आरक्षण और जाति पर राजस्थान पत्रिका के विचार स्पष्ट और उजागर हैं. इसके खिलाफ पत्रिका में कई संपादकीय पहले भी छप चुके हैं.
राजस्थान पत्रिका ने 2 अक्टूबर के दिन अपने तमाम संस्करणों में एक महासर्वे छापा है. सर्वे का पहले पेज पर शीर्षक है– “सामाजिक वैमनस्य बढ़ा, क्रीमी लेयर का आरक्षण खत्म हो.” जयपुर संस्करण में एक पूरा पेज इस सर्वे के बारे में है और उस पेज का शीर्षक है- “78% सामान्य वर्ग और 39% एससी-एसटी वर्ग चाहता है- आर्थिक आधार पर हो आरक्षण.”
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Contributeयह सर्वे तीन राज्यों राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में किया गया है. खास बात यह बताई गई है कि इस सर्वे में सवर्ण जातियों (पत्रिका उन्हें “सामान्य वर्ग” लिखता है) के साथ ही एससी और एसटी यानी अनुसूचित जाति और जनजाति के आंकड़े भी जुटाए गए हैं. पत्रिका का दावा है कि सर्वे में जितने सवर्णों को शामिल किया गया, उतने ही एससी-एसटी को भी.
सर्वे में ये आठ सवाल पूछे गए, जिनके जवाब इस प्रकार हैं-
पूरा सर्वे राजस्थान पत्रिका के 2 अक्टूबर के ईपेपर पर देखा जा सकता है.
इस सर्वे के साथ पत्रिका के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का संपादकीय लेख भी है. इस संपादकीय में सर्वे की प्रणाली यानी मैथडोलॉजी के बारे में सिर्फ यह जानकारी मिलती है कि सर्वे 2 लाख 62 हजार लोगों के बीच किया गया है.
राजस्थान पत्रिका के आरक्षण और जाति पर क्या विचार हैं, ये किसी से छिपा नहीं है क्योंकि पत्रिका ने उसे कभी छिपाया नहीं है. आरक्षण के सवाल पर पत्रिका में कई संपादकीय पहले भी छप चुके हैं. 30 अगस्त 2015 को गुलाब कोठारी ने बाकायदा संपादकीय लिखा था कि “आरक्षण से अब आज़ाद हो देश.”
फिर भी यह मानकर चलना चाहिए कि ये सर्वे ईमानदारी से किया गया है. प्रस्तुत आलेख का उद्देश्य राजस्थान पत्रिका की नीयत पर शक करना नहीं है. मौजूदा सर्वे की प्रणाली को लेकर कुछ प्रश्न जरूर हैं, जिनका जवाब राजस्थान पत्रिका अगर दे दे, तो उससे सर्वे की विश्वसनीयता बढ़ेगी.
सर्वे के मेथड संबंधी इन सवालों का जवाब जाने बगैर यह कह पाना मुश्किल है कि यह सर्वे कितना विश्वसनीय है. इस सर्वे और उसकी प्रणाली के बारे में चूंकि हम सब बहुत कम जानते हैं इसलिए फिलहाल सर्वे की विश्वसनीयता पर कोई टिप्पणी करना उचित नहीं होगा.
लेकिन इस सर्वे में जो छपा है, उसके आधार पर कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं?
दरअसल इस तरह के सर्वे या जातिगत दुर्भावना से भरे लेख भारतीय मीडिया की सामाजिक संरचना और उसके रेवेन्यू मॉडल की वजह से भी हो सकते हैं. मीडिया स्टडीज ग्रुप ने 2006 में राष्ट्रीय मीडिया की सामाजिक संरचना जानने के लिए एक सर्वे किया तो पता चला कि मीडिया के निर्णायक पदों पर ज्यादातर हिंदू सवर्ण जातियों के लोग हैं. इसके बाद कई राज्यों में मिलते जुलते सर्वे में ऐसे ही नतीजे आए और अब यह सर्वमान्य है कि भारतीय मीडिया में दलित, आदिवासी और ओबीसी खासकर बड़े पदों पर अनुपस्थित हैं. इसके अलावा मीडिया की आर्थिक संरचना भी इसकी एक संभावित वजह है. भारतीय मीडिया के रेवेन्यू मॉडल में आमदनी का मुख्य स्रोत विज्ञापन हैं और विज्ञापनदाता ऐसा अखबार चाहते हैं, जिसे उच्च वर्ग और मध्य वर्ग के लोग पढ़ते हों. मुमकिन है कि राजस्थान पत्रिका के ज्यादातर पाठक एससी-एसटी और ओबीसी हों. लेकिन उसके खाते-पीते पाठक ज्यादातर सवर्ण तबकों के हो सकते हैं. शायद इसलिए राजस्थान पत्रिका ऐसी सामग्री छाप रहा है, जो सवर्ण जनमानस को पसंद आए. एससी-एसटी-ओबीसी की नाराजगी उसके लिए खास आर्थिक नुकसान का सबब नहीं है.
क्या राजस्थान पत्रिका के मालिक-संपादक का दिमाग इसी तरह काम कर रहा है? अगर राजस्थान पत्रिका सचमुच जातिवाद के खिलाफ होता तो इस सर्वे से सिर्फ दो दिन पहले 30 सितंबर को पूरे दो पेज पर जाति आधारित शादी के रिश्तों के विज्ञापन न छापता!
(लेखक एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के एक्जिक्यूटिव कमेटी मेंबर हैं और इंडिया टुडे के मैनेजिंग एडिटर रहे हैं. उनकी किताब मीडिया का अंडरवर्ल्ड को सूचना और प्रसारण मंत्रालय का भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान मिला है)
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