क्या चुनाव चिन्ह में बदलाव अंधेरी उपचुनाव में उद्धव ठाकरे को नुकसान पहुंचाएगा?

चुनाव आयोग ने शिवसेना के ‘धनुष-बाण’ चुनाव चिन्ह पर रोक लगाकर उद्धव ठाकरे गुट को 'मशाल' का नया चुनाव चिन्ह दिया है. लेकिन शिवसेना का अलग-अलग चुनाव चिन्हों पर लड़ने का इतिहास रहा है.

WrittenBy:प्रतीक गोयल
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भारत के निर्वाचन आयोग ने शिवसेना के उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे के दोनों प्रतिद्वंद्वी गुटों को अंधेरी (पूर्व) के आगामी चुनावों में पार्टी के नाम और उसके चुनाव चिन्ह “धनुष बाण” के इस्तेमाल पर रोक लगा दी, दोनों गुटों को अलग-अलग राजनीतिक दलों के रूप में मान्यता दी गई है. दोनों दलों के दो अलग-अलग नाम और चिन्ह प्रदान किए गए हैं. हालांकि यह पहली बार नहीं है जब बालासाहेब ठाकरे द्वारा स्थापित की गई ये पार्टी अपने पारंपरिक चुनाव चिन्ह से अलग निशान पर चुनाव लड़ रही है. दिलचस्प बात यह है कि शिवसेना ने अतीत में उद्धव ठाकरे गुट और शिंदे गुट को सौंपे गए दोनों ही प्रतीकों का चुनावों में इस्तेमाल किया है और जीत हासिल की है.

ठाकरे गुट को शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) नाम और ‘मशाल’ का चुनाव चिन्ह दिया गया, जबकि शिंदे गुट को बालासाहेबांची शिवसेना (बालासाहेब ठाकरे की शिवसेना) नाम व ‘तलवार और ढाल’ का प्रतीक दिया गया है. दोनों पक्ष इन प्रतीकों का उपयोग तब तक करेंगे, जब तक कि पार्टी और उसके प्रतीकों को लेकर चल रहे विवाद कानूनी रूप से सुलझ नहीं जाते.

शिवसेना के निलंबन और उसके 'धनुष-बाण' चिन्ह के निलंबन के लिए दोनों ही गुट एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. हालांकि अतीत की एकजुट शिवसेना ने मशाल व तलवार और ढाल, दोनों ही चिन्हों पर चुनाव जीता है.

सेना को 'धनुष बाण' चिन्ह मिलने की कहानी 1989 में परभणी में शुरू हुई थी. 1989 में परभणी से निर्दलीय उम्मीदवार अशोकराव देशमुख ने ‘धनुष-बाण’ के निशान पर लोकसभा चुनाव लड़ा, और उसी वर्ष चुनाव जीतकर शिवसेना में शामिल हो गए. देशमुख को 2,29,569 मत मिले और उन्होंने कांग्रेस प्रत्याशी रामराव यादव को 66,384 मतों से हराया. यह उनकी जीत का ही प्रतिशत था, जिसने शिवसेना को ‘धनुष-बाण’ चुनाव चिन्ह दिलाया.

उनके बेटे रविराज देशमुख बताते हैं, “मेरे पिता ने 1989 का लोकसभा चुनाव स्वतंत्र रूप से लड़ा और अपना चुनाव चिन्ह धनुष-बाण के रूप में चुना. उन्होंने चुनाव निर्दलीय लड़ा था और फिर उसी वर्ष वे शिवसेना में शामिल हो गए. उनके सेना में शामिल होने के बाद पार्टी ने धनुष-बाण के चुनाव चिन्ह के लिए आवेदन किया और जिस अंतर से उन्होंने चुनाव जीता था, उसे देखते हुए चुनाव आयोग ने पार्टी को स्थायी रूप से चुनाव चिन्ह आवंटित कर दिया.”

एक और निर्दलीय उम्मीदवार, औरंगाबाद से मोरेश्वर सावे भी उसी साल लोकसभा चुनाव जीतकर शिवसेना में शामिल हो गए थे. सावे भी एक निर्दलीय उम्मीदवार थे, जो 1989 में लोकसभा चुनाव जीतने से पहले औरंगाबाद के नगरसेवक और मेयर रह चुके थे. सावे ने जलती हुई मशाल के चुनाव-चिन्ह पर निर्दलीय के रूप में चुनाव जीता, हालांकि उन्हें सेना का समर्थन प्राप्त था. मोरेश्वर सावे ने 3,22,467 वोट हासिल किए और कांग्रेस उम्मीदवार सुरेश पाटिल को 17,824 वोटों से हराया. दोनों उम्मीदवारों के शिवसेना में शामिल होने के बाद भी, यह धनुष-बाण के निशान पर जीत का अंतर था, जिसकी वजह से शिवसेना ने उसे 1990 के राज्य विधानसभा चुनावों के लिए चुनाव चिन्ह के रूप में हासिल किया और राज्य में इस निशान पर चुनाव लड़ा.

शिवसेना के मुख्य शिल्पियों में से एक और इसके संस्थापक सदस्य बाल ठाकरे को खुली चुनौती दे सकने वाले गिने-चुने लोगों में से एक माधव देशपांडे कहते हैं, “पहले शिवसेना के पास कोई चिन्ह नहीं था. शिवसेना के उम्मीदवार अलग-अलग चुनाव चिन्हों पर लड़ते थे. फिर 1989 में सेना ने ‘धनुष बाण’ के चिन्ह के लिए आवेदन किया और शुरुआत में चुनाव आयोग द्वारा इसे मुक्त रखने के बाद मंजूरी दे दी गई.

1992 में देशपांडे ने पार्टी में बाल ठाकरे की तानाशाही ढंग और उनके बेटे के उद्धव व भतीजे राज के पार्टी मामलों में हस्तक्षेप और मनमानी के खिलाफ एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की. ठाकरे ने पार्टी के मुखपत्र सामना में पार्टी से अपना इस्तीफा घोषित कर दिया और कहा कि उनका परिवार पार्टी छोड़ रहा है. हालांकि ठाकरे के भाई-भतीजावाद के आरोपों से इनकार के समर्थन में एक रैली के साथ पूरा विवाद समाप्त हो गया और उन्होंने कहा कि वह पार्टी के आंतरिक संघर्षों का समाधान करेंगे.

देशपांडे ने ही सबसे पहले शिवसेना के चिन्ह ‘धनुष-बाण’ को जब्त करने के लिए मुंबई उच्च न्यायालय में मामला दायर किया था, लेकिन अदालत ने उनकी याचिका को खारिज कर दिया. देशपांडे ने अपनी याचिका में कहा था कि एक राजनीतिक दल के रूप में शिवसेना अवैध और मनमानी तरीके से काम करती है. बाल ठाकरे एक तानाशाह की तरह काम करते हैं और लोकतंत्र में विश्वास नहीं रखते. उन्होंने कहा कि उनकी कार्यशैली और कुछ नहीं बल्कि आतंकवादियों के एक समूह की तरह है.

देशपांडे ने कहा, "मैंने भाई-भतीजावाद और उनकी तानाशाह शैली के खिलाफ एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी. अगर पार्टी राजनीतिक हो गई और चुनाव लड़ रही थी, तो इसे उसी तरह से ढ़ाला जाना चाहिए न कि तानाशाही की तरीके से. चुनाव आयोग ने अब जो किया, अगर वे 30 साल पहले ऐसा करते तो पार्टी ठीक से सुधर जाती और अब तक लोकतांत्रिक हो जाती.

अतीत में शिवसेना द्वारा इस्तेमाल किए गए चुनाव चिन्हों के बारे में बात करते हुए अनुभवी पत्रकार और ‘सुवर्ण महोत्सवी शिवसेना - 50 वर्ष ‘ पुस्तक के लेखक विजय सामंत ने कहा, “शिवसेना 1989 में ही एक क्षेत्रीय पार्टी बन गई और उसी वर्ष उन्हें चुनाव आयोग से धनुष-बाण का चिन्ह प्राप्त हुआ. इससे पहले 1985 में जब शिवसेना ने विधानसभा चुनाव लड़ा था, तब छगन भुजबल शिवसेना के महाराष्ट्र में चुनाव जीतने वाले एकमात्र उम्मीदवार थे. उन्होंने मुंबई के मझगांव निर्वाचन क्षेत्र से मशाल के निशान पर वह चुनाव जीता था. उसी वर्ष शिवसेना के उम्मीदवारों ने तलवार और ढाल के प्रतीक पर निकाय चुनाव लड़ा और बड़े पैमाने पर जीत हासिल की.

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सामंत ने कहा, “शिवसेना 1968 से रेलवे इंजन, कप प्लेट, जलती हुई मशाल, तलवार और ढाल आदि अनेक चिन्हों पर चुनाव लड़ती रही है. जलती हुई मशाल का जो चिन्ह शिवसेना को मिला है, वह उनके लिए अच्छी किस्मत लाने वाला है. हम महाराष्ट्र के अन्य जिलों के बारे में नहीं बता सकते लेकिन उद्धव ठाकरे गुट को मुंबई में सेना के कार्यकर्ताओं का पूरा समर्थन है. भले ही चुनाव आयोग ने मुंबई के आगामी उपचुनावों में चिन्ह के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया हो, लेकिन इससे उद्धव गुट प्रभावित नहीं होगा क्योंकि उनके कैडर उनके साथ है.”

शिवसेना के पहले विधायक वामन राव महाडिक ने उगते सूरज के चुनाव चिन्ह पर चुनाव जीता था. उन्होंने मशहूर कम्युनिस्ट विधायक कृष्णा देसाई की हत्या के बाद 1970 में हुए परेल उपचुनाव को जीता था. 1984 में महाडिक और शिवसेना के नेता मनोहर जोशी (जो कि 1995 की शिवसेना- भाजपा सरकार में मुख्यमंत्री बने थे) ने भाजपा के चुनाव चिन्ह पर लोकसभा चुनाव लड़ा था, यह एक गठबंधन के रूप में भाजपा और शिवसेना का पहला चुनाव था.

ऐसी अटकलें लगाई जा रही थीं कि चुनाव चिन्ह बदलने के बाद उद्धव ठाकरे गुट को अंधेरी (पूर्व) उपचुनाव में शिंदे गुट द्वारा समर्थित भाजपा उम्मीदवार के खिलाफ मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा. हालांकि इस पर राजनीतिक विश्लेषकों और स्थानीय कार्यकर्ताओं की राय अलग-अलग है.

पुणे में एमआईटी स्कूल ऑफ गवर्नमेंट में राजनीतिक विश्लेषक और अध्यापक परिमल माया सुधाकर ने कहा, “चुनाव चिन्ह बदलने से आगामी उपचुनावों में उद्धव गुट को कोई नुकसान नहीं होगा. ऐसी बातों के प्रति मतदाता जागरूक हैं, खासकर यह शहरी इलाका है. शिवसेना को वोट देने वाले मतदाता, उसे वैसे भी वोट देते. शरद पवार ने अब तक कम से कम 3 चिन्हों पर चुनाव लड़ा, हर बार उनके गुट की ताकत कमोबेश एक सी ही रही. इसी तरह जद(यू) या राजद हैं, चुनाव चिन्ह में परिवर्तन ने उनके लिए परिस्थितियां नहीं बदलीं. हालांकि यह एक अस्थायी आदेश है, लेकिन चुनाव आयोग के इस पर टिके रहने की संभावना है. यदि ऐसा होता है तो यह शिंदे समूह के लिए एक बड़ी मुसीबत है. यदि अंतिम निर्णय में शिंदे को धनुष-बाण मिलता है, तभी यह उद्धव के लिए एक झटका होगा.

वे आगे कहते हैं, “अभी तक उद्धव गुट ठीक है क्योंकि शिंदे गुट को धनुष-बाण का चुनाव चिन्ह नहीं दिया गया है. शिंदे समूह यह चुनाव नहीं लड़ रहा, सिर्फ भाजपा का समर्थन कर रहा है. लेकिन अगर भविष्य में शिंदे समूह को धनुष बाण का निशान मिल जाता है तो शिंदे गुट की वैधता साबित हो जाएगी और उन्हें इससे मदद मिलेगी. यह ठाकरे गुट के लिए एक बड़ा झटका होगा. लेकिन इस आगामी उपचुनाव में लगता है कि उद्धव गुट चुनाव जीत सकता है, क्योंकि मुंबई में उनका कैडर उनके साथ है और कांग्रेस व राकांपा के समर्थन से वे अल्पसंख्यकों का वोट हासिल कर लेंगे."

मुंबई के एक राजनीतिक विश्लेषक हरीश केज़रकर कहते हैं, “उद्धव गुट को दिया गया नया चुनाव चिन्ह सोशल मीडिया और मीडिया के जरिए जंगल में आग की तरह फैल गया है. इसलिए चुनाव चिन्ह परिवर्तन मतदाताओं के लिए कोई समस्या नहीं बनेगा क्योंकि अब सबको इसकी जानकारी है. दूसरा, यह एक शहरी निर्वाचन क्षेत्र है इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में लोग यहां ज्यादा जागरूक हैं. राज्य के अन्य हिस्सों में भले ही न हो, लेकिन मुंबई में उद्धव गुट को निश्चित रूप से लोगों से सहानुभूति मिल रही है, क्योंकि शिवसेना ने दो गुटों के संघर्ष के बीच अपना धनुष-बाण चुनाव चिन्ह खो दिया है. जिन लोगों को ठाकरे को सत्ता से बेदखल किए जाने से कोई सरोकार नहीं था, वे भी चुनाव चिन्ह खोने के बाद सहानुभूति दिखा रहे हैं. ये वजहें निश्चित रूप से आगामी उपचुनावों में उद्धव गुट की मदद करने वाली हैं.”

अंधेरी (पूर्व) के मरोल क्षेत्र में शिवसेना शाखा प्रमुख राजू माने बताते हैं, ''धनुष बाण के हटाए जाने से पार्टी के प्रति सहानुभूति पैदा हुई है. जो लोग दो गुटों के बीच चल रहे संघर्ष को लेकर ज्यादा चिंतित नहीं थे, वे भी हमारा चुनाव चिन्ह हटने के बाद हमारा समर्थन करने आ रहे हैं. मशाल के नए चुनाव चिह्न को पहले ही मीडिया ने लोकप्रिय बना दिया है और हम घर-घर जाकर प्रचार कर रहे हैं. इसलिए मतदाता पर इसका असर नहीं पड़ेगा. दूसरा, शिंदे साहब की अंधेरी इलाके में कोई पकड़ नहीं है और भाजपा को उनके समर्थन से कोई फर्क नहीं पड़ेगा.

शिवसेना(उद्धव गुट) के एक अन्य शाखा प्रमुख संदीप नाइक ने कहा, “चिन्ह बदलने से हम पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है, लोग ठाकरे के नाम पर वोट करेंगे. अंधेरी (पूर्व) में शिंदे साहब का ज्यादा असर नहीं है. इतना ही नहीं, अगर हम ये चुनाव जीत जाते हैं तो मशाल का नया चुनाव चिन्ह पूरे महाराष्ट्र में लोकप्रिय हो जाएगा."

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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