‘उड़ता बिहार’: शराबबंदी के बाद नशे पर ग्राउंड रिपोर्ट

शराबबंदी के बाद बिहार में तेजी से बदलते नशे के पैटर्न पर ग्राउंड रिपोर्ट.

   bookmark_add
‘उड़ता बिहार’: शराबबंदी के बाद नशे पर ग्राउंड रिपोर्ट
  • whatsapp
  • copy

बिहार के समस्तीपुर टाउन में रहनेवाले 35 वर्षीय राम प्रवेश (बदला हुआ नाम) शराब के आदी थे. वर्ष 2016 में जब बिहार सरकार ने शराबबंदी कानून लागू किया, तब उन्हें अपनी नशे की लत से निपटना मुश्किल हो गया.

लत के तनाव में राम प्रवेश ने शराब का विकल्प ढूंढ़ना शुरू किया. किसी ने बताया था कि दर्द निवारक दवाएं (पेन किलर) भी शराब जैसा ही सुरूर देती हैं. इस नुस्खे को आजमाने की गरज से राम प्रवेश ने सैस्मोप्रोक्सवॉन टैबलेट लेना शुरू कर दिया. शुरुआती दौर में वे 2-3 गोलियां खाते थे. धीरे-धीरे नसे का असर कम होता गया और गोलियों की डोज बढ़ती गई. ऐसा भी समय आया जब राम प्रवेश रोजाना 20-20 गोलियां खाने लगे.

राम प्रवेश कहते हैं, “शराब पर रोज 300 से 400 रुपये खर्च हो जाते थे, लेकिन पेन किलर सस्ता था. 100 से 125 रुपये में 20 टैबलेट मिल जाते थे और नशा शराब जैसा ही होता था. धीरे-धीरे मुझे टैबलेट खाने की लत लग गई.”

पटना के भूतनाथ रोड में रहनेवाले 22 वर्षीय अमित को बियर पीने का शौक था. वह रोज एक बीयर पीता था. शराबबंदी लागू हुई, तो भी चोरी-छिपे बियर बिका करती थी. लेकिन, कीमत बढ़ गई थी. 75 रुपये की बियर ब्लैक से 300 रुपये में मिलने लगी.

रोजाना इतना पैसा खर्च कर पाना अमित के वश में नहीं था, तो उसने बीयर की जगह गांजा आजमाना शुरू किया. शुरुआती झिझक के बाद जल्द ही उसे गांजे के कश में मज़ा आने लगा. शुरुआत एक चिलम से हुई थी जो अब दिन भर में 5-6 तक पहुंच जाती है. अब वह इसी तरह के गंजेड़ियों की मंडली में दिन भर बेसुध पड़ा रहता है.

एक झटके में, बिना किसी खास योजना या तैयारी के दो साल पहले बिहार में शराब पर पाबंदी लगाने से जो बड़े नुकसान हुए हैं, उनमें नशे के वैकल्पिक उपायों की ओर झुकाव भी एक है. राम प्रवेश और अमित जैसे मामले बिहार में अनगिनत हैं और तेजी से बढ़ रहे हैं.

शराबबंदी के चलते शहरी क्षेत्रों में रहनेवाले लोग खासकर युवा वर्ग गांजा, चरस, भांग, हेरोइन, ह्वाइटनर, पेन किलर, कफ़ सीरप आदि को शराब का विकल्प बना रहे हैं.

गांजे का नशा करने पर अमित सामान्य बना रहता है और एक दिन भी अगर उसे गांजा नहीं मिला तो बेचैनी होने लगती है. अमित कहता है, “अगर किसी दिन गांजा नहीं पीता, तो मन में अजीब-सा उतावलापन होने लगता है. शरीर में बेतरह कमजोरी महसूस होती है.”

अमित के अभिभावकों को जब लगने लगा कि अब वह बीमार हो रहा है, तो उसे नशामुक्ति केंद्र में भर्ती कराया गया.

दूसरे नशीले पदार्थों का सेवन शराब के विकल्प के रूप में कर रहे नशेड़ियों और मरीजों की संख्या बिहार में कितनी है, इस बारे में बिहार सरकार के पास कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है. सरकार ने शराबबंदी के बाद इस तरह की समस्या से निपटने की कोई रणनीति ही नहीं बनाई. अलबत्ता, नशामुक्ति केंद्रों से कुछ आंकड़े मिले हैं, जो बिहार की बेहद चिंताजनक तस्वीर पेश करते हैं.

शराबबंदी लागू होने के बाद नशामुक्ति केंद्रों में शराब के बनिस्बत दूसरे नशे के आदी मरीजों की संख्या में इजाफा हुआ है.

पटना स्थित दिशा नशा विमुक्ति-सह-पुनर्वास केंद्र की अंडर सेक्रेटरी राखी शर्मा कहती हैं, “हमारे यहां आनेवाले 70% से ज्यादा मरीज दूसरे नशीले पदार्थों के आदी हैं. इसका मतलब है कि नशे के आदी लोग शराब के विकल्प के रूप में गांजा, अफीम, हेरोइन व दूसरे पदार्थों को देख रहे हैं. इनमें ज्यादातर मरीजों की उम्र 18 से 35 साल के बीच है.”

दिशा नशा विमुक्ति-सह-पुनर्वास केंद्र में अप्रैल 2017 से मार्च 2018 तक नशे के आदी कुल 4,752 मरीजों का इलाज किया गया, जिनमें दूसरे नशीले पदार्थों (शराब को छोड़कर) का सेवन करनेवाले मरीजों की संख्या 3,438 थी. इनमें 115 मरीजों को हेरोइन की लत थी. गांजा, चरस व भांग के मरीजों की संख्या 2,151 और ह्वाइटनर लेनेवाले मरीजों की संख्या 137 रही.

पिछले वर्षों में गांजा, अफीम जैसे नशीले पदाथों की जब्ती के आंकड़े भी बताते हैं कि सूबे में इनकी खपत में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है.

लोकसभा में पूछे गये एक सवाल के जवाब में मिले आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2017 में बिहार में 28,888 किलोग्राम गांजा जब्त किया गया, जो शराबबंदी से पहले की जब्ती से दो हजार गुना अधिक है. वर्ष 2015 में बिहार से 14.4 किलोग्राम गांजा जब्त किया गया था. नार्कोटिक कंट्रोल ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2016 में 10,800 किलोग्राम गांजा जब्त किया गया था.

इसी तरह वर्ष 2015 में पुलिस ने बिहार से 167 किलो अफीम जब्त की थी. पिछले वर्ष 329 किलो अफीम जब्त की गयी.

शराब की जगह दूसरे नशीले पदार्थों की तरफ झुकाव की मुख्य रूप से तीन वजहें बताई जा रही हैं. अव्वल तो ब्लैक से शराब की खरीद जेब पर बहुत भारी पड़ता है. दूसरी वजह यह है कि शराब की तुलना में गांजा, अफीम आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं.

तीसरी वजह इन नशीले पदार्थों की तुलना में शराबबंदी कानून का सख्त होना है. पटना के सिविल कोर्ट के वकील अरविंद महुआर कहते हैं, ‘नार्कोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंसेस (एनडीपीएस) एक्ट, 1985 की तुलना में बिहार में शराबबंदी कानून के प्रावधान कड़े हैं.’

अरविंद मुहआर ने बताया कि शराबबंदी के बाद कोर्ट में एडीपीएस एक्ट से जुड़े मामलों में इजाफा हुआ है.

शराबबंदी के मामले में एक अहम पहलू की अनदेखी की गई है, जो मनोविज्ञान से जुड़ा हुआ है. अगर शराब का आदी कोई व्यक्ति अचानक शराब छोड़ दे या उसे शराब न मिले, तो उसमें ‘विदड्रॉल सिम्पटम’ दिखने लगता है, जो बहुत खतरनाक होता है. इससे बचने के लिए शराबी हर वो विकल्प तलाशता है, जो उसे नशे की हालत में रख सके. ऐसे में गांजा, अफीम, भांग, पेन किलर जैसी नशीली चीजें उसके काम आती हैं.

पेन किलर लेनेवाले राम प्रवेश ने बताया, “नशा नहीं करने पर मिरगी का अटैक आ जाता था, जिससे कई बार जीभ में जख्म आ जाता था. तबीयत भी खराब रहती थी.”

जाने-माने साइकाट्रिस्ट डॉ सुजीत सारखेल कहते हैं, ‘विड्रॉल सिम्पटम कई बार जानलेवा भी साबित हो सकता है.’ उन्होंने कहा, “जागरूकता नहीं होने से उन्हें लगता है कि शराब उनकी जिंदगी का हिस्सा है और अगर वे उसे छोड़ देंगे, तो जिंदगी खत्म हो जाएगी इसलिए शराब नहीं मिलने पर वे दूसरा विकल्प तलाशते हैं.”

सारखेल के अनुसार शराब पर प्रतिबंध लगाने से पहले इसके मनौवैज्ञानिक पहलू के साथ ही दूसरे पहलुओं को लेकर व्यापक स्तर पर जागरूकता अभियान चलाना चाहिए था. इससे शराब का सेवन करनेवालों को भी पता चलता कि शराब नहीं पीने पर किस तरह के लक्षण नजर आते हैं.

उन्होंने कहा, “इससे शराब के मरीज नशे का दूसरा विकल्प तलाशने के बजाय डॉक्टरों के पास जाते.”

मद्य निषेध, उत्पाद व निबंधन विभाग के डिप्टी कमिश्नर ओम प्रकाश मंडल ने कहा कि उनके पास ऐसा कोई आंकडा नहीं है जो बताता हो कि गांजा, भांग या दूसरे नशीले पदार्थों का सेवन करनेवालों की संख्या बढ़ी हो. उन्होंने यह भी कहा कि इस तरह मामलों के लिए अलग से कानून है जिसके तहत लगातार कार्रवाई हो रही है.

पिछले महीने शराबबंदी के दो साल पूरे हो गए. सीएम नीतीश कुमार को जब भी मौका मिलता है, शराबबंदी के फायदे गिनाते नहीं अघाते. लेकिन, शराब पर प्रतिबंध लगा देने के बाद ड्रग्स की आमद में जो इजाफा हुआ है, उस पर सरकार का कोई ध्यान नहीं है.

हालात अगर यही रहे, तो वह दूर नहीं जब नशामुक्त बिहार हाथ से निकलकर ‘उड़ता बिहार’ बन जाएगा.

subscription-appeal-image

Press Freedom Fund

Democracy isn't possible without a free press. And the press is unlikely to be free without reportage on the media.As India slides down democratic indicators, we have set up a Press Freedom Fund to examine the media's health and its challenges.
Contribute now

Comments

We take comments from subscribers only!  Subscribe now to post comments! 
Already a subscriber?  Login


You may also like