पेरिस: जिन रज़ा को पहले नहीं देखा

पेरिस में सैयद हैदर रज़ा की कलाकृतियों की प्रदर्शनी लगी है. यहां चार महीने तक चित्रों का प्रदर्शन होगा.

WrittenBy:ओम थानवी
Date:
Article image

सैयद हैदर रज़ा कुछ और जीते तो 100 वर्ष के होते. दिल्ली में उनका निधन कोविड से काफ़ी पहले हो गया था, पर कोविड ने उनकी जन्मशती आयोजनों के सिलसिले में देर करवा दी. 

उनकी जन्मशती पर एक विशाल प्रदर्शनी का आग़ाज़ पेरिस के पॉम्पिदू सेंटर में मंगलवार को जिस अन्दाज़ में हुआ, उसका ख़याल शायद रज़ा साहब ने भी न किया हो. वे पेरिस में 60 साल रहे. उनकी कृतियां दूर देशों के संग्राहकों के पास गईं. जतन से इस प्रदर्शनी के लिए आयोजकों — रज़ा न्यास, पॉम्पिदू सेंटर, गीमे संग्रहालय आदि ने लगभग 100 प्रमुख कलाकृतियां जुटा लीं, जिन्हें देखने पेरिस के कलाप्रेमी हुजूम में उमड़ पड़े. 

मैं पेरिस आता रहा हूं, कला में इस शहर की रंगत और गंध की थाह रखता हूं. पर कला को आंख से निहारने की ऐसी तड़प मैंने क़रीब से पहली बार देखी. दीर्घा के पट पहले कला-समीक्षकों के लिए खुले. उसके बाद कला-रसिकों की बारी का आई. मैं मशीनचालित सीढ़ियों के नीचे लगी क़तार देखकर अचंभित नहीं तो स्तब्ध ज़रूर था. व्यवस्थाकर्मी रुक-रुक कर समूह ऊपर भेजते, मानकर कि इतने लोग प्रदर्शनी में आगे बढ़ गए होंगे. 

इसमें आकस्मिक शायद कुछ नहीं. कला की क़द्र पेरिस में नहीं तो कहां होगी. अपना देश छोड़कर पाब्लो पिकासो, वॉन गॉग, सल्वाडोर डाली, लॉइस मेलू जोन्स, लुईस ब्यूनुएल, क्रिस्तोफ़ कीस्लाव्स्की, एसएच रज़ा आदि यहीं क्यों सृजनोन्मुख हुए. क्योंकि पेरिस की हवा में कलाकर्म की ग़ज़ब प्रेरणा थी. सृजन की प्रतिष्ठा, परख की उत्कट धार, ईमानदार मान्यता का विवेक. 

रज़ा भले पेरिस में ज़्यादा रहे, पर उनका मन भारत में बसा रहा. प्रदर्शनी की कृतियां इसकी गवाह हैं. भारतीय दर्शन के साथ साहित्य से उन्हें विशेष अनुराग था. ख़ूब पढ़ते थे. डायरी में उद्धरण संजो कर रखते थे. बातचीत में किसी से जानदार बात सुनते, उसे लिख रखते. उन्हीं में से कुछ इबारतें रंगों-आकारों के बीच उतर आती थीं. कबीर, तुलसी, ग़ालिब, गांधी, योगवसिष्ठ, वेदान्त, अहिंसा, शांति, शून्य-मंडल.

केदारनाथ  सिंह और अशोक वाजपेयी की कविता भी. रज़ा साहब के अनन्य मित्र और उनकी स्मृति को जीवन देने वाले अशोकजी ने जन्मशती समारोह के उद्घाटन के वक़्त बताया कि वह कलाकृति (“मां लौटकर जब आऊंगा क्या लाऊंगा”) मूल रूप में उन्होंने इसी प्रदर्शनी के निमित्त देखी है. रज़ा के काम से परिचित लोग जानते हैं कि उनकी लिखावट भी कम कलात्मक नहीं थी. 

प्रसंगवश याद आया कि पेरिस में रज़ा साहब के घर मैं दो बार गया. पहली बार में 20 साल पहले. वे एक विराट कैनवस पर रंगरत थे. मानो आराधना की तरह डूबे हुए. मुझसे बोले, यह आपका राजस्थान है. रेत का समंदर. इस पेंटिंग के लिए कोई राजस्थानी नाम सुझाइए. मैंने दो-तीन नाम सुझाए. एक उनको जंच गया — “धरती धोरां री” (रेत के टीबों की धरती). इस इबारत वाली कृति अमेरिका के किसी संग्रह में है. काश इस प्रदर्शनी के लिए मिल पाती. रज़ा न्यास के संजीव कुमार ने भरोसा दिलाया है कि एक रोज़ वह भी देखने को मिलेगी!

बहरहाल, नामों के संदर्भ में ख़ास बात यह पेरिस में बसने और फ़्रांसी मूल के बाशिंदों की तरह फ़्रेंच बोलने वाले रज़ा साहब ने एक भी कलाकृति को फ़्रांसी नाम या उद्धरण नहीं दिया. उनकी एक ही कृति पर अंगरेज़ी इबारत मिलती है, बाक़ी सब जगह हिंदी. ग़ालिब और मीर भी देवनागरी में. 

प्रदर्शनी रज़ा की कलायात्रा का कोलाज है. मुंबई के दिन: लड़कपन की रेखाएं, अभ्यास के रूपाकार, मूर्तियों के रेखांकन, मलाबार पहाड़ी से प्रयाग तक की जलरंगी छवियां. पोर्ट्रेट. पेरिस के गिरजे और बस्तियां. इनके साथ चटक रंगों के वे तमाम अमूर्त रूपाकार, जिनसे रज़ा को बड़े सर्जक के रूप में विशिष्ट पहचान मिली. 

इन चुनिंदा और अलभ्य कृतियों से गुज़र आने के बाद किसी मित्र से बतियाते हुए बेसाख़्ता मुंह से निकला — इन रज़ा को मैंने पहले नहीं देखा. कुछ कलाकृतियों के सामने अपने ही शब्दों की गूंज मैंने ठिठककर बार-बार सुनी. बात को खोलते हुए कहूं तो तीखा लाल और काला रंग रज़ा को बहुत अज़ीज़ थे. इस संग्रह की अनेक कृतियों में स्निग्ध रंग दिखाई देंगे. मुंबई में रज़ा और अन्य कलाकारों द्वारा गठित प्रगतिशील कलाकार समूह (पीएजी) के साथियों के रंग भी नज़र आएंगे. 1949 की एक कलाकृति रज़ा की कूची में उस समूह के तीन कलाकारों का समूह-पोर्ट्रेट है — सूज़ा, आरा और रज़ा. रज़ा के बाक़ी काम से यह नितांत अलग रचना है, जहां पीला मुखर है. “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता” जैसी कुछ अन्य कृतियों में भी. 

रज़ा कैनवस पर उजाले के कवि थे. उनके काम में पीला और नीला ही नहीं, लाल भी रोशनी देता है. “पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला” (महादेवी वर्मा) की कृति में आकारों का घटाटोप उतने ही लालाकाश से आलोकित है. बरबस किशनगढ़-कांगड़ा लघुचित्र शैलियों का स्मरण कराते हुए. 

बाद के दौर में रज़ा के रंगों और रूपाकारों में एक उत्कट अनुशासन देखने को मिलता है. 60-70 के दशक की कृतियां अमूर्त ‘आकारों’ को खोलती थीं. रंग गुलाल की तरह उड़ते थे. गलबहियां करते हुए. जितना बांधते हुए, उतना ही मुक्त करते हुए. ज्यामितिक झुकाव के दौर में लरजती उंगलियों में हर आकार में एक संतुलन, एक दिशा, एक धार मौजूद रहती थी. जब-तब “सत्य” या “अहिंसा” जैसे स्पष्ट संदेशों के साथ. 

कलाकार राजनीतिक स्तर पर अक्सर मौन मिलते हैं. लेकिन कुछ सर्जकों के कलाकर्म में वक़्त की बेचैनी, संदेशों की तरंगें साफ़ पकड़ी जा सकती हैं. जैसे काला उनके काम में हताशा पैदा नहीं करता काले के साथ लाल तक उम्मीद का संसार रचता है. रज़ा जब-तब शब्दों को रंगों में पिरोकर यह काम और सहजता से अंजाम देते रहे. 

सैयद हैदर रज़ा के साथ उनके पेरिस निवास पर ओम थानवी (2004)

पेरिस की पॉम्पिदू प्रदर्शनी में रज़ा की जो कृति अंत में प्रदर्शित है, उसमें लाल और काले रंगों को काटता हुआ पीला है, किसी लपट की मानिंद. ऊपर धूसर होता सूरज. और नीचे सधी लिखावट में सहाब क़ज़लबाश की यह पंक्ति —

बुझ रहे हैं चिरागे़-दहरोहरम, दिल जलाओ कि रोशनी कम है.

Also see
article image"‘कश्मीर फाइल्स’ कहीं से भी कला से सरोकार नहीं रखती"
article imageअगर कला समाज का आईना है तो तैयार रहिये, खतरा सामने है

Comments

We take comments from subscribers only!  Subscribe now to post comments! 
Already a subscriber?  Login


You may also like