बेकार है."

हरतोष नामी डिजिटल मीडिया संस्थानों पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं, "राघव बहल, प्रणय रॉय या शेखर गुप्ता क्या यहां तभी आएंगे जब उनके पत्रकारों को निशाना बनाया जाएगा? अगर वे पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं तो उनकी आवाज कहां है?"

इस सभा के अंत में एक प्रस्ताव की पेशकश की गई. इसे पीसीआई महासचिव विनय कुमार ने पढ़कर सुनाया. इसमें मोहम्मद जुबैर की गिरफ्तारी पर विरोध दर्ज किया गया.

(आयुष तिवारी के सहयोग से)

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