सालों की लड़ाई के बाद पत्रकार को मिला मजीठिया वेज बोर्ड के तहत वेतन

देश में हजारों की संख्या में पत्रकार समाचार संस्थानों की मनमानी के खिलाफ केस लड़ रहे हैं.

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छह सालों की कानूनी लड़ाई के बाद, 3 सितंबर 2022 को, प्रभात खबर (न्यूट्रल पब्लिशिंग हाउस लिमिटेड) ने पत्रकार कुणाल प्रियदर्शी के खाते में उनके बकाया वेतन का भुगतान कर दिया.

बिहार के मुजफ्फरपुर के रहने वाले कुणाल ने प्रभात खबर के खिलाफ दिसंबर 2017 में लेबर कोर्ट में केस दायर किया था. 6 जून 2020 को उनके पक्ष में फैसला आने के बाद भी कंपनी ने भुगतान नहीं किया. वह दोबारा लेबर कोर्ट गए जहां मामले को सिविल कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया गया. 23 जुलाई 2022 को एक बार फिर से उनके पक्ष में फैसला आया.

कुणाल देश के पहले ऐसे पत्रकार बने जिन्हें मजीठिया वेतन बोर्ड के तहत बकाया वेतन और उस पर आठ प्रतिशत ब्याज दर के साथ भुगतान हुआ है. उन्हें कुल 23 लाख 79 हजार रुपए मिले, साथ ही कंपनी अलग से 2 लाख 71 हजार रुपये उनके ईपीएफ खाते में डालेगी.

इस फैसले के बाद देश में मजीठिया वेतन बोर्ड से जुड़े मामले में केस लड़ रहे अन्य पत्रकारों की उम्मीदें भी बढ़ गई हैं.

क्या था पूरा मामला?

40 वर्षीय कुणाल ने 13 जुलाई 2011 को प्रभात खबर मुजफ्फरपुर यूनिट में बतौर न्यूज़ राइटर नौकरी की शुरुआत की थी. पांच साल में सबसे अच्छा रिपोर्टर मानते हुए कंपनी ने उनके वेतन में विशेष बढ़ोतरी भी की. लेकिन इसी बीच आए एक नए संपादक द्वारा उन्हें प्रताड़ित किया जाने लगा. इसकी शिकायत उन्होंने अखबार के वरिष्ठ कर्मचारियों को करते हुए 3 दिसंबर 2017 को इस्तीफा दे दिया. लेकिन कंपनी ने न ही इस्तीफे को स्वीकार किया और न ही उन्हें वापस नौकरी दी.

दिसंबर 2017 में कुणाल ने मुजफ्फरपुर लेबर कमिश्नर ऑफिस में शिकायत की. जून 2019 में यह मामला लेबर कोर्ट मुजफ्फरपुर में ट्रांसफर हुआ. 8 फरवरी 2020 को उनके पक्ष में आदेश आया और 6 जून 2020 को आदेश की घोषणा की गई. कोर्ट ने कंपनी को दो महीने के अंदर भुगतान करने को कहा, लेकिन कंपनी ने कोई भुगतान नहीं किया.

इसके बाद कुणाल ने औद्योगिक विवाद अधिनियम के सेक्शन 11(10) के तहत लेबर कोर्ट में अवार्ड के प्रवर्तन के लिए आवेदन किया. यहां से मामला सिविल कोर्ट मुजफ्फरपुर भेजा गया, जहां 7 फरवरी 2021 से सुनवाई शुरू हुई. सुनवाई के दौरान कंपनी ने प्रवर्तन की प्रक्रिया पर सवाल उठाए, लेकिन कोर्ट ने पत्रकार की दलीलों को सही मानते हुए 23 जुलाई, 2022 को प्रवर्तन के आवेदन को स्वीकार करते हुए अवार्ड राशि की वसूली प्रक्रिया शुरू करने का फैसला दिया.

प्रभात खबर ने अभी तक कुणाल के इस्तीफे को स्वीकार नहीं किया है. इस वजह से कुणाल कहीं और भी नौकरी नहीं कर पाए. कंपनी को भेजे नोटिस में उन्होंने कहा है कि नौकरी पर फिर से बहाल किया जाए क्योंकि अभी तक उनके इस्तीफे को स्वीकार नहीं किया है. हालांकि इस पर अखबार की तरफ से कोई जवाब नहीं आया.

आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के कारण खुद की पैरवी

कुणाल जब नौकरी कर रहे थे तब वह मुजफ्फरपुर में रहते थे, लेकिन नौकरी छोड़ने के बाद कोई कमाई नहीं होने के कारण वह अपने गांव लौट गए. उनकी आठ व नौ साल की दो बेटियां, 4 साल का एक बेटा और पत्नी उनके साथ गांव में ही रहते हैं. उन्होंने घर चलाने के लिए एलआईसी से 2.5 लाख रुपए का लोन लिया और करीब दो लाख रुपए अपने रिश्तेदारों से लिए.

कुणाल बताते हैं, “पैसे नहीं होने की वजह से खुद पैरवी करने का निर्णय लिया. लेबर कोर्ट से लेकर सिविल कोर्ट तक हर जगह खुद ही पैरवी की. जब मजीठिया वेतन बोर्ड के तहत कोर्ट में चल रहे मामलों को पढ़ा, तो पाया कि यह केस बहुत लंबे चलते हैं. इतने लंबे समय तक वकील करना मुमकिन नहीं था क्योंकि खुद के खाने के लिए लोन लिया है तो वकील को कैसे भुगतान करते.”

वे कहते हैं, “पत्रकार हैं तो पहले कंपनी के लिए पढ़ते थे अब खुद के लिए पढ़ा. इसके बाद मजीठिया वेतन बोर्ड को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए सभी केसों को पढ़ा, और फिर पैरवी की.”

वह कहते हैं कि उन्होंने कई अन्य जगहों पर नौकरी के लिए आवेदन भी किया, लेकिन इस्तीफा स्वीकार नहीं होने के कारण दूसरी नौकरी नहीं मिल पाई. दूसरी कंपनी सैलरी स्लिप और एनओसी मांगती थी, जो उनके पास नहीं थे. ऐसे में नौकरी नहीं मिली. दूसरा मजीठिया वेतन बोर्ड का केस लड़ने के कारण कोई भी अखबार कुणाल को नौकरी नहीं देना चाहता था. उन्होंने प्रभात खबर को तीन बार नौकरी देने के लिए नोटिस भेजा.

मुजफ्फरपुर जिले से 40 किलोमीटर दूर मेघरतवारा, कुणाल का गांव है. वह केस के सिलसिले में गांव से आया-जाया करते थे. वह बताते हैं, “नौकरी छोड़ने के बाद परिवार ने कभी कुछ नहीं मांगा. छोटे-छोटे बच्चे हैं लेकिन उन्होंने कभी जन्मदिन हो या त्यौहार, हमसे कोई डिमांड नहीं रखी. वह हमेशा कहते थे कि जब आप ऑफिस जाएंगे तो हम जन्मदिन पर पार्टी करेंगे. सबसे छोटा 4 साल का बेटा पूछता है पापा आप ऑफिस नहीं जाते हैं क्या?”

कोरोना काल के दौरान साल 2021 में नौकरी छोड़ने को लेकर कुणाल डिप्रेशन का भी शिकार हो गए थे. करीब 6 महीने दवा लेने के बाद ठीक हुए.

कुणाल कहते हैं, “जब केस चल रहा था तब प्रभात अखबार की तरफ से एक ऑफर दिया गया था. समझौते की प्रक्रिया के दौरान कंपनी ने कहा कि वह सात लाख रुपए और 40 हजार महीने का वेतन देगी. लेकिन उसके लिए नए सिरे से कॉन्ट्रैक्ट करना होगा. लेकिन हमने कहा कि वेज बोर्ड पर बहाली की बात करिए तो हम ज्वाइन कर सकते हैं, लेकिन वह हुआ नहीं.”

मजीठिया वेतन बोर्ड के हिसाब से 2017 में कुणाल का वेतन 76 हजार रुपए होना चाहिए था लेकिन कंपनी केवल 40 हजार की पेशकश कर रही थी. जिस पर लेबर बोर्ड के जज ने समझौता कराने से इंकार कर दिया. मई 2022 में एक बार फिर से कंपनी ने कुणाल को ऑफर दिया कि इस बार आठ लाख रुपए देने और उनसे नौकरी व केस, दोनों को छोड़ देने के लिए कहा.

कुणाल का कुल वेतन साल 2011 में 7 हजार रुपए था, जो 2017 में बढ़कर 27 हजार हो गया. जबकि मजीठिया वेतन बोर्ड के तहत पत्रकार को 76 हजार रुपए महीना मिलने चाहिए थे.

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ऐसा नहीं है सिर्फ कुणाल को इन सभी दिक्कतों का सामना करना पड़ा है. देश में कई पत्रकार मजीठिया वेतन बोर्ड के तहत वेतन की मांग को लेकर केस लड़ रहे हैं लेकिन दुर्भाग्य से कई सालों तक केस लड़ने के बावजूद पत्रकारों का भुगतान नहीं हो पाया है. वहीं कुछ मामलों में पत्रकारों के हक में फैसला आने के बावजूद भी उन्हें पूरा पैसा नहीं मिला है.

ऐसा ही एक मामला महाराष्ट्र के भंडारा जिले के पत्रकार महेश साकुरे का है. उन्हें मजीठिया वेतन बोर्ड के तहत 2015 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद पैसा तो मिला, लेकिन अभी तक पूरा पैसा नहीं मिल पाया है. इस बात को लेकर वह फिर से बॉम्बे हाईकोर्ट पहुंचे हैं.

महेश 1996 में भंडारा जिले में बतौर टेलीप्रिंटर ऑपरेटर, लोकमत अखबार के साथ जुड़े. 1998 में कंपनी ने उन्हें मानव सेवा ट्रस्ट के साथ जोड़ दिया लेकिन काम वह अखबार में ही करते थे. जब उन्होंने इसका विरोध किया तो कंपनी ने उन्हें साल 2000 में, एक साल के कॉन्ट्रैक्ट पर लोकमत मीडिया प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में रख लिया.

जब उनका कॉन्ट्रैक्ट खत्म होने वाला था, तब उन्होंने जून 2000 में औद्योगिक न्यायालय में शिकायत दर्ज की. जुलाई 2000 में फैसला आया, जिसमें महेश को नौकरी देने को कहा गया, लेकिन कंपनी ने नौकरी पर नहीं रखा. इसके खिलाफ पत्रकार ने एक क्रिमिनल केस, लेबर कोर्ट नागपुर में दायर किया.

केस चल ही रहा था कि कंपनी ने 2001 में महेश को वापस नौकरी पर रख लिया. तब से लेकर साल 2011 तक महेश को बतौर वेतन सिर्फ 2000 रुपये मिलते थे. इसमें से ही 240 रुपए उनके पीएफ के भी कटते थे. करीब 10 साल काम करने के बाद 2011 में कंपनी ने उनके वेतन को बढ़ाकर 10 हजार रुपए कर दिया.

महेश ने केस में मांग रखी कि उन्हें प्लानर की जगह, स्थायी नौकरी और छह घंटे काम का समय दिया जाए. लोकमत अखबार ने पहले बॉम्बे हाईकोर्ट में महेश के केस को चुनौती दी, जहां उन्हें हार मिली, फिर हाईकोर्ट की डबल बेंच ने भी महेश के हक में फैसला सुनाया. इसके बाद 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने भी महेश के हक में फैसला सुनाया.

महेश ने मजीठिया वेज बोर्ड के तहत 70 लाख रुपए की मांग की थी, लेकिन कंपनी ने कहा कि सिर्फ 30 लाख रुपए ही बकाया हैं. इसमें से भी सिर्फ 13 लाख रुपए ही पत्रकार को मिले, बाकी काट लिए गए. इस कटौती के खिलाफ वह फिर से हाईकोर्ट में केस लड़ रहे हैं. वह कहते हैं, “अखबार ने पूरा भुगतान नहीं किया है जिसको लेकर हाईकोर्ट में केस दायर किया है.”

हालांकि उनकी अन्य मांगों को कंपनी ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मान लिया है. उन्हें प्लानर का पद दे दिया गया, साथ ही अब उनका वेतन मासिक 45 हजार रुपए हो गया है. स्थायी होने के बाद अब वह छह घंटे ही काम करते हैं.

महेश कहते हैं, “सैलरी कम होने के कारण वह परिवार के लिए कुछ कर नहीं पाते थे. बच्चों को अच्छे स्कूल में नहीं पढ़ा पाए, और जितना होता था उसी पैसों में अपना गुजारा करते थे. परिवार में पिता थे तो उनकी मदद से गुजारा हो जाता था.”

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हिमाचल प्रदेश में अमर उजाला द्वारा एक कर्मचारी को टर्मिनेट किए जाने के मामले में, लेबर कोर्ट ने 31 अगस्त 2022 को मुआवजा देने का आदेश दिया. कोर्ट ने दो लाख रुपए का मुआवजा देने के लिए कहा है.

कंपनी ने मनोज कुमार को 2016 में निकाल दिया था. कंपनी का कहना था कि वे कंपनी के नहीं बल्कि ठेकेदार के कर्मचारी हैं.

मनोज के वकील रविंद्र अग्रवाल कहते हैं, “कोर्ट ने माना है कि वह कंपनी के कर्मचारी हैं. इसलिए गलत तरीके से निकाले जाने को लेकर दो लाख रुपए का मुआवजा देने को कहा. साथ ही इससे यह भी साबित होता है कि वे अमर उजाला के कर्मचारी हैं. अब उन्हें मजीठिया वेज बोर्ड के तहत वेतनमान का लाभ व बकाया एरियर भी मिलेगा.”

देश में हजारों की संख्या में पत्रकार समाचार संस्थानों की मनमानी के खिलाफ केस लड़ रहे हैं. पांच से सात साल बीत जाने के बावजूद इन पत्रकारों के मामलों में आदेश नहीं आए हैं. जिन मामलों पर आदेश आया, उनके खिलाफ भी समाचार संस्थान कोर्ट चले गए ताकि वह पत्रकारों को भुगतान करने से बच जाएं. सुप्रीम कोर्ट ने दो बार संस्थानों को मजीठिया वेतन बोर्ड के तहत पत्रकारों को भुगतान करने का आदेश दिया, लेकिन फिर भी संस्थान पत्रकारों को भुगतान नहीं कर रहे हैं.

क्या है मजीठिया बोर्ड?

केंद्र सरकार ने 2007 में छठे वेतन बोर्ड के रूप में न्यायाधीश कुरुप की अध्यक्षता में दो वेतन बोर्डों (मजीठिया) का गठन ‎किया. एक श्रमजीवी पत्रकार तथा दूसरा गैर-पत्रकार समाचार पत्र कर्मचारियों के ‎लिए. लेकिन कमेटी के अध्यक्ष जस्टिस के. नारायण कुरुप ने 31 जुलाई 2008 को इस्तीफा दे दिया.

इसके बाद 4 मार्च 2009 को जस्टिस जी. आर. मजीठिया कमेटी के अध्यक्ष बने. कमेटी ने अपनी रिपोर्ट 31 ‎दिसंबर 2010 को सरकार को सौंपी.

इस कमेटी ने पत्रकारों के वेतन को लेकर मापदंड निर्धारित किए. तत्कालीन मनमोहन सिंह की सरकार ने साल 2011 में कमेटी की सिफारिशों को मानते हुए इसे लागू करने की अधिसूचना जारी कर दी.

इसके खिलाफ अखबार मालिकों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, लेकिन उन्हें निराशा हाथ लगी. कोर्ट ने फरवरी 2014 में कमेटी की सिफारिशों को लागू करने का आदेश दिया.

आदेश के बावजूद संस्थानों ने इसे लागू नहीं किया, जिसके खिलाफ विभिन्न अखबारों और समाचार एजेंसियों में काम करने वाले कर्मचारियों ने कर्मचारी अवमानना की याचिका दायर की. कुल 83 याचिकाएं आईं, जिनमें करीब 10 हजार कर्मचारी शामिल थे.

हालांकि जून 2017 में कोर्ट ने अखबार संस्थानों को अवमानना का दोषी नहीं माना. कोर्ट ने सभी प्रिंट मीडिया समूहों को मजीठिया वेतन बोर्ड की सभी सिफारिशें लागू करने का निर्देश दिया. जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि मीडिया समूह, वेतन बोर्ड की सिफारिशें लागू करते हुए नियमित और संविदा कर्मियों के बीच कोई अंतर नहीं करेंगे.

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