साल 2020 में भारत के कम से कम 4 राज्यों के जंगलों में आग की बड़ी घटनायें हुई. अब आग उस मौसम में भी लग रही है जिस दौरान पहले ऐसी घटनायें अमूमन नहीं होती थी.
क्या हैं आग के कारण?
जंगलों में लगने वाली आग अमूमन मानवजनित ही होती है और उसके पीछे मूल वजह इंसानी लापरवाही है. हालांकि जानकार बताते हैं कि भारत में हमारे विस्तृत घास के मैदानों (ग्रास लैंड) का न होना मानवजनित आग का कारण बनाता है. यूरोप और उत्तर एशिया में स्टीप, हंगरी में पुस्ता, संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रायरीज़, अर्जेंटीना में पम्पास, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में सवाना और न्यूज़ीलैंड में कैंटबरी प्रमुख ग्रासलैंड हैं लेकिन भारत में ग्रासलैंड राजस्थान के कुछ इलाकों या बहुत ऊंचाई में स्थित पहाड़ी बुग्लायों (अल्पाइन मीडो) के रूप में है.
मिश्रा बताते हैं, “हमारे देश में ग्रासलैंड्स का न होना या उसकी कमी पशुपालन के लिये वनों पर निर्भरता बढ़ाता है. गर्मियों में जब सब कुछ सूख जाता है तो चरवाहों द्वारा आग लगाकर नई ताज़ा घास उगाने की कोशिश होती है ताकि उनके पशुओं को चारा मिल सके. कई बार यह आग अनियंत्रित हो जाती है और यही जंगलों में आग के रूप में दिखता है लेकिन इसके लिये पशुपालन पर निर्भर इन लोगों की मजबूरी को भी समझना होगा.”
मिश्रा कहते हैं कि सभी आग जंगलों के लिये बुरी हैं इसका कोई सुबूत नहीं है लेकिन आग लगने की संख्या में बढ़ोतरी और सर्दियों में आग लगना ठीक नहीं है. उनके मुताबिक वानिकी में यह सिखाया जाता है कि ‘फायर इज़ ए गुड सर्वेंट बट बैड मास्टर’ यानी आग नियंत्रित हो तो जंगल को बेहतर बना सकती है लेकिन बिगड़ जाये तो उससे काफी नुकसान होता है.
जन-भागेदारी से मदद
सरकार खुद मानती है कि भारत में करीब 10 प्रतिशत वन क्षेत्र ऐसा है जो आग से बार-बार प्रभावित होता है. वन विभाग के पास पर्याप्त स्टाफ और संसाधनों की भी कमी है. तो क्या जंगल में और उसके आसपास रह रहे लोगों की भागेदारी से आग पर काबू नहीं किया जा सकता?
महत्वपूर्ण है कि वन विभाग के पास कानून के तहत यह अधिकार है कि वह जंगल में आग बुझाने के लिये सरकारी कर्मचारियों की ड्यूटी लगा सकता है और ग्रामीणों को इस काम में मदद के लिये बुला सकता है.
इंडियन फॉरेस्ट सर्विसेज़ के एक अधिकारी ने बताया, “भारतीय वन कानून की धारा 79 के तहत सरकारी अमले या ग्रामीणों को इस काम में लगाया जा सकता है और अगर वह सहयोग नहीं करते तो उनके खिलाफ सज़ा का भी प्रावधान है लेकिन जंगलों में प्रभावी रूप से आग को काबू पाने के लिये लोगों का रिश्ता वनों के साथ मज़बूत करने की ज़रूरत है.”
समय बीतने के साथ ईंधन के लिये जंगलों पर लोगों की निर्भरता घटी है और जंगलों से उनका जुड़ाव कम हुआ है लेकिन देश के कई हिस्सों में जंगल में रह रहे लोगों को उनके अधिकारों से बेदखल भी किया गया है. वन अधिकारों के लिये काम कर रहे और छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला कहते हैं कि बिना ग्रामीणों और वन में रह रहे लोगों की मदद के बिना जंगलों की आग बुझाई ही नहीं जा सकती.
शुक्ला कहते हैं, “यह बार-बार देखने में आया है कि जंगल के सारे काम चाहे वह वन-सम्पदा की सुरक्षा हो या फिर वनों में आग को लगने से रोकना या उसे बुझाना वह लोगों के सहयोग से ही सक्षम है. अभी पिछले हफ्ते ही छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य के पतूरिया, पूटा और साली में लोगों की भागेदारी से ही जंगलों की आग को बुझाया गया. समस्या यह है कि वन विभाग लोगों से यह अपेक्षा तो करता है कि वह आग लग जाने के बाद उनकी मदद करें लेकिन वनों का प्रबन्धन लोगों के हाथ में नहीं दिया जाता. समुदाय की भागेदारी से ही वनों को बचाया जा सकता है क्योंकि आग लगने का पता ग्रामीणों को ही लगता है और वही फॉरेस्ट डिपार्टमेंट को इसके बारे में बताते हैं.”
(साभार- कार्बन कॉपी)