सरकार ने सभी वर्तमान निर्वाचित सांसदों को 10 बच्चों के दाखिले का कोटा निर्धारित किया था. इसके तहत हर सांसद अपने संसदीय क्षेत्र में आने वाले केंद्रीय विद्यालय में प्रवेश के लिए सिफारिश कर सकते हैं. हालांकि इसी साल इस एमपी कोटा को खत्म कर दिया गया है.
देश भर में 1,248 केंद्रीय विद्यालयों की स्थापना सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों के बच्चों को पढ़ाने के लिए की गई है. यह एक आम धारणा है कि इन स्कूलों में शिक्षा, अन्य स्कूलों की तुलना में बेहतर और कम लागत में मिलती है. इसी वजह से बड़ी संख्या में लोग अपने बच्चे का दाखिला किसी केंद्रीय विद्यालय में कराना चाहते हैं. लोगों की मांग के चलते सरकार ने सभी वर्तमान निर्वाचित सांसदों को 10 बच्चों के दाखिले का कोटा निर्धारित किया है. इसके तहत हर सांसद अपने संसदीय क्षेत्र में आने वाले केंद्रीय विद्यालय में, कक्षा 1 से 9 तक में प्रवेश के लिए सिफारिश कर सकते हैं.
सिवान जिला मुख्यालय से 45 किलोमीटर दूर महाराजगंज संसदीय क्षेत्र निवासी मोहम्मद अलाउद्दीन का कहना है, "केंद्रीय विद्यालय में एडमिशन की अनुशंसा कराने के लिए अपने सांसद के पास पिछले तीन साल से जा रहे हैं, लेकिन माननीय सांसद ने मेरे बच्चे के एडमिशन के लिए अनुशंसा नहीं की." इसी संसदीय क्षेत्र के बड़का गांव निवासी मुश्ताक अहमद बताते हैं, "हमारे सांसद ने पिछले दो साल में एक भी मुस्लिम बच्चे के एड्मिशन के लिए सिफारिश नहीं की है."
महाराजगंज संसदीय क्षेत्र के मोहम्मद अलाउद्दीन व मुश्ताक अहमद सरीखे अधिकतर मुस्लिम परिवारों ने बताया कि सांसद जनार्दन सिंह सिग्रीवाल ने पिछले सात सालों में एक भी मुस्लिम बच्चे के केंद्रीय विद्यालय में दाखिले के लिए सिफारिश नहीं की है. इस आरोप के बचाव में सांसद जनार्दन सिंह सिग्रीवाल कहते हैं, “मैं जाति धर्म से ऊपर उठकर काम करता हूं, लेकिन अपने कार्यकर्ताओं को प्राथमिकता देता हूं. मैंने कई मुस्लिम बच्चों की केंद्रीय विद्यालय में एडमिशन के लिए अनुशंसा की है."
सांसद ने दावा किया कि उन्होंने अपने कोटे से मुस्लिम बच्चों का दाखिला कराया है. लेकिन केंद्रीय विद्यालय संगठन की वेबसाइट पर उपलब्ध सत्र 2019 से लेकर 2021 के डाटा के अनुसार सांसद ने 30 बच्चों के दाखिले की सिफारिश की है, पर इनमें से एक भी सिफारिश किसी मुस्लिम बच्चे के लिए नहीं है.
सामाजिक कार्यकर्ता मन्नान अहमद का कहना है, "सिर्फ महाराजगंज के सांसद ने ही नहीं बल्कि तीन जिलों - छपरा, सीवान, गोपालगंज के सांसदों ने भी सत्र 2020-21 के लिए एक भी मुस्लिम बच्चों की सिफारिश नहीं की है. इन सांसदों को मुसलमानों का वोट तो चाहिए लेकिन जहां भागीदारी की बात आती है, वहां पर सिर्फ भाई-भतीजावाद करने लगते हैं. इसी वजह से मुस्लिम बच्चों की अनदेखी हो रही है.”
केंद्रीय विद्यालय संगठन की वेबसाइट पर उपलब्ध एडमिशन से संबंधित सूची का अध्ययन किया तो मन्नान अहमद के दावे की पुष्टि हुई. तीन जिलों के चार सांसदों में से एक ने भी मुस्लिम बच्चों के दाखिले के लिए अनुशंसा नहीं की थी. बता दें कि वेबसाइट से कई रिपोर्ट हटा ली गई हैं लेकिन न्यूज़लॉन्ड्री के पास ये दस्तावेज मौजूद हैं.
बिहार के 40 में से 35 सांसदों ने मुस्लिम बच्चों की सिफारिश नहीं की
केंद्रीय विद्यालयों में मुस्लिम बच्चों के दाखिले की अनुशंसा में ये विषमता बिहार के सिर्फ इन चार जिलों के सांसदों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि राज्य के सभी 40 लोकसभा सांसदों के द्वारा मुस्लिम बच्चों के दाखिले के लिए अपने कोटे से की जाने वाली सिफारिशों में यह विषमता दिखाई पड़ती है. केंद्रीय विद्यालय संगठन की वेबसाइट पर उपलब्ध एडमिशन से संबंधित सूची के अनुसार इन 40 सांसदों ने सत्र 2021-22 में कुल 400 बच्चों के केंद्रीय विद्यालय में दाखिले के लिए अनुशंसा की है. इन 400 बच्चों में से सिर्फ 11 मुस्लिम बच्चों का दाखिला सांसद कोटा से हुआ है. इन 11 मुस्लिम बच्चों में से 6 मुस्लिम बच्चों के प्रवेश के लिए किशनगंज से कांग्रेस के सांसद डॉ. मोहम्मद जावेद ने अनुशंसा की है. जबकि जेडीयू के 16 सांसदों में से केवल दो लोकसभा सांसदों, मधेपुरा से दिनेश चन्द्र यादव और गया से सांसद विजय कुमार ने 2 मुस्लिम बच्चों के दाखिले की अनुशंसा की है.
लोक जनशक्ति पार्टी के 6 सांसदों में से केवल एक,खगड़िया सांसद चौधरी महबूब अली कैसर ने 2 मुस्लिम बच्चों के प्रवेश के लिए अनुशंसा की है.
वहीं बिहार भाजपा के 17 लोकसभा सांसदों में से सिर्फ पश्चिम चंपारण के सांसद डॉ. संजय जायसवाल ने एक मुस्लिम बच्चे के लिए सिफारिश की है. इस तरह से बिहार के 40 सांसदों में से 35 सांसद ऐसे हैं जिन्होंने एक भी मुस्लिम बच्चे के दाखिले के लिए सिफारिश नहीं की है. सत्र 2021-22 में देश भर के लोकसभा सांसद कोटे से हुए दाखिलों के आकड़ों को इकठ्ठा किया गया, तो पता चला कि 537 सांसदों ने सत्र 2021-22 में अपने कोटे से पांच हजार से ज्यादा बच्चों का केंद्रीय विद्यालयों में दाखिला कराया, लेकिन इनमें से केवल 264 दाखिले मुसलमान बच्चों के थे. आंकड़ों के अनुसार लगभग आधे से अधिक लोकसभा सांसदों ने एक भी मुस्लिम बच्चे के नाम की अनुशंसा नहीं की है. ऐसा ही कुछ हाल राज्यसभा का भी है, जहां 245 सांसदों के कोटे से लगभग ढाई हजार बच्चों को दाखिला मिला, लेकिन इनमें महज 109 बच्चे मुस्लिम हैं.
मात्र 4 प्रतिशत मुस्लिम बच्चों का दाखिला
लोकसभा सांसदों द्वारा पिछले तीन सालों में केंद्रीय विद्यालयों में दाखिले के लिए की गई अनुशंसा के आकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि बच्चों के दाखिलों के लिए की गई अनुशंसा में से मात्र 4 प्रतिशत बच्चे ही मुसलमान हैं. प्रवेश का सत्र भले ही बदल गया हो, लेकिन दाखिलों के आकड़ों में कोई बदलाव नहीं आया है. गौरतलब है कि भारत में मुसलमानों की आबादी लगभग 17.6 करोड़ है, जो देश की कुल आबादी का लगभग 14.23 प्रतिशत है. इतना ही नहीं जनसंख्या की दृष्टि से मुसलमान भारत में दूसरा सबसे बड़ा सम्प्रदाय है, लेकिन लोकसभा सांसदों ने केंद्रीय विद्यालयों में दाखिले के लिए अपने कोटे में उन्हें सिर्फ 4 प्रतिशत की ही भागीदारी दी है.
न्यूज़लॉन्ड्री के पास मौजूद दाखिलों के सालाना आकड़ों को देखें तो साल 2019 में 528 लोकसभा सांसदों ने कुल 5,280 बच्चों के दाखिले के लिए सिफारिश की, जिसमें से केवल 212 सिफारिशें मुस्लिम बच्चों के दाखिले के लिए थीं. वहीं साल 2020 में 532 सांसदों ने कुल 5,330 बच्चों को दाखिला दिलाया, जिनमें से सिर्फ 216 बच्चे ही मुस्लिम थे. साल 2021 में 537 सांसदों द्वारा 5,338 बच्चों का एमपी कोटा से दाखिला कराया गया, इनमें से दाखिले पाने वाले 264 बच्चे मुसलमान थे. तीन सालों में लोकसभा सदस्यों ने कुल 15,948 बच्चों का दाखिला देश भर के केंद्रीय विद्यालयों में कराया, लेकिन आकड़े बताते हैं कि इनमें से आधे से अधिक सांसदों ने एक भी मुस्लिम बच्चे के दाखिले के लिए अनुशंसा नहीं की.
सत्र 2019 से 2021 के बीच प्रमुख राजनीतिक दलों के लोकसभा सांसदों के द्वारा कितने बच्चों की सिफारिशें की गईं.
शैक्षणिक व्यवस्था में पिछड़ा मुसलमान समाज
2006 की सच्चर कमेटी और उसके बाद के कई अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि मुस्लिम समाज की आर्थिक व शैक्षणिक परिस्थिति दलितों से भी बदतर है. मुस्लिम समाज की इस चिंताजनक अवस्था से सभी सांसद अवगत भी हैं. इसके बावजूद सांसदों ने केंद्रीय विद्यालयों में मुस्लिम बच्चों के दाखिले की ज्यादातर अनदेखी की है. दाखिले के आकड़ों से स्पष्ट है कि इस अनदेखी में अमूमन सभी दलों के सांसद शामिल नज़र आ रहे हैं. लेकिन जब पिछड़ेपन को आधार बनाकर आरक्षण की मांग की जाती है, तब इनमें से कुछ सांसद यह कहकर विरोध करते हैं कि ‘धर्म’ (पूजा-पद्धति या सम्प्रदाय) के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए.
गौरतलब है कि बिहार के 40 में से 13 लोकसभा क्षेत्रों में मुसलमान मतदाताओं की संख्या 12 से 67 फीसदी के बीच है. बिहार में सर्वाधिक मुस्लिम वोटर वाला लोकसभा क्षेत्र किशनगंज है, यहां मुस्लिम वोटरों की संख्या 67 फीसदी है. दूसरे स्थान पर कटिहार है, जहां मुस्लिम मतदाताओं की आबादी 38 फीसदी है. इसी तरह क्रमशः अररिया में 32 फीसदी, पूर्णिया में 30 फीसदी, मधुबनी में 24 फीसदी, दरभंगा में 22 फीसदी, सीतामढ़ी में 21 फीसदी, पश्चिमी चंपारण में 21 फीसदी और पूर्वी चंपारण 20 में फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं. सिवान, शिवहर खगड़िया, भागलपुर, सुपौल, मधेपुरा, औरंगाबाद, पटना और गया में 15 फीसदी से अधिक मुस्लिम मतदाता हैं, लेकिन बिहार के सांसदों ने वोट प्रतिशत के हिसाब से भी केंद्रीय विद्यालयों में मुस्लिम बच्चों को दाखिला नहीं दिलावाया है.
राजनीतिक दलों का प्रत्यक्ष या परोक्ष भेदभाव
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार-बार “सबका साथ-सबका विकास” का नारा दोहराया है, लेकिन जमीन पर इस नारे की भावना नदारद दिखाई पड़ती है. भाजपा के ज्यादातर नेताओं ने किसी मुस्लिम बच्चे के नाम की अनुशंसा नहीं की है. एडमिशन आंकड़ों के मुताबिक बीते तीन साल (सत्र 2019 से लेकर 2021 तक) में भाजपा के लोकसभा सांसदों ने केंद्रीय विद्यालयों में अपने कोटे से कुल 9,699 बच्चों के दाखिले के लिए सिफारिश की, जिनमें से सिर्फ 110 मुस्लिम बच्चों को ही सिफारिश मिली. आकड़े भाजपा सांसदों की कथनी और करनी को स्पष्ट करते हैं, उनकी सिफारिशों में “सबका साथ-सबका विकास” नदारद है.
लेकिन मुस्लिम बच्चों के दाखिले पर इस उदासीनता में भाजपा ही नहीं बल्कि तथाकथित सेक्युलर राजनीतिक दल भी फिसड्डी रहे हैं.
अगर दलों के हिसाब से आंकड़ों को देखें तो बीते तीन सालों (सत्र 2019 से लेकर 2021 तक) में लोक जनशक्ति पार्टी ने 9, तृणमूल कांग्रेस ने 74, समाजवादी पार्टी ने 45 और बहुजन समाज पार्टी ने 60 बच्चों के दाखिले के लिए अनुशंसा की है. इस मामले में सबसे खराब स्थिति जेडीयू की है. आंकड़ों के मुताबिक बिहार के सत्तारूढ़ दल जनता दल यूनाइटेड के 16 सांसदों ने बीते तीन सालों में सिर्फ 4 मुसलमान बच्चों को अपने कोटे से केंद्रीय विद्यालयों में दाखिला दिलाया है.
जेडीयू के पूर्व सांसद अली अनवर अंसारी ने बताया, “इतने कम बच्चों का केंद्रीय विद्यालय में एडमिशन होने की कई वजह हैं. पहली वजह अभी केंद्र में बीजेपी की सरकार है, जिसके सांसदों की संख्या सबसे ज्यादा है. वर्तमान समय में लगभग 301 सांसद बीजेपी के ही हैं और बीजेपी मुसलमानों के प्रति कैसी सोच रखती है, यह जगजाहिर है. दूसरा कारण यह है कि जो मुस्लिम सांसद राज्यसभा व लोकसभा में होते हैं, वे गैर-मुस्लिम बच्चों के प्रवेश के लिए सिफारिश करने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाते हैं. पिछले पांच साल के आंकड़े देखने पर यह स्पष्ट हो जाएगा. वहीं गैर-मुस्लिम सांसद मुस्लिम बच्चों के एडमिशन के लिए अनुशंसा करने से कतराते हैं. जब मैं सांसद था तब हर साल 50 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम बच्चों के एडमिशन के लिए अनुशंसा किया करता था. एक वजह यह भी है कि वोट देने के बावजूद मुस्लिम समुदाय के लोगों की पहुंच सांसदों तक कम होती है. सबसे बड़ी वजह है मुस्लिम समाज आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ा हुआ है. इस वजह से केंद्रीय विद्यालय में ही नहीं, हर शैक्षणिक संस्थान में मुस्लिम बच्चों की संख्या, जनसंख्या की तुलना में काफी कम है.”
पारदर्शिता के कमी से घटे दाखिले
केंद्रीय विद्यालयों में दाखिलों की सिफारिशों में इस विषमता पर प्रोफेसर अपूर्वानंद कहते हैं, “केंद्रीय विद्यालय में सांसदों को एडमिशन के लिए कोटा इसलिए दिया गया है, ताकि अपने संसदीय क्षेत्र के गरीब, कमजोर व हाशिये पर चले गए लोगों को ध्यान में रखकर ही सांसद एडमिशन के लिए अनुशंसा करे. लेकिन केंद्रीय विद्यालय में हुए एडमिशन के आकड़े को देखने के बाद ऐसा नहीं लगता है कि ऐसा हुआ है. प्राय: ऐसा होता भी नहीं है. एडमिशन आकड़ों के पैटर्न में बिल्कुल साफ दिख रहा है कि बीजेपी स्पष्ट रूप से भेदभाव करती है, बाकी जो सेक्युलर दल हैं उनकी भी हालत कोई बेहतर नहीं है."
उनके मुताबिक इसकी सबसे बड़ी वजह, सांसद कोटा को सांसदों ने अपनी मनमर्जी की अभिव्यक्ति मान लिया है. अगर आप इनके करीबी हैं, पार्टी से जुड़े हैं, तो ही एडमिशन के लिए अनुशंसा करेंगे. इस निर्णय के लिए कोई नैतिक तरीका नहीं रखा है, जिसकी सबसे ज्यादा आवश्यक भी है. प्रोफेसर अपूर्वानंद की राय में होना ये चाहिए कि जो सबसे पिछड़ा हुआ समाज है, उसकी ओर हाथ बढ़ाएं.
वे आगे कहते हैं, "केन्द्रीय विद्यालय में एडमिशन के लिए अनुशंसा करते समय एमपी को पारदर्शिता रखनी चाहिए कि कितने लोगों ने अप्लाई किया, और किस आधार पर अनुशंसा की. लेकिन सारे दल के ज्यादातर सांसदों में पारदर्शिता की घोर कमी है. ऐसे में मुसलमानों का केन्द्रीय विद्यालय में एडमिशन में पीछे रह जाना स्वाभाविक है.”
गौरतलब है कि 2022 सत्र से सांसद कोटा को समाप्त कर दिया गया है. कोटा क्यों खत्म किया गया, इसको लेकर कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया. प्रोफेसर अपूर्वानंद का कहना है कि कोटे की समाप्ति समस्या का हल नहीं है. उनका मानना है कि "केंद्रीय विद्यालय में एडमिशन के लिए सांसद कोटा को खत्म कर देने से समस्या का समाधान नहीं हो जाएगा, बल्कि हर साल हजारों की संख्या में बच्चे बेहतर शिक्षा से वंचित रह जाएंगे. सांसद कोटा को खत्म करने के बजाए एडमिशन प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने की जरूरत है."
इस रिपोर्ट को तैयार किए जाने तक एमपी कोटा से संबंधित सभी डाटा को केंद्रीय विद्यालय संगठन की वेबसाइट से हटा दिया गया है. डाटा क्यों हटाया गया, और कोटे को क्यों समाप्त किया गया, इसको लेकर हमने केंद्रीय विद्यालय संगठन के डिप्टी कमिश्नर (अकादमिक) को कुछ सवाल भेजे हैं, लेकिन अभी तक उनका कोई जवाब नही आया है. उनकी ओर से कोई भी जवाब आने पर इस रिपोर्ट में जोड़ दिया जाएगा.
(यह रिपोर्ट स्वतंत्र पत्रकारों के लिए नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया की मीडिया फेलोशिप के तहत की गई है)