आयुष मंत्रालय के कोविड-19 परीक्षणों को वैज्ञानिक क्यों मानते हैं बकवास

आयुष मंत्रालय का दावा है कि पारंपरिक दवाएं कोविड-19 के शीघ्र उपचार और रोकथाम में सहायक हैं, जबकि वैज्ञानिक नैदानिक ​​​​परीक्षणों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठा रहे हैं.

WrittenBy:ओमकार खांडेकर
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आयुष-64

आयुष-64 को 1981 में मलेरिया के इलाज के लिए विकसित किया गया था. कोविड-19 की शुरुआत के बाद आयुष मंत्रालय ने इसे इस महामारी उपचार के लिए फिर से तैयार किया. यह असामान्य नहीं था: मलेरिया की दवा हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन (एचसीक्यू) का उपयोग भी इसी तरह से कोविड​-19 के उपचार के लिए किया गया था.

एचसीक्यू के विपरीत, मलेरिया के उपचार में आयुष-64 की क्षमता कभी भी निर्णायक रूप से सिद्ध नहीं हुई थी.

"वास्तव में, एक रैंडम परीक्षण में, एचसीक्यू की तुलना में इसकी सफलता दर 50 फीसदी से कम पाई गई थी," स्वीडन की न्यूरोसाइंटिस्ट डॉ सुमैया शेख ने बताया. डॉ शेख ने सार्वजनिक स्वास्थ्य में छद्म-विज्ञान के प्रभावों का व्यापक अध्ययन किया है, विशेष रूप से इस महामारी के दौरान.

डॉ शेख ने भारत में कोविड-19 रोगियों पर आयुष-64 के प्रभाव का अध्ययन करने वाले हर नैदानिक ​​परीक्षण को देखा. उन्होंने पाया कि इन सभी परीक्षणों में कोविड-19 की बेहद सतही समझ परिलक्षित होती है.

डॉ शेख कहती हैं, "हम जानते हैं कि लक्षण न होने की स्थिति में या हल्के और मध्यम संक्रमणों में अधिकतर कोविड-19 खुद ही ठीक हो जाता है. ऐसे रोगियों को दर्द और बुखार के अलावा किसी इलाज की या अस्पताल में भर्ती करने की आवश्यकता नहीं होती है. आयुष-64 के परीक्षण केवल हल्के और मध्यम लक्षणों वाले मरीजों पर किए गए. इनमें से किसी भी परीक्षण ने मृत्यु दर में कमी अथवा रोग की गंभीरता या लक्षणों में कमी नहीं दिखाई. उन्होंने उन रोगियों को चुना जो निश्चित रूप से खुद ही ठीक हो जाते.”

अक्टूबर 2021 में 'इंटरनेशनल क्वार्टरली जर्नल ऑफ रिसर्च इन आयुर्वेद' में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि इस दवा ने कोविड-19 रोगियों में कोई उल्लेखनीय अंतर नहीं दिखाया. केवल संक्रमण के चिन्हों में सुधार हुआ. यह कहीं से भी 'सफलता' नहीं है.

इसके बावजूद, आयुष-64 आयुष मंत्रालय द्वारा निर्धारित उपचार प्रोटोकॉल का हिस्सा बना हुआ है. 2021 में जब महामारी की दूसरी लहर अपने चरम पर थी, मंत्रालय ने घोषणा की थी कि वह इसे देशभर में वितरित करेगा क्योंकि इसकी प्रभावशीलता 'मजबूत बहु-केंद्रिक नैदानिक ​​​​परीक्षणों' के माध्यम से सिद्ध हो चुकी है.

आर्सेनिकम एल्बम 30C

महामारी के दौरान आयुष होम्योपैथिक विभाग का सहारा थी आर्सेनिकम एल्बम 30C.

भारत में पहले कोविड-19 मामले का पता चलने के कुछ दिनों बाद, सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन होम्योपैथी ने इसे रोगनिरोधी और 'प्रतिरोधक क्षमता बूस्टर' बताते हुए इसके प्रयोग की सलाह दी. जिससे इसकी लोकप्रियता बढ़ी. देश भर के राजनेताओं और व्यापारियों ने 'हाई रिस्क' निवासियों के बीच यह गोलियां बांटना शुरू कर दिया. उस समय अपने रिपोर्टिंग के दौरान मैंने पाया कि कई लोग ऐसी गोलियों का सेवन करने के बाद सुरक्षित होने की झूठी भावना से आश्वस्त थे.

मई तक भोपाल स्थित सरकारी होम्योपैथिक मेडिकल कॉलेज और अस्पताल जैसी होम्योपैथिक सुविधाओं के डॉक्टर दावा कर रहे थे कि यह दवा मरीजों को 'ठीक' भी कर सकती हैं. (कुल छह मरीजों के ठीक होने के आधार पर यह दावा किया गया था.)

दो साल बाद भी इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि यह दवा कारगर थी. यहां तक ​​कि आयुष डोजियर में भी इससे संबंधी नैदानिक ​​परीक्षणों का कोई प्रकाशित अध्ययन नहीं है. मुंबई के निवासियों के बीच छह होम्योपैथिक गोलियों की क्षमता की जांच करने वाले एक स्वतंत्र अध्ययन में पाया गया कि आर्सेनिकम एल्बम 30C का कोई सिद्ध प्रभाव नहीं दिखा. लेकिन डोजियर में इसका कोई जिक्र नहीं है.

इसके बावजूद आयुष मंत्रालय ने इसे अपने उपचार प्रोटोकॉल का हिस्सा बनाया हुआ है.

जरूरी है सावधान रहना

भारत में आयुष दवाएं व्यापक रूप से अपनाई जाती हैं. इसका एक कारण है कि लोग मानते हैं इनका कोई दुष्प्रभाव नहीं होता. वैज्ञानिकों का कहना है कि होम्योपैथी के बारे में ऐसा जरूर कहा जा सकता है क्योंकि यह काम ही नहीं करती है. लेकिन आयुर्वेद जैसी अन्य प्रणालियों पर ऐसा विश्वास करना खतरनाक है. महामारी के दौरान आयुर्वेदिक 'प्रतिरोध क्षमता बढ़ाने' वाली दवाओं के उपयोग में वृद्धि से कई लोगों का लिवर खराब होने के मामले सामने आए हैं.

लिवर विशेषज्ञ डॉक्टर फिलिप्स ने ऐसा होते देखा है. पिछले कुछ वर्षों से वह आयुष दवाओं का अध्ययन कर रहे हैं और जनता को उनके दुरूपयोग और गलत सूचना के बारे में जागरूक कर रहे हैं.

जब आयुष मंत्रालय ने इस साल की शुरुआत में अपना डोजियर जारी किया, तो उन्होंने इसे बेहद बारीकी से देखा. इतने गहन विश्लेषण की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि त्रुटियां बिल्कुल सामने स्पष्ट थीं.

वे कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि इन लोगों को शोध प्रक्रिया की जानकारी है. वह सैंपल साइज की गणना और मजबूत कार्यप्रणाली का पालन करने के बारे में कुछ नहीं जानते हैं. अधिकांश पेपर उचित 'उद्देश्य' और 'लक्ष्य' नहीं बताते हैं. 80 फीसदी से अधिक अध्ययन पूर्वव्यापी रूप से किए गए हैं. अन्य 15-20 फीसदी प्रतिभागियों की अनुपस्थिति में कम्प्यूटेशनल विश्लेषण के माध्यम से किए गए हैं. आयुष के अधिकांश प्रकाशन पैसे लेकर लेख छापने वाली पत्रिकाओं की श्रेणी में आते हैं. वह (आयुष शोधकर्ता) नीचे केवल सकारात्मक टिप्पणी करते हैं और उनका प्रचार करते हैं."

जनवरी 2022 में उन्होंने डॉक्टरों के एक समूह के साथ केंद्रीय होम्योपैथी अनुसंधान परिषद के खिलाफ होम्यो दवाओं के संभावित नुकसान और क्षमता के संबंध में लोगों को गुमराह करने के लिए मामला दर्ज किया. पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में केंद्र को नोटिस जारी किया था.

डॉ फिलिप्स कहते हैं, "आयुष मंत्रालय के नैदानिक परीक्षण में बड़े पैमाने पर आंकड़ों का हेर-फेर हुआ है. ऐसा आधुनिक चिकित्सा में भी होता है. लेकिन वैकल्पिक चिकित्सा के प्रकाशनों के साथ समस्या यह है कि इनमें से कोई भी पत्रिका मुख्यधारा में नहीं है और उन्हें उस तरह की समीक्षा से नहीं गुजरना पड़ता, जैसी होनी चाहिए. यदि ऐसा हुआ तो 90 फीसदी से अधिक वैकल्पिक चिकित्सा अध्ययन वापस ले लिए जाएंगे."

आयुर्वेद के प्रोफेसर पटवर्धन भी ऐसा संदेह प्रकट करते हैं. लेकिन साथ ही वह कहते हैं कि डबल-ब्लाइंड, यादृच्छिक परीक्षणों वाला आधुनिक चिकित्सा का प्रोटोकॉल हमेशा आयुष प्रणालियों पर लागू नहीं हो सकता है. आयुष प्रणालियों के अंतर्गत ऐसा नहीं होता कि कोई एक दवा सबके लिए कारगर हो. इनका एक समग्र दृष्टिकोण है और यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए भिन्न होता है जो उनके आहार, शारीरिक संरचना और जीवन शैली पर निर्भर होता है.

वह कहते हैं, "एक बहु-केंद्रिक डिजाइन में ऐसा करने के लिए एक बड़े सैंपल साइज और दीर्घकालिक फॉलो-आप की आवश्यकता होगी." आयुष डोजियर में उल्लिखित कोई भी अध्ययन ऐसा नहीं करता है.

नैदानिक ​​परीक्षणों का एजेंडा अक्सर तय होता है. आधुनिक चिकित्सा इससे अलग नहीं है. फार्मास्युटिकल कंपनियां अपनी दवाओं को बाजार में लाना चाहती हैं और उन्हें प्रभावी बताने के लिए नैदानिक ​​​​साक्ष्य की आवश्यकता होती है. इसलिए वह परीक्षणों इस तरह से डिजाइन करते हैं कि परिणाम अनुकूल हो.

"आधुनिक चिकित्सकों के बीच एक धारणा है कि इस तरह के लगभग तीन-चौथाई परीक्षण बेकार हैं," डॉ जम्मी एन राव कहते हैं. "लेकिन ऐसा लगता है कि आयुष मंत्रालय ने जंक ट्रायल को ही एक विशेषज्ञता बना दिया है."

यह स्पष्ट करने के लिए कि परीक्षण वास्तव में कैसे किया जाता है, डॉ राव ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के महामारी विज्ञानी डॉ मार्टिन लैंड्रे का उदाहरण देते हैं. लैंड्रे कोविड-19 दवाओं की एक परीक्षण-श्रृंखला में सह-अन्वेषक थे. यह उनके परीक्षणों से ही पता चला कि एचसीक्यू, लोपिनवीर / रटनवीर, एज़िथ्रोमाइसिन और कॉन्वॉलसेंट प्लाज्मा जैसी दवाएं कोविड-19 उपचार में बिल्कुल प्रभावी नहीं हैं. पिछले साल, उन्हें उनके प्रयासों के लिए नाइटहुड मिला था.

डॉ राव कहते हैं, "डॉ लैंड्रे का सैंपल साइज 5,000-6,000 के बीच था. उन्हें डेक्सामेथासोन में कोविड-19 की पहली जीवन रक्षक दवा मिली. उनके अन्य परीक्षणों में पाया गया कि कुछ दवाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ा, और अन्य का कम प्रभाव पड़ा. लेकिन आयुष परीक्षणों में लगभग सभी को सकारात्मक परिणाम मिले हैं. यह बहुत कुछ बताता है."

शायद इसका कारण है कि यह परिणाम पूर्व निर्धारित थे. डॉ हर्षवर्धन ने मई 2020 में खुद यह कहा था, "इसके माध्यम से हम आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों से (कोविड-19 से जूझने में) आयुर्वेद की श्रेष्ठता और उत्कृष्टता साबित करेंगे." लेकिन साक्ष्य-आधारित दवाएं ऐसे काम नहीं करतीं.

डॉ राव कहते हैं, "आपको शुरुआत संदेह से करनी होती है. आप कहते हैं, मुझे किसी सिद्धांत को मान्य या अमान्य करने के लिए डेटा एकत्र करना होगा. आपको इस बात की परवाह करने की जरूरत नहीं है कि परिणाम क्या है, यदि आप इसे मजबूती से साबित कर सकते हैं. आयुष के मामले में वह सिद्ध करना चाहते थे कि यह पद्धति प्रभावी है. यह तरीका गलत है."

परीक्षणों की लागत

  • आयुष मंत्रालय ने कोविड-19 नैदानिक ​​​​परीक्षणों पर हुए अनुमानित खर्च का विवरण देने के अनुरोधों का जवाब नहीं दिया.

  • रिपोर्ट के प्रारंभ में वर्णित 46 करोड़ रुपए की संख्या की गणना निम्नलिखित के आधार पर की गई है:

  • सिद्ध चिकित्सा के महानिदेशक, के कंकवल्ली ने द मॉर्निंग कॉन्टेक्स्ट को फोन पर बताया कि आयुष मंत्रालय ने 'तीनों कोविड-19 लहरों' में सिद्ध में नैदानिक ​​​​परीक्षणों के लिए दो करोड़ रुपए से अधिक की मंजूरी दी थी.

  • इस लेखक द्वारा दायर एक आरटीआई आवेदन के जवाब में, केंद्रीय आयुर्वेदिक विज्ञान अनुसंधान परिषद ने कहा कि उन्होंने कोविड-19 अध्ययन के लिए 37.74 करोड़ रुपए से अधिक की मंजूरी दी थी. सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन होम्योपैथी ने इसी आवेदन का जवाब देने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि 'पूछताछ वाले प्रश्न, जैसे, 'कैसे, क्यों, कब' आरटीआई अधिनियम के तहत नहीं आते हैं'.

  • स्वास्थ्य पर संसदीय स्थायी समिति की 2020 की एक रिपोर्ट कहती है कि स्वास्थ्य मंत्रालय ने कोविड-19 पर विभिन्न शोध गतिविधियों के लिए 'प्रत्येक अनुसंधान परिषद और राष्ट्रीय संस्थान' को 50 लाख रुपए आवंटित किए. रिपोर्ट में ऐसे 59 संस्थानों की सूची है, जिनमें से 13 होम्योपैथी और यूनानी अध्ययन के लिए हैं. रिपोर्ट के अनुसार इनके लिए स्वीकृत राशि 6.5 करोड़ रुपए होगी.


इस प्रकार, सिद्ध परीक्षणों के लिए कुल दो करोड़ रुपए, आयुर्वेद के लिए 37.74 करोड़ रुपए और होम्योपैथी और यूनानी के लिए 6.5 करोड़ रुपए के आवंटन को जोड़कर कुल लागत 46.24 करोड़ रुपए आती है.

(यह रिपोर्ट मूल रूप से अंग्रेजी में द मॉर्निंग कॉन्टेक्स्ट पर प्रकाशित हुई है)

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