संयुक्त राष्ट्र की संस्था इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की हालिया रिपोर्ट मुताबिक कृषि, वानिकी और अन्य भूमि उपयोग (एएफओएलयू) क्षेत्र का कुल ग्रीनहाउस गैस में 13-21% योगदान है. 2010 और 2019 के बीच उत्सर्जन, “नीति निर्माताओं और निवेशकों से लेकर जमीन के मालिक और प्रबंधकों तक, सभी हितधारकों द्वारा संयुक्त, तीव्र और निरंतर प्रयास” द्वारा ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए काफी अवसर प्रदान करता है.
आईपीसीसी के अनुसार, एएफओएलयू 2050 तक 1.5 या 2 डिग्री सेल्सियस तक वैश्विक तापमान रोकने में 20% से 30% का योगदान कर सकता है. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) संस्थानों के वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन की रफ्तार कम करने की क्षमता परखने के लिए कर्नाटक, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और बिहार में गांवों की समीक्षा की. यहां के गावों में आईसीएआर के नेशनल इनोवेशन इन क्लाइमेट रेजिलिएंट एग्रीकल्चर (एनआईसीआरए) परियोजना के तहत काम किया गया था.
कार्बन सकारात्मक, नेट जोरी, कार्बन स्मार्ट गांव भारत के लिए नए शब्द हैं. कार्बन सकारात्मकता या तटस्थता के उदाहरणों में जम्मू-कश्मीर का पाली विलेज, केरल का मीनांगडी, मणिपुर का फायेंग और कर्नाटक के दुर्गादा नागनहल्ली गांव का जिक्र किया जाता है. इसके अलावा मध्य प्रदेश, बिहार, झारखंड, तमिलनाडु में राज्य सरकारों ने 2018 और 2019 में कुछ-कुछ गांवों में जलवायु स्मार्ट गांव के संबंध में पायलट प्रोजेक्ट शुरू किए थे.
जलवायु अनुकूलन और स्थानीय लोग सबसे महत्वपूर्ण
भूमि आधारित क्लाइमेंट मिटिगेशन की विशेषज्ञ इंदु मूर्ति के मुताबिक पंचायत के स्तर से देखें तो उत्सर्जन कम करके कार्बन सिंक करने के मुद्दे पर ज्यादा चर्चा का कोई मतलब नहीं रह जाता है क्योंकि एक तो वहां उत्सर्जन कम है दूसरा वहां ये काम बहुत छोटे स्तर पर होगा. तो पेड़ लगाताकर और एग्रो फॉरेस्ट्री (कृषि वानिकी) के जरिए कर सकते हैं.
उन्होंने हमसे कहा, “यहां (गांव स्तर पर) पर जलवायु शमन से ज्यादा अहम जलवायु अनुकूलन है. अगर वो जलवायु के अनुकूल बीज और तकनीकी की बात करते हैं, जो सूखे, बाढ़ का सामना कर सकें. बाढ़ प्रबंधन के उपाय पर काम करते हैं तो ये अच्छी बात हैं क्योंकि सिर्फ जलवायु शमन से फायदा नहीं है.”
दूसरे राज्यों में चल रहे ऐसे प्रयोगों और पायलट प्रोजेक्ट के बारे में पूछने पर इंदू मूर्ति कहती हैं, “मैं केरल की मीनांगडी पंयाचत गई हूं. वहां कार्बन न्यूट्रल बनाने के लिए कचरे के प्रबंधन और वनीकरण पर अच्छा काम हुआ है और हो रहा है. जैसा यूपी का प्लान है वैसा कुछ तमिलनाडु और केरल में भी चल रहा है. अरुणाचल प्रदेश में भी क्लाइमेंट अनुकूल पर चर्चा सुनाई दी, लेकिन जमीन पर कहीं कुछ वैसा नजर नहीं आया है.“
स्थानीय लोगों के महत्व को समझाते हुए पर्यावरण और जलवायु पर शोध का काम करने वाली संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट में प्रोगाम मैनेजर (जलवायु परिवर्तन) अवंतिका गोस्वामी हमसे बताती हैं, “जलवायु परिवर्तन को देखते हुए ऐसे सारे उपाय जरुरी हैं. ग्राम पंचायत स्तर पर प्रयास हो रहे हैं, ये अच्छी बात है. हालांकि इस दौरान हमें ध्यान रखना होगा जो कुछ प्रयास हों वो स्थानीय लोगों की सहूलियत के हिसाब से हों, उनकी सेहत और आजीविका को ध्यान में रखकर हों. ऐसा न हो कि इस तरह के निर्माण किए जाएं, प्रोजेक्ट चलाए जाएं जिससे लोगों की आजीविका जाए या पलायन की नौबत आए.”
(साभार- MONGABAY हिंदी)