सूची में सवर्ण नेताओं का प्रभुत्व है, जबकि सवर्ण मतदाता कांग्रेस से बहुत पहले दूर जा चुका है. दलित, पिछड़ा, अल्पसंख्यक और महिलाओं के लिए के लिए बस सांकेतिक प्रतिनिधित्व है.
पिछले साल हरियाणा की एक सीट पर हुए उपचुनाव में रणदीप सिंह सुरजेवाला ने अपनी जमानत तक गंवा दी थी. लेकिन उन्हें राजस्थान से राज्यसभा भेजा जा रहा है. इसी तरह राजस्थान से ही महाराष्ट्र के मुकुल वासनिक को राज्यसभा भेजा जा रहा है. वहीं महाराष्ट्र से भी कांग्रेस पार्टी को एक सीट मिल सकती है.
एक सवाल यह भी है कि आखिर सुरजेवाला और मुकुल वासनिक को उनके अपने राज्यों से क्यों नहीं राज्यसभा भेजा जा रहा है? इसका कारण शायद यह है कि अपने राज्यों में स्थानीय राज्य इकाई के ज्यादातर सदस्य इनका विरोध कर रहे हैं. अगर इस बात में सच्चाई है तो फिर कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों को नाराज करके इन नेताओं को इतना महत्व ही क्यों दिया जा रहा है? इसका जबाव यह है कि पार्टी हाई कमान मतलब गांधी परिवार हर हाल में अपने करीबी लोगों को सदन में रखना चाहता है.
पार्टी के भीतर जी-23 नामक बगावती समूह जिसने पार्टी के लोकतांत्रिकरण की बात की थी, उनमें से गुलाम नबी आजाद और आनंद शर्मा को टिकट नहीं दिया गया है. ऐसा भी नहीं है कि जिन 23 नेताओं ने खुलेआम चिठ्ठी लिखी थी उनमें से किसी को टिकट नहीं दिया गया. मुकुल वासनिक और विवेक तन्खा टिकट पाने में सफल रहे.
जब उदयपुर के चिंतन शिविर में राहुल गांधी ने क्षेत्रीय दलों को बिना विचारधारा की जातिवादी ताकत कहकर खारिज किया तब उनकी पार्टी अतीत से कुछ सबक क्यों नहीं ले रही है. दलितों-पिछड़ों के बीच कांग्रेस से ज्यादा प्रतिनिधित्व आज भाजपा दे रही है. कांग्रेस पार्टी सवर्णों की फौज राजसभा में भेजकर शायद ही कुछ हासिल कर पाए. कायदे से चिंतन शिविर की घोषणाओं के मुताबिक पिछड़े व दलित वर्गों के नेताओं को राज्यसभा में भेजना चाहिए था. उत्तर प्रदेश से ही तीन व्यक्तियों को राज्यसभा भेजना था तो अजय कुमार लल्लू एक बेहतर विकल्प हो सकते थे. जिन्होंने अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में पूरे राज्य में पार्टी को चर्चा में ला दिया था.
उदयपुर के चिंतन शिविर में मल्लिकार्जुन खड़गे ने अपनी राजनीतिक रिपोर्ट में इस बात को दुहराया भी था कि “संवैधानिक अधिकारों पर आक्रमण का पहला आघात देश के दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं व गरीबों को पहुंचा है” लेकिन दो हफ्ते के भीतर ही कांग्रेस पार्टी अपने पुराने ढर्रे पर लौटती दिख रही है.
कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को लगता है कि सवर्ण ही उसे फिर से सत्ता में वापस ला सकते हैं, जबकि हकीकत यह है कि जाति के सवाल से कांग्रेस हमेशा मुंह छुपाती रही है. पिछड़ी जातियों के उत्थान के लिए बनी काका कालेलकर आयोग की रिपोर्ट के खिलाफ पंडित नेहरू खुद खड़े हो गए जिसका गठन उन्होंने ही किया था, मंडल कमीशन की रिपोर्ट को श्रीमती इंदिरा गांधी दबाकर बैठी रहीं और जब उसे वीपी सिंह ने लागू किया तो भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस पार्टी भी उसके खिलाफ हो गई.
कांग्रेस पार्टी अपने नजरिए और सोच में हमेशा से सवर्णवादी ही रहा है. यह तब से है जब उसका पूरब से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक राज था. तब के 22 राज्यों में से 13-14 राज्यों के मुख्यमंत्री सवर्ण ही होते थे और एक समय तो 11 राज्यों के मुख्यमंत्री सिर्फ ब्राह्मण थे. इसमें पूर्वोत्तर के 7 राज्य शामिल नहीं थे.
उदयपुर के चिंतन शिविर में कांग्रेस पार्टी ने अपनी आर्थिक योजना के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें कही थीं. पार्टी ने अपने आर्थिक दस्तावेज में कहा था, “उदारीकरण के 30 वर्षों के बाद तथा घरेलू व वैश्विक परिस्थितियों का संज्ञान लेते हुए स्वाभाविक तौर से आर्थिक नीति में बदलाव की आवश्यकता है. कांग्रेस अगर नई आर्थिक नीति में बदलाव की बात कर रही है तो यह बहुत ही सकारात्मक बात है क्योंकि देश की बदहाली में इस आर्थिक नीति की बहुत ही नकारात्मक भूमिका रही है." लेकिन इसमें सबसे मार्के की बात यह है कि कांग्रेस पार्टी ने इस बात को उन पी चिदंबरम के मुंह से कहलवाया है जो नई आर्थिक नीति की तिकड़ी मनमोहन सिंह व मोंटेक सिंह अहलूवालिया का अहम हिस्सा रहे हैं. फिर उन्हीं पी चिदबंरम को राज्यसभा में किस आधार पर भेजा जा रहा है?
कांग्रेस पार्टी को वैसे लोगों को राज्यसभा में भेजना चाहिए था जिनमें लड़ने का माद्दा हो, जो संसद और संसद के बाहर सरकार के झूठ व फरेब का पोल खोल सकें, लेकिन इन 10 नामों में इमरान प्रतापगढ़ी को छोड़कर एक भी नाम ऐसा नहीं मिलेगा जिन्होंने पिछले आठ वर्षों में आम जनता के बीच जाकर उनसे संवाद स्थापित किया हो. आखिर कांग्रेस उन्हीं सवर्णों व सुविधाभोगी नेताओं के भरोसे लगातार सत्ता वापसी की कोशिश क्यों कर रही है जो उनसे बहुत पहले दूर हो चुका है.