कर्नाटक में चुनावी महीना और समुदाय आधारित जनाधार पर निशाना

कर्नाटक में विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा दशकों से अलग-अलग सामाजिक समूहों को अपनी ओर मिलाने, खोने और उनकी परवरिश करने की कहानी.

WrittenBy:आनंद वर्धन
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एक महीने से भी कम समय के भीतर कर्नाटक एक नई विधानसभा के निर्वाचन के लिए मतदान करेगा. जैसा कि भारत में सभी बड़ी चुनावी प्रक्रियाओं के दौरान होता है, बड़ी संख्या में अलग-अलग तरह के कारक एक लोकप्रिय जनादेश की तस्वीर गढ़ेंगे. तमाम राजनीतिक दल और उम्मीदवार इस बात को लेकर सतर्क रहेंगे कि विभिन्न मुद्दों- शासन, विकास, पहचान की राजनीति के बारे में मौजूदा धारणाएं उनके जीतने की संभावनाओं को कैसे प्रभावित करेंगी.

साथ ही, चुनावी मैदान में उतरे प्रमुख प्रतिद्वंद्वी- भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और जनता दल (सेक्युलर) बेहद सावधानी से यह तय करेंगे कि उनके जनाधार के प्रमुख धड़े कैसे उन्हें फिर से वोट दिला सकते हैं. देश के अन्य हिस्सों की तरह ही, चुनावी तौर पर अहम सामाजिक समूहों को लुभाने की नीति पिछले सात दशकों में कर्नाटक में चुनावी लड़ाई की कहानी का एक खास पहलू रही है.

पिछले कुछ हफ्तों से भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकार द्वारा आरक्षण के कोटे में बदलाव के फैसले को, मुख्य तौर पर कुछ जाति समूहों को अपने भावी वोटर के तौर पर पक्का करने, या उनसे समर्थन मांगने के चुनाव-पूर्व कदम के रूप में देखा गया है. लेकिन तमाम तरह के दावों के बीच ऐसे लाभों को कोटे की सीमा के भीतर वितरित करना काफी पेचीदा काम है. इसके अलावा, ऐसे फेर-बदल के परिणामस्वरूप होने वाली प्रतिक्रियाएं हर बार बहुत-सी जरूरी जानकारियों के अभाव से गुजर रही होती हैं. इसका एक मतलब यह भी है कि इस तरह के कदमों के परिणाम कई बार ऐसे भी हो सकते हैं जिनकी बिल्कुल उम्मीद न रही हो.

यह फिर से उन बातों को सामने ला देता है कि कैसे, आजादी के बाद के चुनावी राजनीति के वर्षों में, राज्य में प्रमुख राजनीतिक ताकतों ने सामाजिक गठबंधन बनाने की कोशिशें की. यहां तक कि, इस प्रक्रिया को उस वक्त तक पीछे मुड़कर देखा जा सकता है जब 1956 में कांग्रेस पार्टी मैसूर नामक एक अपेक्षाकृत बड़े राज्य के गठन की कवायद तक पहुंच गई और 1973 में कहीं जाकर इसका नाम कर्नाटक रखा गया.

कांग्रेस के भीतर एक लिंगायत समूह द्वारा संचालित एकीकरण आंदोलन के नाम पर और 1955 की राज्य पुनर्गठन समिति की रिपोर्ट के आधार पर, मद्रास, बॉम्बे और हैदराबाद में कन्नड़ भाषी क्षेत्रों को बृहत मैसूर राज्य में शामिल कर लिया गया. इसका मतलब था कि वोक्कालिगा नामक भूमि-स्वामी जाति समूह (उस वक़्त तक राज्य के सबसे बड़े भू-स्वामी जाति समूह) को अब के राज्य के गैर-मैसूर भागों में उपस्थित बड़े और शक्तिशाली जाति समूह लिंगायतों के साथ साझा होने वाले राजनीतिक प्रभाव से ही संतुष्ट रहना था.

कांग्रेस ने दोनों को समायोजित करके जवाब दिया. आखिरकार, वोक्कालिगा और लिंगायत ही वो दो प्रमुख जाति समूह थे जो आजादी के बाद के पहले दो दशकों में सत्ता पर पार्टी की पकड़ का प्रमुख सामाजिक जनाधार बने.

लिंगायत-वोक्कालिगा समीकरण धुरी का दबदबा संख्या के लिहाज से बहुत स्पष्ट था. राजनीतिक टिप्पणीकार नलिन मेहता ने द न्यू बीजेपी में लिखा, 1952 से 1972 तक राज्य के विधायकों में लिंगायतों का औसत 31 प्रतिशत था जबकि वोक्कालिगा 27.9 प्रतिशत थे. एक ओर जहां लिंगायत 1952 में राज्य की आबादी का 15.5 प्रतिशत हिस्सा थे और वोक्कालिगा 12.9 प्रतिशत थे, वहीं वर्तमान में लिंगायतों की जनसंख्या का प्रतिशत 17-19 और वोक्कालिगाओं की जनसंख्या का प्रतिशत 15 के आस-पास है.

बाद के दशकों में नेतृत्व के सामाजिक आधार का और अधिक विस्तार हुआ और दूसरे जाति समूहों का राजनीतिक उदय हुआ. लेकिन इस शुरुआती दबदबे की छाप दूसरे आंकड़ों में भी झलकती है. पुनर्गठन से पहले, 1947 और 1956 के बीच, दो वोक्कालिगा मुख्यमंत्री हुए. पुनर्गठन के बाद, 1956 से 2021 तक, 20 में से नौ मुख्यमंत्री लिंगायत समुदाय के हुए (करीब 45 प्रतिशत).

1970 के दशक की शुरुआत तक आते-आते कांग्रेस को एक नए सामाजिक जनाधार के बारे में सोचना पड़ा. यह स्थिति 1969 में पार्टी के विभाजन के बाद कर्नाटक में बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य के कारण उत्पन्न हुई थी जब एक ताकतवर लिंगायत नेता एस निजलिंगप्पा ने कांग्रेस छोड़ दी थी. कांग्रेस को लिंगायतों के धुर समर्थकों के एक बड़े धड़े के वोट पाने को लेकर संदेह हो गया था. इसलिए 1972 में नए मुख्यमंत्री देवराज उर्स के नेतृत्व में अपने जनाधार हेतु एक नए सामाजिक गठबंधन के निर्माण के लिए पार्टी अपने पारंपरिक सामाजिक आधार से दूर चली गई. यह नया सामाजिक आधार अहिंडा था जो कि अल्पसंख्यातरु (अल्पसंख्यक), हिंदूलिदावारू (पिछड़ा वर्ग) और दलितारू (दलित) के लिए एक संक्षिप्त शब्द था.

उर्स के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार द्वारा एलजी हवानूर की अध्यक्षता में राज्य का पहला पिछड़ा वर्ग आयोग नियुक्त (लोक में यह हवानूर आयोग के नाम से प्रचलित है) करने के फैसले में इस बदलाव की झलक स्पष्ट थी. इसने राज्य में आरक्षण के लाभ के लिए 128 पिछड़ी जातियों, 15 पिछड़े समुदायों और 62 पिछड़ी जनजातियों को चिन्हित किया.

इस बीच, लिंगायत जनाधार का एक बड़ा हिस्सा उस जनता पार्टी की ओर चला गया था, जो कि तब कांग्रेस विरोधी अभियान की अगुवाई कर रही थी. 80 के दशक के अंत में, 1989 में कांग्रेस ने वीरेंद्र पाटिल को मुख्यमंत्री बनाकर लिंगायत समर्थन को दोबारा हासिल करने की कोशिश की. लेकिन अक्टूबर 1990 में पाटिल को पद से हटाए जाने से इस कोशिश को खासा नुकसान पहुंचा. जब बैंगलोर हवाई अड्डे पर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान इस फैसले की घोषणा की गई तब श्री पाटिल के निष्कासन को लिंगायत समाज के गौरव पर आघात समझा गया. इसीलिए 90 के दशक में सामाजिक समूह को कांग्रेस से और दूर जाते देखा गया.

भले ही लिंगायत मतदाताओं को एक एकीकृत वोटिंग ब्लॉक में तब्दील नहीं किया जा सका, लेकिन पुराने सामाजिक जनाधार से दूरी बनाने के गंभीर परिणाम हुए. समय के साथ, ये वोट जनता पार्टी और जनता दल, और बाद में एचडी देवगौड़ा की जेडीएस और उभरती भाजपा के बीच ही बंट गए, जिसकी वजह से कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा जैसे लिंगायत नेता उभरकर आगे आए.

भाजपा कर्नाटक में एक व्यापक हिंदू पहचान को अपना प्रमुख जनाधार बनाना चाह रही थी और ब्राह्मण पार्टी के रूप में देखे जाने से इतर आगे बढ़ने के लिए इच्छुक थी. जहां ईदगाह मैदान के मुद्दे पर आंदोलनों ने कुछ क्षेत्रों में हिंदू मतदाताओं के एक वर्ग को अपनी ओर खींचने में मदद की, वहीं पार्टी को विभिन्न जातियों के बीच धुर समर्थक समूहों की भी आवश्यकता थी. इसीलिए लिंगायत मतदाताओं के समर्थन को हासिल करने के प्रयासों के अलावा एचएन नानजेगौड़ा के जरिए वोक्कालिगा तक पहुंचने के साथ-साथ दलित नेताओं की भी तलाश करने जैसे कुछ पूरक प्रयास इस दिशा में किए गए.

हालांकि, इसका मतलब त्वरित सफलता नहीं थी. मसलन दक्षिणी कर्नाटक में ओल्ड मैसूर के वोक्कालिगा के बीच जेडीएस का एक मजबूत गढ़ है. आगामी चुनाव में बीजेपी यहां अपने लिए रास्ते बनाने की कोशिश करेगी. आठ जिलों और 48 विधानसभा क्षेत्रों में फैले ओल्ड मैसूर में अभी तक पार्टी को दहाई में भी सीट नहीं मिली है.

कांग्रेस अपनी चुनावी रणनीति में व्यापक 'अहिन्डा' के जनाधार पर भरोसा करती रही है. लेकिन फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम ने पार्टी के लिए मामला पेचीदा कर दिया है. इसके वोटों की समान रूप से फैली प्रकृति का मतलब है कि इसका समर्थन राज्य में कुरुबा, दलित और मुस्लिम जैसे ओबीसी समूहों में बिखरा पड़ा है, लेकिन ये सामाजिक गुट कुछ निश्चित निर्वाचन क्षेत्रों के एक क्षेत्र-विशिष्ट समूह में सघन रूप से एकत्रित नहीं है. यह लिंगायत वोटर बेस के ठीक उलट है जो कि 70 निर्वाचन क्षेत्रों में एकमुश्त उपस्थित है और कुछ दूसरे निर्वाचन क्षेत्रों पर भी कुछ हद तक अपनी पकड़ रखता है. चुनावी लिहाज से देखें तो इसका नतीजा यह हुआ कि 2004, 2008 और 2018 के विधानसभा चुनावों में ज्यादा वोट शेयर हासिल करने के बावजूद कांग्रेस ने बीजेपी से कम सीटें जीतीं.

सकारात्मक कार्रवाई कोटे में हुए नवीनतम सुधारों के साथ, यह याद दिला देना जरूरी है कि पार्टियों ने इस तरह के कार्यों के जरिए प्रमुख सामाजिक समूहों को किस तरह अपनी नजरें गड़ाई हैं. ये रणनीतियां काफी हद तक पिछड़ा वर्ग आयोगों की सिफारिशों को लागू करने या उनमें सुधार करने के इर्द-गिर्द घूमती हैं. 1975 के हवानूर आयोग के अलावा, दो अन्य आयोगों का गठन किया गया था: वेंकटस्वामी आयोग (1986) और न्यायमूर्ति चिनप्पा रेड्डी आयोग (1990). इस प्रक्रिया में, वोक्कालिगा सहित कई जाति समूहों को पिछड़े वर्गों के रूप में मान्यता दी गई और उन्हें कोटा के लाभ के लिए योग्य ठहरा दिया गया.

लेकिन उनके लाभ के आनुपातिक हिस्से अलग-अलग थे और विभिन्न श्रेणियों में जोड़ दिए गए थे. 1994 में, न्यायमूर्ति चिनप्पा रेड्डी आयोग की रिपोर्ट को लागू करते समय, देवगौड़ा के नेतृत्व वाली जनता दल सरकार ने विन्यास को कुछ इस तरह से दोबारा व्यवस्थित किया - श्रेणी 1 (चार प्रतिशत), 2ए (15 प्रतिशत), 2बी (चार प्रतिशत), 3ए (चार) , और 3बी (पांच प्रतिशत).

नवीनतम फेरबदल में, भाजपा सरकार ने 2बी श्रेणी को खत्म कर दिया है और मुसलमानों को, (इस कोटा के एकमात्र लाभार्थियों को) आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के आरक्षण की श्रेणी में डाल दिया है. अब इस रद्द किए गए कोटा का चार प्रतिशत 2C और 2D की नवगठित श्रेणियों को दिया गया, जिनका नाम बदलकर 3A और 3B कर दिया गया. इसलिए, 2C (पूर्व में 3A) कोटा चार से बढ़कर छह प्रतिशत हो गया है और 2D (पूर्व में 3B) पांच से सात प्रतिशत हो गया है.

हालांकि विशुद्ध तौर पर नहीं, लेकिन बढ़े हुए लाभों वाली ये श्रेणियां असल में वोक्कालिगा और वीरशैव-लिंगायत लाभार्थी ही हैं.

लेकिन आमजन में प्रचलित धारणा के उलट, मौजूदा बदलाव का मतलब यह नहीं है कि पिछड़े वर्ग के मुसलमान कोटे के लाभ के हकदार नहीं हैं. वे हैं - केवल 2बी जो विशेष रूप से धर्म-आधारित कोटा है, उसे खारिज कर दिया गया है. जैसा कि टाइम्स ऑफ इंडिया में खालिद अनीस अंसारी लिखते हैं, "श्रेणी 1 और श्रेणी 2ए में पहले से ही कई पिछड़े वर्ग के मुसलमान शामिल हैं और इन दोनों श्रेणियों के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है."

अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढ़ाने वाले अंसारी का मानना है कि जिस श्रेणी को खत्म किया गया वह देवगौड़ा सरकार द्वारा ऊंची जाति के अशराफों (मुस्लिम समुदाय के भीतर का ही एक उच्च जातीय समूह) को लुभाने के लिए उठाया गया कदम था, जबकि भाजपा का मौजूदा कदम लिंगायत और वोक्कालिगाओं को अपनी ओर खींचने का प्रयास है. बहस के नैतिकतावादी आग्रह और प्रक्रियात्मक आरोपों के चक्कर में हमें इस तथ्य को अनदेखा नहीं करना चाहिए कि जनता दल सरकार द्वारा 1994 में 2बी को कोटा में शामिल करना और हाल ही में भाजपा द्वारा इसे रद्द करना दोनों ही कदम वोट की राजनीति से प्रेरित हैं: पूर्व में, अशराफ वर्गों को तुष्ट किया जा रहा था और अब लिंगायत और वोक्कालिगाओं को.

साथ ही, नव निर्मित 2सी और 2डी श्रेणी के कोटा लाभों को सिर्फ वोक्कालिगाओं और वीरशैव-लिंगायतों के लिए चिह्नित किए जाने जैसी काफी गलत धारणाएं मौजूद रही हैं. लेकिन असल में ऐसा नहीं है. द हिंदू की एक रिपोर्ट में कर्नाटक के एक वरिष्ठ मंत्री के हवाले से कहा गया है कि पिछले 3ए और 3बी श्रेणी के भीतर आने वाले सभी समुदायों को क्रमशः 2सी और 2डी में डाल दिया गया है, क्योंकि "मौजूदा 32 प्रतिशत आरक्षण मैट्रिक्स के भीतर आरक्षण की एक अलग श्रेणी बनाना संभव नहीं है."

जैसा कि द हिंदू ने लिखा है कि वोक्कालिगा के साथ कोडवा और बालिजा, जो 3ए का हिस्सा थे और चार प्रतिशत आरक्षण साझा करते थे, उन्हें नए बनाए गए 2सी में डाल दिया गया है, जिसमें अब कुल छह प्रतिशत कोटा है. इसी तरह मराठा, ईसाई, बंट, जैन और सतानी को वीर शैव लिंगायतों के साथ जो पहले 3डी में थें व आपस में कुल पांच प्रतिशत आरक्षण साझा करते थे अब 2डी में डाल दिए गए हैं और इस श्रेणी का कुल आरक्षण बढ़कर सात प्रतिशत हो गया है.

आगामी हफ्ते कर्नाटक की चुनावी लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले विभिन्न उप-विषयों, व्यक्तित्वों और मुद्दों का गवाह बनेंगे. लेकिन पार्टियां मतदाताओं को लामबंद करने की कवायदों के दौरान अपने प्रमुख जनाधार समूहों को सुदृढ़ करने की कोशिशों से नहीं चूकेंगी. कोटे में बदलाव की नवीनतम प्रक्रिया राज्य में चुनावी राजनीति के लिए सामाजिक गठजोड़ बनाने की लंबी परियोजना का एक छोटा सा हिस्सा हो सकती है. कोटे में बदलाव एक ऐसी प्रक्रिया है जो सत्ता की राजनीति में अपनी जगह बनाने में लगे अनेकानेक सामाजिक समूहों को अपनी ओर मिलाने की पहल में बहुत ज्यादा संभावनाएं प्रदान करती है और प्रतिद्वंद्वी पार्टियां या तो अपने सामाजिक जनाधारों पर अपने दावों को मजबूत करने, या नए जनाधार समूहों में नए सिरे से पैठ बनाने पर काम करना जारी रखे हुए हैं.

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